श्रद्धांजली ”अरे बधाई, बहुत बधाई” फहमीदा रियाज (1946-2018)

मधु जोशी  

1972 में सिने तारिका मीना कुमारी की मृत्यु के उपरान्त अभिनेत्री तथा सांसद नरगिस दत्त ने लिखा था- ”मीना, मौत मुबारक हो।” यासिर अब्बासी अपनी पुस्तक यह उन दिनों की बात है में इस वाकये को याद करते हुए लिखते हैं कि नरगिस दत्त ने एक उर्दू पत्रिका में प्रकाशित श्रद्धांजलि में ऐसा इसलिए लिखा था क्योंकि उन्हें लगता था कि मीना कुमारी मृत्यु के कारण ऐसी दुनिया से दूर चली गई है जो ”उन जैसे लोगों के लिए है ही नहीं। ” इसी तरह से 21 नवम्बर 2018 को प्रगतिशील और निर्भीक उर्दू कवयित्री फहमीदा रियाज के देहावसान का समाचार सुनकर अनायास महसूस हुआ कि इस मौके पर लेखिका को 1996 में लिखित उनकी बहुर्चिचत कविता, ”तुम बिल्कुल हम जैसे निकले” की पंक्ति ”अरे बधाई, बहुत बधाई” समर्पित करना अप्रासांगिक नहीं होगा- बधाई इस बात की कि वह ऐसी दुनियाँ को छोड़कर चली गईं हैं, जिसमें ”वह मूर्खता, वह घामड़पन, उल्टे काज, फतवे, दुर्दशा, जाहिलपन, गड्ढा, मलाल और दुख हैं” जिनके खिलाफ वह जीवन पर्यन्त आवाज बुलन्द करती रहीं।
(Tribute to Fahmida Riaz)

28 जुलाई 1946 को मेरठ में जन्मी फहमीदा रियाज के पिता हैदराबाद (सिन्ध) में शिक्षा विभाग में कार्यरत थे। अत: विभाजन के बाद उनका परिवार पाकिस्तान में ही रह गया। 1967 में विवाहोपरान्त वह पति के साथ लन्दन चली गईं जहाँ से कुछ ही साल बाद पति से तलाक के उपरान्त वह पाकिस्तान वापस आ गईं। इसके बाद वह ताउम्र पाकिस्तान में रहीं। सिवाय उन सात वर्षों के जो बिना किसी भय और लाग-लपेट के फौजी शासक जनरल जिया-उल-हक की मुखालफत करने के कारण, उन्हें भारत में निर्वासन मे बिताने पड़े थे। इसके बावजूद उन्हें महज एक पाकिस्तानी लेखिका कह कर सम्बोधित करना संभव नहीं है। उनके लेखन का फलक इतना विस्तृत था, उनकी संवेदना इतनी वैश्विक और तरक्की-पसंद थी कि उनको किसी देश की सीमाओं से बाँधना उनकी बंधनमुक्त, बहुमुखी और सार्वभौमिक चेतना और लेखनी दोनों के साथ अन्याय होगा। यह लेखनी इतनी प्रभावशाली और धारदार थी कि वह आठ छोटे व्यंग्यात्मक शब्दों ”हा, हा, हा, हा, हो, हो, हो, हो”  के प्रयोग से उस व्यथा और उस अफसोस को भली भाँति व्यक्त कर देती थी जो वह तब महसूस करती थीं जब वह अपनी जन्म भूमि को बेधड़क उसी मार्ग पर आगे बढ़ते हुए देखती थीं। ”जिसमें हमने सदी गवाईं” नन्हीं फहमीदा ने बहुत छोटी उम्र में तुकबन्दी करना आरम्भ कर दिया था। एक बार जो उनकी लेखनी ने चलना शुरू किया तो बड़ी से बड़ी बाधा भी उनका मार्ग अवरुद्ध नहीं कर पाई- न कटु अनुभवों से भरा उनका प्रथम विवाह, न जनरल जिया-उल-हक जैसे निरंकुश शासक की तानाशाही और न ही 2007 में उनके पुत्र की आकस्मिक मृत्यु। वामपंथी राजनीतिक कार्यकर्ता जफर उल उजान के साथ विवाह से इस लेखनी को और बल मिला। पति के साथ मिलकर फहमीदा रियाज आवाज नामक राजनीतिक पत्रिका प्रकाशित करती थी, जिसे जरनल जिया के दौर में प्रतिबंधित कर दिया गया था। फहमीदा रियाज को उर्दू, अंग्रेजी, सिन्धी, फारसी और हिन्दी भाषाओं का ज्ञान था। उन्होंने रेडियो पाकिस्तान, बी.बी.सी. लन्दन की उर्दू र्सिवस, नेशनल बुक काउन्सिल ऑफ पाकिस्तान, कराची स्थित उर्दू डिक्शनरी बोर्ड आदि में काम किया था। उनके 15 से अधिक कविता (नज्म) संग्रह और कथा साहित्य संग्रह छपे। इसके अलावा उन्होंने सिन्धी और फारसी से अनुवाद के क्षेत्र में भी उम्दा काम किया, जिनमें खाना-ए-आब-ओ-दिल नामक पुस्तक विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह जलालुद्दीन रूमी की कृतियों का फारसी से उर्दू में अनुवाद है।
(Tribute to Fahmida Riaz)

इतने व्यापक लेखन कार्य के बावजूद फहमिदा रियाज को सिर्फ लेखिका के रूप में नहीं देखा जा सकता है। वह लेखिका होने के साथ-साथ एक सर्मिपत राजनीतिक, सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता थीं। महिला सशक्तीकरण और स्त्री यौनिकता की स्वीकार्यता के क्षेत्र में भी उन्होंने उल्लेखनीय योगदान दिया। इसकी झलक उनके दूसरे काव्य संग्रह बदन दरीदा (चिथड़ा शरीर) में देखने को मिलती है, जिसमें  उन्होंने अपनी यौनिकता पर इतनी बेबाकी से चर्चा की है कि उन पर निर्लज्जता और अश्लीलता के आरोप भी लगे। उनकी नारीवाद की व्याख्या अत्यन्त सरल और स्पष्ट थी। इस संदर्भ में उनका कहना था, ”नारीवाद से मेरा तात्पर्य है सड़क में बिना परेशान किये चलने का अधिकार। या तैर सकना या प्रेम गीत लिख पाना, एक पुरुष की तरह, बिना अनैतिक कहलाये।” वह ताउम्र रूढ़िवाद, अलगाववाद, फासीवाद, क्षेत्रवाद, धर्मान्धता, पितृसत्तात्मकता, सत्तालोलुपता आदि की पुरजोर मुखालफत करती रहीं। उन्होंने बलोच और सिन्धी राष्ट्रवादियों के पक्ष में आवाज बुलन्द की। एक तरफ जहाँ बड़ी से बड़ी मुश्किल उन्हें अपने पथ से डिगा नहीं पाती थी, दूसरी तरफ उनका भावुक मन इतना सम्वेदनशील था कि लन्दन प्रवास के दौरान बी.बी.सी. उर्दू सर्विस के लिए समाचार वाचन करते हुए बांग्लादेश के  मुक्ति संग्राम के दौरान होने वाली ज्यादतियों के समाचार पढ़ते समय उनकी आँखें डबडबा जाती थीं।
(Tribute to Fahmida Riaz)

फहमीदा रियाज के व्यक्तित्व, लेखन, रुचियों और कार्यर्धिमता में इतना कुछ समाया हुआ है कि उसे परिभाषित करने के लिए बहु आयामी शब्द भी छोटा पड़ जाता है। इसीलिए उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए शीरेीन मजारी का कहना था, ”उनकी कविता ने परम्परावाद को इतने स्तरों पर चुनौती दी क्योंकि वह बन्धनमुक्त स्त्रियों की आवाज और भावनाओं को अभिव्यक्त करती थीं। उनकी सम्वेदनशीलता और बहुधा उनकी विषयासक्ति की भावाभिव्यक्ति बेमिसाल थी।” शब्दों से उनको इतना लगाव था कि वह फ्लैट्स के उर्दू-अंग्रेजी शब्दकोश को कविता की पुस्तक की तरह चाव से पढ़ती थीं। इन्हीं शब्दों को उन्होंने समाज में व्याप्त विसंगतियों और कुरीतियों पर निर्वाद प्रहार दर-प्रहार करने के लिए बखूबी हथियार की तरह इस्तेमाल किया। इसी तथ्य को रेखांकित करते हुए लेखिका कमीला  समसी ने उनकी मृत्यु पर कहा, ”वह कैसी परिवर्तनकारी शक्ति थी, अपनी कविता में और अपने जीवन में। ”सच्चाई, समानता और सौहार्द के पथरीले और दुश्वारियों से भरे मार्ग पर ताउम्र अडिग रहीं निडर लेखका फहमीदा रियाज को उत्तरा परिवार की हार्दिक श्रद्धांजलि।
(Tribute to Fahmida Riaz)

पथरीले कोहसार के गाते चश्मों में
गूँज रही है एक औरत की नर्म हँसी
दौलत-ताकत और शोहरत सब कुछ भी नहीं
उसके बदन में छुपी है उसकी आजादी

दुनिया के मा’बद के नये बुत कुछ कर लें
सुन नहीं सकते उसकी लज्ज़ की सिसकी
इस बाजार में गो हर माल बिकाऊ है
कोई खरीद के लाये ज़रा तस्कीन उसकी

इक सरशारी जिससे वो ही वाकिफ है
चाहे भी तो उसको बेच नहीं सकती
वादी की आवारा हवाओं आ जाओ
आओ और उसके चेहरे पर बोसे दो

अपने लम्बे-लम्बे बाल उड़ाती जाए
हवा की बेटी साथ हवा के गाती जाए
-फ़हमीदा रियाज़
(Tribute to Fahmida Riaz)
उत्तरा के फेसबुक पेज को लाइक करें : Uttara Mahila Patrika