बिन ब्याही लड़की की चिता : लघुकथा

शेर सिंह पांगती

पुराने समय की बात है। गोपिया एक दिन घर के आंगन में बैठे-बैठे अपनी दो-ढाई वर्ष की लड़की कुसुमा का हाथ पकड़ कर उसे नचाते हुए गाना गा रहा था-

म्यरि होंसिया बालि कुसुमा, छुम रे छुमा छुम,
हाजुरी का फूल कसी, छुम रे छुमा छुम,
म्यरि रुपोसा बालि कुसुमा, छुम रे छुमा छुम,
गढ़कोट की राणि बणली, छुम रे छुमा छुम,
भुपिचन की राणि बणली, छुम रे छुमा छुम,
राज जै रोला धुरि शिकार, छुम रे छुमा छुम,
तू बैठली छाजा कुसुमा, छुम रे छुमा छुम।

”हजारी के फूल सी सुन्दर मेरी बिटिया, जब तू बड़ी होगी, गढ़कोट के राजा भूपचंद की रानी बनेगी। राजा शिकार खेलने जंगल जायेगा और तू राजमहल के झरोखे में बैठी रहेगी।”

संयोग से उसी समय उसके घर के निकट के मार्ग में अठावन वर्ष का राजा भूपीचन आखेट करके जंगल से वापस लौट रहा था। गोपिया को इस प्रकार गीत गाते हुए सुन वह कुछ क्षण के लिए ठिठक गया। अब राजा के मन में एक विनोद सूझा। वह गोपिया के निकट जाकर कहने लगा-

”ससुर जी, मैं तो धुरि शिकार से आ गया हूँ, आपकी पुत्री ने तो अभी तक ठीक से चलना भी नहीं सीखा है, कब बैठेगी यह मेरे महल के झरोखे में?” अकस्मात् राजा को सम्मुख उपस्थित देख गोपिया कुछ क्षण के लिये आवाक् रह गया। फिर उसने भी विनोदपूर्ण भाव से ही उत्तर दिया-

”राजा जी, आप चिन्ता न करें। चन्द्रकला की भाँति बढ़ कर मेरी यह बिटिया कुछ ही वर्षों में एक सुन्दर तरुणी बन जायेगी।”

”तब तो उस दिन आपका वचन पूर्ण करने के लिये मैं अवश्य आ जाऊंगा दूल्हा बन कर।” राजा ने पुन: विनोद की भावना से ही हँसते हुए कहा।

”हाँ हाँ! आ जाना दूल्हा बन कर, इसे मेरा ‘वाकदान’ समझ लो।” गोपिया के ऐसा कहने पर उसके साथ हुई इस वार्ता को एक क्षणिक मनोविनोद समझकर राजा चला गया। समय व्यतीत होता गया। कुसुमा कुसुमकली की भाँति खिलती गई। राजा के साथ घटित विनोदपूर्ण प्रसंग को गोपिया भी विस्मृत कर गया था।

कुसुमा कुसुमकली की भाँति बड़ी होती गई। अब वह गाँव के अन्य बच्चों सहित पशुओं के साथ जंगल जाने लगी थी। नित्य सायं पीठ पर घास-लकड़ी का बोझ रखकर पशुओं के साथ घर आना, जंगल में घस्यारियों की लम्बी तान छेड़ कर न्योली गीत गाना और ग्वाल बालों का मुरली की तान छेड़ना, जीवन का यह क्रम उसके सुकोमल उदित मन में बहुत आनन्द की अनुभूति प्रतीत होता था।

समय व्यतीत होता गया। कुसुमा को एक तरुणी के रूप में विकसित होते देख माँ का चिन्तित होना स्वाभाविक था। उसने एक दिन पति गोपिया से कहा ”कुसुमा के बाबू, हमारी कुसुमा अब विवाह योग्य हो गई है। क्या आपको इसकी चिन्ता नहीं है? लड़की तो पराये घर की वस्तु है ही। कही कोई ठीक सा लड़का मिल जाय तो इसके हाथ पीले कर दो न। पिता के घर में रह कर लड़की किसी राजा की रानी जो क्या बनेगी।”

”तुम कह तो ठीक रही हो, कुछ लोग अपने लड़कों के लिये कुसुमा का हाथ मांग भी रहे थे। मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया। अब देवदत्त ज्यू को कोई अच्छा सा वर खोजने के लिये कहता हूँ” इतना कहकर कुछ सोचते हुए गोपिया फिर कहने लगा।

”कुसुमा की इजा, जब कुसुमा बहुत छोटी थी, एक दिन राजा भुपिचन हमारे घर आया था। हम दोनों ने मनोविनोद में कहा कि कुसुमा गढ़कोट की रानी बनेगी। राजा ने कहा था वह दूल्हा बन कर कुसुमा को लेने अवश्य आयेगा। परन्तु सम्भवत: राजा अब उन बातों को भूल गया होगा।”
(Unmarried girl’s pyre)

”ओह! तो क्या आप उस वृद्ध राजा के साथ मेरी कुसुम की कली सी बेटी का विवाह करने को तैयार हो जायेंगे? यह कदापि नहीं हो सकता है।” गोपुली ने अपनी असहमति व्यक्त की।

”नहीं तो, परन्तु वास्तविकता यह है कि मैंने ही राजा को अपना वचन दिया था। वचन तो वचन ही होता है। अपने कहे हुए वचनों से पीछे हटना एक अपमानजनक कृत्य है, लज्जा की बात है। लड़की को पराये घर जाना ही है तो उसका विवाह किसी वृद्ध के साथ हो या वह किसी तरुण के साथ जीवन व्यतीत करे, यह सब उसके भाग्य की बात है।” कह कर गोपिया ने पत्नी को समझाना चाहा।

कुछ असन्तोष की भावना से गोपुली ने कहा ”कुसुमा केवल मेरी ही बेटी तो है नहीं, आप भी तो उसके पिता हैं। लड़की के हित-अनहित के सम्बन्ध में सोचना आपका भी कर्तव्य है। अधिक क्या कहूँ। जैसा अच्छा लगे, जिससे लड़की का हित हो, ऐसा करें, मैं तो यही कहूंगी।

कुसुमा के विवाह के सम्बन्ध में आज दोनों पति-पत्नी के मध्य विचार विमर्श हो ही रहा था कि उनके आगन में एक अपरिचित व्यक्ति ने प्रवेश कर उनका अभिवादन किया। परिचय और आने का प्रयोजन पूछे जाने पर उसने बताया कि वह राजा भूपीचन का सन्देश वाहक है। कई वर्ष पूर्व जब गोपिया ने अपनी लड़की का विवाह राजा के साथ करने का वचन दिया था, अब लड़की विवाह योग्य हो चुकी है। आपका वचन पूरा करने के लिये राजा दूल्हा बन कर आने वाला है। चार गते फाल्गुन विवाह का लग्न निश्चित किया गया है। अत: विवाह की तैयारी करें।

सन्देश वाहक के उक्त कथन से गोपिया हतप्रभ सा हो गया कि वह अपनी इस पुष्पकली सी प्यारी बेटी का विवाह उस वृद्ध राजा के साथ कर दे अथवा अपने कहे हुए वचन से पीछे हट जाये। उस वृद्ध राजा के साथ विवाह करने पर एक तरुणी के जीवन व्यतीत करने का प्रश्न था, परन्तु इस विवाह सम्बन्ध को अस्वीकार करने पर राजा को दिये गये वचन दान के भंग होने और समाज में अपयश फैलने का भी भय था। मन ही मन विचार मन्थन करने के पश्चात् उसने सन्देश वाहक को कह दिया कि राजा चार गते फागुन के दिन आ जाय दूल्हा बनकर।

दोनों ओर से विवाह की तैयारी होने लगी। तत्कालीन पुरुष प्रधान समाज में घर के किसी भी कार्य में महिलाओं को विरोध करने का तनिक भी अधिकार नहीं था। उन्हें मूक बनकर पुरुषों के प्रत्येक निर्णय को स्वीकार करना ही पड़ता था। लड़कियां तो अपने जीवन साथी का चयन कर ही नहीं सकती थीं। अभिभावकों की इच्छा से किसी भी वृद्ध, अपाहिज, अशक्त, अपराधी अथवा नपुंसक के साथ भी लड़की का विवाह कर देना न तो सामाजिक अपराध समझा जाता था और न अमानुषिक कृत्य। इसी कारण कुसुमा उस वृद्ध राजा की रानी बनने की तैयारी में थी।

चार गते फागुन का दिन भी आ गया। गोपिया के घर में विवाह की तैयारी हो चुकी थी। प्रात: ही गाँव के पूर्वी छोर के एक ऊँचे टीले से उच्च परन्तु एक ही स्वर में किसी के पुकारने की आवाज सुनाई दी।

ओ गाँव वालो, कल रात एकाएक पेट में पीड़ा उठने से गढ़कोट का राजा भूपीचन स्वर्गवासी हो गया हो ऽऽऽ… इस ‘कालधात’ को गाँव के सभी लोगों ने सुना और लोग हड़बड़ाहट में राजमहल की ओर जाने लगे। किसी के भी मन में गोपिया की स्थिति को समझने अथवा उसे समझाने का विचार ही नहीं आया। जो लोग उसके घर में विवाह की तैयारी हेतु आये थे, वे हतप्रभ होकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो यत्र-तत्र बैठे थे। गोपिया सोचने लगा ओह। मेरी बेटी आज बिन ब्याहे ही विधवा बन गयी है। अब कौन करेगा इसके साथ विवाह और कैसे सम्भाल पायेगी यह अपने यौवन को? लोग कटाक्ष करते हुए सब मुझे यही कहेंगे कि अपनी बेटी को गढ़कोट की रानी बनाना चाहता था, अब इसे किसी की रखैल बना दो। तुम्हारी इस अपशकुन ग्रह वाली लड़की के साथ विवाह करने के लिये अब कोई तैयार नहीं होगा। ओह, उस समय मेरी क्या स्थिति होगी? अब मुझे इस संकट की घड़ी से उबरने के लिये कुछ करना ही होगा, कुछ सोचना ही होगा। घर में आये कुछ वृद्धजनों और पंडित जी से परामर्श कर अन्त में उसने जो निर्णय लिया, उसके अनुसार कुसुमा को दुलहिन बनाकर सजाया गया और कहा गया कि दूर नदी किनारे उसका दूल्हा आया हुआ है, तुरन्त वहाँ पहुँचकर उसे सात फेरा लगाना है। उल्टा घाघरा पहिनाकर कुछ मादक द्रव्यों का सेवन कराते हुए अशुभ धुन में बाजा बजाते हुए कुछ लोग बाली कुसुमा को लेकर उस स्थल पर पहुँच गये, जहाँ मृत राजा की चिता लगी थी।

कुसुमा मादक द्रव्यों के सेवन करने से मदहोश थी। चिता के सात फेरे लगवा कर उसके हाथ से शव को गले में पुष्पमाला डलवायी गयी। अब उसे चिता में बिठला कर उसकी गोद में शव का सिर रख दिया गया। चिता में अग्नि देते ही जोर-जोर की ध्वनि उत्पन्न करने के लिये ढोल-नगारा, झांझ आदि वाद्य बजाने वाले तैयार थे, ताकि सती होने वाली नारी के रोने-चिल्लाने की आवाज बाहर न सुनाई दे। अग्नि दाह की पीड़ा से वह चिता से कूद न जाय, उसे चिता में धकेलने के लिये कुछ लोग डंडा पकड़ कर खड़े थे। निकट ही खड़ा एक युवक यह सब कुछ देख रहा था, सुन रहा था। वह सोच रहा था कि इस नाटक का पटाक्षेप किस प्रकार किया जाय।

चिता में अग्नि देने के लिये एक व्यक्ति जलती मशाल लेकर आगे आ गया, तुरन्त ही उसके पीछे से एक युवक ने आकर कड़कते हुए स्वर में कहा- ”ठहरो” उसके हाथ से जलती मशाल छीन कर दूर फेंक दी और कहने लगा-

”राजा की तो अपनी आयु पूर्ण कर स्वाभाविक मृत्यु हुई है, लेकिन यह बताओ कि इस बाली कुसुमा का इसमें क्या दोष है कि तुम सब मिल कर इसे जीवित ही जला रहे हो?” वहाँ पर उपस्थित सभी लोग दिवानू को पकड़कर उसे भी चिता में धकेलने के लिये उतारू हो रहे थे, परन्तु दिवानू ने उनके हाथ से डंडा छीन एक-एक करके सबको पीटना आरम्भ कर दिया। लोग उस युवक के दुस्साहस, पराक्रम और स्फूर्ति देख डर के मारे भागने लगे। भीड़ के मध्य से पिरमुवा नाम के एक व्यक्ति ने आगे आकर दिवानू को रोकते हुए कहा, ”दिवानू रुक जा, तू यह कर क्या रहा है? भाई लोगो, वास्तव में सोचा जाय तो दिवानू का कथन उचित ही है। बिन ब्याही कुसुमा विधवा कैसे हो गई? क्या राजा के शव के साथ कुसुमा का सती होना न्यायसंगत है?”

पिरमुवा को अपने समर्थन में बात कहते सुन दिवानू का साहस बढ़ने लगा। उसने चिता से कुसुमा का हाथ पकड़कर नीचे उतारते हुए कहना प्रारम्भ किया- ”उठ कुसुमा उठ, ये लोग तुम्हें जिन्दा जलाने जा रहे हैं। उठ, चिता से नीचे उतर, यदि तेरे माँ-बाप तुझे घर नहीं आने देंगे तो मैं तुझे अपने घर ले जाऊंगा। तुम्हें इन नरपिशाचों के हाथ से छुड़ाकर जीने की राह दिखाऊंगा। आ मेरे साथ चल।”

कुसुमा को चिता से नीचे उतारते हुए वह कहने लगा- है कोई अपने माँ-बाप का बेटा, यदि किसी में हिम्मत है तो आ जाये सम्मुख, एक-एक कर सबको इस मृत राजा की जलती चिता में झौंक दूंगा। दिवानू की इस ललकारपूर्ण चेतावनी को स्वीकार करने का साहस किसी में नहीं था। दिवानू कुसुमा का हाथ पकड़ कर चला गया। पिरमुवा ने उपस्थित लोगों को शान्त कर चिता में अग्नि प्रज्ज्वलित करने का आग्रह किया। राजा की चिता धूं-धूं कर जल रही थी।

मचौलै सासु से साभार
(Unmarried girl’s pyre)

उत्तरा के फेसबुक पेज को लाइक करें : Uttara Mahila Patrika