करौली की औरतें क्या चाहतीं हैं?

चेतना जोशी

मीलों-मीलों तक न दुकान है, न मकान है, न ही कायदे के पेड़-पौधे। खाली वीरान सड़कें हैं। दूर-दूर तक अरावली की रूखी-सूखी-सी पहाड़ियाँ दिखती हैं। कहीं-कहीं झाड़ियाँ हैं।

मैं एक छोटी-सी कार में तीन और लोगों के साथ हूँ और दौसा से करौली के एक गाँव पसेला जा रही हूँ। करौली पूर्वी राजस्थान में है। हिन्दुस्तान के सबसे गरीब जिलों में से एक। यहाँ सौ प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है और यह समझने के लिए किसी आंकड़े की जरूरत नहीं। इस जगह के जर्रे-जर्रे में यह छपा हुआ है। कई-कई किलोमीटर के बाद सड़क पर एक गाड़ी दिखती है। अलबत्ता ऊंट फिर भी दिख जाते हैं। सड़कें खाली हैं, कोई बड़ी दुकान नहीं है। बल्कि दूर-दूर तक दुकानें हैं हीं नहीं। इसलिए सड़क किनारे कोई कचरा भी नहीं है।

आज 7 अगस्त  है, 4 तारीख को ही बना था करौली का यह कार्यक्रम। तत्काल में उदयपुर-खजुराहो एक्सप्रेस में जाने का टिकट  भी मिल गया और आने का भी। रात 10:20 उदयपुर से चलकर ट्रेन सुबह दौसा पहुंचा देती है और वापस रात 9:45 दौसा से वापस अगले सुबह 6:30 के आस-पास वापस उदयपुर। करौली का यह गाँव ‘पसेला’करीब 170 किमी. है दौसा से। यहाँ आस- पास के गांवों की महिलाओं की एक मीटिंग है, उनकी पानी की समस्या को लेकर।

स्टेशन से चमन सिंह जी अपनी गाड़ी से लेने आए। गाड़ी में पीछे एक महिला बैठीं थीं और एक लड़का गाड़ी चला रहा था। किसी ने परिचय तो नहीं कराया। पहले तो लगा कि यह सब भी शायद गाँव की मीटिंग में भागीदारी के लिए निकले हुए हैं। पर जल्द ही पता लग गया कि यह सब लोग एक परिवार हैं। मंजू जी ने बताया कि वे बस घूमने आ गईं हैं। उन्होंने इस इलाके को कभी देखा नहीं था तो सोचा आज देख लें। वे चमन जी की पत्नी हैं। उन्होंने बताया कि जो गाड़ी चला रहा है, वह उनका बेटा है। सोचती हूँ क्या ही अच्छा होता अगर एक घंटे के लिए होटल कर लेती दौसा में। कम से कम इतना ऊँघना तो नहीं पड़ता। थोड़ा ही आगे जाने पर रास्ते से एक बुजुर्ग भी गाड़ी में आ गए। सब उनको बाबा कहते थे। सफेद कपड़े, बड़ी-सी पगड़ी वाले राजस्थानी बुजुर्ग। अब वह आगे बैठ गए और हम तीन लोग पिचक के पीछे।

पसेला पहुंचने में हमें 5 घंटे लगेंगे। बीच-बीच में छोटे-छोटे कस्बे आते हैं। छोटा-सा बाजार, दो चार हलवाई की दुकानें, कुछ मक्के, मूंगफली और चने भुजने वाले, पंक्चर बनाने वाले और एक-दो कपड़े की दुकानें। हम दो जगह रुके कुछ खाने के लिए। नाश्ते में यहाँ कचौड़ी चलती है। पहली बार जो कचौड़ी खाई वह सब्जी में डूबी हुई थी। उसको खाकर बिलकुल मजा नहीं आया। शायद पुराना तेल था। दूसरी बार मैंने मना किया, पर चमन जी ने कहा कि यहाँ की बेहतर होगी, एक बार चख के देखूँ। अभी कचौड़ी का पहला कौर मुंह में जाने ही वाला था कि दुकान के काउंटर के ठीक सामने पड़ा गोबर दिखाई दिया। उसके ऊपर भिनभिनाने वाली तमाम मक्खियाँ बड़े मजे में लगती थीं। जैसे उनकी दावत चल रही हो! दुकान के काउंटर में रखी जलेबी के ऊपर भी मक्खी और बगल में पड़े गोबर के ऊपर भी। इस खयाल ने कचौड़ी का मजा लेने नहीं दिया।

करीब दो-ढाई घंटे बाद हम डांग के इलाके में थे। सड़क से अरावली विंध्याचल की पहाड़ियाँ कहीं तो दूर दिखायीं देतीं हैं और कभी सड़क उनको बिलकुल चीरती हुई-सी निकलती है। सड़क थोड़ी ऊंची हो गयी है और दूर तक घाटी दिखाई दे रही थी। इस ऊबड़-खाबड़ पत्थर-चट्टानों वाले बीहड़ में जो भी पानी बरसता है, वह इलाके को छोड़कर छोटे-बड़े नालों, धारों से गुजरकर अंतत: चम्बल नदी में जाता है। नदी के रास्ते वह समन्दर में समा जाता है। अपने यहाँ पड़ने वाले इस पानी के लिए यहाँ के लोग तड़पते रह जाते हैं। इस बेहद सूखे इलाके में दूर कहीं-कहीं पेड़ हैं और बाकी पूरी घाटी खाली।
What do the women of Karauli want?

दोपहर 12 बजे के करीब हम करौली से 37 किमी. दूर पसेला गाँव के एक छोटे से मंदिर में थे। वहाँ सामने शामियाना लगा है। 30-35 औरतें वहाँ बैठीं हुईं थीं। वे 7-8 किमी. दूर तक से आई हैं। कुछ पैदल, कुछ ट्रॉली में। इधर हलवाई भी लगे हैं। कुछ बनाया तला जा रहा है।

करौली में पानी की समस्या खतरनाक रूप में सामने आई है। यहाँ सालाना 600 मिमी. के आसपास ही बारिश होती है। वह भी केवल मानसून आने पर। पेड़-पौधे नहीं हैं, मिट्टी और चट्टानें पानी को रोक नहीं पाते। इसलिए जो पानी बरसता भी है, वह वहां ठहरता नहीं है। भू-जल चार सौ फीट से भी नीचे जा चुका है। यहाँ खेती पूरी तरह से वर्षा पर निर्भर है। मतलब जब पानी बरसता है, उन्हीं कुछ महीनों में बाजरा होता है, बाकी समय खेत खाली पड़े रहते हैं। लोग जानवर पालते हैं पर मार्च आते-आते जब पानी बिलकुल खत्म हो जाता है तो जानवरों को भी पालना मुश्किल हो जाता है। जानवरों को लेकर पशुपालक आबादी हर साल मार्च के महीने में मथुरा के इलाके में घर-बार बच्चों समेत पलायन कर जाती है। बच्चों की शिक्षा और भविष्य की सभी संभावनाओं को दांव पर लगाकर। यहाँ के लोग बड़ी संख्या में बड़े शहरों में मजदूरी करते हैं। किसी भी तरह की रचनात्मक संभावनाओं से कटे इस इलाके के युवाओं का असामाजिक गतिविधियों में शामिल हो जाना मामूली-सी बात है। कोई भी कार, कोई भी दूसरी जगह की गाड़ी यहाँ बिना डरे सड़क पर नहीं निकलती।

मवेशियों और इंसानों के लिए पीने के और खेती के लिए सिंचाई के पानी की उपलब्धता इस पूरे इलाके का वर्तमान और भविष्य बदल सकती है। 600 मिमी. बारिश यूँ तो कम है पर अगर इंसान इस पानी के साथ सही तरह से बर्ताव करें तो सबके पालन-पोषण के लिए ये काफी है। ये औरतें यह बात समझतीं हैं पर इस पिछड़े इलाके में इनके आगे आकर कुछ कर-गुजरने का माहौल बनने में अभी शायद सदियाँ लगेंगी।

चमन जी पिछले बीस से ज्यादा सालों से यहाँ के लोगों को जोड़कर इस इलाके में बारिश के पानी को चंबल में बह जाने से रोकने के लिए लिए करीब 2500 पोखर, जोहड़, छोटे-बड़े तालाब और एनीकट बनवा चुके हैं। उन्होंने यहीं काम चुना है अपने लिए या इस काम ने उनको चुना है अपने होने के लिए। जो भी हो वह बस इसे करते जा रहे हैं। आज इस मीटिंग का उद्देश्य इन औरतों की बात सुनना, उन्हें अपनी बात बताना और साथ ही साथ आस-पास के गांवों के लोगों को इस काम के साथ तन-मन-धन से जोड़ना है।

धीरे-धीरे सवा सौ के करीब महिलाएं आ गयीं। इस बेरंगे इलाके में अपने चमकते रंग-बिरंगे, लंबे, घाघरे, कुर्ती और अलग-अलग रंगों की कढ़ी हुई चुनरियों से रंग भरती हुईं। किसी के नाक में बड़ी-सी लौंग तो किसी के पैर में मोटी पायजेब। लंबी और हंसमुख, हर उम्र की औरतें हैं यहाँ। पर जब अपना दर्द बताने की बात आई तो यह मुंह ढककर बैठ गयीं। कुछ कहने को राजी ही नहीं। कारण? वहां आदमी जो खड़े हैं। मर्दों की उपस्थिति भर इनको खामोश रखने के लिए काफी है।
What do the women of Karauli want?

आदमियों को कहा गया की वह यहाँ से जायें, जिससे ये बोल पाएँ। औरत और मर्दों में खतरनाक रूप से बंटा समाज और उसके ऊपर से मीणा, गुर्जर आदि जतियों में बटीं औरतें। इन सबको साथ लाया उनका दर्द, इलाके में पानी की भारी कमी। एक दिन में चार-पांच किमी चलतीं हैं केवल पानी के लिए। जून के महीने में हैंड पम्प से बूंद-बूंद टपकता था पानी। एक घड़े को भरने में भी कई घंटे लगते थे। नंबर भी शाम-रात तक आ पाता था। एक महिला ने बताया कि पीने के पानी की किल्लत की वजह से जून के महीने में उसने कितना पेट दर्द सहा। पानी की समस्या औरतों की समस्या ही ज्यादा है। इंतजाम उन्हें ही जो करने हैं घर के, बच्चों के। इसलिए ही यह घर से निकल आज यहाँ आयीं हैं। इनका आज घर से निकलना ही अपने आप में एक घटना है।

जब महिलाओं ने अपनी बात कहनी शुरू की तो एक-एक करके सबने कही। जाहिर है उनकी जिंदगी के हर एक पल को बदल सकता है, उनके आसपास पानी का होना। उन्हें घर में नल और नल से आते पानी की आस भी नहीं है। ये तो बस पीने के लिए हैंडपम्प में हर मौसम में तेजी से आते पानी, जानवरों और फसल उगाने के लिए तालाब के पानी की बात है। वह सब चाहती हैं कि उनके गाँव में भी पानी का संचय करने के लिए काम हो। आश्चर्य कि सभी महिलाएं ये जानतीं हैं कि उनके गाँव में किस-किस जगह कौन-कौन से तरीके अपनाकर पानी को रोका जा सकता है। यह इनका पारंपरिक ज्ञान है। एक-एक करके सबने बताया कि कहाँ पर क्या बनाया जा सकता है पोखर या तालाब या जोहड़ या कुछ और। वे जोर देकर बतातीं हैं कि वे मजदूरी भी करेंगी, अंशदान भी करेंगी और घर पर सबको समझाएंगी भी कि यह काम कितना जरूरी है।

एक महिला ससेरी गाँव से आयी है। वह भावविभोर है। बताती हैं कि इस साल अप्रैल में उनके यहाँ जो तालाब बना उससे लगभग एक किलोमीटर तक के इलाके में पानी डब-डबाकर भर गया है। इस साल वह पहली बार गेहूं बोएंगी। एक अन्य महिला बतातीं हैं कि उनके गाँव में पिछले साल बने तालाब की वजह से वे 20 क्विंटल गेहूं उगा पायीं। यह उदाहरण हैं अन्य गाँवों के लिए। जाहिर है, सभी महिलाएं यह सब उनके अपने गाँव में होते हुए देखना चाहतीं हैं।

सभी महिलाओं की चाहत और उनके गाँव में इस तरह के काम की संभावनाओं को नोट कर लिया गया है। इस तरह चमन जी के अगले एक साल के काम की रूपरेखा तैयार है। उनके और उनके साथियों के इस काम की बदौलत करौली में हिंदुस्तान का (शायद दुनिया का भी) सबसे बड़ा इकोलजिकल रेस्टोरेशन (पारिस्थितिकीय तंत्र की बहाली) का काम स्थानीय लोगों को और उनके पारम्परिक ज्ञान को सहेजते हुए साथ लेते हुए चल रहा है बिना किसी शोर-शराबे के। ये इलाका और उनका काम मन में गहरी छाप छोड़ने वाला है।

साथ आये बाबा ने पानी पर लिखे भजन गाए। और इस तरह मामला खाने तक पहुंचा। जिसमें खीर, आलू की तरी और मालपुआ है। वापस निकलते समय बच्चे भी आ गए। वह शायद स्कूल से घर आए और फिर अपने माओं को न पाकर सीधे इधर ही आ गए। बड़े होकर फौज में जाने की चाहत रखने वाले इन बच्चों के घरों में टीवी नहीं है। उन्होंने सिनेमाघर में भी सिनेमा नहीं देखा है। हाँ, मोबाइल पर देखा है। रोटी, कपड़ा, मकान और इंटरनेट! ये करौली के ‘गल्ली ब्वॉय’ हैं।

अब चार बज चुके हैं और वापस चलने की तैयारी है। वापस आते वक्त एक-एक करके मेरे हाथ में बीस, पचास, सौ का नोट थमाना चाहने वाली औरतों की भीड़-सी लग गयी। हमारे यहाँ कुछ भी हो सकता है। एक कठोर समाज की परम्पराओं को आगे बढ़ाने वाली ये दयालु महिलाएं, इनके समाजिक ताने-बाने ने ही इनकी पूरी जिन्दगी को लिखा है। जिसमें तेजी से बदलते समय में भी फेरबदल की गति धीमीं है। पर यह मुझे नहीं चाहिए। आपका यहाँ आना ही शायद एक शुरूआत है। एक संतोष है। आशा है हम फिर मिलेंगे।
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