तीन तलाक और औरत

चन्द्रकला

आज भारत में मुस्लिम महिलाओं के जीवन से जुड़े तीन तलाक, बहु विवाह और हलाला जैसे कुरान और शरियत के रूढ़िगत नियमों को लेकर बहस चल पड़ी है। तलाक के बाद अपने पति से भरण-पोषण हेतु गुजारा भत्ता की मांग करने वाली 57 वर्षीय शाहबानो के दौर से समय बहुत आगे बढ़ गया है। आज मुस्लिम महिलाएँ अपने हकों की खातिर पहले से ज्यादा मुखर होकर आगे आ रही हैं। पुरुषों की मिल्कियत रही मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के निर्णयों को चुनौती दे रही हैं। इस मुखालफत का एक चेहरा उत्तराखण्ड की सायरा बानो भी हैं जिन्होंने इस बार उनके पति द्वारा डाक से भेजे गए तीन तलाक के विरुद्घ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर अपनी लड़ाई लड़ने का फैसला किया है। उन्हें देश के विभिन्न हिस्सों से समर्थन मिलता चला जा रहा है। उनमें न केवल मुस्लिम महिलाओं के हितों की खातिर लड़ने वाली महिलाएं हैं बल्कि देश की तमाम तरक्कीपंसद अवाम भी उनके साथ खड़ी नजर आ रही है। घर की आर्थिक स्थिति बेहतर न होने के बाद भी सायरा को न्याय दिलाने में उनके भाई और माता-पिता भी इस लड़ाई में हर कदम पर उनको साथ खड़े हैं। हालांकि  इस मुद्दे को लेकर राजनीतिक पार्टियां महिलाओं के हितों को समझने के बजाय तीन तलाक को धर्म व राजनीति का रंग चढ़ाकर  इसकी धार को कुन्द करने से बाज नहीं आ रही हैं।

तलाके-उल-बिदत प्रथा (जिसमें तीन बार घोषणा करने से तलाक हो जाता है) को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अप्रैल 1994 में अवैध बताया था। इस न्यायालय की यह भी मान्यता थी कि एक ही बार में तीन तलाक की घोषणा करके विवाह समाप्त करना इस्लाम सुन्नत के अन्तर्गत पाप माना गया है। लेकिन मुस्लिम नेताओं ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की। सर्वोच्च न्यायालय ने  इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जज तिलहरी के 1994 के निर्णय को अस्वीकार कर तीन तलाक के शरीयत की प्रथा को बरकरार रखा।

उत्तराखण्ड के जिला ऊधमसिंह नगर के काशीपुर के हेमपुर आर्मी डिपो में अपने पिता के घर रह रही सायरा बानो को उनके शौहर रिजवान अहमद ने 10 अक्तूबर 2016 को डाक से तीन तलाक का फरमान भेजा। सायरा बानो की उम्र अब 33 वर्ष है। सायरा का विवाह 11.4.2002 को 19 वर्ष की उम्र में इलाहाबाद निवासी रिजवान अहमद के साथ शरीयत की इस्लामिक परम्परा के अनुसार हुआ था। वैवाहिक जीवन में रहते हुए उनके दो बच्चे हुए। शादी के बाद से ही पति और उसका परिवार कार और कैश की मांग करने लगा । सायरा के पिताजी एक मामूली सरकारी नौकर हैं। उनके लिए यह देना सम्भव नहीं था। अत: सायरा का उत्पीड़न शुरू हुआ। जहाँ शारीरिक तौर पर उसका उत्पीड़न जारी था, मानसिक तौर पर बीमार बनाने और  उसकी याददाश्त को खत्म करने के लिए भी अपने दोस्त के साथ मिलकर पति द्वारा ऐसी दवाई दी जाने लगी जिससे उसका अवसाद बढ़ता चला गया और वह दवाइयों के असर से चेतना शून्य होने लगी। सायरा का पति उसकी बीमारी का बहाना  बताकर अप्रैल 2015 में जबरदस्ती उसके मायके छोड़ गया था। कुछ समय सायरा के दोनों बच्चे भी छुट्टियों में उसके साथ रहे लेकिन स्कूल खुलने पर पिता बच्चों को ले गया। एक पति की जिम्मेदारी निभाकर सायरा का सही इलाज करने के बजाय उसके मायके भेजने के पीछे की मंशा तब सामने आई जब 10 अक्टूबर 2016 को सायरा के पति ने डाक से तलाकनामा भेज दिया।

सायरा का कहना है कि उसे पढ़ी-लिखी होने के बावजूद ससुराल में उत्पीड़न झेलना पड़ा। सायरा के ससुराल में महिलाओं का बाहर निकलना बुरा माना जाता है जबकि उनके मायके में खुला माहौल है। उनका कहना है कि यदि ससुराल में कभी अकेले बाहर जाना चाहती थी या चली जाती थी तो पति शक करता था और अक्सर तलाक देने की धमकी देता था। ससुराल वाले जबरदस्ती परदे में रहने और अपनी इच्छा से कुछ भी न करने के लिए लगातार  किसी न किसी रूप में दबाब डालते रहते थे। उनका कहना है कि वह बहुत कोशिश के बावजूद भी उस माहौल में खुद को ढाल नहीं पाती थी। उनका पति इलाहाबाद में ठेकेदारी का काम करता है, खुद कम पढ़े होने के कारण भी वह सायरा के साथ अक्सर ही किसी न किसी बात पर मार-पिटाई करता या उसको अवसाद में जाने की हद तक परेशान करता था। वह बताती हैं कि उनके खुले खयालों को लेकर पति अपने दोस्तों के सामने भी सायरा को जलील करता था। यही कारण रहा कि उनका अवसाद बढ़ता गया और वह दवाओं पर निर्भर होती गयीं।

सायरा ने यह भी बताया कि उनके पिता जी काफी बरस पहले इलाहाबाद से काशीपुर आ गये। वे यहाँ  हेमपुर आर्मी डिपो में नौकरी करते हैं। सायरा की पैदाइश और परवरिश उस वातवरण में हुई जहाँ औरतों पर ज्यादा पाबंदियां नहीं हैं। उनकी अम्मी ने कभी बुर्का नहीं पहना। आज जब सायरा अपनी लड़ाई लड़ रही है तो वह हर कदम पर उसका साथ दे रही हैं। उनके भाई मौहम्मद शकील जो अपनी बहन को न्याय दिलाने के लिए हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं, का कहना है कि यह न्याय की लड़ाई कठिन है, लेकिन जिस तरह से उनकी बहन को न्याय दिलाने के लिए कई लोग उनका साथ दे रहे हैं, उन्हें उम्मीद है कि वे जरूर जीतेंगे। सायरा के भाई को अपनी बहन के तीन तलाक के मुद्दे को कोर्ट में ले जाने और सार्वजनिक करने के खिलाफ स्थानीय स्तर पर कुछ मौलवियों द्वारा फतवा भी जारी किया गया कि ‘‘उनका परिवार मुस्लिम ही नहीं हैं’’। लेकिन भाई सहित पूरे परिवार ने तय कर लिया है कि वे किसी प्रकार का समझौता नहीं करेंगे और अपनी बहन को न्याय दिलाने के लिए अन्तिम दम तक लडेंगे क्योंकि यह लड़ाई उनकी बहन की ही नहीं, इस देश की हजारों बहनों की लड़ाई है।
(triple talaq and woman)

सायरा कहती है कि उनके समाज में महिलाओं को कोई अधिकार नहीं हैं। औरतों को शरीयत और धर्म के नाम पर हमेशा पुरुष से कमजोर और उसका गुलाम माना जाता है। उनका मानना है कि खुले विचारों वाले समाज से, पढ़ी-लिखी लड़कियाँ जब पिछड़े परिवार में ब्याही जाती हैं तो उनको ससुराल में दिक्कतें होती ही हैं। बहू के रूप में हर समाज में लड़की से ढेरों उम्मीदें होती हैं। फिर मुस्लिम, वह भी पिछड़े विचारों वाला परिवार हो तो वहाँ तो बहू की आजाद-ख्याली उसके उत्पीड़न का कारण बनेगी ही। आजकल सायरा अपने मायके में रह रही हैं। उन्होंने सामाजशास्त्र से एम.ए. किया है। वह सोचती हैं कि यदि उनके पास पिता की दी हुई अथवा पति के हिस्से की कोई सम्पत्ति होती तो आज उन्हें मायके वालों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। वह माता-पिता पर बोझ नहीं होती। वह किसी भी प्रकार की नौकरी कर जल्द से जल्द आत्मनिर्भर होना चाहती हैं ताकि कोर्ट-कचहरी के खर्च के लिए भाई को सहयोग कर सके। वह अपने बच्चों को भी अपने पास लाना चाहती हैं।

सायरा ने सर्वोच्च न्यायालय में पति द्वारा  डाक से भेजे गये तीन तलाक के विरुद्घ अपील की है। जिसमें उनके वकील बाला जी श्रीनिवासन ने कोर्ट से कहा है कि तीन तलाक को असंवैधानिक  घोषित किया जाना चाहिए। क्योंकि यह प्रथा संविधान के अनुच्छेद 14,15,22 और 25 का उल्लंघन है। उनके वकील का यह भी मानना है कि तलाके-बिद्त यानी तीन तलाक संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों का भी हनन है।

केन्द्र सरकार ने सायरा बानो का पक्ष लेते हुए तीन तलाक व बहु-विवाह की भारतीय इस्लामिक प्रथा को खत्म करने की याचिका सुप्रीम कोर्ट में डाली है। सरकार की इस याचिका पर दारूल उलूम के मौलाना मुफ्ती अबुल कासिम नोमानी बनारसी का कहना है कि तीन तलाक और बहु-विवाह मुस्लिम पर्सनल लॉ का अहम हिस्सा है और यह कुरान और सुन्नत से साबित है। न्यायालय सुधार के बहाने इसमें बदलाव नहीं किया जा सकता। टी.टी.एस. के राष्ट्रीय महासचिव मुफ्ती सलीम नूरी का कहना है कि चार इमामों की पैरवी करने वाला और हनफी, शाफई, मालिकी और हंबली ऑइडियोलॉजी को मानने वाला पूरा हिन्दुस्तानी सुन्नी मुस्लिम समाज एक बार में दिए गये तीन तलाकों को मानता है। इसमें किसी तरह का कोई  मतभेद नहीं है।

इसके विपरीत शिया गुरु मौलाना सैफ अब्बास नकवी का कहना है कि हम तीन तलाक के मौजूदा और चलित रूप के खिलाफ हैं। यह असल में निकाहनामे के खिलाफ है। इसके खिलाफ हमने निकाहनामा भी तैयार करवाया है। जिसे समुदाय के लिए लागू करवाने का प्रयास किया जायेगा। मौजूदा स्वरूप में जारी तलाक के तरीके और बहुविवाह की वजह से मुस्लिम महिलाओं का उत्पीड़न हो रहा है।

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड  तीन तलाक को सही मानता है। यह मानता है कि शरिया कानून में बदलाव नहीं किया जा सकता। जबकि ऑल इण्डिया मुस्लिम वूमन पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्षा शाइस्ता अंबर का कहना है कि लॉ बोर्ड के दरवाजे महिलाओं के लिए बन्द हैं। उनका कहना है कि महिलाएँ कुरान के खिलाफ नहीं हैं लेकिन आज गाँव-शहरों में बाप-भाई परेशान हैं कि अपनी तलाकशुदा बहन-बेटियों का क्या करें। महिलाओं के हितों के अनुसार कानून बनने चाहिए।

भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन  की ओर से आई़एम़ए़ में आयोजित परिचर्चा और प्रेस वार्ता में कही गई बातों के अनुसार- इस्लाम में तीन तलाक का गलत तरीके से फायदा उठाया जा रहा है। महज तीन बार तलाक कहकर पुरुष पत्नी को छोड़ देता है और उसे गलती का एहसास हो तो पत्नी को हलाला जैसे नियमों से गुजरना पड़ता है। यह महिलाओं के सम्मान के विरुद्घ है।

फतेहपुरी मस्जिद दिल्ली के इमाम मुफ्ती मुकर्रम का कहना है कि ‘‘मुस्लिम पर्सनल लॉ अल्लाह का बनाया हुआ है। यदि कोई मर्द अपनी बीबी को तलाक बोल दे तो निकाह से बाहर हो जाएगी। फिर अगर लॉ बन भी जाए तो हराम हो गई औरत को कोई कैसे स्वीकार करेगा। हम तो कहते हैं कि तीन तलाक मत दो लेकिन अगर कोई बोल दे तो कैसे मान लें कि हराम नहीं हुई’’।

कुछ वर्ष पूर्व सर्वोच्च न्यायालय ने एक बहुचर्चित मामले में शाहबानो को पति से तलाक मिलने पर भरण-पोषण भत्ता दिए जाने के आदेश किए थे। मुस्लिम नेताओं ने इस कानूनी निर्णय को मुस्लिम कानून में हस्तक्षेप बताया। तत्कालीन सरकार ने तब मुस्लिम महिला (प्रोटेक्शन ऑफ रॉइट इन डिर्बोस) ऐक्ट1986 पास किया था। 1993 में उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय ने पति के तलाक देने पर 30 वर्षीय हमीदन और उसके दो बच्चों को 600 रुपये महीना पोषण भत्ता देने के लिए उसके पति को आदेश दिया था। मुस्लिम नेताओं ने इस निर्णय को भी शरीयत में हस्तक्षेप और मुस्लिम महिला तलाक एक्ट के प्रावधानों का उल्लंघन बताया था।

तलाक को समान नागरिक संहिता से जोड़कर आज राजनीति होती जा रही है। इससे वास्तव में महिलाओं को न्याय मिल पायेगा, इसमें तो संशय दिखता है। हाँ, यदि इस देश की महिलाएँ धर्म और वोट की राजनीति से ऊपर उठकर महिला हितों की खातिर एकजुट हो जाएं, तो अवश्य ही महिला समुदाय को बराबरी के अधिकार और सही मायनों में बराबरी हासिल हो सकती है।
(triple talaq and woman)

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