तीन तलाक और समान नागरिक संहिता

गिरिजा पाठक

 2015 में उत्तराखंड निवासी शायरा बानो के जीवन में अचानक संकट आया जब उसके शौहर ने पत्र द्वारा उसको तलाक के बारे में सूचित किया। यह संकट भारतीय समाज में आमतौर पर मुस्लिम महिलाओं के सामने खड़ा रहता है और उनकी स्थिति को अत्यन्त कमजोर और दोयम दर्जे का बनाने में सहायक भी रहा है। पिता के घर में इलाज के लिए आई शायरा बानो ने अपने जीवन में इस अकल्पनीय संकट से बचने के लिए सुप्रीम कोर्ट का आश्रय लिया। इस तरह के कई मामले सुप्रीम कोर्ट के पास पहले से भी लंबित थे। समान नागरिक संहिता लागू किए जाने को लेकर कई बार सहमति जाहिर कर चुके सुप्रीम कोर्ट ने इन अपीलों पर अपनी व्यवस्था देते हुए केन्द्र से भी अपनी राय बताने को कहा। केन्द्र ने जहाँ तीन तलाक, निकाह हलाला और बहु विवाह प्रथा का विरोध किया वहीं लैंगिक समानता और धर्मनिरपेक्षता जैसे आधारों पर इस पर पुनर्विचार का समर्थन किया। कानून और न्याय मंत्रालय ने अपने हलफनामे में लैंगिक समानता, धर्मनिरपेक्षता, अंतरराष्ट्रीय समझौतों, धार्मिक व्यवहारों और विभिन्न इस्लामी देशों में वैवाहिक कानूनों का जिक्र किया ताकि एक साथ तीन बार तलाक की परंपरा और बहु विवाह पर शीर्ष न्यायालय की ओर से नए सिरे से फैसला किया जा सके। मंत्रालय द्वारा दाखिल हलफनामें में दलील दी गई कि तीन तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह प्रथा की मान्यता पर लैंगिक न्याय के सिद्धांतों व गैर भेदभाव, गरिमा और समानता के सिद्धांतों के आलोक में विचार किए जाने की जरूरत है।

इस बीच विधि आयोग ने 7 अक्टूबर को 16 प्रश्नों की एक प्रश्नावली जारी कर तीन तलाक के साथ-साथ समान नागरिक संहिता पर जनता की राय मांगी है। इस प्रश्नावली में विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने की प्रक्रिया, संपत्ति में हिस्सेदारी, अंतर्जातीय/अंतर्धार्मिक विवाह सहित विभिन्न विषयों पर जनता की राय ली गई है।

तीन तलाक समाप्त किए जाने व समान नागरिक संहिता का सवाल भारतीय समाज में महिलाओं की वास्तविक स्वतंत्रता के लिए एक महत्वपूर्ण सवाल है। हमारे संविधान निर्माताओं के मन में भी यह चिंता मौजूद थी। संविधान सभा में बहस के दौरान अंबेडकर इस बात के हिमायती थे कि देश के लिए समान नागरिक संहिता जरूरी है लेकिन उसे वह एक प्रस्ताव के रूप में रखते हैं, ‘सरकार देश के नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने के लिए काम करेगी।’ वह (प्रस्ताव) यह नहीं कहता कि संहिता तैयार हो जाने के बाद सिर्फ इसलिए कि वे एक नागरिक हैं, राज्य उन्हें सभी नागरिकों पर जबरन लागू कर देगा़…… (23 नवंबर 1948 को संविधान सभा में दिए गए भाषण का अंश।)

इन बातों से स्पष्ट हो जाता है कि आस्था या धार्मिक विश्वास परंपराओं के नाम पर जो भी काम जनता को पिछड़ी मानसिकता और समाज की ओर ले जाते हैं, उनमें राज्य को हस्तक्षेप कर क्रमबद्ध रूप से समाप्त करने की ओर बढ़ना चाहिए। लेकिन क्या यह विचार आज की परिस्थिति में भी उतना ही ईमानदार तरीके से सामने लाया जा रहा है, जिस रूप में मसौदा समिति के सामने अपनी बात रखते हुए अंबेडकर व्यक्त कर रहे थे? आज जो बहस तीन तलाक पर केन्द्र सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने हलफनामे में दी गई और ठीक इसी समय विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता पर अपनी प्रश्नावली भी जारी कर दी, जिससे तीन तलाक पर जारी बहस समान नागरिक संहिता की ओर मुड़ गई।

जो बहस विधि आयोग की प्रश्नावली जारी होने और सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणयिों के बाद उभरी है उसमें दोनों ही पक्ष- तीन तलाक को खत्म करने और समान नागरिक संहिता लागू किए जाने के पक्षकार अपने अल्पसंख्यक विरोधी दृष्टिकोण के कारण और विरोधी अपने कट्टरपंथी रवैयै के कारण संदेह के घेरे में हैं। इन स्थितियों में इन जरूरी और प्रासंगिक सवालों पर एक स्वस्थ्य और असंदिग्ध बहस की संभावनाएँ कम ही हैं।
(Triple Talaq and Uniform Civil Code)

विधि आयोग द्वारा जारी प्रश्नों के बाद जो बहस संचालित की जा रही है, उसमें उसको मुस्लिम महिलाओं तक सीमित कर दिया जा रहा है, हालांकि इस बात को कहा जा सकता है कि अपने शौहरों की ज्यादती और उत्पीड़न से त्रस्त शायराबानो सहित कई मुस्लिम महिलाओं द्वारा अदालत की शरण लिए जाने के बाद ही यह बहस फिर से एक बार उभरी है। लेकिन अन्य समुदायों में भी कानून होने के बावजूद महिलाओं की स्थिति कोई बहुत बेहतर नही है। हिंदू समाज में गैर कानूनी होने के बावजूद बिना तलाक लिए दोहरा विवाह होता है तो महिलाओं को संपत्ति, उत्तराधिकार और सामाजिक-धार्मिक मामलों में दोयम स्थिति में ही रहना होता है। यही नहीं, हिंदू कानून के अनुसार सप्तपदी और कन्यादान जैसी परम्पराएँ वैध विवाह के आवश्यक तत्व हैं परंतु हिंदुओं के भीतर भी कई ऐसे समुदाय हैं जिनमें ये प्रथाएँ नहीं हैं। ऐसे में जहाँ दोहरा विवाह करने वाले पुरुष कानूनन बच निकलते हैं, वहीं ऐसी विवाहित महिलाओं को न तो कानून संरक्षण देता है और न ही विधि-अधिकार। ईसाई महिलाओं को अगर पुरुष से अलग रहना है तो उसे दो साल की लंबी अवधि के लिए अलग रहना होता है वहीं सामाजिक और धार्मिक रूप से भी उसे असमानताओं में जीना है। इसलिए यह जरूरी है कि इस पूरी बहस को सभी धर्मों/समुदायों में महिलाओं की दोयम स्थिति पर केन्द्रित करते हुए इनमें सुधारों की ओर बढ़ा जाय तभी यह भारतीय समाज के वास्तविक लोकतांत्रिकरण के लिए मील का पत्थर साबित हो सकता है।

विभिन्न नारीवादी संगठन व भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन लगातार इस सवाल पर संघर्षरत हैं। राजनैतिक दलों में भाजपा और वाम दलों को छोड़ मुख्य धारा की अन्य पार्टियों ने इस सवाल पर वोट बैंक के खतरे के चलते और पुरुषसत्तात्मक वर्चस्व को बनाए रखने के लिए या तो खामोशी अख्तियार की है या फिर कट्टरपंथियों के आगे समर्पण किया है। भाजपा आज जब इस सवाल पर आगे बढ़ रही है तो उसकी मंसा समय-समय पर अल्पसंख्यकों के बारे में दिए उसके वक्तव्यों से स्पष्ट हो जाती है। सितंबर माह में केरल के कोझिकोड में आयोजित भाजपा की राष्ट्रीय परिषद को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय को याद करते हुए कहा था कि, ‘दीन दयाल जी का कहना था कि मुसलमानों को न पुरस्कृत करो, न ही तिरस्कृत बल्कि परिष्कृत करो’। इस वक्तब्य से अल्पसंख्यकों के प्रति भाजपा का दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है। कांग्रेस पूरे मामले में क्या रुख रखती है, यह हमारे सामने शाहबानो केस में स्पष्ट हो चुका है। 1985 में चर्चित शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जब दखल दिया था, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पाँच जजों की बेंच में सुनवाई करते हुए 13 अप्रैल 1985 को इस बेंच ने सर्वसम्मति से हाईकोर्ट द्वारा 179़.20 रुपए मुआवजा भत्ता तय किए जाने के निर्णय को बहाल रखते हुए कहा कि, ‘ऐसी स्थिति में जबकि महिला अपना भरण-पोषण करने में लाचार है और पति अपनी तलाकशुदा पत्नी को निर्वाह खर्च देने में मुकर रहा है तो सी.आर.पी.सी. की धारा 125 के आगे मुस्लिम पर्सनल लॉ को नहीं लाया जा सकता है। यह भी कि धारा 125 किसी भी रंग-जाति और धर्म से ऊपर है। लिहाजा शाहबानो को मुआवजे के तौर पर निर्वाह खर्च पाने का पूरा हक है। इस मुद्दे पर भी सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता की जरूरत पर जोर दिया (यह पूरा प्रकरण समान नागरिक संहिता की जरूरत को भी रेखांकित करता है) लेकिन इस महत्वपूर्ण निर्णय को मुस्लिम कट्टरपंथियों के दबाव में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने ‘द मुस्लिम वुमेन (प्रोटेक्शन राइट्स ऑन डिवोर्स) एक्ट 1986’ लाकर खत्म कर दिया।

समान नागरिक संहिता पर जारी ‘सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटी (सीएसडीएस) द्वारा किए गए सर्वेक्षण में 57 फीसद लोगों ने विवाह, तलाक, संपत्ति, गोद लेने व भरण-पोषण जैसे मामलों में समुदायों के लिए पृथक् कानूनों के पक्ष में राय जाहिर की, केवल 23 फीसद लोगों ने समान नागरिक संहिता के पक्ष में विचार रखे। 20 फीसदी लोगों ने कोई राय जाहिर नहीं की तो 55 प्रतिशत हिंदू संपत्ति और विवाह के मामलों में समुदायों के अपने कानून रहने देने के पक्ष में थे। मुसलमानों में यह प्रतिशत 65 था। शिक्षित तबके में भी इस विषय पर सहमति थी कि उपरोक्त मामलों में विभिन्न समुदायों को अपने कानूनों से ही संचालित होना चाहिए।

सी.एस.डी.एस. का यह सर्वेक्षण भारतीय समाज की इस सच्चाई को सामने लाता है कि आज के तथाकथित अति आधुनिक दौर में चेतना के स्तर पर भारतीय समाज अपनी रूढ़ियों, आस्थाओं, परंपराओं से गहरे तौर पर जुड़ा है बावजूद इसके जैसे कि अंबेडकर पर्सनल लॉ को बचाने के सवाल पर कहते हैं कि ‘अगर संविधान में इस तरह के बचाने के (सेविंग) क्लॉज का समावेश किया गया तो वह भारत के विधान मंडलों को किसी भी सामाजिक विषय पर कानून बनाने में अक्षम बना देगा। इस देश में धार्मिक धारणाओं की जड़ें इतनी गहरी हैं कि वे जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन के हर पहलू को अपने दायरे में लिए हुए हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है जो धर्म नहीं है। अगर पर्सनल लॉ को बचाना है तो मुझे पक्का विश्वास है कि सामाजिक विषयों पर कानून बनाने का कार्य ठप्प पड़ जाएगा। मैं नहीं समझता कि उस तरह की स्थिति को स्वीकार करना संभव है।
(Triple Talaq and Uniform Civil Code)

बहुलतावादी संस्कृति भारतीय समाज की विशिष्टता रही है। ऐसे में समान नागरिक संहिता का काम इस विविधता और एकता को बनाए रखते हुए सभी भारतीय महिलाओं को समान अधिकार और सम्मान दिलाने की गारंटी करनी होगी। इसे इस तरह से भी समझा जा सकता है कि कौन भारतीय नागरिक किस माध्यम या विधि से शादी करता है, समान नागरिक संहिता इसे सुनिश्चित नहीं करेगी बल्कि संहिता का मकसद यह होना चाहिए कि विवाह से पैदा होने वाले अधिकार और कर्तव्य प्रत्येक भारतीय नागरिक के लिए समान हों और वह इनका पालन करे, यह सुनिश्चित किया जाय।

इसी बात पर जोर देते हुए संविधान सभा को संबोधित करते हुए अंबेडकर कहते हैं, ‘…..मैं बताना चाहूंगा कि इस मामले में सरकार केवल कानून बनाने की अपनी शक्ति का दावा कर रही है। सरकार के लिए ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि वह पर्सनल लॉज को हटाए, वह केवल एक शक्ति प्रदान कर रहा है। इसलिए किसी को भी इस सच्चाई से आशंकित होने की जरूरत नही है कि अगर सरकार के पास ऐसी शक्ति है तो वह तुरंत ही उस शक्ति का उपयोग इस तरह से करने लगेगी जो मुसलमानों, ईसाइयों या किसी अन्य समुदाय को आपत्ति लगे। …..  कोई भी सरकार अपनी शक्तियों का उपयोग इस तरह से नहीं कर सकती कि मुस्लिम समुदाय विरोध पर उतर आए। मैं समझता हूँ कि अगर उसने ऐसा किया तो वह एक पागल सरकार होगी। परंतु वह मामला स्वयं शक्ति से नहीं, शक्ति के उपयोग से संबंधित है (2 दिसंबर 1948 को संविधान सभा में दिए गए भाषण का सार)।

विश्व के प्राय: सभी देशों ने अपने विसंगतिपूर्ण कानूनों को खत्म किया है। तीन तलाक को भी पाकिस्तान, बंगलादेश सहित सभी प्रमुख मुस्लिम बहुल देशों ने समाप्त किया है। राज्य की यह जिम्मेदारी है कि वह आम भारतीय मुस्लमानों में विश्वास कायम करे। संविधान निर्माण के समय अंबेडकर इसी बात को रेखांकित कर रहे थे। इसके लिए जरूरी है कि वे सभी कानून जो अभी भी विसंगतिपूर्ण हैं, सुधारे जाएँ, सत्ता और समाज के पुरुष-सत्तात्मक ढाँचे और पुरुष-वर्चस्ववादी सोच को सचेत प्रयासों से खत्म किया जाए। इसके लिए काफी समय से लंबित महिला आरक्षण को लागू किया जाय। बढ़ रहे सांप्रदायिक और जातीय माहौल पर सख्ती से रोक लगे। प्रभावित समुदायों में विश्वास बहाली के लिए सांप्रदायिक तत्वों और अपराधियों को राजनीति से दूर रखते हुए सख्त सजा दी जाय। साथ ही शासन और प्रशासन के ढांचे में अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी और महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने की सचेत कोशिशें ही देश में समान नागरिक संहिता लागू करने के साथ-साथ वास्तविक लोकतांत्रिक और प्रगतिशील समाज/देश के निर्माण की ओर बढ़ने का रास्ता होगा।
(Triple Talaq and Uniform Civil Code)

विधि आयोग के सोलह सवाल:

1.      क्या आप जानते हैं कि अनुच्छेद 44 में प्रावधान है कि सरकार समान आचार संहिता लागू करने का प्रयास करेगी।
2.      क्या समान नागरिक आचार संहिता में तमाम धर्मों के निजी कानूनों, प्रथागत प्रथाओं या उसके कुछ भाग शामिल हो सकते हैं, जैसे शादी, तलाक, गोद लेने की प्रक्रिया, भरण-पोषण, उत्तराधिकार और विरासत से संबंधित प्रावधान।
3.      क्या समान नागरिक आचार संहिता में निजी कानूनों और प्रथाओं को शामिल करने से लाभ होगा।
4.      क्या  समान नागरिक आचार संहिता से लैंगिक समानता सुनिश्चित होगी।
5.      क्या समान नागरिक आचार संहिता को वैकल्पिक किया जा सकता है।
6.      क्या बहु विवाह प्रथा, बहुपति प्रथा, मैत्री करार आदि को खत्म किया जाय या फिर नियंत्रित किया जाय।
7.      क्या तीन तलाक की प्रथा को खत्म किया जाय या रीति रिवाजों में रहने दिया जाय? या फिर संशोधन के साथ रहने दिया जाय?
8.      क्या यह तय करने का उपाय हो कि हिंदू स्त्री अपने संपत्ति के अधिकार का प्रयोग बेहतर तरीके से करे जैसा पुरुष करता है? क्या इस अधिकार के लिए हिंदू महिला को जागरूक किया जाय और तय हो कि उसके सगे संबंधी इस बात के लिए दबाव न डालें कि वह संपति का अधिकार त्याग दे।
9.      ईसाई धर्म में तलाक के लिए 2 साल की प्रतीक्षा अवधि संबंधित महिला के अधिकार का उल्लंघन तो नहीं है?
10.    क्या तमाम निजी कानूनों में उम्र का पैमाना एक हो?
11.    क्या तलाक के लिए तमाम धर्मों के लिए एक समान आधार तय होना चाहिए?
12.    क्या समान नागरिक आचार संहिता के तहत तलाक का प्रावधान होने से भरण-पोषण की समस्या हल होगी?
13.    शादी के पंजीकरण को बेहतर तरीके से कैसे लागू किया जा सकता है?
14.    अंतर्जातीय विवाह या फिर अंतरधार्मिक विवाह करने वाले जोड़े की रक्षा के लिए क्या उपाय हो सकते हैं?
15.    क्या समान नागरिक आचार संहिता धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंधन करती है?
16.    समान नागरिक आचार संहित या फिर निजी कानून के लिए समाज को संवेदनशील बनाने के लिए क्या उपाय हो सकते हैं।
(Triple Talaq and Uniform Civil Code)
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