नैनं छिन्दंति शस्त्राणि उर्फ उस दिल की याद : श्रद्धांजलि

शिरीष मौर्य

देश के जन और उसमें भी सीमान्तों पर बसे लोग, वेदों से पहले की आदिम बसासत से आए लोग, कथित रूप से असुर कही गई जाति के वंशज, जंगलों के वासी, बहुत कम बुनियादी सुविधाओं और थोड़े सम्मान के साथ अपना कठिन-कठोर जीवन जी पाने के अभिलाषी लोग- यही जन महाश्वेता देवी के कुल रचनाकर्म की धुरी रहे हैं। इस देश को महानता में सड़ा देने वाली एक परम्परा सदा सक्रिय रही आयी है, उसमें श्रेष्ठताओं के अंबार हैं- धर्म की, वर्ण की, रंग की, कुल की, पुराण की अनगिन श्रेष्ठताओं तले दबा देशवासी सदा घुटता ही रहा है। इस घुटन को सदियाँ बीतीं। एक स्त्री ही शायद इस शब्द घुटन का अर्थ बेहतर समझ और समझा सकती है, जिसे हम ‘घुटन’ कहते हैं। और जिस तरह की लेखक महाश्वेता देवी हैं, एक स्त्री ही हो सकती है। अपने अर्थ और अभिप्रायों में ऐसा विपुल दूसरा लेखक नहीं दिखाई देता। यह भी कहूंगा कि उनका बांग्ला की लेखक होना भी कभी महसूस नहीं हुआ, हिंदी अनुवादों में उन्हें पढ़ते वे सदा हिंदी की ही लेखक लगीं। भाषाई सरहदों के ऐसे अतिक्रमण हमारे देश में कम ही हैं। 

91 वर्ष के सुदीर्घ और उतने ही सक्रिय जीवन के बाद महाश्वेता देवी ने अलविदा कहा है। नैनं छिन्दंति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:- महाश्वेता देवी के जाने पर भगवद्गीता की यह स्मृति उनके विचार से विरोध रखती प्रतीत हो सकती है। एक स्त्री की आत्मा, रचनाकार की आत्मा के लिए परमात्मा के सन्दर्भों में नहीं, विकट जीवन के निपट भौतिक सन्दर्भों के बरअक्स मैं गीता का यह अंश पढ़ता हूँ, जो परम्परा में मृत्यु पश्चात किया जाने वाला पाठ है। जो आत्म संसार और समाज के सबसे सच्चे और खरे संघर्षों में शामिल रहा, जिसने उन संघर्षों के दस्तावेज बनाए, वह आत्म- लेखक का आत्म, महाश्वेता देवी का आत्म, देह के बाहर और बाद वक्त़ की अवधारणा रहते रहेगा। स्त्री जो पृथ्वी पर सबसे सहज रचनाकार है, जीवन की समग्रता से लेकर उसके हर सूक्ष्म अवधान तक जो सदा रचती ही रहती है, उसे याद करने के लिए शास्त्र कम पड़ते हैं। अपने विचार और लेखन के साथ महाश्वेता देवी का सामना हमेशा हत्यारी ताकतों और उनके शस्त्रों से रहा, एक आग हमेशा उन तक पहुँचती रही। हम इसी रूपक को पलट दें तो अपने लेखन में उन्होंने जनहित में एक नया शस्त्र और शास्त्र तैयार किया, आम पाठकों की पहुंच देश के अनजान-अनाम करार दे दिए गए इलाकों तक उन्होंने बनाई। उनका होना खुद में एक आग की तरह था, जो जलाती नहीं, जन और जीवन को मजबूती देती है।

वे जिस साम्यवादी विचार की हामी रहीं, अपने बुनियादी स्वरूप में वह मनुष्यता के पक्ष में एक सुन्दर विचार है। उसके भीतर अन्तर्धाराओं के टकराव भी मौजूद रहते हैं, जिनका ब्यौरा महाश्वेता देवी के हजार चौरासवीं की मां जैसे उपन्यासों में देखा जा सकता है। साम्यवाद से धार्मिक कट्टरता और असमानता के पक्षधर हर विचार का बैर है, इस बैर का शिकार लोग होते रहते हैं पर महाश्वेता देवी ने अपनी सैद्घांतिकी, रचनाकर्म और व्यक्तित्व में उस गरिमा को हासिल किया था, जहां उनके विरोधी भी उनके लिए मन में सम्मान रखते थे। जंगलों से मूलवासियों के विस्थापन अब देश में दोनों ही ओर से हिंसात्मक रूपों के साथ मौजूद हैं, इस दुतरफा हिंसा के बीच महाश्वेता देवी के वे जननायक मिथक-पात्रों की तरह लगते हैं- अफसोस कि मिथकों से पेश आने का कोई वैचारिक सलीका हम विकसित नहीं कर पाए हैं। नंदीग्राम हो कि सिंगूर, बंगाल की साम्यवादी सरकार के विचलन और उनसे बहस करते हुए उनके हस्तक्षेप हमेशा याद रखे जाएंगे।
(Tribute to Mahasweta Devi)

महाश्वेता देवी के पिता मनीष घटक बांग्ला साहित्य का स्थापित नाम थे और उनसे भी कहीं ज्यादा प्रसिद्घ और समर्पित व्यक्तित्व था उनके चाचा ऋत्विक घटक का। भारतीय सिनेमा के सारे उल्लेख अपूर्ण और अविश्वसनीय होंगे यदि उनमें से ऋत्विक घटक का नाम हटा लिया जाए। मैं सोचता हूं कि धरा पर तड़पते मनुष्य जीवन के चित्र चुनने की क्षमता महाश्वेता देवी ने ऋत्विक घटक से सीखी थी।

महाश्वेता देवी ने दो विवाह किए पर दोनों से ही वे मुक्त हो गईं। उनके पहले पति विजन भट्टाचार्य की रचना ‘नवान्न’ जननाट्य की भारतीय परम्परा में एक यादगार पुस्तक है। नारी मात्र के लिए नहीं, समूची मनुष्यता की मुक्ति का संकल्प धारण किए महाश्वेता देवी स्वयं भी उस बंधन से मुक्त रहने की ओर गईं, जिसे विवाह कहते हैं। दूसरे पति असित गुप्त से भी उनका सम्बधविच्छेद हो गया और उसके बाद वह युग आया, जिसे महाश्वेता देवी ने पूरी तरह आदिवासियों के बीच उनके दु:ख और संघर्षों में शामिल रहते बिताया। दर्शक रहकर नहीं, शामिल रहकर लिखना जिसे कहते हैं, उसके लिए जिन लेखकों की ओर हमें देखना चाहिए, उनमें महाश्वेता देवी का नाम अग्रणी है।

विचारों के लिए समर्पण और उनकी परवरिश मनुष्यों में अगली पीढ़ियों तक जारी रहने वाली शैली है- महाश्वेता देवी के पुत्र नवारुढ़ भट्टाचार्य का जीवन और रचनायात्रा बताते हैं कि माँ के दायित्व को उन्होंने किस कदर डूब कर निभाया था। अपनी मृत्यु से कुछ पहले उन्होंने उसी पुत्र की मृत्यु भी देखी और कहना न होगा 90 के आसपास की उम्र में किसी माँ के लिए यह कितना बड़ा आघात है। वे गर्वीली माँ थीं, उन्होंने नवारुढ़ के लेखक की भी ममताभरी परवरिश की थी। उनके सामने ही उनका बनाया जीवन टूट रहा था, वे एकाकी हो चली थीं। इसे संयोग भर नहीं मानना चाहिए कि उनकी लिखत में माँ का चरित्र एक अलग रोशनी में खड़ा दिखाई दिया है।

साहित्य की राजनीति में महाश्वेता देवी को घसीटने के प्रयास भी साहित्य अकादमी अध्यक्ष के निर्वाचन जैसी प्रक्रियाओं में हुए, लेकिन वे मुक्त रहीं, उन्हें मुक्त ही रहना था सदा। 

हर ओर उठते हाहाकार, मनुष्यता के लिए छद्म प्यार और सामान्य जन के कई-कई तड़पते जीवन प्रसंगों में जीते हुए पाता हूँ कि परसाई और महाश्वेता देवी, दो ही लेखक हैं, जिनके लिए हृदय में पीड़-सी उठती है। जिनके बारे में तुरत सोचता हूँ कि आज होते तो देश के मौजूदा हालात और लगातार जारी बौड़मपन के बीच वे क्या कहते़…. लगातार हिंसक होते, मनुष्यता की अनिवार्य गरिमा से गिरते समाज में महाश्वेता देवी को याद करना उनके रचे के साथ रहना-जीना है, हम यही कर सकते हैं, यही करना होगा।

किसी रूसी कथा में पढ़ा एक प्रसंग याद आता है कि अकाल और भुखमरी के चलते किसी मानव समूह ने रहवास बदलने के बारे में सोचा। परम्परावादी बुजर्गों ने रोका तो नौजवानों ने इस बदलाव पर जोर दिया। वह समूह चल दिया बेहतर इलाके और जीवन की तलाश में। राह में एक भयानक जंगल आया, जिसमें रोशनी का नाम न था। मशाल जलाए जवानों के पीछे सब चल पड़े। आग से भरे एक नौजवान ने इस समूह की अगुवाई की। बीच जंगल में मशालें थककर बुझने लगीं। सब मशालें जब बुझ गईं, अचानक अगुवा नौजवान के हाथों में आग और रोशनी दिखाई दी। उस रोशनी के सहारे लोगों ने जंगल पार किया और एक उपजाऊ  सुन्दर भूमि पर कदम रखे। वहाँ पहुंचते ही अगुवा जवान गिर पड़ा। भागकर सबने देखा कि जिस आग और रोशनी के सहारे वे यहां तक आए थे, वह नौजवान की तलवार की नोक पर बिधे दिल से उपज रही थी। उस नौजवान ने भटके समूह को राह दिखाने की खातिर अपना दिल निकाल लिया था तलवार पर। किसी भी देश और समाज में उसके लेखक के पास भी ऐसी ही आग और रोशनी से भरा भभकता दिल होना चाहिए। महाश्वेता देवी के पास वह था और 1943 के बंगाल में भीषण अकाल के दिनों में उसे उन्होंने रोशनी के लिए अपने हाथों में उठा लिया था। उसी दिल के साथ वे इतने बरस चलती चली आयीं, उसी दिल की रोशनी थी, जिससे हम सम्मोहित रहे आए, उसी और वैसे ही दिलों की रोशनी में हमें अपने सफर तय करने हैं। उस दिल की याद हमारे दिलों को भी एक रोशनी बख्शेगी।
(Tribute to Mahasweta Devi)

उत्तरा के फेसबुक पेज को लाइक करें : Uttara Mahila Patrika

पत्रिका की आर्थिक सहायता के लिये : यहाँ क्लिक करें