सौभाग्यवती : श्रद्धांजलि

शीला रजवार

सौभाग्यवती जी का जन्म 1928 में तत्कालीन बंगाल के 24 परगना जिले में हुआ था। मूलत: पौड़ी गढ़वाल के सीरौं गाँव की निवासी थीं। उनके पिता श्री जोधसिंह उस समय बंगाल आर्म्ड पुलिस में थे। यह वह समय था जब बंगाल में राजा राम मोहन राय की संस्था ब्रह्मसमाज का प्रभाव फैल रहा था। राजाराम मोहन राय ने ही अपनी विधवा भाभी को जबरन सती बनाये जाने के बीभत्स दृश्य से आहत होकर ब्रिटिश शासन में सती विरोध कानून (1929) बनवाया था। यह वह समय था जब….. विभिन्न समाज सुधारक भारतीय समाज में व्याप्त रूढ़ियों और कुप्रथाओं के खिलाफ सक्रिय थे। जिसका केन्द्र उत्तर भारत में विशेष रूप से बंगाल रहा। नवजागरण की लहर पूरे देश में फैल रही थी। ऐसे माहौल के बीच सौभाग्यवती जी ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा घर में शुरू करते हुए 5 वर्ष की उम्र में बैरकपुर के एक बांग्लाभाषी स्कूल में दाखिला ले लिया, जहाँ हिन्दी की किताब नहीं पढ़ाई जाती थी। लेकिन अनुशासन और आपसी मेल-मिलाप सीखने को मिला।

पिता जोधसिंह आर्यसमाज और वैदिक धर्म के प्रति अनुरक्त थे। वे उन्हें अपने साथ आर्यसमाज के उत्सवों में ले जाते थे, यहां वे विद्वज्जनों के व्याख्यान सुनती थीं। आपकी शिक्षा आर्य समाजी परिवेश में ही हुई और परिवार का प्रभाव भी आप पर पड़ा। आपके दादाजी ने इनकी दादी की मृत्यु के बाद दूसरी शादी के लिये अनेक रिश्ते आने पर भी स्वर्गीया पत्नी के मायके की एक बाल विधवा युवती से विवाह करना उचित समझा। ऐसे प्रगतिशील विचार वाले परिवार में जन्मी सौभाग्यवती की शिक्षा-दीक्षा इसी अनुरूप हुई। पिता ने समीपस्थ अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों को छोड़कर उन्हें कन्या गुरुकुल हाथरस में प्रवेश दिलाया। उनके दादा भी इस बात से प्रसन्न थे कि उनके घर की लड़की गुरुकुल में वैदिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए जा रही है। जब वे गुरुकुल में गई तब उन्हें आशा के विपरीत कक्षा 2 में दाखिला मिला। इस बीच घर में रहकर उन्होंने कक्षा 4 के लायक पढ़ाई कर ली थी लेकिन संस्कृत का समुचित ज्ञान नहीं था। गुरुकुल में प्रारम्भिक शिक्षा के साथ ही संस्कृत विषय पढ़ाया जाता था। उन्होंने परिश्रम से दो माह में ही संस्कृत की पढ़ाई करते हुए अपनी मेहनत से कक्षा तीन में बैठने की अनुमति प्राप्त कर ली।

गुरुकुल की शिक्षण पद्धति और अनुशासन तथा अपनी लगन के कारण उन्होंने श्लोक पाठ, गीता और भाषणों के साथ लेजियम, लाठी, मुग्दर और कटार परिचालन में भागीदारी के साथ पुरस्कार भी प्राप्त किए।
(Tribute to Saubhagywati)

गुरुकुल में समय-समय पर प्रबुद्धजनों और मनीषियों का आना-जाना और उनके व्याख्यान होते थे जिनसे उन्हें अस्पृश्यता निवारण, नारी शिक्षा के विकास और अन्धविश्वास तथा पाखण्ड को खंडित करने में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए प्रेरित किया जाता था। प्रयाग महिला विद्यापीठ से ‘विनोदिनी’ की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद जो आज के हाईस्कूल के समकक्ष था, इस बीच उनके विवाह के बारे में भी सोचा जाने लगा था। विद्यापीठ के वार्षिक समारोह के दौरान इनकी सास और पिताजी के बीच बात हुई और श्री सुखवीर सिंह जो स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे के साथ विवाह तय हुआ। जो मूलत: सिमरौठी गाँव (उत्तर प्रदेश अलीगढ़) के थे। उल्लेखनीय है कि सिमरौठी गाँव उस समय एक जागरूक और शिक्षित गाँव माना जाता था। वहाँ पर्दा प्रथा भी नहीं थी। यदि किसी की बहू-बेटी शिक्षित-प्रशिक्षित होकर नौकरी में जाना चाहती थी तो जा सकती थी। सौभाग्यवती जी को भी आश्वस्त किया गया था कि वह चाहें तो उन्हें आगे शिक्षा पाने या नौकरी करने की भी छूट है। 6 जून 1948 को सौभाग्यवती जी का विवाह श्री सुखवीर जी के साथ हो गया। वे वामपंथी राजनीतिक विचारधारा से जुड़े थे। विवाह के दूसरे ही दिन सौभाग्यवती जी को पता चला कि हाथरस के मजदूर आन्दोलन में सक्रिय होने के कारण कपड़ा मिल के मालिकों ने उनके खिलाफ वारंट निकलवा दिया था। विवाह के कुछ समय बाद ही उनकी गिरफ्तारी हुई लेकिन सौभाग्यवती जी को पहले से उनकी राजनीतिक गतिविधियों की जानकारी थी इसलिए वे इससे परेशान नहीं हुई। विवाह के तुरन्त बाद जुलाई में इन्हें अब्दुल्ला हाईस्कूल में हिन्दी और शारीरिक व्यायाम की शिक्षिका बनने का अवसर मिल गया। लेकिन नौकरी करते हुए दो महीने ही हुए थे कि 3 अक्टूबर 1948 के रेल रोको आन्दोलन में भागीदारी के जुर्म में गिरफ्तार कर ली गईं। वास्तविकता यह थी कि कम्युनिस्ट पार्टी ने सरकार की नीतियों के विरोध में देशव्यापी स्तर पर रेल रोको आन्दोलन की घोषणा की थी। यद्यपि ये और अन्य महिला साथी किसी राजनीतिक दल की सदस्य नहीं थी लेकिन इनके पति सक्रिय वामपंथी सदस्य थे इसलिए इनकी गिरफ्तारी हुई। इनसे कहा गया कि इन्होंने कोई राजनीतिक अपराध नहीं किया है इसलिए एक-दो दिन बाद माफीनामा लिखकर दे देना, रिहाई हो जायेगी। पर इन्होंने माफीनामा लिखकर देने से इंकार कर दिया। 1 महीने तक अलीगढ़ की जेल में रहने के बाद इन्हें बनारस जेल भेज दिया गया। जहाँ इन्हें राजनीतिक कैदियों को मिलने वाली सुविधाएँ दी गईं। इस बीच उनका विभिन्न प्रकार की महिला कैदियों से परिचय हुआ। उन्हें जानने-समझने का मौका मिला। सासू माँ की अस्वस्थता के कारण तीन महीने बाद पेरौल पर छूटीं और इसी के साथ इनकी वहाँ की नौकरी और जेल यात्रा समाप्त हुई। विवाह के बाद ससुराल में रहते हुए एक पुत्र जन्म के बाद अंग्रेजी विषय से हाईस्कूल की परीक्षा पास की। इस दौरान महिलाओं के लिए शिक्षा और विकास के लिए किए गए प्रयासों में भी भागीदारी की। आपने कन्या गुरुकुल महाविद्यालय हाथरस से स्नातिका होने पर स्वर्ण पदक सहित विद्या विभूषिता की उपाधि प्राप्त की। एम.ए. हिन्दी एवं संस्कृत अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया तथा डॉ. हरवंश लाल जी के निर्देशन में ‘पृथ्वीराज रासो का काव्यशास्त्रीय मूल्यांकन’ शीर्षक से पी.एच-डी. (हिन्दी) की। विभिन्न विद्यालयों में 36 वर्ष से भी अधिक समय तक हिन्दी एवं संस्कृत का अध्यापन कार्य किया। अवकाश प्राप्ति से पूर्व टीकाराम कन्या महाविद्यालय, अलीगढ़ में 5 वर्ष हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद पर रहीं। माँजी (सासू माँ) के निधन के बाद वह उनकी कमी महसूस करती थी। सेवानिवृत्ति के बाद वह अलीगढ़ में रहीं। वह मानती थीं कि माँजी के सहयोग के कारण ही वह पढ़ाई और नौकरी कर सकीं और सामाजिक गतिविधियों में भागीदारी कर पाईं। पति भी गाँव छोड़कर अलीगढ़ आ गये थे। लेकिन 6 माह बाद ही अकस्मात् हैमरेज के बाद थोड़े दिनों में हृदयगति रुकने से उनका देहान्त हो गया। यह सौभाग्यवती जी के लिए एक बड़ा आघात था। जीवनसाथी का साथ छूटने का दुख तो था ही, साथ ही सही मायनों में सामाजिक विषयों पर लेखन और महिलाओं के लिए सांगठनिक कार्यों  में पति का सहयोग अपेक्षित था। उनके बिना वह अपने को अधूरा सा महसूस कर रही थीं। ऐसे कठिन समय में उनके मित्रों और परिवार ने उन्हें धैर्य बँधाया। बेटे-बहू अपने साथ उदयपुर ले गये बाद में बेटी सुधा गिरिडीह (बिहार) अपने कार्य क्षेत्र में ले गईं। ननद का भी आत्मीय सक्रिय सहयोग मिला। सेवानिवृत्ति के बाद आप लेखन में जुटी रहीं तथा सामाजिक कार्यों में रुचि लेती रहीं। सौभाग्यवती जी ने विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों/समितियों की सदस्यता/अध्यक्षता की। चैतन्या महिला मंच, अलीगढ़ की दो सत्रों में अध्यक्ष रहीं। ऐपवा की भी मानद अध्यक्ष रहीं। जनसत्ता, उत्तरा, महावीर समता सन्देश सहित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में दर्जनों सामाजिक, सांस्कृतिक विषयों पर लेख प्रकाशित हुए। उत्तरा से उन्हें विशेष स्नेह था। उत्तरा में आपके संस्मरण 23 किश्तों में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुए। अन्तिम किश्त में आपने लिखा था- मेरी हार्दिक इच्छा थी कि मैं उत्तरा के लिए ‘यादें’ स्तम्भ के अन्तर्गत तीस किश्तें लिखकर समापन करूँ, लेकिन दृष्टि कमजोर हो जाने के कारण मेरी इच्छा पूरी न होने का मुझे खेद है। वृद्धावस्था में कलम चलाने से आँखें डबडबाने लगती हैं और हाथ रुक जाता है। उत्तरा मेरी अतिप्रिय पत्रिका है, बिलकुल अपनी बच्ची की तरह। लम्बी अस्वस्थता के बाद उदयपुर में अपने पुत्र प्रताप सिंह के पास रहते हुए 23 जनवरी 2018 को इनका निधन हो गया। उत्तरा की विनम्र श्रद्धांजलि।
(Tribute to Saubhagywati)

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