और सूर्यास्त हो गया

Travelogue by Surbhi Pande
-सुरभि पाण्डे

बस वाले ने अचानक मड़ीवाला की तरफ बस मोड़ी। मैं सोचने लगी छुट्टी के दिन भी इतना ट्रैफिक है! क्या यह मुख्यमार्ग से नहीं जा रहा? खैर, एक घंटे ट्रैफिक में रुकते-रुकाते हम बैंगलोर के सबसे बड़े और सबसे ज्यादा व्यस्त बस स्टॉप यानी कि मैजेस्टिक पहुंच चुके थे। यहाँ से हमें जम्मलमदुगु जाना था। अब आप सोच रहे होंगे- ये कौन-सी जगह है, जहाँ हम अपनी अगली यात्रा पर जा रहे हैं। असल में, हम जाने तो वाले थे गंडिकोट्टा जिसे ग्रैंड कैनियन आफ इंडिया भी कहते हैं, पर बैंगलोर से कोई सीधी बस नहीं थी इसलिए जम्मलमदुगु जाना तय किया। जम्मलमदुगु बैंगलोर से लगभग 300 किलोमीटर दूर आंध्रप्रदेश में बसा हुआ एक छोटा-सा कस्बा है। सुबह-सुबह करीब 3.45 बजे के आसपास जब सुशांत ने मुझे उठाया और बताया कि हम पहुंच गए तो मैं थोड़ा अचकचाई कि हम 6 बजे पहुँचने वाले थे, इतनी जल्दी कैसे पहुंच गए! खैर, जम्मलमदुगु के बस स्टॉप में बैठने के अलावा और कोई चारा नहीं था। बड़ा ही शांत इलाका था, न कोई ऑटो, न कोई होटल। बस स्टॉप पर बैठे-बैठे नींद भी नहीं आ रही थी, मच्छर अलग काट रहे थे। मैंने सोचा, थोड़ा बाहर आकर टहला जाय। बाहर आकर चाय की टपरी के पास मुझे कुछ लोग दिखाई दिए।(Travelogue by Surbhi Pande)

हमारे यहां एक चीज बड़ी अच्छी है, आप किसी भी राज्य, जिले या गांव में पहुँच जाएँ, चाय की टपरी हर जगह मिल ही जाती है। चाय पॉइंट की टैग लाइन हम जैसों पर बिल्कुल सटीक बैठती है- ‘इंडिया वाकई रन्स ऑन चाय’। मैं हुई नॉर्थ इंडियन और उस पर भी पहाड़ी, तो चाय तो बनती थी। एक चाय की टपरी पर पहुंचकर मैंने कहा, ‘वंदु टी कोड़ी अन्ना’ उसने पूछा, बेल्लादु  बेका? सक्कारेदु बेका? मुझे थोड़ा समय लगा समझने में। दरअसल, वह पूछ रहा था, गुड़ की चाय चाहिए या चीनी की। थोड़ी बहुत बातचीत के बाद उसने बताया कि वहां की बेलम टी यानी कि गुड़ की चाय बहुत प्रसिद्ध है। घर पर मैं हमेशा गुड़ की ही चाय पीती हूँ और घर से बाहर कभी चाय पीने का बहुत मन भी होता तो मैं नहीं पीती क्योंकि लोग चाय को शर्बत बना देते हैं। कई तो होंठ चिपकने की हद तक चीनी डालते हैं। पर उसने जैसे ही बेलम टी बोला मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। गुड़ और इलाइची की बढ़िया चाय पीने के बाद हमने काउंटर पर पूछताछ करने की सोची। काउंटर पर बैठे एक बन्दे ने बताया, बेलम गुफाएं जो हमारी अगली मंजिल थी, उसके लिए कोई सीधी बस नहीं है पर एक बस ताड़ीपत्रि जा रही थी। हम उसी में बैठ गये। चूंकि यात्रा वैसे भी अनप्लान्ड थी तो हमने ज्यादा खोजबीन करना मुनासिब नहीं समझा। मुझे ताड़ीपत्रि ‘वैली आफ फ्लावर्स’ के भोजपत्र की याद दिलाता रहा, जहाँ पूरे रास्ते में भोजपत्र के बड़े-बड़े न जाने कितने पुराने पेड़ हैं, जिनकी छाल पुराने जमाने में लिखने के लिए कागज के रूप में इस्तेमाल होती थी।

ताड़ीपत्रि अनन्तपुरम् जिले में बसा हुआ एक छोटा-सा गाँव है और इस गाँव की खास बात यह है कि यहाँ भारत की सबसे अच्छी सीमेंट की कम्पनियाँ हैं। दरअसल, यहाँ की मिट्टी में डोलोमाइट, लाइमस्टोन और शेल भरपूर मात्रा में पाया जाता है। ताड़ीपत्रि से एक और बस लेकर करीब 9 बजे हम अपने पहले स्टॉप पर पहुँच चुके थे यानी बेलम गुफा। बेलम गुफाएं भारतीय उपमहाद्वीप की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी प्राकृतिक गुफाएं हैं, मेघालय की Krem Liat Prah Caves के बाद। बचपन से ही ऐतिहासिक स्थान मुझे काफी आकर्षित करते आये हैं। उन जगहों पर जाकर ऐसा महसूस होता है कि मानो उसी दौर में पहुँच गई हूँ।

बेलम गुफाओं में प्रवेश करते ही पत्थर को ऊपर से काटकर बनाया गया बड़ा-सा खाली स्थान है, जो ठंडी हवा के आने का रास्ता भी है और एक खूबसूरत नक्काशीदार काम भी। धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए मैंने ध्यान दिया कि इन गुफाओं में बाकी गुफाओं की तरह काफी ज्यादा मात्रा में स्टैलेक्टिट्स (Stalactites) और स्टैलेग्मिट्स (Stalagmites) नहीं थे, बल्कि लम्बे और पतले गलियारे थे, जिन्हें देखकर ऐसा लगता था मानो सालों पहले यहां पानी बहता रहा होगा और लगातार पानी बहने की वजह से किनारे की चट्टानें खुलने लगीं और रास्ता चौड़ा होता गया। गुफा की छत बिल्कुल समतल थी और कहीं-कहीं पर वैली जैसा आकार था। शायद कभी स्टैलेक्टिट्स बनना शुरू हुआ होगा, पर किन्ही कारणों से पहले ही टूट गया होगा।
(Travelogue by Surbhi Pande)

जानकारी के लिए बता दूं कि जब पानी के कण धीरे-धीरे ऊपर से लगातार गिरते हैं तो ऊपर स्टैलेक्टिट्स और स्टैलेग्मिट्स बनाते हैं और इस विधि में कई लाख वर्ष लगते हैं। ये ज्यादातर चूना-पत्थर की गुफाओं में देखने को मिलता है और मुझे इन गुफाओं को देखकर नहीं लगा कि चूना-पत्थर इतनी भारी मात्रा में रहा होगा। यहाँ के पत्थर, गुफाओं की छत और दीवार जैसे अपनी कहानी खुद ही सुना रहे हों। इन्हें देखकर ऐसा लग रहा था कि पानी के लगातार सालों तक बहने के कारण दीवारों पर पतली-पतली लकीरें उभर आई हों। कई जगह पर पत्थर की बनावट एकदम चिकनी और काले रंग की थी। लगता था जैसे काला चूना-पत्थर हो। मुझे यह जानकर काफी खुशी हुई कि आंध्र प्रदेश सरकार वाकई में इस गुफा को संग्रहीत करने के लिए प्रयासरत है। वरना 1988 में तो लोगों ने इसको डंपिंग जोन बना दिया था। अन्दर जाने पर गुफा के सारे हिस्सों के रास्तों को अच्छे से चिह्नित किया गया है। इसके अदंर आप पिल्लीद्वारम, सप्तवारला गुफा, माडप, ध्यान मंदिर वगैरह देख सकते हैं और ये वाकई अद्भुत हैं। गुफा के अन्दर काफी गर्मी थी।

बाहर आकर सुशांत और मैं एक बड़े पीपल के पेड़ के नीचे बैठ गए। ठडीं-ठंडी हवा में बैठना काफी अच्छा लग रहा था और वक्त की कोई कमी भी नहीं थी। वैसे भी बिना प्लान की यात्रा में ज्यादा परेशानी नहीं होती। फिर कुछ देर आराम करने के बाद निकल पड़े आगे के सफर के लिए, रास्ते का लुत्फ उठाते हुए। चलती बस में खिड़की से बाहर कडप्पा स्टोन्स की खदानें नजर आ रहीं थी। करीब दो बजे के आसपास हम वापस जम्मलमदुगु आ गए। इस जगह की हलचल और भीड़-भड़क्के को देखकर बिल्कुल भी नहीं लग रहा था कि यह सुबह वाला जम्मलमदुगु है। पेट में भूख से चूहों ने उछल-कूद मचाना शुरू कर दिया था इसलिए बढ़िया खाने के लिए अच्छे रेस्तरां की खोजबीन करने लगे। घूमते-घूमते हम एक छोटी-सी खोमचेनुमा दुकान में आ पहुंचे, जो यहाँ का काफी पुराना रेस्तरां लग रहा था। दीवार और छत कई जगह से जीर्ण-शीर्ण हालत में थी और यहां मिलने वाले कडप्पा पत्थर से बनी हुई मालूम होती थी। मेज और कुर्सी भी पुराने से थे।

असल में, हम बैंगलौर के रेस्तरों के आदी हो चुके थे। जहाँ रेस्तरां की पहचान उसके इंटीरियर, माहौल और सजावट से बनती थी, हाँ खाने का स्वाद एक मानक जरूर होता था पर बदलते वक्त के साथ दूसरी चीजों को ज्यादा तरजीह देना शुरू कर दिया। लेकिन गाँव-कस्बों में अभी यह लहर आना बाकी है, इसीलिए इस छोटे से रेस्तरां का सौंदर्यीकरण अभी तक नहीं हुआ था। मुझे तो जोरों की भूख लगी थी इसलिए चुपचाप अन्दर जाकर बैठ गई। कुछ ही देर में केले के 2 पत्ते हमारे सामने रख दिए गए। जिनमें सबसे पहले दो तरह की सब्जी, फिर अचार और सलाद परोसा गया। बाद में चावल, रसम, सांबर इत्यादि। ये था आज का साउथ इंडियन बफे और अन्त में पायसम यानी खीर परोसी गयी। भरपेट स्वादिष्ट खाना खाने के बाद जम्मलमदुगु से बस में हम चल पड़े आज के अन्तिम पड़ाव यानी कि गंडिकोट्टा की ओर। गंडिकोट्टा पहुँचते-पहुँचते 4.30 बज गया था। हमारा विचार टेन्ट में रुकने का था। जैसे-तैसे सामान टेंट में फेंका और गंडिकोट्टा किले की ओर चल दिए। खूबसूरत सूर्यास्त देखने के लिए।
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गंडिकोट्टा किला बाहर से देखने में किसी आम भारतीय किले जैसा ही था। ऐतिहासिक अवशेष, बड़े-बड़े स्थानीय पत्थरों से बनी 20-25 फीट ऊँची दीवार। इस किले के अंदर आज भी एक पूरा का पूरा गांव बसता है, जिसमें सेंट्रल जेल, मस्जिद, सैट्रल ग्रेनेरी वगैरह हैं, जो हम जैसे लोगों के लिए एक पर्यटन स्थल है। पर आज का मुख्य आकर्षण तो सूर्यास्त ही था जो गंडिकोट्टा कैनियन और पेन्ना नदी के ठीक बीच में होता था। धीरे-धीरे अस्त होता सूरज जैसे हमें स्लो डाउन होने को कहता, जीवन में गहराई से जीने को कहता, जाते-जाते भी अपनी खूबसूरती को पूरी प्रकृति में बिखेर देता। हर दिन अपने उगने और अस्त होने की एक नई कहानी कहता। देखते-देखते सूरज न जाने कब अस्त हो गया, कल फिर आने का वादा करके और हम भी अपने अगले एडवेंचर यानी टेंट स्टे की तरफ चल पड़े। थकावट बहुत ज्यादा थी। हल्का-सा खाना खाकर फटाफट सो गए। कल सूर्योदय से पहले उठना जो था, सूरज से किये वादे को पूरा करने के लिए।
(Travelogue by Surbhi Pande)

क्रमश: …

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