नदी को बनकर बहते देखने के लिए – यात्रा 3

चेतना जोशी

सुबह से आसमान पर तेज दौड़ते बादल अब धीमी चाल से रेंगते से नजर आने लगे थे। शायद ये पानी से भरे हुए हों, इसलिए धीमे चल पा रहे हों। वजह जो भी हो, इन्होंने धूप को निगल कर ठण्ड को पसार दिया है। फिर हम भी स्थिर हो गए थे तो हमने भी उसे महसूस करना शुरू कर दिया था। साढ़े तीन बजे तक तो पारा काफी नीचे आ गया। बाबाजी के आश्रम में बच्चे की बनायी खिचड़ी खाकर हम नदी के किनारे निकल आये। कड़कड़ाती ठंड में नदी किनारे चहल कदमी कर हम बायीं ओर मुड़ लिए जहाँ नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी, रुड़की का बोर्ड लगा था। बगल में लगे वेदर स्टेशन से मालूम होता था कि वैज्ञानिक लोग यहाँ पर निरीक्षण-परीक्षण करते होंगे। इंस्टिट्यूट के छोटे से सेटअप में अजय शर्मा जी से मुलाकात हुई। उन्होंने हमें अपने कमरे में बिठाया जिससे वे लैब, घर और दफ्तर का काम ले रहे हैं। वह यहाँ 40 दिनों के लिए आये हैं। वह परीक्षणों से भागीरथी नदी में सालाना बहे हुए पानी की मात्रा का अनुमान और गुणवत्ता की जाँच करते हैं। चालीस दिन इस बेहद ठंडी जगह में काटते हैं। उनके इस छोटे से कमरे के अन्दर ठंड इतनी बढ़ चुकी थी कि हम काँपने लगे थे। ऐसे में शर्मा जी की पिलाई कॉफी अमृत जैसी महसूस हुई।

घूम फिर कर हम वापस टेंट की ओर लौटे। इस टेंट में अब तक दो बंगाली, दो जर्मन, एक बुजुर्ग और हम सब के गाइड लोग थे। देर शाम तक बातचीत का सिलसिला चला।  इस बीच आश्रम चालक का फरमान आया कि रात का खाना तैयार है और हमें पास की झोपड़ी पर खाने के लिए पहुँचना होगा। अभी तो 5 ही बजे हैं। रात के खाने के हिसाब से ये काफी जल्दी है। टालने की काफी कोशिशों के बाद हमने 6 बजे तक दाल-चावल खा ही लिया। रोशनी न होने की वजह से अब हमारे पास सोने के अलावा कोई और काम नहीं था।

एक टेंट में 10-12 बिस्तर तो रहे ही होंगे। हमने ऊनी गरम कपड़ों की कई परतें पहनी हुई थीं। अपने ऊपर रजाई कंबलों की भी कई परतें डाल लीं। पर ठण्ड जाने का नाम ही नहीं ले रही थी। मोजों की कई परतों के अन्दर मौजूद पैरों की उंगलियाँ बरफ की सिल्लियों-सी ठंडी थीं। दस्तानों में छुपी हाथ की उंगुलियों का हाल भी कुछ अलग नहीं था। पर थकान ठण्ड पर भारी पड़ी और नींद आ ही गयी।

जितनी जल्दी नींद आयी, उतनी ही जल्दी टूट भी गयी। करीब 11 बजे थे और टेंट में अजीब सी दुर्गन्ध फैली थी। दम घुट-सा रहा था। एक तो 3792 फीट की ऊँचाई वाले भोजवासा में ऑक्सीजन कम, तिस पर एक टेंट के अन्दर इतने सारे लोग। टेंट का त्रिपाल का बना दरवाजा भी बंद था। मेरे लिए मामला कुछ ज्यादा गंभीर हो गया था। ठण्ड इतनी कि बाहर जाने का बिल्कुल भी मन नहीं। इतने लोगों को नींद आई है तो शायद मुझे भी आ ही जाये। नींद लाने की सभी कोशिशें की पर सफलता हाथ नहीं आयी। अब तो कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। मैं दबे पाँव बाहर निकली और टेंट के पर्दों को थोड़ा सरकाकर उसके निचले हिस्से को खींचकर पत्थर से दबा दिया। हवा की आवाजाही हुई तो थोड़ा बेहतर महसूस हुआ। क्यों न इन किवाड़ों को थोड़ा और चौड़ा किया जाय। एक बार फिर बाहर निकलकर पर्दों को खींचा। अब तक वेद की नींद भी खुल चुकी थी। वजह सिर दर्द और घु़टन। हम दोनों ने इस टेंट से बाहर निकलने का निश्चय किया।

बाहर का नजारा तो कुछ और ही था। ऊपर बेहद ही नीले आसमान में अनगिनत तारे तेज चमक रहे थे तो सामने भागीरथी की सफेद चोटियाँ चाँदी सी नजर आ रही थीं। नदी की छलबलाहट सुनकर तो रात बाहर ही गुजारी जा सकती थी। अजूबा कि खुले आसमां तले ठण्ड भी गायब थी। ऐसे में सिर की चंपी से बेहतर काम क्या हो सकता है। घंटाभर वहाँ गुजारने के बाद टेंट में गए। नींद ने कब निगल लिया पता ही नहीं लगा।
(travelogue by chetna joshi)

अगली सुबह पता लगा कि दूसरे लोगों को भी रात में सांस लेने में परेशानी हुई। जर्मन लड़की ने सिर में दर्द की शिकायत की। वह आगे गोमुख तक भी नहीं जाएगी। सात बजे तक एक पत्तल पतला दलिया खाकर हम वहाँ से रुखसत हुए। भोजवासा से गोमुख 4 किमी. दूर है। पहाड़ के मापदण्डों के हिसाब से पगडण्डी आमतौर पर सीधी जाती है। पर ग्लेशियर तक पहुँचने से ठीक पहले रास्ता गायब-सा हो जाता है और मिट्टी-बालू के ऊँचे ढेरों में टिके बड़े ऊँचे पत्थरों में तब्दील हो जाता है। इस हिस्से को सावधानी से लांघना-फाँदना जरूरी है। भोजवासा से निकलने के करीब दो घंटे बाद हम गोमुख पर थे।

गोमुख गंगोत्री ग्लेशियर का मुख है जहाँ बरफ के नीचे से पानी की धारा निकलती है। गाय के मुख के आकार वाले गोमुख को उसके ठीक सामने वाले मिट्टी पत्थरों के ऊँचे टीले पर चढ़कर ऊपर से देखा जा सकता है। उत्तर भारत को हजारों हजार सालों से जिन्दा रखने वाली इस नदी जितना ही महान इस नदी का इंसानों से रिश्ता है। इतनी बीहड़ जगह में लोगों की आवाजाही कितनी पुरानी है इसका किसी को अंदाजा भी नहीं है। वह कौन लोग होंगे जिनको ये नदी पहले पहल यहाँ तक खींच के ले आयी होगी। उनमें कितना कौतूहल रहा होगा और वे क्या गजब के साहसी शूरमा  रहे होंगे। इसके बारे में सोचने से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इस जगह पर इस समय हमारा मौजूद होना भाग्य और संयोग है।

ग्लेशियर टूटकर बरफ के बड़े सिल्ले, टुकड़े नीचे गिरे दिखते हैं। ग्लेशियर के बरफ की बाहर की परतें जब झड़ती हैं तो अन्दर की परतें बाहर उजागर होती हैं। ये साफ सफेद सुधरी परतें धूप में चमकती सी दिखती हैं। तापमान कम होने की वजह से नीचे पानी में गिरी पुरानी परतें भी गलने में समय लेती हैं। इन सबके बीच ग्लेशियरों से निकलती धारायें तेज नहीं हैं। ग्लेशियर से नदी किसी एक जगह से नहीं निकलती है। बल्कि ये अनेक धाराओं के मिलने से बनती दिख रही हैं। रास्ते में मिली तमाम दूसरी धाराएँ और छोटी बड़ी गाड़ें  इसे अपना पानी भी देती जायेंगी।

यह भागीरथी का उद्गम है। देवप्रयाग में यह अलकनंदा से मिलेगी और गंगा कहलाएगी। भागीरथी को गंगासागर बनकर बंगाल की खाड़ी में मिलने से पहले 2525 किमी. लंबा सफर तय करना है। इस सफर में छोटी बड़ी गाड़ों के अलावा बड़ी नदियाँ जैसे यमुना, रामगंगा, गोमती, घागरा, सोन, गंडक, बूढ़ी गंडक, कोशी, महानंदा भी भागीदारी करेंगी।

जिस मिट्टी, बालू, पत्थर के ऊँचे टीले से हम गोमुख को देख रहे थे वह बेहद कमजोर था। उस पर चलने में छोटे पत्थर नीचे खिसकते जा रहे थे। यहाँ पर ज्यादा  देर तक रुकना सुरक्षित नहीं है। पर बचे हुए पराठे खाने के लिए ये अच्छी जगह है। यहाँ पीली चोंच वाले बेहद काले रंग के कौवे हैं। ये पराठे का टुकड़ा उछालकर फेंकने पर उसे झटपट चोंच से पकड़ लेने में उस्ताद मालूम पड़ते हैं।

अगला पड़ाव तपोवन था जिस तक पहुँचने के लिए हमें गंगोत्री ग्लेशियर पर बायीं तरफ से जाना होगा। गौमुख से आगे पगडंडियां भी नहीं हैं। गाइड के बिना आगे जाना मुमकिन भी नहीं है। अब हम पूरी तरह 19 साल के विकास राणा के भरोसे हैं।
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इधर सलेटी रंग की ग्रेनाइट की चट्टानें पहाड़ों से टूटकर गिरी हुई हैं। दोनों तरफ बस ग्रेनाइट ही ग्रेनाइट दिखाई दे रहा है। ग्लेशियर तक पहुँचने के लिए ग्रेनाइट की परतों के ऊपर से होकर जाना होगा। रास्ता डग-मग और गड्ड-मड्ड है। क्या पता आगे जाना ठीक भी है या नहीं? हमारा ऐसे इलाकों में जाने का कोई इतिहास भी नहीं है। तभी  हमें कमण्डलधारी बाबा लोग तपोवन की तरफ से वापस आते दिखे। बाबाजी क्या तपोवन का रास्ता ठीक है? गंगा मैया का नाम लेते हुए जाना। हर-हर महादेव। पर अगर कहीं पर हिम्मत हार जाओ तो आगे मत जाना, वापस चले आना। अचरज कि बाबा लोग नंगे पैर थे और कपड़ों के नाम पर भगवा लंगोटी लपेटे थे। बर्फीली वादी की कंपकंपाती ठण्ड तो जैसे किसी दूसरी दुनियाँ की बात हो।

थोड़ी ही देर में हम गंगोत्री ग्लेशियर के ऊपर थे। मेरी कल्पना का ग्लेशियर गंगोत्री ग्लेशियर से बिलकुल अलग था। यों तो शायद ग्लेशियरों के बारे में सोचने में ज्यादा वक्त कभी गुजारा भी नहीं था पर एक धुंधला सा खाका दिमाग में जरूर था जो कि साफ सफेद बर्फ के ऊँचे पहाड़ का सा था। पर गंगोत्री ग्लेशियर ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। बल्कि ये दोनों तरफ के ऊँचे पहाड़ों के बीच में धंसा हुआ है। ऊपर से देखने में ये ऊबड़-खाबड़ बालू, मिट्टी और छोटे-बड़े पत्थरों से ढका लम्बाई में फैलता हुआ है। पत्थर बर्फ के ऊपर टिके हैं। चलते समय पहले डंडे को पत्थरों पर टेककर ये इत्मीनान करना पड़ता है कि ये वजन सह लेगा और धँसे या लुड़केगा नहीं। कहीं-कहीं पर पत्थरों के नीचे की बर्फ पिघल गयी है और छोटे बड़े पत्थरों के बीच से नीचे का हरा नीला पानी झाँकता है। यह जानकर धक्का भी लगता है कि हम जिन पत्थरों  के ऊपर चल रहे हैं वे सब जून के महीने की गलती बर्फ की परतों के ऊपर टिके हैं। कहीं-कहीं पर तो बर्फ ने पिघलकर छोटे-छोटे तालाब ही बना दिए हैं। गोमुख से पीछे की ओर फैले गंगोत्री ग्लेशियर में गहरी खोहें और खाइयाँ भी साफ दिखती हैं। इसके अलावा आने वाले समय में गहराने वाली नई खाइयों ने भी अपनी जगह चुन ली है। ग्लेशियर की लम्बाई जहाँ तक भी नजर आती है इनमें भविष्य की खाइयों के निशान दिखते हैं। ये निशान बरफ के अभी थोड़ा सा धँसने से उभरे हैं। समय के साथ इन जगहों पर बरफ और भी धंसेगी और ये निशान नई गहरी खाइयों में तब्दील हो जायेंगे।

दाहिनी ओर देखने पर अब शिर्वंलग पर्वत सामने दिखता है। हम उसके बेहद करीब हैं और उसी की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। पर उस तक पहुँचना आसान नहीं है। क्योंकि हमारे और उसके बीच एक खड़ी पहाड़ी है जिसको हमें नापना होगा। इस पहाड़ी को दूर से ही पहचाना जा सकता है। इस पर एक झरना जो तेजी से बह रहा है। ये अमरगंगा है। तपोवन के आसपास की पिघलती बरफ का बहता पानी। हम नीचे हैं और पहाड़ी के ऊपरी छोर जहाँ पर से अमरगंगा झरना शुरू करती दिख रही है उसके उस पार तपोवन है। झरना इतना खड़ा दिखता है कि यकीन ही नहीं होता कि इस पखाण को चढ़ा भी जा सकता है। तिस पर सूखी बालू और छोटे पत्थरों से लदा रास्ता, ऐसा कि आगे चलने पर पत्थर पीछे की तरफ झड़ने लगते हैं। ठंडी हवा में ऑक्सीजन भी बहुत कम है और हम थक भी चुके हैं।

हमारा गाइड रास्ते को खोजने की कवायद में हमसे काफी आगे निकल जाता था। ऐसी दुर्गम जगह पर इर्द-गिर्द नजर डालो तो कहीं न कहीं ऐसा पत्थर दिखेगा जिसके ऊपर एक छोटा पत्थर रखा होगा फिर उस पत्थर के ऊपर उससे भी छोटा पत्थर। ऐसे 9-10 पत्थर एक-दूसरे के ऊपर दिखे तो मानो कि उस तरफ से ही आगे बढ़ना है। पीछे आते लोगों की जानकारी के लिए इलाके के जानकार लोग पत्थरों को ऐसे रखते जाते हैं। कठिन रास्तों में एक-दूसरे को मदद करने की इन्सानों कि ये मिसालें हैं।
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तपोवन पहुँचने के लिए हमें कहीं पर झरने को पार करना होगा। हम वो सही जगह ढूँढते हैं जहाँ पानी का बहाव कम हो। जून की दोपहर में जमी हुई बर्फ ने तेजी से गलना शुरू कर दिया था। नतीजा कि अमरगंगा में पानी का बहाव तेज हो गया था। विकास ने ऊपर तक मुआयना करने के बाद हमें वापस नीचे जाने को कहा। हम पखाण में दो हाथों और दो पैरों के सहारे मुश्किल से चढ़े थे। सूखी पथरीली रेत पर चढ़ना तो फिर भी आसान है पर थकान की वजह से उतरना नामुमकिन सा लग रहा था। मुमकिन है कि हम भटक गए हैं। विकास पर बढ़ते अविश्वास ने हमारी मुश्किलों को बढ़ाया ही था।

‘कहीं पर अगर हिम्मत हार जाओ तो आगे मत जाना, वापस चले आना’ बाबाजी के शब्द याद आये। क्या करें क्या न करें सोच ही रहे थे कि पखाण के ऊपर से नीचे को आती हुई तीन चीटियों जैसी तस्वीरें उभरीं। चंद मिनटों में वे तस्वीरें आदमियों में तब्दील हो गईं। बीहड़ में इंसानों को देखकर खुशी होती है। ये झरने के उस पार हैं और कहीं न कहीं इसे पार करेंगे। उन्हें देखकर हम भी चौपायों की तरफ उतरे और एक बड़े पत्थर पर जाकर बैठ गये।

ऊपर से आते लोगों ने दोनों जूतों को लेस से बाँधकर, कंधे में टांगकर एक-एक करके झरना पार किया। झरने के बेहद बर्फीले पानी में उनके पैर सुन्न हो गए। उन्होंने पैरों में जान वापस आने तक पत्थरों में बैठकर इंतजार किया। झरना पार करने की अब हमारी बारी थी। हमारे पार होने तक वे रुके रहे। फिर हम ऊपर और वो नीचे की ओर रुखसत हुए।

हमें बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि अब हमारे सामने क्या आने वाला है और हम जिस लोक के बेहद करीब हैं, वह कैसा है। बची हुई चढ़ाई को पार करते ही हम कुछ पलों के लिए सन्न रह गए। ये एलिस इन वंडरलैण्ड जैसा ही अजूबा था। अमरगंगा अब एक सरल गाड़ सी है। उसमें पानी की रफ्तार तेज है। उसकी छलबलाहट कानों को सुकून देने वाली है। जैसे नाक के दोनों ओर आँखें हैं वैसे ही इस गाड़ के एक तरफ शिर्वंलग दूसरी तरफ भागीरथी की चोटियाँ हैं। सफेद और बर्फीली। शिर्वंलग के दूसरी ओर से मेरु पर्वत झांकता सा है। अगर एक जगह होकर 360 डिग्री घूम जाएँ तो हर तरफ ऊँची चोटियाँ ही चोटियाँ हैं। ऐसा चकराने वाला यह मैदान 4400 मीटर की ऊँचाई पर है। यहाँ अपनी साँसों की आवाज भी साफ सुनाई देती है।  यकीं करना मुश्किल कि यह स्वप्न सरीखी जगह इसी दुनियाँ में है। यहाँ सब कुछ अनूठा है, बेजोड़ है।

करीब 300 मी. ऐसे ही बहते पानी के किनारे चलते जाना है। आगे अमरगंगा को पार करने के लिए उस पर टिन की तीन-चार परतों को बाँधकर पत्थरों के ऊपर अटकाकर पुल बनाया गया है। टिन हवा में उड़ ना पाये इसलिए उसके दोनों किनारों और बीच में भी पत्थर रखे हुए हैं।

तपोवन में हमारा ठौर मौनी बाबा जी का आश्रम है। आश्रम ना कहकर इसे अगर उनका घर कहें तो बेहतर है। मोटी पीले रंग की जैकेट पहने और धूप से बचाने वाला काला चश्मा लगाये बाबा जी अहाते में कुर्सी डालकर बैठे हैं। उम्र 35 के आसपास होगी। उनकी लम्बी जटाएँ एकदम काली हैं। ऐसा लगता है कि उनको लोगों की आवाजाही पसंद है। वह भोजवासा कैंप के हमारे बंगाली साथियों के नेपाली गाइड से बातें कर रहे हैं। इशारों से अपनी बात समझाना उनकी खूबी है। दिन के 2 बज चुके हैं।

बाबाजी ने हमारा तहेदिल से स्वागत किया। हमें बेहतरीन चाय पिलाई तो लाजवाब खिचड़ी भी खिलाई। खिचड़ी के साथ अचार भी। वह तेज दिमाग के इंसान मालूम पड़ते हैं।

बाबाजी ने अपनी कुटिया के ठीक बगल वाली कुटिया हमें रात गुजारने के लिए दे दी है। छोटा-सा कमरा अंदर से नारंगी रंग की बरसाती से ढका है। छत बेहद नीची है और हम झुककर ही खड़े हो सकते हैं। पर इसकी नीची छत से सूरज की रोशनी पार हो सके, इस बात का खयाल रखा गया है। अंदर रजाई और गद्दे और स्लीपिंग बैग के ढेर रखे हैं।
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शाम होते ही बादल और हवा के बीच का खेल फिर शुरू हो गया। गालों पर बरसने वाली ठंड पसर गयी। ठंडे में घुमक्कड़ी का नतीजा ये कि हमारी नाकें फूल के पकौड़े जैसी मोटी और लाल हो चुकी हैं। पर आसपास तो घूमा ही जा सकता है।

एक बार फिर से हमने टिन के पुल को पार किया। अमरगंगा के बहने की उल्टी दिशा में हम शिर्वंलग की ओर चले। तपोवन में जमी बर्फ तेजी से गल रही है। बर्फ की मोटी तहों में आई लम्बी दरारें ऊपर से साफ दिख रही हैं। पानी के कई छोटे धारे पिघलती बर्फ से निकलते अमरगंगा बनाते भी दिख रहे हैं। थोड़ा पानी शिर्वंलग के ठीक नीचे भी इकट्ठा हो गया है। यह भागीरथी और शिर्वंलग चोटियों के लिए आइने का काम कर रहा है। कुछ ही दिनों में ये सारी बर्फ पिघल जाएगी और बरसात आते-आते एक बार फिर से बंजर सी दिखने वाली यह धरती अपने विशिष्ट फूलों से खिल जाएगी।

शाम होते ही ऊँची चोटियों की सफेद बर्फ को शाम की लाल चादर ने घेर लिया। इधर भरलों के कई जत्थे धमाचौकड़ी मचाते बेखौफ घूम रहे हैं। हमारी उनके पास जाने की कोशिश उनको हमसे दूर ले जाती। ठंडे क्षेत्र के इन सींग वाले साथियों को दूर से ही देखना ठीक है। ठण्ड में अब और घूमना हमारे लिए मुमकिन भी नहीं है। अमरगंगा में भी पानी बढ़ चुका है। अब पानी टीन के पुल के नीचे और ऊपर दोनों तरफ से गुजर रहा है। थोड़ी देर में यह शायद टिन को ढक ही दे और यह पता लगाना भी मुमकिन ना रहे कि टिन कहाँ पर रखा था। हमें अब वापस आश्रम में चलना चाहिए। दूर से दिखते बाबाजी भी वापस आने के लिए इशारा कर रहे हैं।

आज के पास हमको देने के लिए इतना ही था। पर यह ‘इतना’ इतना था कि आज ठीक आठ महीने बाद यह लिखते हुए एक-एक दृश्य आँखों के सामने वैसे ही दिखता है जैसे कि उस दिन तपोवन में दिखा था। एक नोट बाबाजी के नाम जो एक बेहतरीन मेजबान हैं। वे सात साल पहले तपोवन आये थे। तपोवन की खूबसूरती ने उन्हें ऐसा जकड़ा कि वापस जाना ही भूल गये। उस रात हमारे अलावा वहाँ चार लोग बंगाल से थे और तीन गाइड थे। एक छोटी-सी रसोई भी बाबाजी की कुटिया का हिस्सा है। जिसमें वह लाजवाब खाना बनाते हैं। मेहमानों को पहले खिलाकर बाद में खुद खाते हैं। खुद मौन हैं पर आने वालों को वहाँ भजन, श्लोक या ऐसा ही कुछ सुनाने को कहते हैं। हँसी-मेलजोल का ऐसा माहौल बनाते हैं कि सब एक-दूसरे के करीब आ जाएँ। बाबाजी का इंतजाम इतना पुख्ता है कि सूरज की रोशनी से चलने वाले टार्च  से लेकर, ऊँचाई की वजह से होने वाले सिर दर्द से निपटने की गोली तक सब कुछ मुहैया है। सब से बड़ी बात कि उस जगह की इन बेशकीमती सेवाओं की वे कोई कीमत नहीं लेते।

तपोवन की सुबह भी शाम जितनी ही निराली है। नीला आसमान और सफेद चोटियाँ। आज का इरादा सीधे गंगोत्री पहुँचने का है। चाय पीकर हम तपोवन और बाबाजी से रुखसत लेते हैं।
(travelogue by chetna joshi)

समाप्त

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