पुरुषों की राजनीति का मोहरा बनीं महिलाएं

जगमोहन रौतेला

संसद में भले ही महिलाओं को लोकसभा और विधानसभा में 33 प्रतिशत आरक्षण देने का विधेयक पिछले चार दशकों से भी ज्यादा समय से लटका पड़ा हो, लेकिन उत्तराखण्ड में पिछले त्रिस्तरीय पंचायतों (ग्राम सभा, क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत) में 50 प्रतिशत आरक्षण महिलाओं को मिला हुआ है। स्थानीय निकायों में यह आरक्षण 33 प्रतिशत है। यहाँ भी महिला आरक्षण 50 प्रतिशत किए जाने का मामला न्यायालय में चल रहा है।

महिलाओं को राजनैतिक तौर पर आरक्षण देने की माँग या देने के पीछे विचार यह है कि महिलाएँ सामाजिक रूप से भी आत्मनिर्भर बन सकें और उनमें राजनैतिक चेतना बढ़े ताकि देश और राज्यों में विधायी कार्यों में भी उनका दखल हो सके। सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्र में इस आरक्षण के माध्यम से महिलाओं में नेतृत्व पैदा करना भी इसका एक मुख्य उद्देश्य  है ताकि आधी आबादी को भी उचित और सम्मानजनक स्थान मिल सके। उत्तराखण्ड के स्तर पर देखें तो त्रिस्तरीय पंचायतों और निकायों में आरक्षण मिलने के बाद भी नेतृत्व  के स्तर पर महिलाओं की स्थिति चिंताजनक ही दिखाई देती है। आरक्षण के माध्यम से ग्राम प्रधान, क्षेत्र प्रधान, क्षेत्र पंचायत सदस्य, ब्लॉक प्रमुख, जिला पंचायत सदस्य, जिला पंचायत अध्यक्ष, नगर निकायों में सदस्य, पार्षद, अध्यक्ष व मेयर बनने के बाद भी सामाजिक व राजनैतिक स्तर पर जो नेतृत्व पैदा होना चाहिए था, वह नहीं हो पा रहा है। पंचायतों व निकायों में अपना पाँच साल का कार्यकाल समाप्त हो जाने के बाद ये महिला जनप्रतिनिधि कहीं खो-सी जाती हैं। अपवाद स्वरूप दो-चार नाम ही बाद तक अपनी सामाजिक व राजनैतिक सक्रियता बरकरार रखते हुए अपना एक मुकाम बनाए रखती हैं।

आरक्षण के आधार पर जनप्रतिनिधि बनने वाली महिलाओं की पारिवारिक पृष्ठभूमि देखें तो उनमें से दो-चार को छोड़कर अधिकतर ऐसे परिवारों से होती हैं, जहाँ के पुरुष राजनैतिक तौर पर बेहद सक्रिय होते हैं और किसी न किसी राजनैतिक दल से जुड़े होते हैं। इसके अलावा इन पुरुषों की एक और पहचान होती है, वह है कि ये लोग पूर्व प्रधान, पूर्व क्षेत्र पंचायत सदस्य, पूर्व प्रमुख, पूर्व जिला पंचायत सदस्य, पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष, पूर्व नगरपालिका अध्यक्ष, पूर्व मेयर, पूर्व विधायक, पूर्व सांसद और पूर्व मंत्री होते हैं। ग्राम प्रधान, क्षेत्र पंचायत प्रमुख, जिला पंचायत अध्यक्ष, नगर निकाय के अध्यक्ष का पद महिलाओं के लिए आरक्षित होने के कारण इन पदों पर कब्जा करने के लिए अपनी पत्नी, बहू, भाई की पत्नी, बहन आदि को चुनाव लड़वाते हैं। महिला आरक्षण के कारण पुरुष, परिवार की महिलाओं को चुनाव में खड़ा तो कर देते हैं, पर लगाम पूरी तरह से पुरुषों के हाथों में ही होता है। चुनाव में खड़ी ये महिलाएं अपनी ओर से कोई भी निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र नहीं होती हैं। चुनाव प्रचार भी उम्मीदवार महिला के नाम से नहीं बल्कि परिवार के पुरुषों के नाम पर किया जाता है। चुनाव प्रसार की जो भी सामग्री छापी जाती है, उसमें महिला उम्मीदवार के साथ परिवार के पुरुष सदस्य (पति, भाई, ससुर, जेठ आदि) का फोटो जरूर होता है। चुनाव जीतने के बाद शुर्भंचतकों से बधाइयाँ भी पुरुष ही लेते हैं।

महिला आरक्षण के कारण मजबूरी में अपने परिवार की महिलाओं को चुनाव लड़वाने वाले ये पुरुष यह तक नहीं कहते कि वे परिवार की फलाँ महिला को चुनाव लड़वा रहे हैं। ये लोग अपने ही चुनाव लड़ने की बात करते हैं। पिछले दिनों सम्पन्न हुए त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में एक पार्टी के स्थानीय स्तर के बड़े नेता ने जिला पंचायत सदस्य का चुनाव लड़ने की बात कही। जब मैंने उनसे कहा कि यह सीट तो महिला के लिए आरक्षित है, आप कैसे चुनाव लड़ेंगे? तो वह थोड़ा झेपते हुए बोले, ”हाँ, मेरा मतलब है अपनी पत्नी को लड़ा रहा हूँ।” अब मैं लड़ रहा हूँ या अपनी पत्नी को लड़ा रहा हूँ, में कोई अंतर नहीं है क्या? मेरी पत्नी, बहू या बेटी चुनाव लड़ रही है तो कोई कहता ही नहीं है। शायद पुरुषों के मन में एक डर अपनी राजनैतिक सत्ता के खो जाने का होता है। इसी कारण ‘चुनाव लड़ रही है’ का राजनैतिक अधिकार भी वे उन्हें चुनाव मैदान में उतरने के बाद भी नहीं देना चाहते हैं। ‘लड़ रहा हूँ’ वाक्य का प्रयोग कर वे अपनी राजनैतिक सत्ता को बरकरार रखने का दम्भ पाले रखना चाहते हैं। एक सामान्य महिला जिसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि राजनैतिक नहीं है, आरक्षण मिलने के बाद भी चुनाव लड़ने के बारे में सोच नहीं पाती है। कुछ महिलाएं अपवाद हो सकती हैं।
Women became pawns of men’s politics

एक अध्ययन के अनुसार, मात्र 15 प्रतिशत महिला जनप्रतिनिधि ही पूरी तरह से स्वतंत्र होकर अपने दायित्वों का निर्वाह करती हैं। शेष 85 प्रतिशत महिला प्रतिनिधियों का दायित्व पूरी तरह से पिता, पति, भाई, देवर, जेठ व ससुर के हाथों में होता है। ऐसी महिला प्रतिनिधियों का केवल एक ही कार्य होता है, परिवार के पुरुषों के कहने पर कागजों पर हस्ताक्षर करना। कई मामलों में तो स्थिति इससे भी ज्यादा गम्भीर होती है, कई महिला जनप्रतिनिधि तो अपने हस्ताक्षर तक नहीं करतीं। परिवार के पुरुष ही उनके स्थान पर हस्ताक्षर करते और मोहर लगाते हैं। ऐसे मामलों में प्रशासन की भूमिका भी पूरी तरह से संदिग्ध रहती है। त्रिस्तरीय पंचायतों से जुड़े सभी अधिकारियों और कर्मचारियों को इस बारे में जानकारी रहती है। इसके बाद भी राजनैतिक चार सौ बीसी के इस खेल को उनकी पूरी मौन स्वीकृति रहती है। दरअसल तथाकथित विकास योजनओं के ऑकड़ों और बजट के खेल में ये ‘नई-नवेली’ महिला जनप्रतिनिधि सरकारी कर्मचारियों को रोड़ा भी लगती हैं। इसी कारण उनके स्थान पर परिवार के पुरुषों के साथ कागजों के पेट भरना उनके लिए ज्यादा सुविधाजनक होता है।

प्रशासनिक कर्मचारियों की मिलीभगत के कारण ही ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत व जिला पंचायत की बैठकों में अनेक महिला प्रतिनिधियों के स्थान पर परिवार के पुरुष सदस्य ही भागीदारी करते हैं। इसी कारण जब से त्रिस्तरीय पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण मिला है, तब से कुछ नए और अटपटे प्रधान पति और प्रमुख पति जैसे शब्द प्रचलन में बड़ी बेशर्मी के साथ हैं। मीडिया तक धड़ल्ले के साथ ऐसे शब्दों का प्रयोग कर रहा है। इस सब को प्रशासन के उच्चाधिकारी भी आँख मूंद कर अपनी स्वीकृति देते हैं। पुरुष प्रधान पति और प्रमुख पति जैसे शब्दों, विशेषणों को अपने से पहले लगाकर महिलाओं के राजनैतिक अधिकारों और उसके स्वतंत्र अस्तित्व पर जबरन कब्जा कर रहे हैं। ग्राम पंचायतों व क्षेत्र पंचायतों में तो कई बार महिला प्रधान व प्रमुख पति उनके स्थान पर बैठकों की अध्यक्षता करते हैं। हरिद्वार जिले के बहादराबाद क्षेत्र पंचायत की बैठक में एक बार थोड़ा अलग किस्म के जिलाधिकारी ने जब महिला प्रतिनिधियों के पतियों से बैठक से बाहर जाने को कहा तो क्षेत्र पंचायत का सभागार आधा खाली हो गया। यहाँ तक कि प्रमुख की कुर्सी तक खाली हो गई क्योंकि प्रमुख उस समय बैठक में नहीं बल्कि अपने घर पर थी।

उत्तराखण्ड के 13 में से 12 जिलों (हरिद्वार जिले में 2012 में ही पंचायत चुनाव हो चुके हैं) में गत 5 अगस्त 2014 को हुए जिला पंचायत अध्यक्षों के ही चुनाव पर नजर डालें तो जिन महिलाओं ने जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव लड़ा उनमें देहरादून में भाजपा की ओर से चुनाव लड़ी मधु चौहान पूर्व विधायक मुन्ना सिंह चौहान की पत्नी हैं। पौड़ी में जिला पंचायत अध्यक्ष निर्वाचित हुई दीप्ति रावत प्रदेश के कृषि मंत्री डॉ. हरर्क ंसह रावत की पत्नी हैं। भाजपा की ओर से चुनाव लड़ी हिमानी नेगी निवर्तमान जिला पंचायत अध्यक्ष केशर्र ंसह नेगी की पत्नी हैं। रुद्रप्रयाग में जिला पंचायत अध्यक्ष बनी लक्ष्मी राणा को कृषि मंत्री डॉ. हरर्क ंसह रावत का विश्वासपात्र माना जाता है। रावत के दबाव के कारण ही कांग्रेस ने उन्हें जिला पंचायत अध्यक्ष का प्रत्याशी बनाया। नैनीताल में भाजपा की ओर से प्रत्याशी रहीं और मात्र एक वोट से चुनाव हारी नीमा आर्य के पति हेम आर्य भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं। इस बार अनुसूचित जाति की महिला के लिए सीट आरक्षित होने से उन्होंने अपने राजनैतिक सम्बन्धों की बदौलत अपनी पत्नी को भाजपा का प्रत्याशी घोषित करवा दिया। अल्मोड़ा में कांग्रेस की ओर से चुनाव जीत कर जिला पंचायत अध्यक्ष बनीं पार्वती मेहरा के पति मोहन सिंह मेहरा भी जिला पंचायत के अध्यक्ष रह चुके हैं। अल्मोड़ा में संयुक्त मोर्चा की ओर से प्रत्याशी डॉ. माया नेगी के पति भी कांग्रेसी नेता हैं। चम्पावत में भाजपा की ओर से चुनाव लड़ीं सुषमा फत्र्याल लोहाघाट के विधायक पूरन फत्र्याल की पत्नी हैं।

राजनैतिक रूप से स्थापित पुरुष अपनी पत्नियों या परिवार की दूसरी महिलाओं को चुनाव लड़वाकर जितवा भी देते हैं, लेकिन उन्हें राजनैतिक विचारधारा के स्तर पर पतियों के कहने पर ही निर्णय लेने होते हैं। उदाहरण के तौर पर पूर्व विधायक मुन्ना सिंह चौहान की पत्नी मधु चौहान की ही बात करें तो उन्हें अपने पति की तरह ही दलबदल करने पड़े हैं। उनके पति ने उत्तराखण्ड जनवादी पार्टी बनाई तो वह उसमें थीं। फिर जब वह भाजपा में गए तो वह भी भाजपा में गई। मतलब यह कि पुरुष अपने हितों के लिए दल बदल करते हैं तो महिलाओं को भी वैसा ही करना पड़ता है। राजनैतिक निर्णय लेने का अधिकार भी उन्हें नहीं है। महिलाओं को जब तक इस राजनैतिक व पारिवारिक दबाव से मुक्ति नहीं मिलेगी, तब तक वे पुरुषों की राजनीति का मोहरा ही बनी रहेंगी। उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा?
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