स्त्री को भी हिंसामुक्त जीवन का अधिकार

कंचन भंडारी

हर महिला का यह अधिकार है कि वह हिंसा मुक्त व भय मुक्त जीवन जीये। 70 के दशक से  महिला आन्दोलनों का यह मुख्य मुद्दा रहा है। महिला अधिकार व महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा को मानवाधिकारों के नजरिए से देखा जाय। आज भी यह बहस का मुद्दा है कि हम भारतीय कई तहों.़.़.में जीते हैं। यदि हम मन की सलवटों को समझते हैं तो यह जरूर स्वीकार करेंगे कि औरत का मानवीय रूप सहोदरा कही जाने के वावजूद स्वीकृत नहीं है। वह मानवता का आधा हिस्सा होते हुए भी पूरी एक जाति नहीं है। स्त्री अलग-अलग वर्गों एवं भिन्न-भिन्न गतिविधियों में बिखरी हुई है। हमारे देश में औरत यदि पढ़ी-लिखी है और काम करती है तो उससे परिवार व समाज की उम्मीदें अधिक होती हैं। लोग चाहते हैं कि वह सारी भूमिकाएं बिना किसी शिकायत के निभाए। वह कमा कर भी लाये और घर में अकेले खाना भी बनाए। वह परिवार में सबकी सेवा भी करे और अपने बच्चों का भरण-पोषण भी करे। वह पति के ड्राईंग रूम की शोभा भी बने और पलंग में मखमली बिछावन भी। पढ़ी-लिखी है इसलिए तेज-तर्रार मानी जाती है। स्पष्टवादी होना उसका गुनाह माना जाता है। पदोन्नति होने पर भी उसके चरित्र पर शक किया जाता है। अगर वह घरेलू कामकाजी महिला है तो वह 24 घंटों में से 17 घंटे काम कर रही होती है। बिना किसी स्वार्थ के अपने श्रम, समय, स्वास्थ्य, खुशी, सपने सिर्फ परिवार की खुशियों के लिए लुटा देती है। परिवार की रीढ़ होने के बावजूद कई बार अपनी जान इसलिए देती है ताकि परिवार की आजीविका बनी रहे। मैं इसलिए यह लिख रही हूँ क्योंकि हर वर्ष कई महिलाएं चारे व लकड़ी की व्यवस्था करने में पेड़ों से गिरकर या चट्टानों से फिसलकर या फिर जंगली जानवरों के हमले से अपनी जान दे देती हैं। कई महिलाएं परिवार को पुत्र सुख देने के चक्कर में अपनी जान दे देती हैं। एक बार एक महिला डॉ0 ने मुझे बताया कि एक महिला व बच्चे की इसलिए जान गई क्योंकि उनके परिवार को पुत्र चाहिए था। जबकि उस महिला की पहले से ही दो बेटियां थीं और दोनों बेटियां आपरेशन से हुई थीं। डॉक्टर के मना करने पर भी वह महिला तीसरी बार माँ बनी और प्रसव के दौरान दोनों की मृत्यु हो गयी। यह घटना कोई अपवाद नहीं है, हमारे समाज में हर क्षण कितनी महिलाएं ऐसी ही हिंसाओं से प्रभावित होती हैं।

घरेलू हिंसा केवल भारत में ही नहीं पूरे विश्व में मौजूद है। बहुत सारी रिपोर्ट हैं जो यह दर्शाती हैं कि सभी देशों में स्त्रियाँ घरेलू हिंसा का शिकार होतीं है। हो सकता है वास्तविक आंकड़ा इससे काफी बढ़ा हो, यह इसलिए है क्योंकि बहुत सारी घरेलू हिंसा की घटनाओं की रिपोर्ट नहीं होती है। क्योंकि ज्यादातर महिलाएं रिपोर्ट दर्ज कराने में शर्मिन्दगी महसूस करती हैं। उन्हें लगता है कि लोग उन पर भरोसा नहीं करेंगे। सुरक्षा का सवाल भी उनके सामने होता है और साथ देने वाला भी कोई नहीं होता है। भारत में तकरीबन 213 विवाहित महिलाएं घरेलू हिंसा से प्रभावित हैं। यह भी सच है कि सिर्फ विवाहित महिलाएं ही घरेलू हिंसा का शिकार नहीं हैं परन्तु अविवाहित, एकल, विधवा, अलग रहने वाली महिला या तलाकशुदा लड़कियां भी घरेलू हिंसा का शिकार हुई हैं। जो कि करीबी रिश्तेदार या माता-पिता द्वारा प्रभावित हुई हैं।

सितम्बर 2005 में भारतीय संसद ने महिलाओं का घरेलू हिंसा से संरक्षण विधेयक को पास किया और दिनांक 26 अक्टूबर 2006 को यह अधिनियम सम्पूर्ण देश में लागू किया गया। घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम एक ऐतिहासिक कानून है जो कई मायनों में महिलाओं को संवैधानिक समानता, भेदभाव और स्वतंत्रतापूर्वक जीवन जीने के लिए संवैधानिक अधिकारों की मान्यता भी देता है।
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लेकिन देखने में आया है कि कानून बनने के 7 वर्षों के बाद भी सरकार द्वारा इसमें कुछ भी विशेष प्रयास नहीं किये हैं। आज जो महिलाएं घरेलू हिंसा के केस दर्ज करने के लिए आ रही है उन्हें दर-दर भटकना पड़ रहा है। कोर्ट से उन्हें सिर्फ तारीख ही मिल पा रही है, क्योंकि सरकार द्वारा न तो इस कानून का प्रचार-प्रसार किया गया है और न ही कोई ठोस व्यवस्था की है। सरकार द्वारा उत्तराखण्ड में ज्यादातर आई.सी.डी.एस़. विभाग में बाल विकास अधिकारी को यह जिम्मेदारी दी गयी है परन्तु सरकार व जनता इस बात को अच्छी तरह से जानती है कि इनके पास पहले से ही अपने विभाग के काम का बोझ है तो वह पीड़ित महिला को कितना समय दे पायेगी। साथ ही न तो विधिक सहायता मिल रही है और न ही समय से न्याय। क्योंकि सम्बन्धित व्यक्ति न तो महिला मुद्दों के प्रति संवेदनशील हैं और न ही उन्हें इस कानून की विस्तृत जानकारी है। इसलिए महिला घरेलू हिंसा के तहत दर्ज केस में अपना अलग से वकील रखने को मजबूर तो हो ही रही है साथ ही वह दूसरे कानून की भी मदद ले रही है। सरकार द्वारा प्रस्तावित बजट भी है लेकिन उसका फायदा किसी भी संघर्षशील महिला को नहीं मिल रहा है। कई संघर्षशील महिलाएं पिछले 2-3 वर्षों से घरेलू हिंसा का केस लड़ रही हैं। कई को सम्मन भी नहीं मिला है, कई की तारीख ही नहीं लग रही हैं। यह सिर्फ इसलिए क्योंकि सरकार द्वारा कोई व्यावहारिक व्यवस्था संघर्षशील महिलाओं के लिए नहीं बनाई गयी है। प्रभावी कानून बनने के बाद भी महिलाओं का अब इस कानून से विश्वास उठने लगा है। नैनीताल जिले में सेवा प्रदाता होने के नाते विमर्श संस्था के पास आई एक पीड़िता की केस स्टडी से इसकी व्यावहारिक कठिनाइयों को समझा जा सकता है।

घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम के लक्ष्य एवं उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए सरकार ने इस अधिनियम में दी गई जिम्मेदारियों को पूर्ण करना चाहिए, जिसमें महिलाओं का घरेलू हिंसा से संरक्षण किया जाय एवं घरेलू हिंसा समाज से समाप्त की जा सके। इस अधिनियम के प्रभावी पालन हेतु यह आवश्यक है कि उपयुक्त संख्या में योग्य प्रशिक्षित पूर्णकालिक संरक्षण अधिकारी की नियुक्ति की जाय ताकि वह इस अधिनियम को प्रभावशील बना सके। संरक्षण अधिकारी इस अधिनियम के तहत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं वह न्यायित महिला को विभिन्न प्रकार से सुरक्षात्मक आदेश प्राप्त करवाने में सहायक होते हैं। जिसमें  स्त्री के बेघर या परिवार से अलग होने की स्थिति में सुरक्षा व्यवस्था करने का महत्वपूर्ण आदेश है। साथ ही सरकार को बेघर महिलाओं के लिए शेल्टर होम का निर्माण करना भी आवश्यक है। कई महिलायें उसी माहौल में जाने को विवश हो जाती हैं क्योंकि उनके पास दूसरी छत का विकल्प नहीं होता है। साथ ही न्यायिक प्रक्रिया को भी संवेदनशील करने हेतु प्रशिक्षण आयोजित किये जाय ताकि वह घरेलू हिंसा के केसों को महिलागत नजरिये से देख सकें।

अगर महिलाएं कुल जनसंख्या का आधा हिस्सा है और उनमें से ज्यादातर महिलाएं किसी न किसी कारण से शारीरिक और मानसिक घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं तो फिर यह व्यक्तिगत मामला नहीं है। घरेलू हिंसा जटिल राष्ट्रीय समस्या है। जिसका प्रभाव हम सब पर भी पड़ता है। घरेलू हिंसा व्यक्तिगत समस्या नहीं है जो सिर्फ परिवार तक सीमित हो यह अपराध है। जिसमें सरकार को हस्तक्षेप करना होगा और पीड़ित को सुरक्षा देना आवश्यक होगा।

पुलिस विभाग, अधिवक्ता न्यायाधीश स्वास्थ्य अधिकारी, सेवा प्रदाता, भी घरेलू हिंसा को उस रूप में नहीं दिखाते हैं वह भी यही सोचते हैं कि यह एक पारिवारिक मामला है। इस खामोशी को तोड़ना होगा, आज हमें आवश्यकता है कि समाज में संघर्ष व रचना साथ-साथ करें। हिंसा के खिलाफ संघर्ष व हिंसा मुक्त समाज की स्थापना करने की रचना में सहायक बनें, तभी हम  शायद मानव कहलायेंगे।
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केस स्टडी

2- श्रीमती भावना जोशी, श्री हेम चन्द्र जोशी
पत्नी श्री हेम चन्द्र जोशीग्राम- थापला
ग्राम – अधौड़ा पो. खुर्पाताल पो.आ. मंगोली
जिला- नैनीतालजिला- नैनीताल

संस्था से सम्पर्क-:  दिनांक 17/7/13 को श्रीमती भावना जोशी द्वारा संस्था के कार्यालय में सम्पर्क कर घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम की जानकारी ली गई तथा घटनाक्रम की जानकारी दी गयी।

घटनाक्रम-: पीड़िता द्वारा बताया गया कि मेरी शादी 21/4/2008 को श्री हेम चन्द्र जोशी के साथ हुई थी। शादी के 3 महिने के पश्चात ही मेरे ससुराल वालों द्वारा मुझसे गाली-गलौज व मारपीट करना शुरू कर दिया गया। काफी साल यह झेलने के पश्चात मैंने 12-8-2010 को मंगोली पुलिस चौकी में शिकायत दर्ज की। शिकायत दर्ज करने के पश्चात चौकी में राजीनामा किया गया तथा फिर मैं ससुराल वापस आ गई। क्योंकि चौकी में मेरे पति हेम चन्द्र ने मुझसे कहा कि मैं अपनी पत्नी को अपने साथ लेकर जाऊँगा या मैं नौकरी छोड़कर घर पर ही रहूँगा। परन्तु एक महिने घर में रुकने के बाद मुझे वह घर पर ही छोड़ गये। उनके जाने के बाद मेरे साथ फिर से मेरे सास-ससुर गाली गलौज करने लगे। बीच-बीच में मेरे पति घर आकर मेरे साथ मारपीट करते थे, यह सब कुछ झेलने के बाद मैंने परिवार न्यायालय में केस दर्ज किया।

केस दर्ज करने के बावजूद भी मुझे न्याय नहीं मिला व मुझे वापस ससुराल भेज दिया गया। ग्राम प्रधान व मेरी माँ ने काफी कुछ मेरे ससुराल वालों को समझाया और मुझे वहां छोड़ आये। इतना सब कुछ होने के बावजूद भी उनके व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया। इसके पश्चात मेरे पति आगरा से नौकरी छोड़कर घर आ गये और नैनीताल में नौकरी करने लगे। मुझे एक महिने तक अपने साथ अलग कमरे में भी रखा। लेकिन वहां भी मेरे पति मुझे काफी मारते व गाली-गलौज करते थे।

एक महिने रखने के बाद मेरे पति ने मुझे मेरे मायके भेज दिया, मैं अपने मायके चली आयी। 25/2/13 को मेरे पति मेरे मायके आये और मेरे परिवार वालों को गालियां देने लगे। इसके बावजूद भी मैं फिर से इस आशा के साथ अपने पति के पीछे-पीछे ससुराल चली गई कि क्या पता उनके व्यवहार में परिवर्तन आ जाये। परन्तु ससुराल में मेरी सास द्वारा मुझे बच्चा न होने का ताना दिया जाता था तथा फिर से मेरे साथ मारपीट व गाली-गलौज आदि करने लगे। परन्तु फिर भी मैं यह सोचती रही कि एक दिन सब कुछ ठीक हो जायेगा। इस आशा के साथ ससुराल पर ही रहती थी पर कुछ ठीक नहीं हुआ सास गालियां देती थी व पति जब-जब नौकरी से घर पर आते थे तो मारपीट करते थे। जब मैं एक दिन बीमार थी तब किसी ने मुझे दवा भी नहीं दी और कहने लगे काम करने का मन नहीं है और बीमारी का बहाना बनाती रहती है। बीमारी के समय किसी ने मेरी कोई मदद नहीं की।

दिनांक 25-4-2013 को मेरे ससुर जी का देहान्त हो गया और मैं अपने ससुराल गई पर इस बीच भी मेरे साथ न कोई बात करता था और न ही कोई कुछ बोलता था। 10-7-13 को सुबह मेरे पति द्वारा मेरे साथ काफी मारपीट की गयी तथा मेरी सास द्वारा भी मेरे पति का साथ दिया जा रहा था। सास कहने लगी कि या तो मेरे बेटे को तलाक दे या फिर अगर तू यहां रहेगी तो मेरे साथ नहीं रहेगी और अपने मायके चली जा। उनके इस तरह के व्यवहार के पश्चात मुझसे वहां पर रहा नहीं गया और मैं घर से चली गयी। उस वक्त मेरे पति घर पर नहीं थे। मुझे मेरे पति रास्ते में मिले और मुझे छोड़ने आधे रास्ते तक आये और कहने लगे कि मेरे घर वापस मत आना। अगर वापस घर आयेगी तो मैं तुझे मार दूँगा और तब से मैं अपने ससुराल नहीं गई और मेरा भरण-पोषण मायके वालों द्वारा ही किया जा रहा है।
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संरक्षण अधिकारी के समक्ष केस दर्ज- दिनांक 15/7/13 को विमर्श कार्यालय नैनीताल में घरेलू घटना रिपोर्ट भरी गयी तथा दिनांक 25/7/13 को संरक्षण अधिकारी के समक्ष केस दर्ज किया गया।

मुफ्त विधिक सहायता के तहत वकील उपलब्ध कराना-  मुफ्त विधिक सहायता के तहत दिनांक 16-11-13 को भावना को अधिवक्ता उपलब्ध कराया गया जिसके तहत अधिवक्ता गोपाल रावत को नियुक्त किया गया।

दोनों पक्षों की काउंसलिंग- दिनांक 22/11/13 को न्यायालय के आदेशानुसार दोनों पक्षों की काउंसलिंग संरक्षण अधिकारी के कार्यालय में की गयी। जिसमें दोनों पक्षों से बातचीत की गई जिसमें दोनों पक्षों द्वारा कहा गया कि वह न्यायालय के माध्यम से केस का निपटारा चाहते हैं।

वर्तमान स्थिति- वर्तमान में पीड़िता अपने मायके अधौड़ा में अपनी माँ के साथ निवास कर रही है। तथा केस सी.जे.एम़ न्यायालय नैनीताल में विचाराधीन है।

केस वर्क के दौरान आयी चुनौतियाँ-

मुफ्त विधिक सहायता के माध्यम से मिले वकील द्वारा केस लेने से मना कर दिया गया जिसके पश्चात नये वकील की नियुक्ति हेतु पुन: प्रार्थना पत्र दिया गया।

माननीय न्यायाधीश द्वारा दोनों पक्षों को पुन: साथ बैठकर समझौता करने को कहा गया, आपसी बातचीत के बाद कोई समाधान नहीं निकला।

केस को कानूनी प्रक्रिया में चलते हुए 10 माह हो गए हैं, जिस दौरान दो न्यायाधीश बदल चुके हैं।

प्रतिमाह कोर्ट में 3-4 तरीखें लग रही हैं, जिसमें घर से कोर्ट तक किराये की व्यवस्था करना एक समस्या है।
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