स्त्री और हमारा समाज

अस्मिता पाठक

स्त्रियों के अधिकारों के सम्बन्ध में वर्षों के संघर्ष और सतत चले विमर्शों द्वारा जनता को जागरूक करने के लगातार प्रयत्नों के बावजूद भी भारतीय समाज विभिन्न प्रकार की रूढ़िवादी विचारधाराओं से ग्रस्त है। हम अपने तात्कालिक परिवेश की बारीकियों को जितना बेहतर समझने लगते हैं, उतनी ही यह छुपी हुई मानसिकता समाज के खोखलेपन को हर कदम पर सामने लाकर रख देती है। यह मनोवृत्ति पढ़े-लिखे, मध्यम-वर्ग में भी उतनी ही बहुतायत में है, जितना कि किसी कम पढ़े-लिखे गरीब घर में। संक्षेप में कहूँ तो यह मुझे पढ़े-लिखे अनपढ़ होने का एक खास उदाहरण मालूम पड़ता है। वर्तमान समय में पितृसत्ता की बेड़ियों की जकड़ हमारे मस्तिष्क के ऊपर इतनी मजबूत है कि वह हमारी ‘कंडिशनिंग’ में उतर आई है। पितृसत्ता द्वारा प्रचलित की गई जीवनपद्धति हमारे भीतर इतनी गहराई तक ढल चुकी है कि उसका वजूद उतना ही आम और प्राकृतिक लगता है, जितना कि एक स्त्री का असंशय के साथ सुबह उठते ही पुरुषों की हर आज्ञा का पालन करना।  

पैदा होते ही बच्चे को उसके लिंग के आधार पर व्यवहार करना और समाज में जीना सिखाया जाता है। एक ‘आम’लड़की को गुलाबी रंग, गुड़िया से खेलना इत्यादि पसंद होता है। समाज का पक्ष सामने रखें तो लड़कियाँ प्राकृतिक रूप से ऐसी ही होती हैं। इसी प्रकार कुछ विशेषताएं लड़कों से संबंधित होती हैं। यह परवरिश केवल बचपन पर नहीं ठहरती। उम्र बढ़ने के साथ-साथ लिंग के आधार पर संवेदनशीलता, आक्रामकता जैसी भावनाएं भी  निर्धारित कर दी जाती हैं। अपने जीवन के हर मोड़ पर हमें इन वास्तविकताओं के अनुसार स्वयं को अनुकूलित करने की सलाह दी जाती है, यदि हम समाज का भाग बने रहना चाहते हैं। अब आप प्रश्न उठाएंगे कि यह व्यवस्था कैसे गलत है? यह गलत इसलिए है कि एक ऐसी व्यवस्था हमारे असल प्राकृतिक व्यवहार की नैतिकता पर प्रश्न खड़े करती है और हमें लगातार ऐसी परिभाषाओं में फिट करने के प्रयत्न करती है जो एक पितृसत्तात्मक समाज की अंतर-व्यक्तिपरक वास्तविकताओं को बनाए रखने के लिए बेहतर हैं। कुछ मामूली से सवालों को पढ़कर शायद हम इन सब बातों को और समझ पाएं। यदि मैं एक लड़का हूँ और गृह-विज्ञान पढ़ने की चेष्टा करता हूँ, यदि मैं लंबे बाल रखता हूँ, दुखी या भाव-विभोर होने पर रोता हूँ, अपनी भावनाओं की खुलकर अभिव्यक्ति करता हूँ, यदि मेरा स्वभाव ‘कठोर’ न होकर ‘कोमल’ है, तो इस समाज में कितने ऐसे लोग हैं जो मेरी इच्छाओं को सामान्य समझेंगे? और नहीं समझेंगे तो क्या मुझे ‘सामान्य’ लड़के की प्रचलित परिभाषा में मजबूरन फिट करने का भरसक प्रयत्न करना मेरा उत्पीड़न नहीं है?

दूसरा, यह व्यवस्था ‘स्वभाव’ की दुहाई देते हुए औरतों को पुरुषों के अनुसार अपने रहन-सहन और इच्छाओं से समझौते करने को कहती है, जैसे घर से सम्बन्धित कार्य यानी साफ-सफाई, खाना पकाना इत्यादि को पुरुषों के ‘ऊंचे’ दर्जे और स्वभाव के लायक कार्य समझा ही नहीं जाता। यह सब कार्य औरतों के लायक माने जाते हैं। पितृसत्ता से विकसित हुई ये लिंग आधारित भूमिकाएं अक्सर पुरुषों को और उनके द्वारा निष्पादित किए गए कार्यों को ऊंचा दर्जा देती हैं। यही नहीं, वे जबरन महिलाओं को एक निचले स्तर पर लाकर खड़ा कर देती हैं। इस व्यवस्था की कृत्रिमता इतनी अदृश्य है कि हम समाज के अनुसार विकसित हो रहे अपने वजूद को एक स्वाभाविक प्रवृत्ति की तरह देखने लगते हैं। फलस्वरूप किसी का यह कहना कि वह लड़का है, वह बर्तन कैसे धोएगा या बच्चों को कैसे संभालेगा, यह दिखाता है कि यह धारणा हमारी प्रवृत्ति में कितनी गहराई तक धंस चुकी है। (यह धारणा एक हेट्रोसेक्सुअल परिवार को लेकर है। समलैंगिकता को एक पारिवारिक संस्थान की तरह देखने में हमारा समाज अभी भी कतराता है, इसमें कोई दो राय नहीं।) समाज अपने इन अधिनियमों से एक और समस्यात्मक धारणा को जन्म देता है- ‘सैक्सिज्म’।
women and our society

”तुम जो स्वयं को पूरी शानो-शौकत से सर उठाकर
समाज कहते हो,
मैं अपने भीतर की औरत और उसकी ख्वाहिशों को
इस व्यवस्था पर फैला दूँगी और खुद से प्रेम करूँगी,
तुम्हारे मस्तिष्क पर एक बेहिस माइग्रेन के वेग से चलते हुए।
फख्र करूँगी कि मैं टी.वी. पर दिखाई देने वाली किरदार नहीं बन पाई।”

‘सैक्सिज्म’ या लिंग-भेद का अर्थ है लिंग के आधार पर भेदभाव करना या अपमान करना। सैक्सिज्म जाने-अनजाने हमारे मस्तिष्क तक कई स्रोतों से पहुंचता है, जिन्हें हम अक्सर बिना सोचे-समझे इस्तेमाल करते हैं । जो हमें नहीं सिखाया जाता है, वह है इन स्रोतों के द्वारा मिल रही जानकारी का गंभीर विश्लेषण करना। प्रश्न करना कि यह सब कितना सही है। टेलीविजन पर आने वाले धारावाहिक इसके उदाहरण हैं। धारावाहिकों को अक्सर समाज के आईने के रूप में देखा जाता है, किंतु इनमें प्रचलित कथाएं लिंग के अनुसार हमें एक निश्चित पैटर्न में जीवन जीने का निर्देश देती हैं और यह अंदेशा देती हैं कि अगर सम्मान से जीवित रहने का कोई तरीका है तो वह ‘यही’ है। यहाँ केवल एक ही प्रकार का पुरुष, गुस्सैल, गुंडों से लड़ने वाला, घर की औरतों को बचाने वाला और एक ही प्रकार की स्त्री-आमतौर पर सौंदर्य मानकों पर खरी उतरने वाली, गृहकार्यों में कुशल, सब कुछ चुपचाप सहने वाली- होते हैं। इस स्त्री का समस्त जीवन एक ‘पतिव्रता’ की तरह गुजरता है और ऐसा होना उसे एक ‘अच्छी स्त्री’ बनाता है। यही नहीं, इन कार्यक्रमों में एक ‘खराब’ स्त्री भी होती है- वह जो अपनी सहमति-असहमति व्यक्त करे, शायद यूँ ही घूमने बाहर जाती हो कभी-कभी, शायद ‘पराए’पुरुषों से भी बात करती हो! अन्ततोगत्वा इस स्त्री का जीवन भी एक पुरुष के चारों ओर बीतता है- वह या तो उसे मार रही होती है या किसी से छीन रही होती है। इन कार्यक्रमों में अक्सर जीवन को एक ही सारांश दिया जाता है, प्रेम और फिर विवाह, जिसके अलावा कोई और विकल्प सही नहीं है। एक स्त्री होने के रूप में समाज हमें विकल्प नहीं देता, बल्कि जोर डालता है इस बात पर कि उसके मानदंडों के अनुरूप एक ‘अच्छी स्त्री’होना ही हमारा लक्ष्य है। यदि हम इस साँचे में फिट नहीं हो पा रहे तो हमें अपना प्रतिनिधित्व समाज में मिलना बहुत कठिन होता है। नतीजतन लोग लाख कोशिश करते हैं ‘लड़का’या ‘लड़की’बनने की। कामयाब न हो पाए तो कई प्रकार से मानसिक उत्पीड़न भी झेलते हैं, अपनी वास्तविक अस्मिताओं को छुपाते हुए। एक बहुत ही छोटा तबका ऐसा है, जो अपनी मर्जी से जी पाता है या अपने हक के लिए लड़कर जीत पाता है।

यह मानसिकता केवल यहीं नहीं खत्म होती। हमारी समस्त फिल्म इंडस्ट्री और बालीवुड के गानों पर गौर किया जाए तो आप समझ पाएंगे कि जिस संगीत पर वर्तमान पीढ़ी बेफिक्र होकर पार्टियों में नाचती है, वे स्त्री को एक वस्तु के रूप में प्रस्तुत करने के लिए सभी प्रकार के प्रयत्न करते हैं । इन गानों के बोलों में निरंतर एक स्त्री की यौनिकता को दर्शाया जाता है। तात्पर्य यह है कि उसे एक मनुष्य की तरह देखा ही नहीं जाता- वह केवल पुरुष को संतुष्ट करने के एक यंत्र के समान है। फलस्वरूप एक लड़की को ‘चीज’बुलाना या उसके चरित्र को शरीर तक सीमित कर देना भी सैक्सिज्म का एक रूप है। सुनने में भले ही अहिंसक लग रहा हो परंतु एक मानसिकता के रूप में इस सबके परिणाम गंभीर होते हैं। हम युवा पीढ़ी को एक मूक सहमति दे रहे हैं कि एक स्त्री को मात्र वस्तु समझना सही है, कि एक स्त्री का वजूद पुरुष के चारों ओर ही घूमता है। फिर यहाँ एक महत्वपूर्ण बात सहमति-असहमति को लेकर भी आती है। लड़कियाँ अक्सर यौन उत्पीड़न इत्यादि का शिकार क्यों होती हैं? क्योंकि हम ऐसे समाज में बड़े हो रहे हैं, जहाँ एक औरत के वजूद को निरंतर पुरुषों के चारों ओर सीमित कर दिया जाता है। पितृसत्ता द्वारा स्त्री को नियंत्रण में रखने के लिए स्थापित की गई इस व्यवस्था की खामियाँ इतनी अदृश्य हैं कि इसे केवल सही ही नहीं माना जाता, बल्कि प्राकृतिक भी समझा जाता है।  हम यह ऊंची आवाज में नहीं कहते, परंतु हम करवाचौथ मनाना सही समझते हैं। हम महिला सशक्तीकरण की बात करते हैं पर विवाह के अन्तर्गत बलात्कार (‘मैरिटल रेप’) और एक स्त्री का अपने शरीर को लेकर सहमति-असहमति व्यक्त करना भारतीय समाज में आवश्यक नहीं समझा जाता है। छेड़खानी या बलात्कार के केसों में पीड़िता को उसके रहन-सहन इत्यादि को लेकर दोषी ठहराया जाता है क्योंकि भारतीय समाज को चलाने वाली व्यवस्था बलात्कारी के लिए कड़ी से कड़ी सजा घोषित कर सकती है पर अपनी शिक्षा व्यवस्था में सुधार नहीं कर सकती। हम और हमें ‘शिक्षित’करने वाले स्कूल अभी भी लिंग संवेदीकरण को लेकर शांत हैं, हम माहवारी को लेकर बात नहीं करते, सैक्स से संबंधित महत्वपूर्ण बातों का जिक्र करना भी गलत समझते हैं। मैं जिस स्कूल में पढ़ती थी, वहाँ लड़कियों को स्कर्ट के नीचे शार्ट्स पहने का निर्देश दिया जाता था क्योंकि लड़के सीढ़ी चढ़ते वक्त नीचे देख लेंगे- सही और गलत हम लड़कों को सिखाना नहीं चाहते क्योंकि ‘मैन विल बी मैन’(आदमी, आदमी ही रहेंगे)। अत: हम पितृसत्तात्मकता को अनजाने में ही प्रोत्साहित करते हैं। 

महिला सशक्तीकरण केवल स्त्रियों और बेटियों को बचाने के प्रयत्न से नहीं होगा। इसके लिए आवश्यक है कि समाज के हर उस अंश पर गौर किया जाए जो औरतों का दमन करता है, चाहे वह कोई गाना हो या सिर्फ एक मजाक हो और युवा पीढ़ी को इन सब मुद्दों को लेकर शिक्षित किया जाना चाहिए।
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