मेरी ‘उत्तरा’

पल्लव

बहुत पुरानी बात नहीं है मुश्किल से सोलह-सत्रह बरस हुए हों। मेरा बचपन चित्तौड़गढ़ में व्यतीत हुआ, जो एक साधारण छोटा-सा शहर था। कहने को एक-दो दुकानें थीं, जहाँ किताबें मिल जाती थीं लेकिन वहाँ किताब का अर्थ लुगदी वाले उपन्यास और समाचार, पत्र-पत्रिकाएं होता था। उस शहर में रहते हुए ही अपने अध्यापकों के यहाँ देखकर लघु पत्रिकाओं में मेरी दिलचस्पी हुई और मैं कुछ लघु पत्रिकाएं मंगवाने भी लगा। तब तक मैंने ‘हंस और ‘पहल’भी मुश्किल से ही देखी थी। एम. ए. करते हुए हिंदी के जाने-माने लेखक स्वयंप्रकाश जी के सघन साहचर्य में आया तो जैसे पत्रिकाओं का एक नया संसार ही मेरे सामने खुल गया। वे उस दौर के लोकप्रिय, चर्चित और प्रशंसित कहानीकार थे। हिंदी की लगभग सभी लघु पत्रिकाएँ उनके यहाँ आती थीं। उनका स्वभाव था कि इन पत्रिकाओं को पढ़कर वे रद्दी में नहीं डालते थे बल्कि अपनी कॉलोनी के पुस्तकालय में रख देते या मुझ जैसे उत्साही पाठकों को दे देते थे। फिर नौकरी की दौड़भाग मुझे चित्तौड़ से कुछ दूर उदयपुर ले आई। उदयपुर थोड़ा बड़ा शहर था, जहाँ अनेक पुस्तकालय, किताबों की दुकानें और प्रकाशक भी थे। उदयपुर में एक कालेज में पढ़ा रहे अध्यापक हिमांशु पंड्या से मैं न केवल पूर्व परिचित था बल्कि एम.ए. के दौरान उनसे अध्ययन सम्बन्धी परामर्श भी नियमित लेता रहता था। उनके अम्बामाता स्थित किराए के घर में मेरा डेरा लगा। यह घर उन्होंने अपनी एक पूर्व कल्पना के हिसाब से सजा रखा था। वे  कहते थे कि पढ़ाई के दौरान उनकी हार्दिक आकांक्षा थी कि उनका घर ऐसा हो जहाँ नींद में सोने और दोपहर में चलने पर घर में मनुष्य से किताबें टकराती रहें। उनके यहाँ हिन्दू, सेमिनार और ई.पी.डब्ल्यू. के साथ हिंदी और मराठी की दर्जन-दो दर्जन पत्रिकाएं नियमित आती थीं। इन्हीं पत्रिकाओं में एक थी ‘‘उत्तरा’’। मैंने जब पहली बार ‘उत्तरा’ को देखा और उसके सम्पादन सम्बन्धी विवरण पढ़े तो चौंक गया। मैंने अब तक स्त्रियों से सम्बंधित जो पत्रिकाएँ देखीं थीं, वे सौंदर्य प्रसाधनों और संतति निरोधकों से अधिक बात नहीं करती थीं। मेरे लिए यह सचमुच सुखद था कि स्त्रियों के सम्बन्ध में विचार करने का कोई गंभीर प्रयत्न हिंदी में भी होता है। हिमांशु सर ने समझाया कि हाँ, दुनिया बहुत बड़ी है और तुम्हारी कल्पना से कहीं ज्यादा कठिन और चुनौतीपूर्ण काम करने वाले लोग इस संसार भर में हैं। वे मुझे सिर्फ महिलाओं के द्वारा प्रकाशित-सम्पादित की जाने वाली पत्रिका ‘उत्तरा’के बारे में बताने लगे। उन्होंने या उनकी धर्मपत्नी (नहीं मुझे जीवनसंगिनी लिखना चाहिए) ने कभी किसी जगह इस पत्रिका को देखा तो वे इसके सदस्य बन गए और तबसे उनके यहाँ नियमित यह पत्रिका आ रही थी। इसके बाद उदयपुर में उनके तीन ठिकाने हुए और तीनों जगह किताबों-अखबारों-पत्रिकाओं के अम्बार में मुझे ‘उत्तरा’दिखाई देती रही। बाद में जब वे डूंगरपुर के निवासी हो गए तब भी उनके घर जाकर ऐसे अम्बार में मुंह घुसाकर जाने क्या खजाना प्राप्त कर लेने का मेरा उत्साह मंद नहीं पड़ा था और वहां भी मुझे ‘उत्तरा’के अंक दिखाई देने पर सुकून मिलता था।

उदयपुर में ही मुझे इस पत्रिका को देखकर जाने क्या उत्साह मिला कि मैंने अपना एक आलेख प्रकाशित होने भेज दिया। यह आलेख भीष्म साहनी के प्रसिद्ध नाटक ‘माधवी’पर आधारित था और इसे मैंने अपने एम.ए. की पढ़ाई के दौरान लिखा था। इस आलेख को ‘उत्तरा में छपा देखकर मुझे बहुत अच्छा लगता था और मैं सोचता था कि स्त्री सम्बन्धी हिंदी नाटकों-कहानियों पर मैं आगे भी ‘उत्तरा’ के लिए लिखता रहूँगा। लेकिन बहुत कम मित्र जानते हैं कि आलस्य और प्रमाद मेरे भी दो प्रमुख गुण हैं जिनसे पार पाना मेरे लिए आसान नहीं होता।
Uttara Or Mein

फिर एक ऐसा संयोग हुआ जिसका उल्लेख जरूरी है। हुआ यह कि जल्दी ही उदयपुर में मैंने अपने परिवार को बुला लिया। पत्नी और बिटिया के साथ मेरी माँ और नानाजी आ गए। हम लोगों ने बोहरा गणेशजी मंदिर के निकट एक नयी बनी बस्ती में एक प्रोफेसर साहब के यहाँ किराए में रहना शुरू किया था। इस मकान के पड़ोस में अम्मा रहती थीं यानी सौभाग्यवती जी। वे अलीगढ़ के एक कॉलेज से सेवानिवृत्त होकर आई थीं और अपने प्रोफेसर पुत्र के साथ रह रही थीं। वे मूलत: ‘उत्तराखण्डी थीं और उनके पति वामपंथी कार्यकर्ता रहे थे। उन्हें मैंने उदयपुर के एक दो आयोजनों में जोरदार भाषण देते हुए सुना था। हमारे मकान मालिक की पत्नी ने उनसे हमारा परिचय करवाया और फिर जल्दी ही हम लोगों में किताबों-पत्रिकाओं का आदान-प्रदान होने लगा। मेरी नानी का निधन कुछ दिनों पहले ही हुआ था सो माँ को लगता कि जैसे सौभाग्यवती जी के रूप में उन्हें फिर एक माँ मिल गई हैं। अम्मा लगभग हर रोज हमारे यहाँ आतीं और खूब गप्पें लगातीं। उनकी बातों में सिलाई-बुनाई से लगाकर देश की राजनीति और स्वर्ण चतुर्भुज योजना तक सब होता था। फिर मुझे पता चला कि अम्मा तो लेखिका भी हैं। उन्होंने ने बताया कि ‘उत्तरा’के आग्रह पर वे अपनी आत्मकथा लिख रही हैं। मेरे लिए यह दोहरी खुशी जैसा था कि जिस पत्रिका से मेरा अपनापन है उसी में अम्मा भी लिखेंगी।

जल्दी ही हम अम्मा का पड़ोस छोड़कर थोड़ी दूर एक बड़े मकान में रहने लगे और अम्मा वहां भी सायंकालीन भ्रमण के तर्क या हम लोगों से प्रेम के कारण हफ्ते में तीन-चार बार आने लगीं। अम्मा की आत्मकथा धारावाहिक ‘उत्तरा में छपती रही। धीरे-धीरे समय निकलता गया और मेरी रुचि साहित्य आलोचना में गहरी होती गई। इधर स्थायी नौकरी के तनाव थे और दूसरी तरफ घर-गृहस्थी की उलझनें। हम लोगों ने तीन साल बाद इस बड़े मकान को भी छोड़ दिया और वहां से काफी दूर एक नया मकान किराए पर ले लिया। यहाँ अम्मा का पैदल आना मुश्किल ही नहीं लगभग असंभव था। दूरी, ट्रेफिक और उनकी बढ़ती आयु। तब भी यहाँ रहते हुए, अम्मा हम लोगों से यदा-कदा मिलने आतीं, मैं भी जब भी उनके घर की तरफ जाता तो अम्मा से बिना मिले आने में एक अपराध बोध-सा होता। फिर मुझे आजीविका की तलाश दिल्ली ले आई। दिल्ली आ जाने के बाद एक बार उदयपुर जाकर अम्मा से मिलना भी हुआ तब तक वे अपनी स्मरण शक्ति लगभग खो चुकी थीं और उनकी नेत्र ज्योति भी समाप्त हो चली थी। अम्मा ने बताया कि अब वे लिखने में असमर्थ हैं सो आत्मकथा का कार्य पूरा न हो सका। उन्होंने मुझे इस मुलाकात में खूब लाड़ किया। मेरे सर पर हाथ फेरा और मिठाई भी खिलाई। उन्होंने एक डायरी मुझे उपहार में दी फिर बोलीं कि मुझे इस पर तुम्हारे लिए लिए शुभकामनाएँ लिखनी चाहिए। उन्होंने लिखीं भी।

इस बीच मुझे नैनीताल के कुमाऊं विश्वविद्यालय से एक सेमिनार में भाग लेने का निमंत्रण मिला। इस आयोजन को विश्वविद्यालय और महिला समाख्या ने मिलकर किया था। यहाँ जाने पर पहली बार मुझे ‘उत्तरा’की सम्पादकीय टीम से मिलने का अवसर मिला। इस आयोजन में ‘उत्तराखण्ड के देहात से भी अनेक महिलाएं भी आई थीं, जिन्होंने एक सत्र में अपने अनुभवों और आपबीती को सुनाया भी। मेरे लिए यह चकित होने का अवसर था कि ठेठ देहात से आई ये औरतें पितृसत्ता और स्त्री मुक्ति की बातें कर रही हैं और समझ रही हैं तो इसका कारण अवश्य महिला समाख्या जैसी संस्था द्वारा किए गए कार्यों में होना चाहिए। यहीं मुझे ‘उत्तरा’की भूमिका भी और अधिक समझ आई। एक पत्रिका जिसे पूरी तरह महिलाओं द्वारा निकाला जाता है, सामग्री तैयार करने से लेकर मुद्रण और वितरण तक उसकी भूमिका भी समाज के ठेठ साधारण तबकों तक हो सकती है। वहाँ मुझे ‘उत्तरा’के कुछ पुराने विशेषांक देखने को मिले जो निश्चय ही संग्रहणीय थे। इसी तरह महिला समाख्या ने भी अपने द्वारा प्रकाशित कुछ पुस्तक-पुस्तिकाएं वहां दी थीं।

अब लगभग पंद्रह बरस हो गए और लगातार ‘उत्तरा’को देख रहा हूँ, पढ़ रहा हूँ। संसार में स्त्रियों से सम्बंधित अनेक महत्वपूर्ण खबरें और विवरण मेरे लिए ‘उत्तरा’ने सुलभ करवाए हैं। सौभाग्यवती जी सरीखी महिलाओं की आत्मकथा और अनेक महिलाओं के आत्मवृत्तांत ‘उत्तरा’ने छापे हैं। ये वृत्तांत साहित्य के लिहाज से भले ही कोई ऊंची कृतियों की तरह से विश्लेषित-मूल्यांकित न किए जाएं लेकिन भारतीय समाज की न समझ आने वाली व्यापकता और विविधता को नजदीक से देखने-जानने में इनका महत्व होगा। साधारण लोगों की आवाजों का भी कोई मतलब होता है, भले ही उन्हें दर्ज करने की रवायतें न हों। ‘उत्तरा’ने अपने छोटे से कलेवर में यह बहुत बड़ा काम किया है। इसी तरह प्रकाशन से जुडी संभ्रांतवादी अवधारणाओं को भी ‘उत्तरा’तोड़ती है और इस नाते हमें कहना चाहिए कि भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करती है। लोकतंत्र का आशय केवल चुनावों में जनप्रतिनिधि चुनना नहीं होता बल्कि लोकतंत्र का सही अर्थ है हर किसी नागरिक को अपनी बात कहने-सुनाने का अवसर देना। उन्हें कहने का ढंग सिखाना और अपनी बात कहने का उचित विवेक देना। ‘उत्तरा’जैसे मंच यदि भारत के हर इलाके में हों, हर भाषा-समुदायों में हों और इन्हें लगातार विकसित-संवर्धित किया जाए तो निश्चय ही हमें एक सभ्य और जागरूक समाज बनाने में बड़ी मदद मिलेगी, जिसके लिए ही शासन पद्धति के रूप में हमने लोकतंत्र का रास्ता चुना था। जो लोग समझते हैं कि स्त्री-विमर्श का अर्थ औरतों को सत्ता सौंप देना है और उनकी देह की आजादी का रास्ता उन्हें स्वैराचार की छूट देना है, वे स्त्री-सम्बन्धी किसी भी चर्चा को गृहशोभा, गृहलक्ष्मी मार्का पत्रिकाओं में रंगीन चित्रावलियों में ही देखना चाहते हैं। उन्हें समझना होगा कि किसी भी समाज की मुक्ति सामूहिक मुक्ति से ही संभव है अर्थात जब समाज में हर तरह की बराबरी होगी और सभी को अपनी उन्नति के समान अवसर देने की सहूलियत होगी। सामूहिक मुक्ति की इस तलाश का एक रास्ता ‘उत्तरा’ने बनाया है जिसका हम सबको स्वागत करना चाहिए। हमारे देश के सभी विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में आजकल महिला अध्ययन केन्द्र होता है। यदि इन केन्द्रों को चलाने वाले लोग ‘उत्तरा’जैसी पत्रिका अपने-अपने स्तर पर निकालें तो कैसा सुंदर समाज बने। जब तक ये लोग अपनी-अपनी ‘उत्तरा’नहीं निकाल लेते इन सबको मेरी ‘उत्तरा’मंगवाना शुरू कर देना चाहिए। सच में।
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