महिलाएँ : खेती, खाद्य एवं पोषण सुरक्षा

ऋतु सोगाणी

खेती और महिला का यदि जुड़ाव देखा जाये तो सदियों पुराना है। चाहे पहाड़ी इलाके हों या समतल प्रदेश, समुद्री क्षेत्र हो या रेगिस्तान, हर जगह महिलाएँ खेती से बहुत गहराई से जुड़ी हुई हैं। भारत एवं अन्य एशियाई देशों में भी महिला का खेती के साथ जुड़ाव नकारा नहीं जा सकता है। यह सत्य है कि दक्षिण एशिया के अधिकतर क्षेत्रों में गरीब महिलाओं का एक बड़ा प्रतिशत अपनी आजीविका के लिए कृषि पर पूर्णतया निर्भर है।

बिना महिला के खेती के बारे में सोचना भी शायद सम्भव नहीं, विशेष रूप से पहाड़ी परिप्रेक्ष्य में। पहाड़ की खेती में महिलाओं का योगदान कहीं-कहीं तो 90 प्रतिशत तक है और यह पलायन की वजह से अब तो और भी अधिक हो गया है।

1993 में हुए एक सर्वे के अनुसार, पहाड़ की कुल कार्यरत महिलाओं में से 86 प्रतिशत खेती से जुड़ी हुई हैं। जबकि पुरुषों में यह आँकड़ा 74 प्रतिशत ही है। 2001 की जनगणना के आँकड़ों के अनुसार उत्तराखण्ड में पुरुष कर्मियों की कुल संख्या में पुरुष कृषकों का प्रतिशत 50.3 है। वहीं कुल महिला कर्मियों में महिला कृषकों का प्रतिशत 73.3 है। पुरुष कृषकों की भागीदारी  उत्तराखण्ड के स्तर पर महिला कृषकों के मुकाबले में काफी कम है।1
(Women and agriculture)

खेती, प्राकृतिक संसाधन से जुड़ी जिम्मेदारियाँ एवं अधिकार

पहाड़ में खेती से जुड़े कार्यों में महिलाओं के योगदान के बारे में सर्वविदित है। जी़बी़ पन्त विश्वविद्यालय, पंतनगर के अनुसार 98.54 प्रतिशत महिलाएँ खेती और पशुपालन से जुड़ी हैं। यही नहीं, वे खेती की हर गतिविधि से जुड़ी हैं। यहाँ तक कि जुताई में भी उनका योगदान रहता है जो कि पूर्ण रूप से पुरुष आधारित गतिविधि है। फिर पहाड़ी खेती का जुड़ाव जंगल, पानी, पशुपालन से भी बहुत गहरा है और इन सभी से महिलाओं का रिश्ता भी पुराना है। फिर चाहे जंगल से घास, पत्ती, लकड़ी लाना हो, पशुओं का चारा बनाना हो, उन्हें खिलाना हो या फिर पानी सम्बन्धी कोई काम, जिम्मेदारी  अधिकतर महिलाओं की है।

लोक  ज्ञान

कोई आश्चर्य नहीं कि महिलाओं के पास जानकारी व ज्ञान का भण्डार है। चाहे वह खेती से सम्बन्धित हो, फसल, बीज, खाद, गुड़ाई, कटाई आदि से जुड़ा हुआ हो या फिर जंगल-घास, पेड़ पत्तियां, जड़ी-बूटी आदि से सम्बन्धित या फिर पशुपालन, पशु चारा, स्वास्थ्य आदि से जुड़ा हुआ।

पहाड़ के दूर दराज के विषम परिस्थितियों में रहने वाले समुदाय की दिनचर्या में स्थानीय संसाधन और उनसे जुड़ी जानकारी, ज्ञान, तरीके व विश्वास की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ऐसे में महिलाओं की भूमिका का महत्व कहीं अधिक हो जाता है क्योंकि खेती सम्बन्धी हर पक्ष की जानकारी, ज्ञान व कौशल महिलाओं के पास है- अलग-अलग फसलें, उनकी प्रजातियाँ व विशेषताएँ, किसे, कब, क्यों, कैसे बोना है, बुवाई, गुड़ाई, कटाई का समय, तरीका, बीज का चुनाव, सुरक्षित भण्डारण ,आदान-प्रदान आदि। यहीं नहीं, कटाई के बाद भी उनका काम खत्म नहीं होता, मंड़ाई, कुटाई आदि भी उनके ही हिस्से में आता है। खेत की निराई-गुड़ाई भी तीन या चार बार करनी पड़ती है। सिर्फ यहीं नहीं, स्वास्थ्य सम्बन्धी उनकी जानकारी किसी से कम नहीं है। जिसमें मनुष्य व पशु सम्बन्धी समस्याएँ और खाद्यान्न व जड़ी बूटी से उनका इलाज व बचाव कैसे किया जा सकता है। साथ ही अलग-अलग मौसम और अवस्था में स्वस्थ कैसे रहा जा सकता है, यह सभी कुछ शामिल है। पहाड़ी क्षेत्र में महिलाएँ पशु वैद्य, शिशु वैद्य के रूप में भी काफी जानी जाती हैं।
(Women and agriculture)

यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि महिलाएँ व वंचित वर्ग इस ज्ञान के महत्वपूर्ण धारक व वाहक रहे हैं। कृषि व भोजन के लगभग हर कार्य से महिलाएँ जुड़ी हुई हैं। घरेलू स्तर पर भी पुरुषवादी सामाजिक ढाँचे ने महिला की खाद्य सुरक्षा को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। यही कारण है कि खाद्यान्न के उत्पादन- भण्डारण में, उसे पकाने और खिलाने में महिलाओं के सबसे आगे रहने के बावजूद स्वयं के खाने में वे आज भी सबसे पीछे हैं। यह कैसा न्याय है कि इतने करीब होते हुए भी महिलाएँ खाने से इतनी दूर हैं। इतना योगदान होते हुए भी उनके हिस्से इतना कम है! आँकड़े भी बताते हैं कि 50 प्रतिशत से भी अधिक महिलाएँ कुपोषण और एनीमिया से पीड़ित हैं। पोषण की कमी एक सामान्य महिला से अधिक गर्भवती महिला और धात्री महिला में पायी गयी। घर के अन्दर पर्याप्त व हर तरह से स्वादिष्ट व पौष्टिक खाने की उपलब्धता होने पर घर के अन्य सदस्य चाहे कुपोषण, खून की कमी से ग्रस्त नहीं होंगे किन्तु ऐसे परिवारों में भी महिला, किशोरियाँ कुपोषित न हों, यह कोई जरूरी नहीं।

सरकार व कई राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय ताकतों द्वारा रासायनिक उपकरणों, हाइब्रिड बीज, बड़ी-बड़ी कम्पनियों के उत्पादों को दिये गये लगातार प्रोत्साहन के बावजूद यदि पारम्परिक तरीके, फसलें एवं अन्य स्वस्थ परम्पराएँ आज भी जीवित और लोगों की आजीविका के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं तो उसका श्रेय सम्भवत: इसी वर्ग को सबसे अधिक जाता है।
(Women and agriculture)

पहचान अधिकार

जानकारी व ज्ञान का भण्डार होते हुए भी उनके योगदान को घर, समाज और सरकार द्वारा पहचान व मान्यता नहीं मिली है। जिस जमीन पर कार्य करते हुए उनकी पूरी जिन्दगी निकल जाती है, (किशोरावस्था से वृद्घावस्था तक)  उस पर कानूनी अधिकार आज तक नहीं मिला है। उसी जमीन पर  किसान के रूप में हर जिम्मेदारी को निभाने के बावजूद भी उन्हें किसान का कानूनी, सामाजिक व प्रशासनिक दर्जा नहीं मिला है। आज भी महिलाओं को खेतिहर मजदूर के रूप में ही जाना जाता है। फिर चाहे वे अपने ही खेत में क्यों न काम कर रही हों।

कृषि तथा प्राकृतिक संसाधनों से सम्बन्धी कार्यशालाओं, सम्मेलनों में उनकी मौजूदगी उँगली पर गिनी जा सकती है। सम्भवत: घर में, समाज में, पुरुषवादी सामाजिक ढाँचा ही इसकी जड़ में है जिसकी वजह से महिलाओं की ऐसी स्थिति है जिस कारण वे काम सम्बन्धी अपनी जिम्मेदारियां तो पूरी निभाती हैं लेकिन उससे जुड़े निर्णय आज भी उनके अधिकार में नहीं हैं।

संसाधनों के स्वामित्व पर यदि नजर डालें तो पायेंगे कि सबसे महत्वपूर्ण संसाधन यानी जमीन उसके नाम पर नहीं है। (चाहे वह खेती का 90 प्रतिशत कार्य ही क्यों न कर रही हों), घरेलू स्तर पर भी पैसे से जुड़े निर्णय वे नहीं लेती या नहीं ले पाने की स्थिति में हैं (चाहे नकदी फसल में पुरुषों की अपेक्षा उनकी भागीदारी कहीं अधिक हो)।  यही नहीं, जंगल, पशु, पानी आदि से जुड़े निर्णय भी उनके अधीन नहीं है (चाहे उनसे जुड़े अधिकतर कार्य उनके ही हिस्से आते हों) और न ही वे जानकारी के अभाव में और कार्य बोझ के कारण उस प्रक्रिया में शामिल हो पाती हैं। सामाजिक ढाँचे एवं पितृसत्तात्मक मानसिकता की वजह से कृषि, जंगल, पशु, पानी, स्वास्थ्य सम्बन्धी नयी जानकारियां, सरकारी योजनाएं व सुविधाएं जैसे ऋण, किसान क्रेडिट कार्ड आदि भी उसकी पहुँच से बाहर हैं, क्योंकि किसान के रूप में उनकी पहचान नहीं है।
(Women and agriculture)

खेती की नयी तकनीक आने से भी महिलाओं के योगदान और नियंत्रण में बदलाव आया है। पुरानी खेती में खेती से जुड़े कार्य तो उनकी जिम्मेदारियों में आते ही थे पर साथ ही साथ जानकारी व कौशल अधिकतर उनके हिस्से में थे। फिर फसल एवं अन्य संसाधन अधिकतर घरेलू उपयोग के लिए इस्तेमाल होते थे। इसलिए काफी हद तक नियंत्रण भी महिलाओं के हाथ में रहता था। लेकिन आधुनिक खेती में, संसाधन और उससे जुड़ी जानकारी अधिकतर बाहरी (बाजार, सरकार एवं अन्य) स्रोतों से आती हैं। चूँकि पुरुष की ही अधिकतर इन तक पहुँच है, इसलिए अधिकतर जानकारी का केन्द्र व इनसे सम्ब्न्धित निर्णय व नियंत्रण पुरुष के हाथ में ही नजर आता है। ऐसे में आधुनिक/नकदी खेती के आगमन से महिलाओं की पहुँच, नियंत्रण व निर्णय के दायरे और भी सिमटते चले गये।

नीति निर्धारकों, विकास नियोजकों एवं कृषि विभाग के कर्मचारियों के दिमाग में ‘कृषक’ पुरुष छवि लिए हुए है। इसलिए नीतियों, कार्यक्रम एवं जानकारी व सुविधा का नियोजन, क्रियान्वयन भी अधिकतर पुरुषों को ही ध्यान में रखते हुए किया जाता रहा है इसलिए उनकी पहुँच भी पुरुषों तक ही अधिक है। लेकिन विडम्बना यह है कि इस बदलते हुए परिप्रेक्ष्य में महिलाओं की जिम्मेदारियों में कोई कमी नहीं आयी है। अपितु कार्यबोझ बढ़ा ही है। इसका प्रभाव यूं तो सभी पर पड़ा है पर महिलाओं का जीवन यापन और स्वास्थ्य विशेष रूप से प्रभावित हुआ है।

खाद्य एवं पोषण सुरक्षा

पिछले कुछ वर्षों में पुरुषों के बढ़ते हुए पलायन एवं उनके द्वारा रोजगार के वैकल्पिक साधनों को अपनाने की वजह से उनका जुड़ाव खेती एवं जमीन से जुड़े कार्यों से कम हुआ है लेकिन महिलाओं का जुड़ाव खेती एवं जमीन से जुड़े रोजगार के साधनों से ज्यादा है।
(Women and agriculture)

पहाड़ से पुरुषों के बढ़ते पलायन की वजह सें, घरेलू जिम्मेदारी के साथ-साथ महिलाओं की खेती, जंगल, पशुपालन आदि जमीन से जुड़ी जिम्मेदारियाँ भी बढ़ गयी हैं। ऐसे में जमीन और अन्य जरूरी संसाधनों पर सीमित अधिकार होने की वजह से पारिवारिक व व्यक्तिगत स्तर पर खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य और खुशहाली प्रभावित हुई है। ऐसे में उनकी स्थिति व खेती की स्थिति बद से बदतर ही हुई है।

खेती की दशा यदि खराब है तो खाद्य सुरक्षा भी निश्चित रूप से प्रभावित होने की सम्भावना है जब तक कि बड़े स्तर पर खाद्य एवं पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के प्रयास नहीं किए गये हों।

 खाद्य सुरक्षा की चिन्ता व चर्चा यूँ तो विश्व भर में हो रही है और उसके भयंकर परिणाम कुपोषण, खून की कमी, अनेक बीमारियाँ और अंत में भुखमरी/कुपोषण से मृत्यु आदि में देखने को मिल रहे हैं, विशेष रूप से महिलाओं के साथ, लेकिन उसे सुनिश्चित करने की दिशा में हो रहे प्रयास आज भी आधे-अधूरे ही हैं।

खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि समुदाय, परिवार व व्यक्ति का कृषि में उपयोग में पायी जाने वाली सामग्री व तरीकों- बीज, खाद, दवाई, पानी एवं अन्य संसाधन जैसे- जमीन, पानी, जंगल आदि तक पहुंच, नियंत्रण व अधिकार हो और बाहरी निर्भरता कम हो। यह भी जरूरी है कि इन संसाधनों का समुचित व कुशलतापूर्वक उपयोग किया जाय। सरकार या राज्य की जवाबदेही भी सुनिश्चित की जाये जिससे  सभी लोगों के लिए पर्याप्त, सुरक्षित एवं पौष्टिक खाने की व्यवस्था हो सके। खाद्य सुरक्षा के लिए यह भी जरूरी है कि ऐसे भोजन की व्यवस्था हो जो लोगों की खाद्य सम्बन्धी आदत एवं संस्कृति से जुड़ा हो।

पारम्परिक फसलें, प्रजातियाँ, तरीके जहाँ एक ओर पौष्टिक, सुरक्षित, विविधतापूर्ण भोजन उपलब्ध कराती हैं व पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखती हैं, वहीं वे पर्यावरण, मनुष्य एवं पशुओं के स्वास्थ्य की भी रक्षा करती हैं। जैव विविधता आधारित इस खेती की लागत शून्य भर है और इसीलिए सभी की पहुँच व पकड़ में भी है, विशेषकर छोटे सीमान्त किसानों की।
(Women and agriculture)

खाद्य सुरक्षा के लिए केवल राज्य या सरकारी व्यवस्था पर ही पूर्णतया निर्भर रहना उचित नहीं है। क्योंकि राज्य भी खाद्यान्न की विविधता, सुरक्षा, पर्याप्तता आदि की दृष्टि से अंतिम रूप से हमारे खेतों में हो रही पैदावार पर ही निर्भर है, साथ ही जहाँ बाजार हमारी पहुँच, नियंत्रण से पूरी तरह से बाहर है, वहीं खेत और खेती फिर भी हमारी पकड़ में हैं।

उपरोक्त दिए गए सभी कारणों से खाद्य एवं पोषण सुरक्षा को सुनिश्चित करने में महिलाएँ बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं और वर्तमान स्थिति से निकालने में काफी सहायक हो सकती हैं। लेकिन यह तभी संभव है जब घरेलू व सामाजिक, स्थानीय संसाधनों से जुड़े निर्णयों में महिलाओं की सक्रिय भूमिका व योगदान हो और सबसे महत्वपूर्ण, जमीन पर उनका भी बराबर का हक हो। ऐसे में महिलाओं की व्यक्ति व किसान के रूप में पहचान व अधिकार तो मजबूत होंगे ही, साथ ही गरीब, वंचित वर्ग की खाद्य व पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने में भी काफी सहायक होगा किन्तु वास्तविकता में स्थितियों पर उनका नियंत्रण बढ़ने के बजाय धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। परिणामस्वरूप खाद्य सुरक्षा पर आया संकट और भी गहराता जा रहा है।

जलवायु परिवर्तन

लगातार हो रहे मौसमी परिवर्तन का भी खेती, प्राकृतिक संसाधनों एवं उनसे जुड़ी आजीविका पर पड़ रहा प्रभाव अभूतपूर्व है और यह पहाड़ी परिप्रेक्ष्य में ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि पहाड़ में आजीविका मुख्य रूप से प्राकृतिक संसाधनों पर ही टिकी है।
(Women and agriculture)

इस क्षेत्र में भी आसपास से प्राप्त सामग्री, संसाधनों की मदद से एवं कम लागत में, जलवायु के उतार चढ़ाव के प्रभाव को कम करने हेतु महिलाओं ने भी कई तरह के तरीके निकाले हैं और यह उनके आसपास के पर्यावरण, आदि का समुचित ज्ञान एवं जानकारी होने की वजह से ही संभव हो पाया है। लेकिन निर्णय प्रक्रियाओं में भागीदारी नहीं होने के कारण उनके इस ज्ञान, अनुभव व कौशल का लाभ नीति निर्धारक एवं नियोजक नहीं उठा पाए हैं।

कई अध्ययनों से एवं लोगों के अनुभवों से यह स्पष्ट हुआ है कि पर्यावरणीय सन्तुलन बनाये रखते हुए जैव विविधता आधारित खेती जलवायु परिवर्तन को झेलने व इसके प्रभाव को कम करने में महत्वपूर्ण साबित हो सकती है।

ऐसी स्थिति में बहुत सोच समझ कर तय करना होगा कि हम किस रास्ते को अपनायें- वह जो हमें हमारे परिवार और समाज को ताकत व मजबूती देता है, आत्म निर्भर बनाता है, सम्प्रभुता सुनिश्चित करता है, या वह जो सिर्फ हमें पूर्ण रूप से बाजार एवं अन्य बाहरी व्यवस्था पर निर्भर बना रहा है ,बीमारी और कुपोषण के गर्त में डाल रहा है और विशेष रूप से महिलाओं को अपने मूलभूत अधिकारों से भी वंचित कर रहा है। काम के बोझ तले अपने ही खेत में अब महिला का अस्तित्व एक कृषि मजदूर से अधिक कुछ नहीं रह गया है। जरूरत है ऐसे प्रयासों की जिनसे कृषि मजदूर से हटकर महिलाएँ ‘किसान’ कहलायी जायें और उन्हें भी वह सारे हक-हकूक मिलें जिसकी एक किसान के तौर पर और व्यक्ति के नाते वे अधिकारिणी हैं।
(Women and agriculture)

REFERENCES

1.     Anonymous (2011). Census of India, (2011). http://www.censusindia.gov.in.
2.     Pant BR (??). Demographic profile and nutrition status of women in Uttarakhand . ENVIS
Bulletin Himalayan Ecology, Vol 24, 2016.101-108.

उत्तरा के फेसबुक पेज को लाइक करें : Uttara Mahila Patrika