बुरांश, बर्फ और ब्रह्मताल-यात्रा

विनीता यशस्वी

बाहर अभी भी अंधेरा ही है और सर्दी भी बहुत ज्यादा। मैं अनमने भाव से उठकर भवाली जाने के लिये तैयार हुई जहाँ से मुझे लोहाजंग, चमोली के लिये टैक्सी पकड़नी है जो सुबह 7 बजे हल्द्वानी से भवाली पहुँचने वाली है। यदि वह टैक्सी छूटी तो फिर लोहाजंग पहुँचना मुश्किल हो जायेगा। लोहाजंग से मुझे ब्रह्मताल की यात्रा करनी है जो 3,840 मीटर की ऊँचाई पर स्थित एक बेहद खूबसूरत हिमालयी झील है…

स्टेशन जाते हुए घुप्प अंधेरी सड़क पर सन्नाटा पसरा रहा जिसे कुत्तों के भौंकने की आवाजें तोड़ती रहीं। बस कुछ नेपाली मजदूर दूध की पेटियाँ अपनी पीठ पर लादे उन्हें घरों में बाँटने के लिये जाते जरुर दिखे। स्टेशन पर भी सन्नाटा है और भवाली के लिये कोई साधन नहीं मिला। कुछ टैक्सी वाले चक्कर काटने लगे और मनमानी बुकिंग में भवाली जाने को तैयार हैं पर कुछ देर खड़े रहने के बाद पिथौरागढ़ जाने वाली गाड़ी मिल गयी जिसने 7 बजे भवाली पहुँचा दिया़….

जिस टैक्सी से मुझे जाना है उसका टायर पंक्चर हो गया इसलिये भवाली में कुछ देर इंतजार करना पड़ा जो बेहद उबाऊ और कठिन काम है तब तो और भी ज्यादा जब ठंड भी गजब की हो। खैर भवाली में बने पार्क में आधा घंटा बिताया तब तक टैक्सी आ गयी और मैं अल्मोड़ा को निकल गयी़….

रास्ते में कोसी नदी को देख कर दु:ख हुआ क्योंकि अच्छी बारिश न होने के कारण कोसी सूखी पड़ी है। कुछ देर में टैक्सी अल्मोड़ा होते हुए सोमेश्वर पहुँची। सोमेश्वर घाटी हमेशा की तरह ही खूबसूरत लगी जिसे फसलों से लहलहाते खेत और भी आकर्षक बना रहे हैं….

सोमेश्वर से कौसानी होते हुए टैक्सी आगे बढ़ी और छोटे-छोटे गांवों, खेतों और जंगलों को पार करते हुए ग्वालदम पहुँची जहाँ खाने की लिये कुछ देर रुकी। मौसम में अभी भी हल्की ठंड है और बादल भी छाये हैं। यहाँ कुछ सैलानी सेल्फी लेते जरूर नजर आये। यहाँ से आगे का रास्ता ज्यादा संकीर्ण और घुमावदार होने लगा। अभी काफी लम्बा रास्ता तय करना है इसलिये ड्राइवर ने गाड़ी बहुत कंजूसी से रोकी पर रास्ते में एक  शादी का नाच-गाना बेफिक्री से चल रहा है जिसने ट्रैफिक रोक दिया। गाँव की ये शादियाँ देखने में मजा आता है। इनमें एक ओर पारंपरिक रीति-रिवाज होते हैं तो वहीं ये नये जमाने की आबोहवा का मजा लेने से भी नहीं हिचकते फिर वह नाच-गाना हो या आधुनिक लिबास। यहाँ सब कुछ मिलता है। यहाँ तक की स्मार्ट फोन भी  इंटरनेट कनेक्शन के साथ। वट्सैप और फेसबुक से ये अंजान नहीं हैं। हाँ ये अलग बात है कि इंटरनेट सिग्नल या तो आते नहीं या स्पीड बहुत कम होती है। कुछ युवक-युवतियाँ शादी की सेल्फी इंटरनेट पर अपडेट करना चाहते हैं पर शायद कनेक्टीविटी न होने के कारण अपडेट नहीं कर पा रहे जिसकी खीझ उनके चेहरों में दिखायी देती है। शादी की खुशी से बड़ा गम है यह इनके लिये। काफी खुशामद करके जैसे-तैसे बारात ने थोड़ा रास्ता दिया तो सड़क खुली और टैक्सी आगे बढ़ी़….

आगे रास्ता कई जगहों पर टूटा है और लोग इन खस्ताहाल सड़कों पर जिन्दगी की बाजी लगाने को मजबूर हैं। पर नजारे बहुत खूबसूरत हैं। छोटे गाँवों के बीच से बहती हुई पिण्डर नदी बहुत अच्छी लग रही है। संकरी सड़कों से होते हुए कुछ देर में देवाल पहुँचे। यहाँ ड्राइवर ने चाय पीने के लिये टैक्सी रोकी तो मैं देवाल की छोटी सी बाजार देखने आ गयी। इस छोटे कस्बाई बाजार में स्थानीय लोगों की जरूरत का सारा सामान मिलता है। मैं एक फल की दुकान में गयी। दुकानदार ने संतरे मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा – यहाँ के संतरे एक बार खा लोगी तो हमेशा याद करोगी। उसकी बात पर मुझे कोई भरोसा नहीं है पर भूख लगने के कारण मैंने संतरे ले लिये और एक संतरा छीलकर खाया। वाकई में क्या स्वादिष्ट संतरा है। इतना मीठा, रसीला और मुलायम संतरा मैंने इससे पहले कभी नहीं खाया। एक टुकड़ा मुँह में रखते ही ऐसे पिघल गया जैसे केंडी फ्लॉस पिघलती है़….
(Travelogue by Vinita)

अब शाम होने लगी और आगे का रास्ता और भी खौफनाक हो गया। सड़कें कई जगहों में टूटी दिखीं। लगभग डेढ़ घंटे में टैक्सी लोहाजंग पहुँच गयी और मैं लोहाजंग के अपने गैस्ट हाउस चली गयी। कुछ देर आराम करने के बाद जब मैं बाहर निकली तो सामने नन्दाघुंटी की चोटी सूर्यास्त की रोशनी से नहायी हुई थी जिसे हल्के बादलों ने ढका था। मैं बाजार आ गयी। रास्ते में कुछ महिलाओं और पुरुषों को घास सुखा कर उसे बोरों में भरते देखा़….

मैं उनके पास चली गयी। तीनों महिलायें पारम्परिक गढ़वाली लिबास, काला घाघरा, स्वेटर और सर में फूलों के डिजाइन वाला स्कार्फ पहने थी। उनके घाघरे मोटे कपड़े के हैं जो ठंड से बचाने के लिये अच्छे होते होंगे परन्तु पुरुष तो आधुनिक लिबास पैंट-शर्ट, स्वेटर और जैकेट में थे। मेरे जाने से महिलायें शर्मा गयी और अपने मुँह नीचे कर लिये जिससे उनके लाल-लाल चेहरे और भी लाल हो गये़….

घास के बारे में पूछने पर पीछे खड़ा एक आदमी बोला – ये झूला घास है। इसे हमने बाजार में बेचने के लिये जंगलों से इकट्ठा किया है। इससे बहुत चीजें बनती हैं जैसे – धूप, पेंट और  तरह-तरह की इत्र। पूरी बातचीत के दौरान महिलायें लगातार सर झुकाये काम करती रहीं और पुरुष मुझसे बात करते रहे। हालाँकि बात हिन्दी भाषा में हुई पर गढ़वाली भाषा की झलक दिखती है़…..

उनसे बातें करने के बाद मैं बाजार आ गयी। लोहाजंग की छोटी बाजार में गाँव वालों और टै्रकिंग के लिये आये पर्यटकों की जरूरत का सामान मिल जाता है। एक दुकानदार ने बताया – सड़क बंद होने से परेशानी होती है क्योंकि जरूरत का सामान नहीं आ पाता। दुकानदारों से बात करते हुए महसूस हुआ कि ये लोग काफी बिजनस माइंडेड हैं। ट्रैकिंग के लिये आये पर्यटकों से पैसे कैसे वसूलने हैं ये अच्छे से जानते हैं….

बाजार का चक्कर थोड़ी देर में ही पूरा हो गया। रैस्ट हाउस लौटते हुए एक बुजुर्ग मिल गये। उनके झुर्रियों से भरे चेहरे में उनकी दो छोटी-छोटी आँखें सबसे ज्यादा चमक रही हैं। लोहाजंग के बारे में बताते हुए जब वे बोले तो उनके मुँह में दाँत भी अवशेष मात्र बचे दिखे। उन्होंने बताया- लोहाजंग में देवी पार्वती की राक्षस लोहासुर के साथ घमासान जंग हुई थी जिसमें देवी पार्वती ने राक्षस लोहासुर को मार डाला। इसीलिये इसे लोहाजंग कहते हैं। लोह मतलब राक्षस लोहासुर और जंग मतलब युद्घ़….

जल्दी ही घुप्प अंधेरा छा गया और पूरा गाँव सन्नाटे के साये में चला गया और ठंड भी बहुत ज्यादा बढ़ गयी। मैंने खाना खाया और सो गई़….

सुबह जब नींद खुली तो देखा नन्दाघुंटी से उगते सूरज की रोशनी में डूबी है पर हाँ बादलों से ढकी हुई। गुनगुनी धूप में खड़े होकर गाँव की खूबसूरती का मजा लिया और ब्रेकफास्ट निपटाया। कुछ देर में टै्रक गाइड महेश भी आ गया। लगभग 4 फीट 9 इंच के कद वाला महेश अभी 19 साल का है और पिछले कुछ सालों से यात्रियों को टे्रकिंग पर ले जा रहा है। यही उसकी आय का मुख्य स्रोत है। देवाल के नजदीक का रहने वाला महेश खेती-बाड़ी की स्थितियों से बहुत ज्यादा संतुष्ट नहीं दिखता इसलिये यह काम कर रहा है ताकि परिवार को आर्थिक मदद कर सके। महेश के साथ उसके चाचा भी आये हैं। 69 वर्षीय चाचाजी हैं तो दुबले-पतले पर काम में काफी फुर्तीले हैं और बोलते भी खूब हैं। महेश ने बताया कि आज हम बेकलताल तक जायेंगे़….
(Travelogue by Vinita)

कुछ देर में यात्रा शुरू हो गयी। बाजार के बीच से एक रास्ता ऊपर को निकल गया और फिर धीरे-धीरे बाजार नीचे छूट गया। मौसम अब गर्म होने लगा। कहीं-कहीं सरसों के खेतों से घिरे मकान दिखे जो सुन्दर लगे। आजकल यहाँ बुराँश ही बुराँश खिला है। पूरा रास्ता बुरांश के लाल रंग से रंगा है। लाल बुरांशों के बीच  कहीं गुलाबी तो कहीं सफेद बुरांश भी दिख जाता। सरसों के पीले फूलों में लिपटी जमीन और बुरांश की लाली मिल कर इस जगह को जन्नत बना रहे हैं जिसे त्रिशूल और नंदाघुटी की चोटियाँ और भी निखार रही हैं….

सीधे-सरल रास्ते को आसपास के नजारे और भी सुन्दर बना रहे हैं। आगे बढ़ते हुए रास्ते में घास का गठ्ठर पीठ में बाँध कर लाती दो महिलायें मिलीं। दोनों ने धोती को कमर में लपेटा है और पैरों में कुछ नहीं पहना है। दोनों के चेहरों में बिखरी हँसी इस बात की गवाही दे रही है कि उन्हें इस बात की कोई शिकायत नहीं हैं। उनमें से एक महिला ने हँसते हुए कहा – हमारे लिये तो यह रोज की बात है। हम तो रोज ही जंगल जाते हैं और घास लाते हैं। अगर यह काम नहीं करेंगे तो खायेंगे क्या ? दूसरी महिला ने कैमरा देख कर अपनी फोटो खिंचवानी चाही और शर्त रखते हुए बोली- तुम मुझे फोटो दिखाओगी और अगर अच्छी नहीं आयी तो दूसरी फोटो खींचोगी। उसकी शर्त सुन कर हँसी तो आयी पर मजा भी आया क्योंकि ऐसी शर्त अभी तक मेरे सामने पहली बार ही रखी गयी है। खैर मैंने उसकी चार फोटो खींच कर उसे दिखायी जिसमें से पहली दो उसने रिजेक्ट कर दी और मुझे फिर से फोटो खींचने के लिये बोला। मेरी खुशकिस्मती है कि इस बार वाली फोटो उसे पसंद आयी और उसने कहा- किसी किताब में फोटो छपने भेजोगे तो मेरी पसंद वाली फोटो ही भेजना। आधुनिक तकनीक से ये महिलायें भी अब अंजान नहीं हैं यह देख कर अच्छा लगा। उन दोनों से बातें तो और भी करनी थी पर उन्हें देर तक रोकना भी ठीक नहीं इसलिये जल्दी ही चलना शुरू कर दिया़….

रास्ता अब घने जंगलों के बीच से जाने लगा। जमीन में कई जगह सुअर के मिट्टी खोदने के निशान दिखे। कई जगह झोपड़ियाँ बनी हैं जिनमें गर्मियों में चरवाहे आते हैं और अपने पशुओं को रखते हैं। हिमालय की सफेद चोटियाँ हर जगह से दिखायी दे जातीं जो थकावट नहीं होने देती। जंगल में जैसे-जैसे आगे बढ़े वैसे ही ठंड भी बढ़ने लगी और रास्ते में बर्फ के ढेर भी दिखने लगे। आगे का काफी लम्बा रास्ता बर्फ के ऊपर चल कर ही तय किया़…..

मैंने चाचाजी से मौसम के बारे में पूछा तो अपने फुर्तीले अंदाज में कहा- अब मौसम की क्या कहें। वैसे भी नैनीताल का फैशन और हिमालय का मौसम तो हर पल बदलते हैं। इसके बाद उनसे पूछने के लिये दूसरा सवाल नहीं था। हम तीन बजे बेकलताल पहुँचे और टेंट लगा कर खाना खाया फिर पास के जंगल से सूखी लकड़ियाँ इकट्ठा की ताकि रात को जला सकें। अब शाम होने लगी और मैं बेकलताल देखने चली गयी़….

बेकलताल झील का नाम है और ऐसी मान्यता है कि इसमें नाग देवता का वास है जो इस झील को हमेशा पानी से भरा रखते हैं। हरे रंग की झील ने मुझे दूर से ही आकर्षित कर लिया। सूरज की ढलती हुई रोशनी इसके रंग को और निखार रही थी। शोरगुल से दूर यहाँ सिर्फ शांति थी। कुछ देर मैं झील के किनारे ही बैठी रही। कभी-कभी मछलियों के उछल-कूद करने से झील के शांत पानी में हलचल हो जाती जो फिर शांत भी हो जाती। कुछ देर इस पसरी हुई शांति में मछलियों की उछल-कूद का मजा लेने के बाद मैं झील के किनारे-किनारे पैदल चलने लगी़.़

यहाँ बेकल नाग देवता का एक छोटा मंदिर भी है। जिसके अंदर पत्थर की कुछ मूर्तियाँ रखी हैं। मंदिर की हालत देख कर लगा कि यहाँ कोई पुजारी नहीं आता होगा। झील के किनारों पर मछली पकड़ने के काटे डले हैं यानी गाँव वाले यहाँ आते रहते होंगे। झील का पूरा चक्कर लगा कर मैं दूसरे रास्ते से वापस लौट गयी। सूरज अस्त होने लगा और उसकी लाली में पूरी घाटी कुछ देर के लिये डूब गयी और फिर अचानक ही घुप्प अंधेरा छा गया और पूरी घाटी सन्नाटे की आगोश में चली गयी़….

अब बहुत तेज ठंड होने लगी और हवायें भी चलने लगीं इसलिये इकट्ठा की हुई लकड़ियाँ जला लीं और आग के पास खड़े होकर सूप पिया। तेज हवाओं से धुंआ इधर-उधर फैल रहा था इसलिये बार-बार जगह बदलना जरुरी हो गया। अभी आसमान में तारे चमक रहे हैं। अद्भुत होता है रात के सन्नाटे में तारों भरा आसमान देखना पर ठंड बहुत ज्यादा बढ़ गयी इसलिये खाना खा कर टैंट में आयी और स्लीपिंग बैग के हवाले हो गयी़…..
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सुबह हल्की रोशनी से आँख खुली पर ठंड अभी भी कम नहीं हुई। कुछ देर स्लीपिंग बैग में आलस करने के बाद मैं बाहर आयी और आग के पास खड़ी हो गयी। घाटी होने के कारण यहाँ धूप देर में आती है। आग के पास ही चाय-नाश्ता किया और आज की पदयात्रा की तैयारी की। आज हमें ब्रह्मताल जाना है़….

शुरू के दो-तीन घंटे कठिन चढ़ाई वाले रहे जिसे पार करने में 3 घंटे लग गये। रास्ता घने जंगलों  से होकर जा रहा है इसलिये हल्की सी ठंड बनी है। चढ़ाई पार करते ही विशाल बुग्याल (घास का मैदान) सामने नजर आया। यहाँ से त्रिशूल और नन्दाघुंटी की चोटियाँ इतनी नजदीक लग रही हैं जैसे कि थोड़ा और चल कर उन्हें छुआ जा सके। बुग्याल के एक ओर हिमालय अपनी सुन्दरता के साथ खड़ा है तो दूसरी ओर छोटे-छोटे गाँव नजर आये। नीले आसमान में छाये हल्के-हल्के बादल इस खूबसूरती को और बढ़ा रहे हैं। यह बेहद खूबसूरत नजारा है। मैं कुछ समय इस मैदान में बैठी रही और इन पलों को जितना हो सका जीने की कोशिश की और फिर चलना शुरू किया। अब तो बुग्याल का रास्ता शुरू हो गया। सर्दियाँं होने के कारण बुग्याल सूखे हैं पर बुग्याल सूखे हों या हरे-भरे हमेशा अच्छे ही लगते हैं। अब पैदल चलने में मजा आने लगा। बीच-बीच में खच्चर वाले अपने खच्चरों को ले जा रहे हैं जिनके गले में बजने वाली घंटियों से पूरा बुग्याल कुछ देर के लिये झनझना जाता और फिर खामोशी छा जाती। जंगल अब नीचे छूट गया। यहाँ तो दूर-दूर तक बुग्याल ही फैले हैं….

हिमालय अपनी भव्यता के साथ काफी देर तक साथ चलता रहा। बुग्याल में एक ही सीध में आगे बढ़ती रही कि महेश ने नीचे उतरने का इशारा कर दिया और जैसे ही नीचे उतरना शुरू किया वैसे ही रास्ता कठिन हो गया क्योंकि आगे का रास्ता पथरीला है और इस पथरीले रास्ते में ही नीचे उतरना है। बुग्याल की गुदगुदी नर्म जमीन में चलने के बाद इस पथरीले रास्ते में चलना वैसा ही था जैसे हाइवे की चकाचक सड़क से सीधे खड़ंजे वाली गड्ढेदार सड़क पर आ जाना़….

इस पथरीले रास्ते ने अच्छी खासी कसरत करा दी पर यात्रा का मजा भी तभी है जब हर पल कुछ नया होता रहे। इस पथरीले रास्ते को पार करके नीचे पहुँची और फिर सीधी जमीन में चलना शुरू कर दिया।  इसी रास्ते में माँ नन्दा का मंदिर दिखा जो यहाँ की कुलदेवी हैं। अब तक तो नजारा और मौसम दोनों ही बहुत अच्छे हैं पर कुछ ही देर में आसमान बादलों से घिरने लगा। मैंने चाचाजी से फिर मौसम के बारे में जानना चाहा तो वो हँसते हुए बोले- नैनीताल का फैशन और हिमालय का मौसम कभी भी बदल जाते है़….
(Travelogue by Vinita)

क्रमश:

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