यात्रा पंचेश्वर बाँध के डूब क्षेत्र की

माया चिलवाल

13 अक्टूबर 2018 को उत्तराखण्ड महिला मंच के बैनर तले महिलाओं का एक दल, जिसमें लक्ष्मी आश्रम कौसानी की सामाजिक कार्यकर्ता बसन्ती बहन, नैनीताल समाचार की पत्रकार विनीता यशस्वी, उत्तराखण्ड महिला मंच की डॉ. उमा भट्ट, माया चिलवाल, ज्योति सनवाल, अर्पण संस्था अस्कोट की खीमा जेठी, कवीन्द्र बिष्ट एवं रंगकर्मी दिव्या पाठक शामिल थे, पंचेश्वर बाँध परियोजना को लेकर स्थानीय लोगों की राय जानने व बाँध से होने वाले पारिस्थितिकीय नुकसान का जायजा लेने व प्रस्तावित डूब क्षेत्र के निवासियों के पारिस्थितिकीय तंत्र (मानव, वन, जल, जन्तु) का अध्ययन करने के लिए यात्रा पर निकले।

‘जौलजीबी’ जौल यानी दो या जुड़वाँ और जीबी यानी दो नदियाँ। अपने नाम के अनुरूप जौलजीबी में मिलम ग्लेशियर से आने वाली गोरी नदी और ऊँ पर्वत के निकट काला पानी से आने वाली काली नदी का संगम है। भारत-तिब्बत व्यापार के दौर में यह एक व्यापारिक मंडी हुआ करती थी। पिछले 96-97 सालों से यहाँ नवम्बर माह में एक व्यापारिक मेला आयोजित होता रहा है। जिसकी शुरुआत 14 नवम्बर को होती है।
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14 अक्टूबर की सुबह हम भट्ट होटल में चाय-नाश्ता करने गये वहाँ पर अस्कोट से कवीन्द्र व खीमा आने वाले थे। हमने होटल में बैठे स्थानीय लोगों से पंचेश्वर बाँध के विषय में बातचीत की। कवीन्द्र व खीमा के आने से पहले मैं, वीनीता और दिव्या जौलजीबी संगम देखने निकल गये। काली नदी भारत-नेपाल की सीमा रेखा है। काली के पार नेपाल की जौलजीबी है। इन दोनों बसासतों को जोड़ने वाला एक झूलापुल बना है। पुल पर दोनों देशों के सुरक्षाकर्मी तैनात रहते हैं। हम तीनों भी पुल पार करके नेपाल पहुँच गये। पुल पर भारत-नेपाल के नागरिकों की आवाजाही थी। नेपाल पहुँचने पर हमने स्थानीय युवकों से बाँध व विस्थापन के बारे में उनकी राय जाननी चाही, क्योंकि डूब क्षेत्र में नेपाल का भी इलाका है। युवकों का कहना था कि, पहले तो बाँध बनेगा ही नहीं, यदि बनता है और हमें विस्थापित किया गया तो ऐसी उपजाऊ भूमि हमें कहाँ पर मिलेगी। हम अपने गाँव व जमीन को नहीं छोड़ना चाहते। हमारी सरकार ने क्षेत्रवासियों से इस सम्बन्ध में कुछ कहा ही नहीं है हम बाँध से सम्बन्धित जो बातें सुनते हैं चह भारत में जाकर ही पता चलती हैं। हम जौलजीबी की सामाजिक कार्यकर्ता शकुन्तला दताल से मिलने उनके घर गये। उन्होंने बताया कि क्षेत्र के लोग पंचेश्वर बाँध बनने को लेकर एकजुट नहीं हैं, जहाँ मुआवजे की बात आती है तो क्षेत्रवासी लालच में आ जाते हैं। उनकी अपनी राय थी कि बड़ा बाँध बनने की बजाय छोटे-छोटे बाँध बनने चाहिए तथा वे इस बात से भी बहुत आक्रोशित थी कि डी.पी.आर. जनता की राय लेकर नहीं बनी एवं जनसुनवाई में भी स्थानीय लोगों को बोलने नहीं दिया गया। उनका कहना था कि पंचेश्वर को रहने दो जौलजीबी को चलने दो। उन्होंने अनुसूचित जनजाति आयोग व राज्य सरकार को इस सम्बन्ध में ज्ञापन भी दिये हैं। यह क्षेत्र जनजाति बहुल क्षेत्र है। यहाँ शौका, रं जनजातियों के अतिरिक्त लुप्त होती मानव प्रजाति वन राजी या वनरावत भी निवास करती हैं। वनराजियों के बच्चों के लिए यहाँ जो आवासीय विद्यालय था, वह सरकारी अनुदान के बिना बन्द हो गया है। स्वास्थ्य व र्आिथकी की हानि व शराब के प्रचलन की वजह से इस जनजाति का अस्तित्व खतरे में है। पुरुष ही नहीं, कई महिलाएँ भी शराब की आदी हो गई हैं। स्थानीय स्तर पर अवैध शराब का उत्पादन होता है। कई महिलाएँ समय-समय पर शराब विरोधी आन्दोलन भी चलाती हैं। आगे हम जोग्यूड़ा, बगड़ीहाट, तीतरी, सिलौंनी, घिंघरानी, द्वालीसेरा गाँव होते हुए देर शाम बगड़ी गाँव पहुँचे। बगड़ी गाँव में रुक्मिणी देवी कठायत के आमंत्रण पर उनके घर रात्रि विश्राम किया। जौलजीबी से इन गाँवों व आगे के गाँव चकदारी तक पक्की सड़क तो बनी हुई है परन्तु बहुत ही खस्ताहाल में है। बरसात के दिनों में सड़क पर पानी व मलवा आने की वजह से जगह-जगह गड्ढे बन गये हैं। इस क्षतिग्रस्त सड़क का कोई सुधलेवा नहीं है। आज की यात्रा में मिले गाँव वालों में ज्यादातर लोग बाँध के विरोध में थे। हालांकि, अच्छा मुआवजा मिलने पर कुछ लोग बाँध के समर्थन में भी हैं। लेकिन झॉलीसेरा गाँव के लोग एकमत से बाँध का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि गाँव की भूमि उपजाऊ है। यहाँ नाना प्रकार की फसल, सब्जी व फल का उत्पादन होता है। गाँव में पानी का उचित प्रबन्ध है। आजीविका के साधन भी गाँव में उपलब्ध हैं और पलायन भी न के बराबर हु़आ है। सरकार से उनकी अपेक्षा है कि वह उनकी मूलभूत सुविधाओं को दुरस्त करे।
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हम 15 अक्टूबर को झूलाघाट के लिए निकले। सुनखोली, डौड़ा, चकदारी, रणुवा, अमतड़ी, खर्कतड़ी, तालेश्वर सिमपानी, गेठीगड़ा गाँवों से होते हुए शाम 7 बजे झूलाघाट पहुँचे। डौड़ा गाँव से कवीन्द्र बिष्ट व खीमा जेठी को अपने संगठन के कार्य की वजह से वापस जाना पड़ा। अब यात्रादल में 6 लोग रह गये। रणुवा से तालेश्वर तक का सम्पर्क पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुका है। ग्रामवासी जान जोखिम में डालकर इधर-उधर आ-जा रहे हैं। उनका मानना है कि सरकार मूलभूत आवश्यकताओं पर जानबूझकर ध्यान नहीं दे रही है और अब बाँध के लिए उनकी जमीन माँगकर उन्हें जमीन से भी बेदखल कर रही है। झूलाघाट में ‘महाकाली की आवाज’ नामक संगठन के संयोजक शंकर सिंह खड़ायत से भी पंचेश्वर बाँध के विषय में चर्चा हुई। उनका कहना था कि डी.पी.आर. में खामियाँ ही खामियाँ हैं। जौलजीबी व झूलाघाट कस्बों व इन जगहों पर जो झूलापुल है उनका नाम तक डी.पी.आर. में नहीं है।

16 अक्टूबर की सुबह झूलाघाट बाजार व नेपाल के व्यापारियों से भी बाँध के सम्बन्ध में उनकी राय जानी। ग्रामसभा मजिरकाना के ग्राम प्रधान सुरेन्द्र आर्य से पंचेश्वर बाँध एवं उनकी संस्था ‘कार्ड’ के द्वारा किये गये कार्यों को लेकर विस्तृत बातचीत हुई। आर्य जी ने बताया कि झूलाघाट बाजार तभी बन्द होता है जब पु़ल बंद होते हैं अन्यथा बाजार बंद नहीं होता है। झूलाघाट बाजार का सत्तर प्रतिशत कारोबार नेपाल की वजह से है। अधिकांश व्यापारी बाहर के हैं, पाँच प्रतिशत ही स्थानीय व्यापारी हैं, दुकानें किराये की हैं। बाजार की जमीन व दुकान मजिरकाना गाँव वालों की है यदि बाँध बनता है तो मुआवजा जमीन वालों को मिलेगा। यहाँ का दुकानदार तो बेरोजगार हो जायेगा। उस दिन हम कानड़ी, उमरागैर, बलतड़ी, पीपलतड़ी से होते हुए लगभग शाम 6 बजे तड़ी गाँव पहुँचे। जहाँ सुरेश चन्द्र व सरस्वती देवी ने अपने घर पर हमारे रात्रि विश्राम की व्यवस्था की। बाँध व विस्थापन के बारे में कानड़ी गाँव के ग्राम प्रधान श्री लक्ष्मण चन्द का कहना है ”मैं चालीस वर्ष का हो गया हूँ, बचपन से आज तक इस डर में जी रहा हूँ, मेरे बच्चे भी इस डर में जीने को मजबूर हैं कि बाँध बनेगा तो हम विस्थापित हो जायेंगे। काली नदी ने हमें इतना दिया है कि कोई बेरोजगार नहीं है। प्रचुर वन सम्पदा व उपजाऊ भूमि के इस स्वर्ग को नहीं छोड़ना चाहते हम लोग।” कानड़ी गाँव के मोहन राम का कहना है 200 सालों से हमारा परिवार कृषि कर रहा है। जिस जमीन पर हम कृषि कार्य करते हैं, वह जमीन हमारे नाम पर हस्तान्तरित नहीं हुई है। जमीन अभी भी गौड़ीहाट के धारियाल लोगों के नाम पर है। झूलाघाट से बलतड़ी तक कच्चा मोटर मार्ग है। बलतड़ी से आगे तड़ी गाँव के लिए यात्रा पगडंडी मार्ग से ही करनी होती है। तड़ी गाँव के नवयुवकों के साथ शाम के समय एक छोटी-सी सभा हुई, जिसमें नवयुवकों व ग्रामवासियों के साथ विभिन्न मुद्दों पर विचार-विमर्श हुआ।

अगले दिन 17 अक्टूबर की सुबह 6 बजे तड़ी गाँव से जलतूरी के लिए प्रस्थान किया। तड़ी गाँव काली नदी के किनारे है। वहाँ से दो खड़ी चढ़ाइयाँ पार कर हमें काली नदी के किनारे को छोड़ते हुए जलतूरी पहुँचना है। जलतूरी गाँव डूब क्षेत्र में नहीं आता है लेकिन भविष्य में यदि बाँध बनता है तो यह गाँव सबसे प्रभावित व आपदाग्रस्त गाँवों में जरूर होगा। गाँववासी कहते हैं कि बाँध बनेगा तो भविष्य में हमारे गाँव में भी सिंचाई नहर आ जायेगी। आगे जलतूरी से ध्याण, क्वीतड़, जमतड़ी होते हुए सौर्या गाँव पहुँचे। जमतड़ी से सौर्या गाँव का पैदल रास्ता बहुत ही जोखिम भरा है। एक तो रास्ता बहुत ही ढलान लिए हुए है दूसरा घोड़ों के चलने के कारण पत्थर उखड़ गये हैं। इस रास्ते में एक साथी का पैर मुड़ गया और उन्हें बहुत तकलीफ हुई।
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सौर्या गाँव के लोगों से बातचीत करते हुए भौरा गाँव, रौतगड़ा व तेड़मियाँ होते हुए हम पंचेश्वर पहुँचे। पंचेश्वर में पंचेश्वर महादेव का प्रसिद्ध मन्दिर है जो काली नदी व सरमूल (बागेश्वर) से आनी वाली सरयू नदी के संगम पर स्थित है। यह स्थल ब्रिटिश काल से ही ‘मत्स्य आखेट’ एवं ‘रिवर राफ्टिंग’ के लिए देश-विदेश में विख्यात है। यहाँ गोल्डन महाशीर मछली बहुतायत में पाई जाती है। इस स्थल पर मकर संक्रान्ति के अवसर पर मेला लगता है। पंचेश्वर बाँध का क्षेत्र इस मन्दिर से 3 किमी. नीचे है। वहाँ हमने कुछ मजदूरों को काम करते देखा, उन्होंने हमें बताया कि अभी चट्टानों के परीक्षण का कार्य चल रहा है। यह कार्य नेपाल और भारत दोनों ओर चल रहा है। यह पूछे जाने पर कि कितना कार्य हो चुका है, उन्होंने बताया कि करीब 300 मीटर रॉक टेस्टिंग का काम हो चुका है और 300 मीटर अभी शेष है। यह काम पिछले 11 माह से चल रहा है। पंचेश्वर में रात्रि विश्राम लक्ष्मण बिष्ट जी के लॉज में किया।

19 अक्टूबर को पंचेश्वर से आगे पन्थ्यूड़ा, भट्टाक, सिमलौदा व नेत्रसलान आदि गाँवों के लोगों से बातचीत करते हुए घाट तक की पैदल यात्रा पूरी हुई। पंचेश्वर से नेत्रसलान तक के गाँवों में पलायन का प्रतिशत अन्य जगह से ज्यादा है। जौलजीबी से झूलाघाट और झूलाघाट से पंचेश्वर तक की हमारी यात्रा महाकाली नदी के किनारे-किनारे चल रही थी। हम लगातार नेपाल की सीमा के साथ थे। पंचेश्वर से घाट तक की यात्रा सरयू नदी के साथ चली। जौलजीबी और झूलाघाट पर ही काली नदी में दो झूला पुल हैं जो इस पूरे क्षेत्र को नेपाल से जोड़ते हैं। कहीं-कहीं घाट भी बने हुए हैं जहाँ नाव द्वारा नदी पार नेपाल जाया जाता है। एक गाँव से दूसरे गाँव की दूरी भी अत्यधिक है इसके लिए गाँव वालों ने टायर ट्यूब में बैठकर नदी पार करने का एक आसान तरीका निकाला है। यात्री दल ने लगभग 32 गाँवों का भ्रमण किया। ग्रामीणों का कहना है कि बाँध के बजाय सरकार उनकी सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी आवश्यकताओं को दुरुस्त करे। ब्रिटिशकाल में टनकपुर से जौलजीबी रेल लाइन का सर्वे हुआ था और मुलायम सिंह यादव के रक्षा मंत्री रहते हुए सीमान्त क्षेत्र में सड़क के लिए सर्वे हुआ था तब हमें लगा था कि हमारे गाँव अब सड़क मार्ग से जुड़ जायेंगे। पर तक से अब तक हम सिर्फ बाट ही जोह रहे हैं। उस पार नेपाल का हर गाँव अब सड़क मार्ग से जुड़ गया है और हम आजादी के 72 साल बाद भी वहीं के वहीं हैं।

पंचेश्वर बाँध को लेकर गाँव वाले भ्रम की स्थिति में हैं। तीतरी गाँव के श्री लक्ष्मण सिंह का कहना है, सरकार अपनी नीति स्पष्ट करे व सरकार जो भी फैसला लेती है उसका पता जनता को होना चाहिए। वहीं त्रिलोक सिंह बिष्ट का कहना है कि बुनियादी सुविधा देने के बदले यह हमारी सरकारों की ध्यान भंग की नीति है। गाँव वाले सन् 1956 से सुनते आ रहे हैं कि बाँध बनेगा। यह दो देशों के बीच का राजनीतिक मामला है। इसलिए उन्हें लगता है कि अभी बाँध नहीं बनेगा। कई ग्राम प्रधानों ने सरकारी भूमि का अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं दिया है इसके लिए उन पर दबाव डाला रहा है। ग्रामीण भी अपने लिये नये मकान बनाने में डर रहे हैं। क्षेत्र में 5 लाख से ऊपर की कोई सरकारी परियोजना स्वीकृत नहीं हो रही है। विस्थापन को लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुई है कि सरकार उन्हें कहाँ विस्थापित करेगी। टिहरी बाँध के विस्थापितों की त्रासदी से भी वे लोग परिचित हैं। उनका यह भी कहना है कि यदि बाँध बनता है तो पूरे क्षेत्र में जमीनों के सर्किल रेट एक होने चाहिए। इस क्षेत्र के कई परिवार ऐसे हैं जो पलायन कर चुके हैं और वर्षों से उनके खेत दूसरे भूमिहीन परिवार कमा रहे हैं। उनकी माँग है कि जल्द से जल्द जमीनों का बन्दोबस्त हो ताकि कमाने वालों को जमीन का मालिकाना हक मिल सके।
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क्षेत्र में शिक्षा का भी बहुत बुरा हाल है। कुछ गाँवों के सरकारी स्कूलों में बच्चे न के बराबर हैं। बगड़ी हाट गाँव के ग्राम प्रधान श्री राम सिंह का कहना है, गाँव में इण्टर कालेज तो है लेकिन अध्यापक नहीं जिसके कारण छात्र संख्या काफी कम है। पर्याप्त साधनों के अभाव में बच्चे दसवीं के बाद पढ़ने में असमर्थ हैं। आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग ही अपने बच्चों को शहरों में पढ़ा सकते हैं। युवा पीढ़ी के लड़के दसवीं व बारहवीं कर सेना के लिए तैयारी करते हैं तथा बहुत संख्या में युवक महानगरों के होटलों में नौकरियाँ करने को मजबूर हैं। 

इन गाँवों में कृषि पैदावार अच्छी है। मुख्य फसलों में धान, गेहू्ँ, मक्का, दलहन में सोयाबीन, उड़द, गहत, तुअर आदि का उत्पादन होता है। कृषि कार्य के लिए आधुनिक उपकरण भी उपयोग में लाये जा रहे हैं, जैसे- गेहूँ की मढ़ाई वाली मशीन व हाथ से चलने वाला टैक्ट्रर अधिकांश गाँवों में हैं। यहाँ सिंचाई के पर्याप्त साधन हैं, कुछ एक गाँवों में जरूरी सिंचाई एवं पेयजल की समस्या देखी गई। घाटी का क्षेत्र होने के कारण मौसम गर्म है। जिसके कारण यहाँ आम, लीची, केला, पपीता बहुतायत में होता है। घिंघरानी गाँव में गाँव वालों ने अन्नानाश के पेड़ भी लगाये हैं। सौर्या, भौरा, गाँव में शरीफे के बगीचे भी देखे। पंचेश्वर के आस-पास के इलाके में नींबू, सन्तरा, माल्टा आदि के पेड़ हैं। कुछ इलाकों में मक्के की पैदावार इतनी होती है कि घास के लूटों की तरह मक्के के लूटे बनाये गये थे। क्षेत्र में पशुधन भी काफी है। हर घर में कोई न कोई दुधारू जानवर पाला हुआ है। पर्याप्त संसाधनों के अभाव में ग्रामीण अपने कृषि उत्पाद व दुग्ध उत्पाद को बाजार तक नहीं पहुँचा पा रहे हैं। मिश्रित प्रजाति के वृक्ष यहाँ के जंगलों में हैं। जिसमें साल के वृक्ष मुख्य हैं। काली नदी व सरयू नदी की घाटी में च्यूरा वृक्ष बहुतायत में पाया जाता है। यह बहु उपयोगी वृक्ष है। इसकी जड़ से लेकर पत्ती तक उपयोग में लायी जाती है।

यात्रा के दौरान महिलाओं के कठिन कर्मठ जीवन के उदाहरण हर जगह देखने को मिले। अत्यधिक काम के बोझ के कारण व समय की कमी से स्वयं के स्वास्थ्य का ध्यान न रखने के कारण महिलाएँ कम उम्र में ही उम्रदराज दिख रही थीं। सड़क से गाँवों की अत्यधिक दूरी के कारण स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ ग्रामीणों को नहीं मिलता। आशा कार्यकर्ता व ए.एन.एम. भी नियमित रूप से नहीं आ पातीं, जिसके कारण गर्भवती महिलाओं की जाँच व बच्चों का टीकाकरण भी समय पर नहीं हो पाता है। मरीज को डोली में बिठाकर मुख्य सड़क तक लाना पड़ता है। जंगल जाने वाले रास्ते भी ठीक नहीं हैं। कई बार महिलाओं के पेड़ों और घास काटते समय चट्टानों से गिरने पर तत्काल उपचार उपलब्ध नहीं हो पाता। जिस कारण वे आजीवन अपाहिज हो जाती हैं या उनकी मृत्यु हो जाती है। जंगली जानवरों का प्रकोप भी खेती में देखने को मिलता है। जोग्यूड़ा गाँव की हेमा देवी व राधा देवी ने कहा, हम कमरतोड़ मेहनत कर खेती करते हैं। जब फसल पकती है तो हमारी इस मेहनत का फल हमारे अनुकूल नहीं होता है। इन मूंगफली की फलियों को देखो कितनी छोटी व कम हैं। बन्दर व सुअर खेतों में फसलों को नुकसान पहुँचाते हैं। फसल कम व दाना सही न होने पर हम इसे बाजार में भी नहीं बेच सकते। इन्हीं महिलाओं के साथ एक अनुसूचित जाति की वृद्धा जीवा देवी मिली। जो एकल महिला हैं तथा पाल परिवारों के खेतों में मजदूरी करती हैं। उन्हें बहुत गुस्सा है कि वह बहुत गरीब है और उनकी वृद्धावस्था पेंशन अभी तक नहीं बनी है। हमसे आशा करती है कि हम उनकी पेंशन बनवाने में मदद करें। खर्कतड़ी गाँव से जब हमारा दल तालेश्वर जा रहा था तो रास्ते में एक वृद्धा घास पत्ती लाते हुए मिली। स्वभाववश उनसे भी बातचीत करने लगे। उनकी बातों से पता चला कि वह गाँव में अकेली रहती हैं और उनका पुत्र अपने परिवार के साथ शहर में रहता है। वह अस्वस्थ भी हैं। हमारे यह कहने पर कि अपने बच्चों के पास चली जाओ उन्होंने कहा, मेरा बेटा अफसर है? प्राइवेट नौकरी करता है। उसका अपने बच्चों की पढ़ाई व खाने पर ही बहुत खर्च हो जाता है, वह मुझे कहाँ रखेगा? मैं यही ठीक हूँ। यहाँ अपने लोग हैं, अपनी बोली-भाषा है ।
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शराब के प्रकोप से यहाँ की महिलाएँ भी अछूती नहीं हैं। जब बगड़ी हाट गाँव में शराब की दुकान खुली तो गाँव की महिलाएँ एकजुट हुईं। शराब के विरोध में आन्दोलन चलाया और अपने गाँव में शराब की दुकान को बन्द करवाया। बाद में यह दुकान जौललीबी में खुली। महिलाओं के मालिकाना हक पर जब हमने गाँव वालों का नजरिया जानना चाहा तो बगड़ीहाट गाँव के कालूराम जी का कहना है, औरतों का जमाना है। सब उनको मिल रहा है, अब जमीनें भी उनके नाम हो जायेंगी। अगर वह दूसरी शादी कर लेंगी तो हमारे पास क्या रह जायेगा।

शिक्षा का अभाव भी इस क्षेत्र की महिलाओं में देखा गया। पुरानी पीढ़ी तो बिलकुल ही अनपढ़ है। मध्यम आयु की महिलाएँ भी मात्र साक्षर हैं। नई पीढ़ी की बालिकाएँ जरूर स्कूल जा रही हैं। कम शिक्षा के कारण अन्धविश्वास बहुत है। सौर्या भौरा, रौतगड़ा व तड़ेमिया आदि क्षेत्रों में भ्रमण के दौरान बालिकाओं से बातचीत में पता चला कि उनके गाँवों में आँगनबाड़ी व जूनियर हाईस्कूल तो हैं। जब आगे की पढ़ाई लिए निकट के इण्टर कालेज जाना होता है तो उस क्षेत्र की पुरानी मान्यता आड़े आती है। स्थानी चौमू देवता का थान इण्टर कालेज मार्ग पर पड़ता है, मासिक धर्म के दौरान लड़कियों को यहाँ से गुजरने पर पाबन्दी है। उनके परिजन भी मासिक धर्म के दौरान उन्हें स्कूल नहीं भेजते। जिस कारण कई बालिकाएँ आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख पातीं। आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग ही अपनी लड़कियों को पढ़ाई के लिए पिथौरागढ़ या अन्य जगहों पर भेजते हैं। रौतगड़ा की रेवती चंद जो पिथौरागढ़ डिग्री कालेज की छात्रा है, का कहना है, इस परम्परा के कारण जो कुछ हम लड़कियाँ झेलती हैं उससे हमारे मन में नकारात्मकता का भाव पैदा होता है। इस परम्परा का विरोध करने पर परिवार वालों की डाँट सहनी पड़ती है। जब इस मसले पर मैंने लड़कियों व गाँव वालों से बात करने की कोशिश की तो स्वयं लड़कियाँ भी समाज व देवता के भय से परम्परा को तोड़ने को तैयार नहीं हुई। नेत्रसलान गाँव के दुकानदार श्री मानसिंह महर का कहना है, शिक्षा का उचित प्रबन्ध न होने के कारण हमारी बेटियाँ कम पढ़ पाती हैं। कम शिक्षित बेटियों के लिए अच्छे वर भी नहीं मिल पा रहे हैं।

महिला तस्करी की कुछ घटनाएँ भी यहाँ हुई हैं। कार्ड संस्था के श्री सुरेन्द्र आर्य जी ने बताया कि सन् 2016 में 125 लड़कियाँ नेपाल से भारत की सीमा झूलाघाट में दिल्ली भेजने के लिए लायी गयी थीं। जिन्हें हमने स्थानीय पुलिस की मदद द्वारा तस्करों से छुड़ाया था। बाद में इन लड़कियों से पूछने पर पता चला कि उनमें से 80 प्रतिशत लड़कियों को शादी के नाम पर व 20 प्रतिशत लड़कियों को काम दिलाने के नाम पर भारत लाया गया है। लड़कियों को घर पहुँचाने के लिए उनके माता-पिता व नेपाल पुलिस प्रशासन से सम्पर्क किया गया। झारखण्ड की भी तीन लड़कियों को नेपाल भेजा जा रहा था। उन्हें भी तस्करों से मुक्त कराया।
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भ्रमण के दौरान हमने पाया कि सार्वजनिक जगहों विशेषकर दुकानों में महिलाओं की संख्या कम थी। बातचीत के दौरान पुरुषों की उपस्थिति में महिलायें कम ही उत्तर दे रही थीं। ध्याण गाँव में जब हम जमतड़ी जाने के लिए गाड़ी का इंतजार कर रहे थे तो एक महिला ने अपनी स्कूटी रोककर सड़क पर हमारे खड़े होने का कारण पूछा, उनसे बात करने पर पता चला कि सबीना खातून नामक वह महिला स्वास्थ्य विभाग में है। सबीना पिथौरागढ़ अपनी ड्यूटी हेतु स्कूटी से 40-45 किमी. का सफर तय करती है। सबीना ने बताया कि उसने अपने बच्चों की शादी कर दी है। उनकी एक पोती भी है। उन्होंने चार-पाँच साल पहले ही स्कूटी चलाना सीखा।

जमतड़ी गाँव पहुँचने पर हमने रास्ते में एक महिला से हल्दू गाँव का रास्ता पूछा। उसने हमारा परिचय जानना चाहा, फिर उन्होंने कहा कि दल में सब घघरिये (स्त्रियाँ) ही हो। साथ में कोई मर्द नहीं है। नई जगह पर आये हो और रास्ता भी मालूम नहीं। यहाँ की महिलायें हमें अधिकार व प्रभुत्व सम्पन्न लगीं। हमारे रहने व खाने की सब व्यवस्था महिलाएँ ही कर रही थी। पदयात्रा के दौरान रास्ते में जो भी महिला या लड़कियाँ मिल रही थी, हमारे आने का कारण व परिचय जानने के बाद, सिबौ, बहुत दूर से आये हो, थक गये होगे, चलो हमारे घर, चाय-पानी पियोगे, इस प्रकार की बातें सुनने को मिली।

73वें संविधान संशोधन के द्वारा त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के अन्तर्गत महिलाओं को पंचायतों में 50 प्रतिशत आरक्षण तो प्राप्त हो गया है। लेकिन यहाँ की महिलाएँ राजनीतिक रूप से सशक्त नहीं हो पायी हैं। अधिकांश ग्राम पंचायत सम्बन्धी आर्थिक व प्रशासनिक निर्णय प्रधान पति द्वारा लिये जा रहे हैं। ग्रामसभा गेठीगड़ा की देवकी देवी गोबाड़ी हमें एकमात्र ऐसी महिला ग्राम प्रधान मिली, जो अपने घर परिवार व खेती के कार्यों के अतिरिक्त अपने प्रधानी के अधिकारों के प्रति जागरूक है।

नेपाल के साथ इन गाँवों के रोटी बेटी के सम्बन्ध हैं। इस क्षेत्र के लोग बताते हैं कि उनके पूर्वज  नेपाल से आये थे। ईष्ट देवता की पूजा करने के लिए ये जोग आज भी नेपाल आते-जाते हैं। इन्हें लगता है कि बाँध बनने से इनकी व नेपाल की साझा संस्कृति व सामाजिक संरचना भी ध्वस्त हो जायेगी। बाँध बन जाने से समाज, संस्कृति तो छिन्न-भिन्न हो ही जायेगी। इसके अलावा इस क्षेत्र की घास, पौधों की 193 प्रजातियाँ जिनमें 46 वृक्ष, 33 झाड़ियाँ, 53 जड़ी-बूटियाँ, 29 घास, 11 क्लेमर्स तथा कुछ परजीवी प्रजातियाँ भी नष्ट होंगी। जैव विविधता में शामिल स्तनधारी जन्तुओं के अतिरिक्त जीव-जन्तुओं की सैकड़ों प्रजातियाँ भी प्रभावित होंगी। लगभग 133 गाँव, 28,153 परिवारों की जमीन, 9100 हेक्टेयर भूमि व मनुष्य की आस्था के प्रतीक असंख्य देवी-देवताओं के थान व मन्दिर भी इस विशाल परियोजना में जलमग्न हो जायेंगे। जब 11,600 हेक्टेयर की कृत्रिम झील अपने आकार में आयेगी तो उससे होने वाले पर्यावरणीय नुकसान का आकलन कना कठिन है। पंचेश्वर सहित उत्तराखण्ड में कई बाँध प्रस्तावित हैं। यदि इसी प्रकार बाँध बनते रहे तो उसका परिणाम क्या होगा यह अभी एक बहुत बड़ा प्रश्न है।
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