अलविदा शमशेर दा

बसन्ती पाठक

डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट का जन्म तथा शिक्षा-दीक्षा अल्मोड़ा शहर में हुई। एम.ए., बी.एड., एल.एल.बी तथा पी.एच-डी. करने के बाद बिष्ट ने सामाजिक-राजनीतिक कार्यों को अपना पूरा जीवन समर्पित किया। 1972 में अल्मोड़ा कॉलेज में छात्रसंघ के अध्यक्ष के रूप में  ‘पढ़ाई के साथ लड़ाई’ का नारा देते हुए उन्होंने एक नये किस्म की छात्र-राजनीति की शुरुआत की। 1974 में अस्कोट-आराकोट यात्रा ने उनके जीवन की दिशा बदल दी और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधकार्य छोड़कर वे अल्मोड़ा लौट आये। पर्वतीय युवा मोर्चा और उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी के संस्थापक सदस्य रहे बिष्ट जी वन बचाओ आन्दोलन, नशा नहीं रोजगार दो तथा उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन में महत्वपूर्ण संगठनकारी एवं नेतृत्वकारी भूमिकाओं में रहे। देश और पहाड़ के तमाम ज्वलंत समसामयिक मुद्दों पर वे लगातार लिखते रहे। उत्तराखण्ड के इस गम्भीर योद्धा को उत्तरा परिवार की ओर से श्रद्धांजलि।

यह 1977 के नवम्बर माह की एक शाम थी। मैं अपने गांव गंगोलीहाट से पढ़ने के लिये नैनीताल आ गयी थी। मेरे ददा शेखर पाठक, गिर्दा और एक अन्य व्यक्ति कमरे में बैठे बातें कर रहे थे। पुलिस, नैनीताल क्लब, नीलामी, वन मंत्री जैसे कुछ शब्द सुनने में आ रहे थे। वे लोग काफी देर तक बातें करते रहे। फिर गिर्दा ने कहा, ”शेखर हमें  यहां नहीं रहना चाहिए। पुलिस  कभी  भी आ सकती है।” कुछ देर उन लोगों में और मंत्रणा हुई और फिर  तीनों चले गए।
(Tribute to Shamsher Bisht)

मैंने अपने चचेरे भाई दिनेश से पूछा, ”बात  क्या है ? पुलिस  क्यों  आयेगी।” उसने कोई  जवाब नहीं दिया। मैंने पूछा, ”यह तीसरा व्यक्ति कौन है ?” उसने बताया, ”ये शमशेर बिष्ट जी हैं। अल्मोड़ा छात्र संघ के अध्यक्ष रह चुके हैं। जबरदस्त नेता हैं।”
शमशेर दा के साथ यह मेरा पहला परिचय था।

अगले दिन किसी ने बताया कि ददा और उनके साथी गिरफ्तार हो गए हैं। पुलिस  उन्हें ट्रक में  डाल  कर जेल ले गयी। यह सुनते ही मैं जोर-जोर से रोने लगी। मेरे लिए पुलिस द्वारा पकड़े जाने का तब एक ही मतलब था, अपराध करते हुए पकड़े जाना, पुलिस के डंडे खाना और जेल में चक्की पीसना। ददा ने ऐसा क्या कर दिया ? मेरा रोना थम नहीं रहा था। अरुण दा जो ददा के साथ कुमाऊँ विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे और हमारे पड़ोस में रहते थे, ने मुझे समझाया कि ददा ने कुछ गलत नहीं किया। ये लोग जंगलों की कटाई का विरोा कर रहे हैं, इसलिए इन्हें गिरफ्तार किया गया है। वे अपराधी नहीं, आंदोलनकारी हैं।

ददा जेल से रिहा होकर घर आये। वह काफी गहमागहमी का दौर था। कई लोग घर में आते थे, पी़ सी़ तिवारी, प्रदीप टम्टा, चंडी प्रसाद भट्ट, राजा बहुगुणा आदि़-आदि। मुझे वह सब  समझ में नहीं आता। ये लोग क्यों सरकार से दुश्मनी मोल ले रहे हैं ? क्या ये फिर गिरफ्तार  होंगे ? फिर ट्रक में ले जाए जाएंगे ?
(Tribute to Shamsher Bisht)

लेकिन अगले सात वर्षों में स्थितियां बहुत बदल गयी। थोड़ी उम्र बढ़ी, अक्ल बढ़ी और जब 1984 का ‘नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन’ शुरू हुआ तो हम इसके सक्रिय कार्यकर्ता हो गए। शमशेर दा, पी़सी़ दा, प्रदीप  दा, आदि हमारे लीडरों की हमारे घर में आये दिन बैठकें होती रहती थीं कि आंदोलन को कैसे तेज किया जाए। इस बीच तय हुआ कि भवाली से श्रीनगर तक एक पदयात्रा निकाली जाए। मैं इस यात्री दल में शामिल होने जा रही अकेली लड़की थी। जाने से पहले शमशेर दा ने हमें बहुत अच्छी तरह समझाया, ”यह यात्रा मस्ती के लिए नहीं है। तुम लोग कभी यह मत सोचना कि तुम गांव वालों को सिखाने जा रहे हो। कभी यह मत सोचना कि तुम पढ़े लिखे शहरी हो और गांव के लोग तुमसे कम हैं। तुम एक शोधार्थी हो, जिसने गांवों की हालत को समझना है। हो सकता है, तुम जो सोचते-सुनते हो, हालात उनसे बेहतर हों या बदतर। तुम्हें बस जानना-समझना है और अपनी बात रखनी है। जो लोग सुरा-शराब से त्रस्त हैं, इससे लड़ना चाहते हैं उनका नाम-पता नोट करना है और अपने अनुभव बांटने हैं।” उनकी इन बातों से काफी हद तक मेरा नजरिया  बदला।

शमशेर दा कभी उपदेशक नहीं लगते थे। ऐसा लगता था, जो कह रहे हैं दिल से कह रहे हैं। बहुत शांति से सारे लोगों को सुनते और फिर शांत तरीके से ही अपनी बात कहते। ऐसा कभी महसूस ही नहीं होता था कि वे हावी होना चाह रहे हैं और यह कहना चाह रहे हैं कि तुम कुछ नहीं जानते, मैं तुम्हें बताऊंगा।

सुरा-शराब विरोधी इस आंदोलन ने उत्तराखंड के एक बड़े हिस्से को व्यापक रूप से प्रभावित किया। जगह-जगह शराब के खिलाफ जनता सड़कों पर आयी। शराब भट्टियों  पर धरने दिए। शराब की नीलामी का प्रतिकार किया। ऐतिहासिक जुलूस निकले। गिर्दा द्वारा इसी आंदोलन के लिए कुछ गीत रचे गए। अनेक इलाकों में स्थानीय नेतृत्व का जन्म हुआ।

‘नशा नहीं रोजगार दो’ ने नए तरह के आंदोलनों की शुरूआत की, जिनका  व्यापक दायरा था और आंदोलन के तौर-तरीके गैर पारम्परिक थे। ये बात कई बार नजर आती कि इसका कोई एक नेता नहीं  है, क्योंकि उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी, जिसने इस आंदोलन का नेवृत्व किया, का कोई औपचारिक ढांचा नहीं था, जैसे अयक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव वगैरह। ऐसा लगता जैसे हर कोई नेता हो। मगर आंदोलन की गंभीरता बनी रहती थी। मगर बाद में महसूस हुआ कि यह वाहिनी के नेताओं के व्यक्तित्व और विचारधारा का प्रभाव था, जिसने इस आंदोलन को शालीनता प्रदान की। शमशेर बिष्ट जी इस दृष्टि से बहुत याद आते हैं। वे हर कार्यकर्ता के प्रति संवेदनशील रहते और हर एक की सुनते थे।
(Tribute to Shamsher Bisht)

मगर आंदोलन धीमा होने के साथ-साथ आंदोलन के अग्रणी लोगों में वैचारिक मतभेद उभरने लगे। कुछ लोग उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी को वामपंथी संगठन ‘आई़ पी़ एफ़’ से जोड़ना चाहते थे, ताकि देश की मुख्याधारा के आंदोलनों से जुड़ा जा सके, कुछ लोग इसकी क्षेत्रीय पहचान बनाने के लिए इसे किसी भी अन्य संगठन से नहीं जोड़ना चाहते थे। ये लोग भी हालांकि विचारों से वामपंथ के करीब ही थे, मगर उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी  की अक्षुण्णता चाहते थे। इसका अंत उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के विभाजन में हुआ। शमशेर दा उस धड़े के साथ थे, जो उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी को ‘आई़ पी़ एफ़’ से अलग रखना चाहता था। इसके  बाद साथियों में मनमुटाव, मतभेद का दौर चला। संघर्ष वाहिनी बनाम आई़ पी़ एफ़क का एक दौर चला। इस दौर में भी प्रमुख आंदोलनकारी अपनी-अपनी तरह से अलग-अलग आंदोलनों में सक्रिय रहे। आई़ पी़ एफ़ से जुड़े लोग तराई में ज्यादा सक्रिय रहे और उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी मुख्य रूप से पहाड़ में सक्रिय रही। हालांकि 1984 के नशा नहीं रोजगार दो जैसा कोई आंदोलन कहीं खड़ा न हो पाया। बाद में, 1994 का उत्तराखंड राज्य आंदोलन में एक जबरदस्त उभार पैदा हुआ। मगर वह ऐसा आंदोलन था, जिसका न कोई नेता, न अनुयायी। इसमें हर कोई अपनी मर्जी का मालिक था। इस कारण इसमें कई विसंगतियां भी पैदा हुईं।

1996 में ‘महिला समाख्या’ कार्यक्रम जिला नैनीताल में प्रारम्भ  हुआ। मैंने जब इसमें कार्य करना शुरू किया तो हमारे कुछ साथियों ने मेरा विरोध किया। उनका कहना था कि मैं सरकार की ‘टूल’ बनने जा रही हूँ। मगर हमारा मानना था कि यह कार्यक्रम आपको सृजनात्मक होने का मौका देता है। इसलिए इसमें जा कर देखना चाहिए। कुछ समय समय बाद हमने शमशेर दा से हमारे क्षेत्र में आने की गुजारिश की। शमशेर दा शुरू में अनिच्टुक थे। पर हमारे बहुत आग्रह करने पर एक बार वे बेतालघाट आ ही गए। रास्ते भर न हमने अपने कार्यों की बात की, न उन्होंने ही कोई पड़ताल की। जब वहां पर पहुंचे तो उन्होंने ग्रामीण महिलाओं से बातों का सिलसिला चला दिया। अनेक प्रश्न उनसे किये और फिर हमारे कार्यकर्ताओं की तरफ मुखातिब होकर बोले, ”तुम लोग बहुत अच्छा काम कर रहे हो। और तुम्हारा काम मीडिया में भी लाया जाना चाहिए।” फिर हमने कई बार उनको अपने कार्यक्रमों बुलाया और समय होने पर वे आये। महिला समाख्या में हम जनता के उन सवालों को उठाने लगे थे जो ग्रामीण जनता के बुनियादी मुद्दे थे, यानी जंगल, पानी और जमीन के प्रश्न। जब हमें सही मार्गदर्शन की जरूरत पड़ती तो हमारे पास शमशेर दा के रूप में एक ऐसा विद्वान व्यक्ति था, जिसकी जमीनी मुद्दों पर पकड़ थी।
(Tribute to Shamsher Bisht)

महिला समाख्या ने इसी दौर में रामगढ़ (नैनीताल) के खबराड़ गांव में एक बिल्डर के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। इस बिल्डर ने बहुत शातिराना तरीके से जनता के जल स्रोतों पर अधिकार जमा लिया था और उनके जंगल जाने का रास्ता भी बंद कर दिया था। हमारे कार्यकर्ताओं ने ग्रामीणों को साथ ले कर एक लम्बी लड़ाई लड़ी। बिल्डर एक अपराधी प्रवृति का व्यक्ति था। उसकी शासन में भी अच्छी पैठ थी। उसने हमारे और अन्य ग्रामीणों के खिलाफ कई छल-प्रपंच किये। इस दौरान हम कई बार शमशेर दा से मिले। उन्होंने हमें राय दी कि इस लड़ाई को व्यापक बनाओ, क्योकि मामला सिर्फ एक स्थान का नहीं है। यह समस्या कई गाँवों की है  या होने जा रही है। तब हमने एक पदयात्रा निकालने का निर्णय लिया, जो रामगढ़ और धारी ब्लॉकों के विभिन्न गाँवों से गुजरी। इस दौरान उन गाँवों में बिल्डरों द्वारा की जा रही गतिविधियों पर बात की गई और इसके अंत में नैनीताल में एक विशाल जुलूस निकाला गया और कचहरी में एक सभा की गयी, जिसे गिर्दा और शमशेर दा ने भी सम्बोधित किया।

2011 में मनरेगा कार्यक्रम की एक बृहद् जन सुनवाई का आयोजन महिला समाख्या ने नैनीताल फ्लैट्स में किया। इसमें बीसियों गावों की सैकड़ो महिलाएं आयीं। सरकारी प्रतिनिधियों और प्रशासन के लोगों को आमंत्रित कर उन्हें जनता के रूबरू किया गया। जिन जाने-माने लोगों को आमंत्रित किया गया, उनमें ऋचा सिंह, अरुंधतीध्रुव, कमला पन्त और गीता गैरोला के साथ शमशेर सिंह बिष्ट भी थे। अपने वक्तव्य में शमशेर दा ने कहा कि आज उनकी समझ में आया कि मनरेगा कार्यक्रम है क्या। आज तक इसके बारे में मेरी समझ आूरी थी। शालीनता और विनम्रता का ऐसा अद्भुत सम्मिश्रण उनके व्यक्तित्व में था!
(Tribute to Shamsher Bisht)

शमशेर दा से मेरा एक और रिश्ता भी था। वह था बीमारी का रिश्ता। 2013 में मेरा गुर्दे का प्रत्यारोपण हुआ। इसी दौरान पता लगा कि शमशेर दा को भी गुदें की बीमारी हो गयी है और उनके क्रिटेनिन का स्तर काफी बढ़ा हुआ है। मैने उन्हें फोन कर काफी देर तक उनसे बातें कीं। समाज को घर से और अपने निजी जीवन से अधिक प्राथमिकता देने वालों का यही हाल होता है। उनको मधुमेह और रक्तचाप की दिक्कत पहले से थी मगर अपनी गतिविधियों में उन्होंने कोई कमी नहीं की। खानपान नियमित न था। मैंने उन्हें राय दी कि वे हल्द्वानी-बरेली के चक्कर में न पड़ें और सीधे ‘एम्स’ (ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइ्रसेज) का रुख करें। वे मान गए। उन्होंने एम्स में अपना इलाज करवाया। वहाँ की विशेषज्ञता और काम करने के तौर-तरीकों से वे बहुत प्रभावित थे। मुझे नियमित रूप से एम्स जाना पड़ता है। वहाँ भी उनसे दो-तीन बार मुलाकात हुई। कभी बैठ कर चाय साथ पी तो कभी वेटिंग रूम में गपशप की। अप्रेल में जब उनका अपरेशन हुआ, तब भी उनसे मुलाकात हुई। एक दिन बातों ही बातों में पता चला कि एम्स के डायरेक्टर डॉ़ मिश्रा जी उनके बहुत अच्टे परिचित हैं। कुछ अन्य डक्टर भी उनको जानते हैं। एम्स में उनका इलाज अच्छा चल रहा था, मगर अल्मोड़ा में उनकी वह देख-रेख नहीं हो सकी, जिसकी दरकार थी।

जब वे अल्मोड़ा लौटे तो मैंने उनसे फोन पर बातचीत की। उनकी सेहत का हाल पूछा। उनकी बातों से ऐसा लग रहा था कि वे ठीक हैं। फिर मैंने हाल ही में स्वामी अग्निवेश पर हुए हमले का जिक्र किया। वे जब भी एम्स जाते तो स्वामी अग्निवेश के आवास पर ही ठहरते थे। उन्होंने कहा, ”बहुत खतरनाक दौर आ गया है। बहुत सोच-समझकर सरकार और मीडिया बुनियादी सवालों से हमारा ध्यान हटा रहे हैं। सवाल स्वामी जी पर हमले का नहीं, मीडिया के एक तबके का उस पर बेरुखी का है। इस हमले को जायज ठहराया जाना हैरान करता है। मगर भारत जैसे विभिन्नताओं और मत-मतान्तरों वाले देश में एकरूपता, एक विचारधारा थोपने की यह साजिश कामयाब नहीं होगी। जनता बहुत समझदार होती है।” शमशेर दा से मेरी वह आखिरी बातचीत थी।
(Tribute to Shamsher Bisht)

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