आजादी और जवाब तलाशती स्त्री
किरन त्रिपाठी
महिलाओं की वास्तविक आजादी के विलोप तथा यौनिक हिंसा का इतिहास बहुत पुराना है। व्यक्तिगत सम्पत्ति की उत्पत्ति के साथ ही समाज में वर्ग विभाजन हुआ और उसी के साथ स्त्री के अन्तहीन शोषण की शुरूआत हुई। पितृसत्तात्मक मूल्यों और मानदण्डों ने एक ओर जहाँ समाज में महिला को दोयम दर्जे में धकेल दिया, वहीं उसका शोषण और उत्पीड़न भी बढ़ता चला गया। समाज में एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में उसके अधिकारों को कभी मान्यता नहीं दी गई। एंगेल्स ने ”परिवार, व्यक्तिगत सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति में लिखा है कि” इतिहास का पहला वर्ग विरोध एकनिष्ठ परिवार के अन्दर पुरुष और स्त्री के विरोध के विकास के साथ-साथ सामने आता है और इतिहास का पहला वर्ग उत्पीड़न पुरुष द्वारा नारी के उत्पीड़न के साथ-साथ प्रकट होता है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा निर्धारित स्त्री विरोधी मूल्य युगों के अन्तराल में हमारे समाजिक जीवन में इस प्रकार घुल मिल गये कि पुरुष ही नहीं आज स्वयं स्त्रियों का एक बड़ा हिस्सा मानसिक रूप से इनसे इतर अपने स्वतंत्र अस्तित्व की कल्पना कर पाने में सक्षम नहीं है।
वर्तमान में हमारे समाज में महिलाओं पर होने वाली हिंसा उसे सामन्ती मध्ययुगीन समाज के समकक्ष ले जाती है, वहीं आधुनिक पूँजीवादी समाज ने उसे बाजार के समकक्ष ला खड़ा किया है। भारतीय ऐतिहासिक परिदृश्य का विवेचन करें तो वैदिक काल से लेकर आज तक का इतिहास महिला की दासता का इतिहास रहा है। समाज में महिला की स्थिति का मूल्यांकन किया भी गया तो सिर्फ धार्मिक और पारिवारिक भूमिका के संदर्भ में, न कि एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में। प्राचीन भारतीय संस्कृति में महिला की सम्मानजनक स्थिति का हवाला देने तथा पाश्चात्य संस्कृति को उसके दोयम दर्जे के लिए जिम्मेदार ठहराने वाले लोग भूल जाते हैं कि वैदिक काल में यज्ञ में पति के साथ समान भागीदारी के उल्लेखों या अपवाद स्वरूप कुछ विदुषी स्त्रियों की चर्चा के आधार पर तत्कालीन समाज में महिला की पुरुष के समकक्ष स्थिति का आकलन नहीं किया जा सकता। अपने से अधिक विद्वान गार्गी को चुप कराने वाले याज्ञवल्क्य इसी दौर की उपज हैं। इस युग में सम्पत्ति की सूची में अन्य वस्तुओं के साथ दासियों का उल्लेख भी मिलता है। ऋण के लिए स्त्रियों को बंधक रखे जाने के भी उल्लेख मिलते हैं। नयी संतान स्त्री और गाय के लिए ब्याज के रूप में दिये जाने का उल्लेख है। उमा चक्रवर्ती के आलेख ’समानता का मिथक’से पता चलता है कि ऋण के रूप में दी गई स्त्री को स्वामी को लौटाते समय ऋण के दौरान उससे उत्पन्न की गई एक संतान भी देनी होती थी। एक से अधिक संतान होने पर ऋण लेने वाले व्यक्ति को अन्य संतानों को रखने का अधिकार होता था। पी़ वी़ काणे धर्मशास्त्र का इतिहास में लिखते हैं कि ऋग्वेद (1/109/2), मैत्रायणी संहिता(1/10/1), निरुक्त (6/9, 3/4), ऋग्वेद (3/31/2), ऐतरेय ब्राह्मण (33), तैत्तिरीय संहिता (5/2/1/3), तैत्तिरीय ब्राह्मण(1/7/10) आदि से विदित होता है कि प्राचीन काल में विवाह के लिए कन्याओं का क्रय-विक्रय होता था।’वैदिक कालीन भोगवादी संस्कृति में स्त्री की सामाजिक प्रस्थिति का अवमूल्यन हुआ तो अध्यात्म के दौर में भी वह हेय दृष्टि से ही देखी जाती रही। परवर्ती युगों में रामायणकालीन आदर्श समाज की बात आती है, रामराज्य की परिकल्पना की जाती है, वहाँ सीता के रूप में स्त्री का चित्रण क्या दिखाता है ? पति के कठिन दौर में उसका साथ देने वाली पत्नी को अपहरण के उपरान्त अग्निपरीक्षा देनी पड़ती है और निष्कासन का दंश झेलना पड़ता है। यहाँ पति राम के रूप में पुरुष के सर्वोच्च निर्णय लेने के अप्रतिहत अधिकार की पुष्टि हो जाती है। भरत जब भारद्वाज ऋषि के आश्रम में ठहरे हुए राम से मिलने के लिए जा रहे थे तो भारद्वाज ऋषि ने उनके स्वागत के लिए जो व्यवस्था की उसकी एक बानगी देखिए- ‘स्रक, चन्दन, वनितादिकभोगा’ (अयोध्या काण्ड 214/4)- भोग की वस्तुओं में वनिता अर्थात स्त्री भी है। स्त्री के प्रति यह अन्यायपूर्ण रवैया सभ्यता के विकास के साथ ही बढ़ता चला गया। वेद, रामायण, महाभारत, पुराण हों या स्मृतियाँ, स्त्री को एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में मान्यता नहीं देते। ये सभी स्त्री विरोधी उक्तियों से भरे पड़े हैं। महाभारत काल में उसे जुए में दाँव पर लगाई जा सकने वाली वस्तु बना दिया गया। मनुस्मृति ने तो परिवार के भीतर भी नारी की स्वतंत्रता का लोप करते हुए उसे पूरी तरह पुरुष के अधीन घोषित कर दिया। मनु स्त्री के कर्तव्य बताते हुए कहते हैं कि ’ बाल्यकाल, युवावस्था और वृद्घावस्था में स्त्री को घरों में भी स्वतंत्रता से कोई कार्य नहीं करना चाहिए- ”बालया वा युवत्या वा वृद्घया वाऽपि योषिता। न स्वातंत्र्ये कर्तव्यं किंचित्कार्यं गृहेष्वपि। (मनु स्मृ़5/147)। मनु ही स्त्री के लिए निर्धारित करते हैं कि उसे किशोरावस्था में पिता के, युवावस्था में पति के तथा वृद्घावस्था में पुत्र के अधीन होना चाहिए ।” पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने। रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति। (मनु स्मृ़ 9/3)। मनुस्मृति ही नहीं, समग्र धर्मशास्त्र स्त्री को पुरुष की अधीनस्थ व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में देखता है। ऐसा नहीं है कि इस अन्याय को स्त्रियों ने मौन होकर स्वीकार कर लिया होगा।
बलात्कार एवं यौन हिंसा की संस्कृति के पोषण के लिए प्राचीन भारतीय मिथक से ही एक उदाहरण काफी है, अहल्या का प्रसंग, जिसमें बलात्कार की शिकार होने पर भी सजा स्त्री को ही मिलती है, जबकि इन्द्र के रूप में बलात्कारी पुरुष अन्य देवताओं की कृपा से आसानी से बच जाता है। यह एक उदाहरण हमारे वर्तमान संदर्भों में भी पीड़ित स्त्री के लिए परिवार, समाज, सत्ता और उसकी एजेंसियों का जो दृष्टिकोण रहा है, उसी को प्रतिभासित करता है। मातृसत्ता से पितृसत्तात्मक सामन्ती व्यवस्था में संक्रमण की विश्व ऐतिहासिक परिघटना में स्त्री की दासता के साथ-साथ स्त्री पर होने वाले अत्याचार भी बढ़ते चले गए। युद्घों तथा जातीय एवं सांप्रदायिक संघर्षों के दौरान होने वाली हिंसा में बलात्कार एक हथियार के रूप में काम में लाया जाता रहा है। ऐतिहासिक युगों से लेकर आज तक समाज में स्त्री पर पुरुष वर्चस्व के रूप में बलात्कार की एक प्रमुख भूमिका रही है। इसे पुरुष ने स्त्री को आतंकित करने के लिए एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है और इस आतंक का चरम रूप तब दिखाई देता है, जब प्रतिरोध करने पर बलात्कार के अन्तर्गत स्त्री को बर्बर तरीके से यातनाएँ दी जाती हैं।
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सामन्ती समाज से पूँजीवादी समाज में संक्रमण के दौर में स्त्री को पुरुष की व्यक्तिगत सम्पत्ति के बतौर एक उत्पाद, उपभोग की वस्तु और माल में तब्दील होते देर नहीं लगी। आज महिला हिंसा की संस्कृति के उत्प्रेरक राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक पक्ष खुलेआम हमारे सामने हैं। एक प्रकार से यह पूँजीवादी सामन्तवाद का दौर कहा जा सकता है, जिसमें बाजार के अर्थशास्त्र के तहत महिला को एक उपभोग की वस्तु, एक उत्पाद बना कर रख दिया गया है या यूँ कहिये कि बाजार अपने उत्पादों को बेचने, मुनाफा कमाने के लिए अपने हक में स्त्री का इस्तेमाल कर रहा है। बाजार हमारी सोच पर इस कदर हावी हो गया है कि हम तमाम मूल्यों को ताक पर रखकर उसका शिकार बन बैठे हैं। चाहे इसमें विज्ञापनों , फिल्मों तथा अन्य संचार माध्यमों में वस्तुओं को बेचने के लिए स्त्री देह का अभद्र प्रदर्शन हो, आइटम गीतों के माध्यम से देह को अश्लील भंगिमाओं में प्रस्तुत करना हो या टेलिविजन धारावाहिकों में एक सजावट की वस्तु के रूप में हर समय भारी भरकम आभूषणों और चमकदार वस्त्रों से लदी हुई महिला के तौर पर या शोषण को रो-धोकर सहन करने वाली अथवा षडयंत्रकारी स्त्री के रूप में चित्रण हो। कहीं न कहीं इन सबने मिलकर स्त्री की अस्मिता पर प्रहार करते हुए उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हरण किया है और उसे केवल पुरुष के उपभोग के लिए उपलब्ध वस्तु का लेबल दिया है। पोर्न फिल्मों का लगातार बढ़ता कारोबार आज समाज के युवा वर्ग तथा अल्पवयस्क किशोर वर्ग के मन मस्तिष्क को लगातार विकृत कर रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत विश्व में तीसरा सबसे बड़ा पोर्नोग्राफी का उपभोक्ता देश बन चुका है। महिला का एक सेक्स ऑब्जेक्ट तथा बाजार के लिए मुनाफा कमाने वाले उत्पाद के रूप में प्रस्तुतीकरण उसे देह से परे एक इन्सान बनने से रोकता है और यहीं एक पुरुष की दमित इच्छाओं का निशाना बनती है एक स्त्री देह। एस़ एम़ एस़, एम.एम.एस. तथा साइबर अपराध नई तकनीक के विकास के साथ सामने आए हैं। साइबर के बाजार द्वारा परोसी जा रही विकृतियों पर समुचित नियन्त्रण नहीं है, आज जब किशोर एवं युवा वर्ग की पहुँच लगातार पोर्न एवं ब्लू फिल्मों के बाजार तथा अन्य संचार माध्यमों में स्त्री देह की विकृत प्रस्तुति तक आसानी से हो रही है, जिस प्रकार बच्चों में परिपक्वता समय से पूर्व ही देखी जा रही है, ऐसी स्थिति में क्रूरतम अपराधों के लिए नाबालिगों की उम्र सीमा के संबन्ध में भी पुनर्विचार की जरूरत है। उम्र सीमा में छूट का लाभ उठा कर जघन्य अपराध करके भी वे आसानी से बच निकलते हैं। फाँसी की सजा या बंध्याकरण इस सबका कोई दीर्घकालिक या स्थायी समाधान नहीं है। जरूरत अपराध की जड़ तक पहुँचने की है और इस जड़ को सिंचित एवं पोषित किया है, समाज में गहरी पैठ बना चुके पितृसत्तात्मक मूल्यों ने, हमारे राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक और पारिवारिक अवमूल्यन ने।
जन्म के साथ ही हिंसा शब्द से स्त्री का अटूट रिश्ता जुड़ जाता है़ यह रिश्ता परिवार के भीतर पुरुष के समकक्ष उसके दोयम दर्जे के साथ ही उसे एक सम्पत्ति के रूप में साज संभाल से लेकर समाज में उस पर आए दिन होने वाली यौन हिंसा, ऑनर किलिंग, छेड़छाड़, अश्लील एवं अभद्र टिप्पणियों, बसों, ट्रेनों, सड़कों आदि में जाऩबूझकर बुरे इरादों से उसके कुछ खास अंगों को स्पर्श करने, सार्वजनिक स्थलों तथा वाहनों में उसके समक्ष अश्लील संगीत बजाए जाने से लेकर न जाने कितने अनगिनत दुष्कृत्यों में शामिल हैं। बलात्कार की संस्कृति तथा महिला हिंसा के बीज हमारे परिवार, विवाह संस्था, पितृसत्तात्मक मूल्यों से पोषित समाज, जिसमें महिलाओं के स्वतंत्र अस्तित्व पर प्रतिबंध लगाने वाली खाप पंचायतों से लेकर कई तरह की कट्टरपंथी प्रतिक्रियावादी ताकतें सक्रिय हैं, कार्यस्थलों, शैक्षिक संस्थानों, धर्म, कानून, राजनीति, यहाँ तक कि हमारे मन-मस्तिष्क में मौजूद हैं, ये ताकतें समाज में महिला को सशक्त नहीं होने देना चाहतीं। यही संस्कृति कश्मीर में लड़कियों को गाना बन्द न करने पर बलात्कार की धमकी देती है। यही समाज में सवर्ण जातियों द्वारा दलित महिलाओं के शोषण के रूप में अभिव्यक्त होती है और इसी के कारण तीन वर्ष की बच्चियों से लेकर पचास वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं तक आए दिन इस बर्बरता का निशाना बनाया जाता है। यही संस्कृति बलात्कार का प्रतिकार करने वाली रूपम पाठक को सलाखों के पीछे भेजती है। आंकड़े बताते हैं कि महिलाएँ परिवार के भीतर सर्वाधिक हिंसा व उत्पीड़न की शिकार होती हैं। यौन हिंसा करने वालों में अधिकांश महिलाओं के परिचित, दूर के या नजदीकी रिश्तेदार या मित्र होते हैं। महिलाओं की आबादी का एक बड़ा हिस्सा वैवाहिक संबन्धों के भीतर होने वाले बलात्कारों को झेलता है। जब इसे कानून के दायरे में लाने की बात होती है तो शासक वर्ग तथा समाज के भीतर बैठे पितृसत्ता के पोषक तत्वों तथा प्रतिक्रियावादी ताकतों को अपनी सत्ता डोलती नजर आने लगती है और इस पर विचार करने की भी जरूरत नहीं समझी जाती। घर में रची बसी लड़की घर में ही अपरोक्ष रूप से कई बार अपनी दोयम स्थिति को जानती है तो घर से बाहर निकलते ही उसे समाज में चारों ओर से एक माल के रूप में देखने वाली दृष्टि का सामना करना पड़ता है। यह दृष्टि अपने चिरपरिचित पड़ोसी से लेकर किसी भी परिचित अपरिचित की हो सकती है। अगर कहीं भी वह अपने लिए तय सामाजिक मानकों के दायरे से बाहर निकल सिर उठाकर चलने की कोशिश करने लगती है तो उस पर शक की सुई घूमनी शुरू हो जाती है। इस अभियान में बहुसंख्यक हिस्सा उसके खिलाफ होता है , जिसमें स्वयं महिलाएँ भी शामिल रहती हैं। बलात्कार तथा महिला हिंसा को प्रश्रय देने वाली इस संस्कृति को सिर्फ कड़े कानूनों और पुलिसिंग के द्वारा ही नहीं बदला जा सकता, क्योंकि यह संस्कृति सिर्फ महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा को पैदा ही नहीं करती बल्कि उसका पोषण करती है तथा उसे वैध स्वरूप भी प्रदान करती है।
दिल्ली में चलती बस में लड़की के साथ जो बीभत्सता हुई उससे आज आए दिन भारत के हर शहर-कस्बे और गांव में महिलाएँ गुजर रही हैं। कई मामलों में हम देखते हैं कि किन्हीं दो पक्षों के बीच वैमनस्य के दौरान प्रभु वर्ग द्वारा तेजाब फेंकने, निर्वस्त्र करके घुमाने से लेकर बलात्कार तक की शिकार होती हैं महिलाएँ। दूसरी ओर महिला हिंसा और उत्पीड़न के ऐसे अनेक मामले सामने आते हैं जिसमें पुलिस से लेकर सुरक्षा बलों की अहम भूमिका होती है और इस प्रकार की घटनाओं पर शासक वर्ग तथा सरकार के नुमाइन्दों की चुप्पी महिलाओं के प्रति उनके सामन्ती नजरिये को ही दिखाती है। सोनी सोरी के अपराधी पुलिस अधिकारी अंकित गर्ग को सरकार द्वारा वीरता पुरस्कार देकर सम्मानित किया जाता है तो सुरक्षा बलों की कार्यवाही के अन्तर्गत असम रायफल्स के कुछ जवानों द्वारा 2004 में मणिपुर में टी़ मनोरमा का बलात्कार व हत्या, 2008 में सशस्त्र बलों द्वारा कश्मीर के शोपियाँ में नीलोफर तथा आसिया के बलात्कार के मामलों के बावजूद भी सरकार को उन पर सामान्य कानून लागू करने के लिए आम सहमति की दरकार होती है और सेना के अधिकारियों द्वारा जुमला ये दिया जाता है कि इससे हमारे जवानों का मनोबल गिरेगा। अभी जस्टिस वर्मा कमेटी की अनेक सिफारिशों में से एक आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट के तहत सुरक्षा बलों द्वारा किए जाने वाले महिला हिंसा के मामलों को सामान्य कानूून के तहत लाने की बात को सरकार द्वारा जारी किए गए अध्यादेश में आम सहमति की जरूरत के नाम पर दरकिनार करना सत्ता का असली चेहरा दिखाता है।
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महिलाओं के खिलाफ हिंसा से सम्बन्धित अधिकांश मामले हमारे बंद समाज में हमेशा बंद रहते हैं। ऐसा नहीं है कि महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा के खिलाफ कड़े कानून नहीं हैं। इस संदर्भ में सरकार द्वारा निर्धारित दिशा निर्देशों का न्याय तथा कानून लागू करने वाली एजेंसियों द्वारा पूरी तरह अनुपालन नहीं किया जाता। इन निर्देशों में साफ-साफ कहा गया है कि महिला हिंसा की किसी भी घटना के तीन महीने के भीतर चार्जशीट दाखिल हो जानी चाहिए। पीड़िता के बयान उसके घर में उसके माता पिता, रिश्तेदारों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं की उपस्थिति में लिए जाएँ। मामले की सुनवाई महिला न्यायाधीश द्वारा की जाए। कई मामले न्यायालय तक पहुँच जाते हैं तो कई में एफ़ आई़ आऱ तक नहीं होती। न्यायालयों में बहुत से केस गवाह न होने से टूट जाते हैं। रसूखदार, दबंग और बाहुबली अपराध करके बच निकलते हैं। लम्बी अवधि तक चलने वाले मुकद्मों में पीड़ित तथा उसके परिवार का धैर्य जवाब दे जाता है। मधुमिता हत्याकाण्ड, जेसिका लाल, तन्दूर काण्ड, भँवरी देवी, रुचिका गिरहोत्रा, मुजफ्फरनगर काण्ड जैसे अनेक उदाहरण हैं, जिनमें अभी भी न्याय की उम्मीद अधूरी है। एक छोटा सा हिस्सा है जो इन विपरीत परिस्थितियों से निबटते हुए अपने हिस्से के न्याय के लिए लगातार संघर्षरत है। महिला पहले समाज के संवेदनशील हिस्से के समर्थन से अपनी लड़ाई को कुछ आगे भी बढ़ा पाती है, लेकिन जिस तरह से हमारी पुलिस काम करती है और न्यायिक व्यवस्था है, उसके चलते अंतत:महिला के साथ उसके परिवार के कुछ सदस्यों के अलावा कोई रह नहीं पाता।
महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में सजा दिए जाने की दर बहुत कम है। देश में प्रति 100 बलात्कारों में से 46 दर्ज होते हैं और औसतन 46 में से भी केवल 12 में ही गिरफ्तारी होती है। इसमें से भी केवल एक़ तिहाई पर अपराध साबित हो पाता है। इस प्रकार देखा जाए तो प्रति सौ बलात्कारियों में से केवल तीन को ही सजा हो पाती है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 1953 से 2011 के बीच बलात्कार की दर में 873 प्रतिशत की बृद्धि हुई। भारत में सजा की दर भी 1973 के 44.28 प्रतिशत से घटकर 2010 में 26.5 रह गई। अर्थात अपराधों की तुलना में सजा का अनुपात कम हुआ है। दिल्ली में सजा की दर 41प्रतिशत है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के 2011 के कुछ आंकड़े देखें तो महिला अपराधों तथा उनमें होने वाली सजा की स्थिति का अनुपात स्पष्ट हो जाता है। इनमें पुलिस द्वारा 24,206 बलात्कार के मामले पंजीकृत हुए, हिरासत में या जमानत में कुल व्यक्तियों की संख्या 1,04,997, वास्तविक अपराधी 21,489 जिन पर मुकद्मे पूर्ण हुए, 5,724 अपराधियों को सजा हुई और सजा का प्रतिशत केवल 26.63 रहा। एक ओर जहाँ कानूनों का अनुपालन करने वाली संस्थाओं की जवाबदेही सुनिश्चित नहीं है और वे महिला के प्रति होने वाले अपराधों के प्रति संवेदनशील नहीं हैं, वहीं दूसरी ओर संख्यात्मक दृष्टि से भी उनकी स्थिति अच्छी नहीं है। भारत में महिलाओं के प्रति अपराध निरन्तर बढ़ रहे हैं, पर सरकारी आंकड़ों पर नजर डालें तो 13 राज्यों और केन्द्र शासित क्षेत्रों में एक भी महिला पुलिस थाना नहीं है। पुलिस रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 1 जनवरी 2011 को पूरे भारत में केवल 442 महिला पुलिस थाने थे। तमिलनाडु में इनकी संख्या अधिकतम 196 है। 71 की संख्या के साथ उत्तर प्रदेश दूसरे स्थान पर है। आन्ध्र प्रदेश (32), गुजरात (31), राजस्थान (24), झारखण्ड (22), मध्य प्रदेश (09), पंजाब (05), छत्तीसगढ़ (04) तथा हरयाणा (02) में महिला थाने हैं। इन आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में एक भी महिला पुलिस थाना नहीं है। दिल्ली में ही 82,000 पुलिस कर्मी हैं, जिनमें से केवल 5,200 महिलाएँ हैं। इसी प्रकार आबादी के अनुपात में पुलिस की संख्या भी कम दिखाई देती है। संख्यात्मक वृद्घि के साथ-साथ ही पुलिस को महिलाओं के प्रति संवेदनशील बनाए जाने तथा यौन उत्पीड़न के मामलों में त्वरित कार्यवाही किए जाने की भी जरूरत है।
नई विश्व व्यवस्था में जिस तरह से बाजार का दखल विभिन्न क्षेत्रों में बढ़ा है इसमें नि:संदेह महिला ने भी लड़़भिड़कर अपनी जगह बनाई है, बावजूद इसके वह अभी भी हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने में एक माल (कमोडिटी) के सिवाय कुछ नहीं है। इसलिए आज भी उस पर कोई भी हमला हो, सबसे पहले यही सवाल उठाया जाता है कि वह घटना स्थल पर मौजूद ही क्यों थी या इसके लिए उसके पहनावे को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। अभी दिल्ली में हुई सामूहिक बलात्कार की अत्यंत बीभत्स घटना पर समाज के विभिन्न वर्गों में भिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएँ दिखाई दीं। एक ओर जहाँ सभी ने इस जघन्य अपराध की भत्र्सना की और अपराधियों को कठोर से कठोर दण्ड दिए जाने की मांग की, वहीं दूसरी ओर प्रतिक्रिया स्वरूप विभिन्न बयान आए जिनमें हमारे समाज के सामन्ती पितृसत्तात्मक सोच से ग्रसित एक वर्ग की महिला विरोधी दूषित मानसिकता साफ दिखाई दी। यह वर्ग तय करता है कि वह कैसे कपड़े पहने, कैसे रहे, कब घर से बाहर निकले और कब नहीं या फिर महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा के लिए यह वर्ग उन्हें ही दोषी ठहराता है। इस घटना के बाद जिस प्रकार महिलाओं की आजादी और उनकी अस्मिता के पक्ष में जनता सड़कों पर आई है और उन्हें न्याय दिलाने के लिए लगातार संघर्षरत है, वहाँ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत, विश्व हिंदू परिषद अध्यक्ष अशोक सिंघल, कांग्रेस सांसद अभिजित मुखर्जी, बनवारीलाल सिंघल, राज ठाकरे ,कैलाश विजयवर्गीय, बोत्सा सत्यनारायण, अनीसुर्रहमान, मनकी राम कँवर, चिरंजीत चक्रवर्ती तथा कई अन्य विभिन्न राजनीतिक दलों तथा उनसे जुड़े संगठनों के नुमाइन्दों, आसाराम बापू जैसे छद्म धर्मगुरुओं, केरल के सुन्नी धर्मगुरु एपी अबूबकर मुसलियार कंठपुरम, खाप पंचायत सदस्य सूबे सिंह से लेकर समाज की विभिन्न प्रतिक्रियावादी ताकतों के महिला विरोधी बयानों के रूप में इस प्रकार की कुत्सित सोच रखने वाले लोग स्वयं ही बेनकाब होते चले गए हैं। इनके बयान चाहे अलग-अलग हों, पर सार रूप में ये सभी स्त्री पुरुष समानता के विचार के घोर विरोधी और समाज में स्त्री के दोयम दर्जे को बनाए रखने की सामन्ती मानसिकता से ग्रस्त हैं, जो महिला की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अतिक्रमण पर संवेदनशील होने की जगह अपराध के लिए उन्हें ही जिम्मेदार ठहराने की कवायद करने लगते हैं। जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि जब इस प्रकार की घटिया सोच रखते हैं और बलात्कार तथा अन्य यौन अपराधों में शामिल व्यक्ति संसद एवं विधान सभाओं में विराजते हैं, तो आम जनता सत्ता से कैसे उम्मीद रखे कि वह एक ऐसे प्रगतिशील और समतामूलक समाज के निर्माण की दिशा में सकारात्मक पहल करेगी, जहाँ स्त्री बेखौफ हो कर जी सके। प्रागैतिहासिक काल से लेकर वर्तमान तक मानव समाज की कहानी परिवर्तन और विकास की कहानी है। इसलिए अनेक बाधाओं के बावजूद महिलाओं की अपनी स्वतंत्रता, समानता, सुरक्षा, सम्मान के लिए संघर्ष को हम आगे बढ़ता देख रहे हैं। दिल्ली की घटना के बाद जिस प्रकार व्यवस्था के खिलाफ युवा वर्ग का आक्रोश उभर कर सामने आया है और उसने सड़कों पर निकल कर आन्दोलन के द्वारा महिला की आजादी और उसके हकों के लिए आवाज उठाई है, उसमें युवाओं के एक हिस्से की संवेदनशीलता मुखर रूप से दिखाई दी है। यह इस संघर्ष में एक सकारात्मक पहल है, क्योंकि इस संघर्ष के माध्यम से न केवल स्त्री और पुरुष दोनों ही स्त्री के अधिकारों की लड़ाई के लिए समान रूप से खड़े हुए हैं, बल्कि उन्होंने सरकार तथा उसकी एजेंसियों को भी मजबूर किया है कि वे महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों के प्रति अपनी जवाबदेही तय करें। स्त्री की आजादी तथा वास्तविक अधिकारों के लिए अभी एक लम्बी लड़ाई जारी है।
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