कन्नड़ प्रगतिशील चिन्तन परम्परा की कड़ी: गौरी लंकेश

सिद्धार्थ

5 सितम्बर को गौरी लंकेश की हत्या से उपजे दुख, आक्रोश, क्षोभ और अवसाद से उबरने के बाद अधिकांश लोगों के मन में यह प्रश्न उठा कि आखिर गौरी लंकेश कुछ लोगों के लिए इतनी खतरनाक या नफरत की पात्र क्यों हो गईं कि उनकी हत्या करवाने या करने के अलावा, उन्हें कोई और रास्ता नहीं सूझा? इस प्रश्न का मुकम्मिल जवाब गौरी लंकेश के विचारों, उनके कार्यों और उनके व्यक्तित्व की छान-बीन करके ही दिया जा सकता है। वह सिर्फ हिन्दुत्व की राजनीति की विरोधी नहीं थीं, वह हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू समाज व्यवस्था को पूर्णतया खारिज करती थीं। इस मामले में वह पूरी तरह बासवन्ना, फुले, अंबेडकर आदि के विचारों के साथ खड़ी थीं।

कर्नाटक में 12वीं शताब्दी में बासवन्ना ने हिन्दू धर्म को पूर्णतया खारिज कर दिया था और्र लिंगायत धर्म का प्रचलन किया थार्। लिंगायत लोग किसी भी रूप में अपने को हिन्दू धर्म, संस्कृति या समाज व्यवस्था का हिस्सा नहीं मानते थे। हिन्दुओं के किसी शास्त्र, देवी-देवता, कर्म-फल सिद्धांत, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक को नहीं मानते थे। वह मन्दिरों और मूर्तियों से घृणा करते थे। हिन्दुओं के अंधविश्वासों की खिल्लियाँ उड़ाते थे। जाति प्रथा के कटु आलोचक थे। स्त्री-पुरुष समानता के पक्षधर थे। अंतरजातीय विवाह और अंतरजातीय खान-पान को बड़े पैमाने पर बढ़ावा देते थे। इस आन्दोलन ने इतना गहरा प्रभाव छोड़ा था कि एक भारी आबादी ने हिन्दू धर्म, संस्कृति और समाज व्यवस्था का परित्याग कर दिया। सबसे बड़ी बात यह थी कि ऐसा करने वालों में सभी वर्णों/जातियों के लोग थे।
असुर बनाम सुर

गौरी लंकेश फुले और अंबेडकर को क्रान्तिकारी व्यक्तित्वों के रूप में याद करती हैं। ये दोनों चिंतक भी लिंगायत की तरह हिन्दू धर्म को मानव विरोधी धर्म मानते थे। वह भारत के सांस्कृतिक इतिहास की, उस व्याख्या से सहमत थीं, जो फुले और अंबेडकर ने की थी। वह साफ शब्दों में इस बात को स्वीकार करती हैं कि ‘‘मनुवादियों ने बहुजनों के समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास को अपने हिसाब से तोड़ा-मरोड़ा। हमें इस इतिहास पर पड़े धूल-धक्कड़ को झाड़ना पड़ेगा, पौराणिक झूठों का पर्दाफाश करना पड़ेगा और अपने लोगों तथा अपने बच्चों को सच्चाई बतानी पड़ेगी। यही एकमात्र रास्ता है, जिस पर चलकर हम अपने सच्चे इतिहास के दावेदार बन सकते हैं।’’ (वेब पोर्टल बैंगलोर मिरर में 29 फरवरी 2016)। वह यहीं नहीं रुकती, लिंगायत, फुले और आंबेडकर की तरह के साहस का परिचय देते हुए, हिन्दुओं के देवी-देवताओं की मिथकीय असलियत को सामने लाती हैं। वह इस मामले में अंबेडकर को अपने नायक रूप में प्रस्तुत करते हुए लिखती हैं कि ‘‘अंबेडकर ब्राह्मणों का इस बात के लिए उपहास उड़ाते हैं कि उन्होंने अपने देवताओं को दयनीय कायरों के एक समूह के रूप में प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि हिन्दुओं के सारे मिथक यही बताते हैं कि असुरों की हत्या विष्णु या शिव द्वारा नहीं की गई है, बल्कि देवियों ने की है यदि दुर्गा (या कर्नाटक के संदर्भ में चामुंडी) ने महिषासुर की हत्या की, तो काली ने नरकासुर को मारा। एक अन्य असुर रक्तबीज की हत्या देवी शक्ति ने की। अंबेडकर तिरस्कार के साथ कहते हैं कि ‘‘ऐसा लगता है कि भगवान लोग असुरों के हाथों से अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकते थे, तो उन्होंने अपनी पत्नियों को, अपने आप को बचाने के लिए भेज दिया।’’ (बैंगलोर मिरर में 29 फरवरी 2016) इतना ही नहीं, वह हिन्दुत्ववादी शक्तियों के वर्चस्व को खारिज करने के लिए मिथकों की पुनव्र्याख्या तक करती हैं। इसी कड़ी में उन्होंने ‘रिक्लेमिंग महिषासुर’ नामक लेख लिखा। इस लेख में उन्होंने महिषासुर को अनार्यों, द्रविड़ों के महानायक के रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा, ‘एक दैत्य अथवा महान उदार द्रविड़ शासक, जिसने अपने लोगों की लुटरे-हत्यारे आर्यों से रक्षा की। महिषासुर ऐसे व्यक्तित्व का नाम है, जो सहज ही अपनी ओर लोगों को खींच लेता है। उन्हीं के नाम पर मैसूर नाम पड़ा है। यद्यपि हिन्दू मिथक उन्हें दैत्य के रूप में चित्रित करते हैं, चामुंडी द्वारा उनकी हत्या को जायज ठहराते हैं, लेकिन लोकगाथाएँ इसके बिल्कुल भिन्न कहानी कहती हैं। यहाँ तक कि बी.आर. अंबेडकर और ज्योति राव फुले जैसे क्रन्तिकारी चिंतक भी महिषासुर को एक महान उदार द्रविड़ शासक के रूप में देखते हैं, जिसने लुटेरे-हत्यारे आर्यों (सुरों) से अपने लोगों की रक्षा की।’’
(Tribute to Gauri Lankesh)

यह सब लिखते, बोलते और इसके लिए संघर्ष करते हुए, उन्होंने साफ शब्दों में अपने को बासवन्ना और आंबेडकर की परंपरा से जोड़ा, कहा कि उनकी परंपरा को आगे बढ़ाने को अपना कर्तव्य मानती हैं। हिन्दुत्व की राजनीति का विरोध भी वह इसी कर्तव्य का हिस्सा मानती थीं। उन्होंने लिखा है, ‘‘मैं हिन्दुत्व की राजनीति की निन्दा करती हूँ और जाति व्यवस्था की भी, जो हिन्दू धर्म का हिस्सा मानी जाती है। इसके कारण मेरे आलोचक मुझे हिन्दू-विरोधी बताते हैं। परन्तु मेरा यह मानना है कि एक समतावादी समाज के निर्माण के लिए जो संघर्ष बासवन्ना और अंबेडकर ने शुरू किया था, उसे आगे बढ़ाना मेरा कर्तव्य है और जितनी मेरी शक्ति है उतना मैं कर रही हूँ।’’ (साक्षात्कार, उद्धृत सिंथिया स्टीफेन)

बासवन्ना और अंबेडकर के साथ ही, उन्हें लोहिया के विचारों की विरासत अपने लेखक पिता पी. लंकेश से प्राप्त हुई थी। लोहिया जाति और पितृसत्ता को भारतीय समाज का सबसे बड़ा रोग मानते थे। उन्होंने लिखा था कि, ‘‘हिन्दुओं का दिमाग जाति और योनि के कटघरे में कैद है। जाति-वर्चस्व के नाम पर स्त्रियों को अपमानित, उपेक्षित करने तथा दबाने एवं सताने में तथाकथित ऊँची जातियाँ एवं पुरुष गर्व का अनुभव करते हैं। शूद्रों-स्त्रियों तथा कमजोरों को दबाने में उनके अहं की तुष्टि होती है।’’ लिंगायतों की परंपरा वाले कर्नाटक में लोहिया के जाति और पितृसत्ता सम्बन्धी विचारों ने काफी गहरी जड़ें जमायी थीं, साथ ही समाजवाद को भी जगह मिली थी।
पितृसत्ता के खिलाफ

गौरी लंकेश पितृसत्ता के सभी रूपों को खारिज करती थीं, उनका मानना था कि स्त्री-पुरुष के बीच विवाह का आधार प्रेम के अलावा कुछ भी नहीं हो सकता है। वह लिंगायत, फुले, अंबेडकर और लोहिया के स्त्री-पुरुष समानता के विचारों को आगे बढ़ाती हैं। वह स्त्री की समग्र आजादी और बराबरी की पक्षधर थीं। स्त्रियों की देह की आजादी संबंधी उनके एक पोस्ट ने खलबली मचा दी थी। यह पोस्ट जेएनयू विवाद के समय आई थी। विवाद इस विषय पर हो रहा था कि एक स्त्री अपना जीवन-साथी अथवा सेक्स पार्टनर चुनने के लिए आजाद है या नहीं। इसका विरोध करने वालों को करारा जवाब देते हुए, उन्होंने निडर योद्धा की तरह लिखा कि ‘‘यदि कोई व्यक्ति एक ऐसी स्त्री की संतान है, जो अपना सेक्स पार्टनर चुनने के लिए आजाद नहीं थी, तो वह या तो बलात्कार की पैदाइश है या वेश्या की।’’

स्वाभाविक था कि यह बात शायद प्रगतिशीलों के भी गले न उतरे, लेकिन यह नंगा सच है और इस नंगे सच को कहने का साहस गौरी में था। वह कोई पिलपिली बुद्धिजीवी नहीं थीं, जो सोचती थीं, वह कहती थीं, जो कहती थीं, वह करती थीं। पुरुष संबंधों के संदर्भ में जिस तरह की बात गौरी लंकेश 21वीं शताब्दी में कर रही थीं, बारहवीं शताब्दी में इससे भी पुरजोर तरीके से बासवन्ना ने अपने वचनों में कही हैं।

 ‘चान्नय्या के घर के नौकर का एक लड़का/ और काकय्या के घर की नौकरानी की एक लड़की/ दोनों एक साथ खेत में गोबर इकट्ठा करने गए/उसके बाद एक बच्चा पैदा हुआ था- वह बच्चा मैं ही हूँ।’

हिन्दू धर्म, हिंदुत्व की राजनीति, जाति और पितृसत्ता सम्बन्धी अपने विचारों के लिए गौरी लंकेश को ऐसी-ऐसी गालियाँ दी गईं, जिन्हें उद्धृत भी नहीं किया जा सकता। सच तो यह है कि गौरी हिन्दुत्व की जड़ों पर प्रहार करने वाली एक पत्रकारऔर कार्यकर्ता थीं। वह आरएसएस की उस पूरी परियोजना की जड़ में मठ्ठा डाल रही थीं, जिन आधारों पर वह हिन्दू राष्ट्र का निर्माण करना चाहते हैं।

गौरी लंकेश हिन्दू धर्म की आलोचना को हिन्दुत्व की राजनीति के विरोध तक ले गई। जब उन्होंने लंकेश पत्रिका की संपादक की जिम्मेदारी संभाली (सन् 2000 में) हिन्दुत्व की राजनीति और हिन्दुत्ववादी शक्तियों का जोर कर्नाटक में काफी बढ़ गया था। आरएसएस, बजरंगदल और श्रीराम सेना जैसे संगठनों का तेजी से उभार हुआ था। मीडिया में विस्तार से रिपोर्टें आई हैं कि किन-किन जगहों पर उनका बजरंग दल और अन्य हिन्दुत्ववादी संगठनों से सीधा टकराव हुआ। यह वही दौर है जब, कर्नाटक में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को हिन्दूवादी शक्तियों ने तेजी से बढ़ाया। गौरी लंकेश न केवल एक पत्रकार के तौर पर, एक कार्यकर्ता के तौर पर तथ्यों को उजागर करती रहीं और सत्य का साथ देती रहीं। वह खुलकर अल्पसंख्यकों के साथ खड़ी हुईं, अन्याय के शिकार लोगों के पक्ष में खड़ी हुईं। उनके विरोधी उन्हें नक्सली भी कहते थे, क्योंकि वह हर प्रकार के अन्याय का डटकर विरोध करती थीं, सभी जानते हैं कि उनका अपने भाई से तीखा विरोध एक नक्सली समर्थक लेख के प्रकाशन को लेकर हुआ था। उनका भाई उस लेख को प्रकाशित करने का विरोधी था। असहमति इस कदर बढ़ी कि गौरी को लंकेश पत्रिका को छोड़कर 2005 में गौरी लंकेश पत्रिके निकालनी पड़ी थी। इसके साथ ही, वह देश के सामने आसन्न उपस्थित फासीवादी खतरे को पहचान रही थीं, हाल के, उनकी पत्रिका के लेखों, आवरण-कथाओं और संपादकीय को देखें तो पाते हैं कि उनके निशाने पर सबसे अधिक मोदी और अमित शाह की जोड़ी का झूठ और फरेब था।
(Tribute to Gauri Lankesh)

गौरी लंकेश केवल अपनी वैचारिक विरासत के मामले में ही कन्नड़ की प्रगतिशील परंपरा को आगे नहीं बढ़ा रही थी, इस परम्परा के उस रूप की भी कायल थीं जो यह मानती हैं र्कि चिंतक, लेखक, विचारक या पत्रकार को, अपने विचारों के पक्ष में न केवल लिखकर खड़ा होना चाहिए, बल्कि उन विचारों के पक्ष में चल रहे संघर्षों में सक्रिय हिस्सेदारी भी करनी चाहिए। गौरी निर्भीक पत्रकार के साथ, एक निडर कार्यकर्ता भी थीं। शायद ही कोई महत्वपूर्ण आन्दोलन या संघर्ष हो, जिसमें उनकी सक्रिय उपस्थिति न रही हो। वह बासवन्ना, फुले, अंबेडकर और लोहिया की उस परंपरा को आगे ले जा रही थीं, जिसमें अपने विचारों को व्यक्त करने के साथ ही, उनके लिए संघर्ष करना भी शामिल है, चाहे इसकी जो भी कीमत चुकानी पडे़, वे हर कीमत चुकाने के लिए तैयार थीं।

तथ्यपरक, तर्कपरक विचारों के साथ खड़े होने की कीमत भी चुकानी पड़ती है, बिना कीमत चुकाए सत्य और न्याय के पक्ष में वास्तविक अर्थों में नहीं खड़ा हुआ जा सकता है। गौरी लंकेश ने इसकी कीमत चुकाई, अंततोगत्वा वह हत्यारों की गोलियों का शिकार बनकर। लेकिन यह तो अंतिम कीमत थी। अपने विचारों की कीमत उन्होंने उसी दिन से चुकानी शुरू कर दी थी, जब उन्होंने अपने पिता की मृत्यु के बाद लंकेश पत्रिका के संपादन का दायित्व संभालने का निर्णय लिया। उन्होंने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्यूनिकेशन से पत्रकारिता की पढ़ाई की थी। अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया, साप्ताहिकसंडे के अलावा उन्होंने तेलुगु न्यूज चैनल इनाडू के लिए कार्य किया। उन्होंने एक स्थापित कैरियर छोड़कर जनपक्षधर पत्रकारिता करने का निर्णय लिया था। वर्ष 2000 में उन्होंने अपने लोहियावादी साहित्यकार पिता पी. लंकेश  द्वारा शुरू किए गए राजनीतिक कन्नड़ भाषा के टेबलायड लंकेश पत्रिका की जिम्मेवारी संभाली। वह मूलत: अंग्रेजी भाषा का दामन छोड़कर आमजन की भाषा कन्नड़ में पत्रकारिता करने उतरी थीं। जिस तरह जिन्दगी और कैरियर का लोग रात-दिन सपना देखते हैं और जिसके लिए हर तरह का समझौता करने के लिए तैयार रहते हैं उस सबको छोड़कर गौरी लंकेश ने जन का पक्ष चुना था। एक बार जब पक्ष चुन लिया तो, वह उस पर डटी रहीं, धमकियाँ झेलीं, मानहानि के मुकदमे में सजा हुई, भद्दी-भद्दी गालियाँ सुनीं, लेकिन एक निडर योद्धा की तरह जंग के मैदान में डटी रहीं। हत्यारों की गोलियों का शिकार होकर, यह संदेश दे गईं कि सत्य और न्याय के पक्ष में खड़े होने की कोई भी कीमत बड़ी नहीं होती है।
साभार: समयान्तर, अक्टूबर 2017
(Tribute to Gauri Lankesh)

उत्तरा के फेसबुक पेज को लाइक करें : Uttara Mahila Patrika