क्या संजना को न्याय मिलेगा

जगमोहन रौतेला

नैनीताल जिले के लालकुँआ से लगे बिन्दुखत्ता के राजीवनगर में लगभग साढ़े तीन साल पहले आठ साल की अबोध बालिका संजना की यौन हिंसा के बाद की गयी हत्या के मामले में प्रदेश सरकार ने गत 7 जनवरी 2016 को सर्वोच्च न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) दायर कर दी है। उल्लेखनीय है कि राजीवनगर निवासी नवीन राम ने 10 जुलाई 2012 को लालकुँआ थाने में अपनी नाबालिग पुत्री के गायब होने की रिपोर्ट दर्ज करवायी। अगले दिन सवेरे संजना का शव रहस्यमय परिस्थिति में पड़ोस में रहने वाले दीपक आर्या की मदद से पास के खेत से बरामद हुआ था। इसके बाद पुलिस ने अज्ञात के खिलाफ अपहरण व दुराचार का मामला दर्ज किया। पुलिस हत्यारे का कोई पता नहीं लगा पायी। हत्याकाण्ड के खुलासे की माँग को लेकर गाँव के लोगों ने कई दिन तक जबरदस्त आंदोलन किया। जन दबाव के बाद पुलिस ने क्षेत्र के 1,100 लोगों से गहन पूछताछ की लेकिन दुराचारी व हत्यारे का कोई पता नहीं लगा। इसके बाद विवेचना अधिकारी ने घटना स्थल पर मिले साक्ष्यों और 52 संदिग्ध लोगों के डीएनए सैंपल को परीक्षण के लिये सीबीआई की दिल्ली स्थित फोरेंसिक प्रयोगशाला भेजा।

वहाँ से मिली रिपोर्ट के अनुसार डीएनए सैंपल मेल खाने के आधार पर पुलिस ने 7 फरवरी 2013 को मृतक संजना के रिश्ते के फूफा दीपक आर्या को गिरफ्तार किया। डीएनए मेल खाने के आधार पर पुलिस ने दीपक के खिलाफ निचली अदालत में आरोप पत्र दाखिल किया। पकड़े जाने से पहले जाँच के दौरान दीपक ने कई बार पुलिस को सहयोग देने के नाम पर गुमराह करने की कोशिश भी की। वह सात साल पहले हुई शादी के बाद से अपनी ससुराल में ही रह रहा था। पुलिस जब संदिग्ध लोगों से उनके डीएनए जाँच के लिये खून के नमूने ले रही थी तो दीपक ने अपने पिता का नाम व अपनी उम्र गलत बतायी।  उसने पिता का नाम धनराम व अपनी उम्र 30 वर्ष बतायी जबकि उसके पिता का नाम प्रताप राम व दीपक की उम्र 26 वर्ष थी। दूसरी बार पुलिस ने फिर से खून का नमूना देने के लिये उसे बुलाया तो वह थाने न जाकर अचानक घर से गायब हो गया। बाद में पुलिस की सख्ती के बाद ही उसने सही तरीके से अपने खून का नमूना डीएनए जाँच के लिये दिया था। उसकी इस हरकत ने पुलिस का उसके ऊपर शक और पुख्ता कर दिया।

उत्तराखण्ड में पहली बार किसी अपराधी को पकड़ने के लिये नैनीताल के तत्कालीन वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक डा. सदानन्द दाते ने डीएनए जाँच का सहारा लिया था और विधि विज्ञान प्रयोगशाला की जाँच रिपोर्ट के आधार पर दीपक तक पहुँची थी। इस तरह अपराधी को पकड़ने पर तब पुलिस की बहुत वाहवाही भी हुई थी। डीएनए रिपोर्ट, पुलिस की जाँच और 21 गवाहों के बयानों के आधार पर जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने गत 28 फरवरी 2014 को दीपक को दुराचार व हत्या का दोषी मानते हुये फाँसी की सजा सुनायी। सजा के खिलाफ दीपक ने उच्च न्यायालय की शरण ली। जहाँ लगभग डेढ़ साल की सुनवाई के बाद गत 8 अक्टूबर 2015 को उच्च न्यायालय की दो सदस्यीय खण्डपीठ ने अपना फैसला सुनाया। न्यायाधीश आलोक सिंह व सर्वेश कुमार की पीठ ने घटना से सम्बन्धित साक्ष्यों को पर्याप्त नहीं माना और अभियुक्त दीपक आर्या को दोषमुक्त मानते हुये रिहा करने के आदेश दिये।
(Will Sanjana get justice)

उच्च न्यायलय के इस फैसले से पीड़ित परिवार के सदस्यों के साथ ही आम लोग जहाँ सकते की स्थिति में हैं, वहीं हमारे देश की न्याय प्रणाली पर भी सवाल उठ रहे हैं। यह बात सही हो सकती है कि दीपक असली अभियुक्त न हो पर यह सवाल तो अपनी जगह है कि फिर मासूम संजना का हत्यारा और दुराचारी कौन है? न्यायालय ने अपनी ओर से  साक्ष्यों के अभाव (?) में दीपक को तो न्याय दिया, लेकिन जिसके साथ अन्याय हुआ उसे व उसके परिवार को न्याय कौन देगा? क्या हमारे न्यायालयों की जिम्मेदारी अभियुक्तों को ही न्याय देने की है या पीड़ित को न्याय देने की भी है?

जिन सबूतों और साक्ष्यों के आधार पर हमारी न्याय प्रणाली के ही एक अंग जिला व सत्र न्यायालय ने मौत की सजा सुनायी, उन्हीं सबूतों व साक्ष्यों को उच्च न्यायालय पर्याप्त नहीं मानता तो फिर हमारी न्याय प्रणाली इतनी लचर क्यों है कि उसके दो स्तर के अंगों के न्याय में धरती-आसमान का अंतर है? यह बात तो समझ में आती है कि निचली अदालत कुछ ज्यादा सख्त फैसला कर दे लेकिन इतना अंतर क्यों है कि जिस अपराधी के अपराध को वह साक्ष्यों के आधार पर फाँसी के लायक समझती है, उच्च न्यायालय उसे उन्हीं साक्ष्यों के आधार पर अपराधी भी मानने को तैयार नहीं है। ऐसे में इस सवाल का जवाब कौन देगा कि आखिर सही फैसला किसका है? और यह भी हमारी न्याय प्रणाली पर सवाल उठाता है कि यदि दीपक उच्च न्यायालय नहीं जाता तो निचली अदालत के फैसले से तो उसे फाँसी हो जाती।

उच्च न्यायालय के फैसले के बाद यह भी सवाल किया जा रहा है कि क्या न्यायालय को सरकार और पुलिस को यह आदेश नहीं देना चाहिये था कि वह असली (?) अपराधी को गिरफ्तार करे। अगर पुलिस जाँच में सक्षम नहीं है तो दूसरी ऐजेंसी से जाँच करवाने के आदेश नहीं देने चाहिये थे? हमारी न्याय प्रणाली पीड़ित को न्याय देने के पक्ष में कब दिखायी देगी? हमारी न्याय व्यवस्था यह भी कहती है कि भले ही सौ अपराधी छूट जाएं, लेकिन एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिये पर हमारी न्याय प्रणाली यह कब कहेगी कि हर पीड़ित को हर हाल में न्याय मिलना चाहिये? खासकर दुराचार के बाद नृसंश हत्या जैसे मामलों में!

इस फैसले पर प्रदेश सरकार की आलोचना इस बात पर हो रही है कि उसने सही ढंग से पैरवी क्यों नहीं की? आलोचना के बीच प्रदेश के मुख्यमंत्री हरीश रावत ने कहा था कि अगर जरुरत पड़़ी तो सरकार सर्वोच्च न्यायालय जायेगी। पीड़ित परिवार को हर सम्भव मदद दी जायेगी। मामले में सरकार की ढिलाई के खिलाफ भाकपा माले ने 10 अक्टूबर 2015 को लालकुँआ में जुलूस निकाला और पीड़ित परिवार को न्याय देने के लिये प्रदेश सरकार से सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की माँग की थी। अब जब प्रदेश सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर दी है तो यह देखना अभी बाकी है कि संजना को न्याय मिलता है कि नहीं?
(Will Sanjana get justice)
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