नदी को बनकर बहते हुए देखने के लिए-यात्रा

चेतना जोशी

आराम कुछ लम्बा ही हो गया और आँख सीधे अगली सुबह चार बजे के आस-पास ही खुली। हमने बस्ते बाँधे और पैलेस वालों को अपना कर्ज अदा किया। 6 बजे तक हम बस स्टॉप पर थे। मकसद सात बजे उत्तरकाशी से गंगोत्री के लिए निकलने वाली बस को पकड़ने का था। अगली बस दोपहर बाद ही मिलेगी इसलिए सुबह की पहली बस पकड़ना जरूरी है।

वाह, बस तो सामने खड़ी है। हम लंबे डग भरते उस तक पहुँचे। अरे ये क्या बात हुई? ये तो पहले से ही भरी हुई है। बस की सबसे पिछली कतार में 3-4 सीटें ही बची हैं। पता लगा कि ये एडवांस का मामला है। इस बस की सीटें एक दिन पहले ही सुरक्षित की जा सकती हैं। अब तो जो मिल रहा है उसी में संतोष कर लेना अच्छा है।

बस ठीक समय पर चल दी। उत्तरकाशी से गंगोत्री बस यात्रा कई मामलों में यादगार रही। इसको यादगार बनाने का श्रेय खचाखच भरी बस में हम से आगे की सीट में विराजे दो हरियाणा से आए लोगों को था। सुर-ताल के साथ वे प्रकृति पर आधारित फिल्मी गीत गाते हुए चले। उनका जोश पाँच घंटे में रत्तीभर भी कम नहीं हुआ। अगर कोई कमी रह भी गई हो तो वह कंडक्टर के बगल वाली सीट में डमरू लेकर बैठे एक 70-75 साल के बुजुर्ग ने पूरी की। बुजुर्ग गढ़वाली लोकगीत और देवी गीत गाते हुए भाग लगाते हुए चले। हमारे बगल में बैठे बाबाजी पर ऐवोमीन का कोई असर नहीं दिख रहा था और वे पूरे सफर में उलटते हुए चले। उत्तरकाशी से गंगोत्री तक एक न एक तरफ भागीरथी रहती है। हरा-भरा इलाका मनमोहक है। मनेरी, भटवाड़ी, गंगनानी, हरसिल, धराली, लंका, भैरोघाटी आते-आते तो क्या देखो और क्या छोड़ो वाला हाल हो गया। हरसिल के सुन्दर हरे-भरे इलाके में ऊँचे झरने हैं। पानी की इतनी इफरात बारिश के मौसम के आने से पहले, बाद में न जाने क्या होगा। पर रास्ता कच्चा-पक्का है। इस तरफ के पहाड़ कच्चे हैं और दिल थाम के बैठना जरूरी है। भैरोघाटी में जाड़गंगा पर बने ऊँचे पुल पर यकीं ही नहीं हुआ कि हम असल जिन्दगी में ये देख पा रहे हैं। जाड़गंगा का वजूद भैरोघाटी तक ही है। आसपास ही कहीं ये भागीरथी में मिल जाएगी। दो संकरी ऊँची नंगी सफेद-भूरी चट्टानों के बीच में बहती जाड़ गंगा। इस जिन्दगी में इस दृश्य को हम शायद ही भूल पाएँ।

करीब एक बजे हम गंगोत्री पहुँचे। महसूस नहीं हुआ पर अनुभवी बस ड्राइवर ने एक सौ दस किलोमीटर का सफ़र करीब बीस किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से पूरा किया था। गंगोत्री में हमारा ठिकाना कीर्तिलोक होटल था जिसको चलाने वाले राणा जी से पहले ही बात हो चुकी थी। पता लगा कि कीर्तिलोक बिल्कुल पास में ही है। बस स्टॉप से गंगोत्री मंदिर की ओर जाने वाली सड़क पर कई सारे होटल, सराय आदि बने हुए हैं। सब कुछ साफ-सुथरा, रंग बिरंगा और खूबसूरत लग रहा है। दिनभर में कुछेक बसें ही गंगोत्री आती हैं। ऐसा लग रहा है कि सब को इस बस के गंगोत्री आने की खबर हो गयी है। होटलों के मालिक निकलकर सड़क पर आ गए हैं और बस से उतरी सवारियों को अपने होटल में खींच ले जाने की फ़िराक में हैं।

थोड़ी ही देर में हम कीर्तिलोक के कमरे में हैं। लकड़ी का बना यह कमरा छोटा पर खूबसूरत है। इस छोटे से कमरे में पीछे बाहर की तरफ खुलने वाला दूसरा दरवाजा भी है। कौतूहल हुआ कि दरवाजे के पार क्या होगा? अरे, ये तो पीछे नदी की ओर खुलता है। दरवाजा खोलते ही पानी की छलबलाहट और शोर ने कमरे को भर दिया। यह भागीरथी के बड़े पत्थरों से टकराने, रास्ता बनाने और ऊँचे दरख्तों से बड़ी बेफिक्री से सब कुछ रौंदते हुए नीचे आने की गरज थी। दरवाजे से आयी ठंडी हवा के झोंके ने हमें मस्त मौला बना दिया। जिन्दगी में हमें चाहिए भी तो क्या? हर पल नायाब नजारे दिखाने वाले ये दरवाजे और खिड़कियाँ जिनसे ताजी हवा आर पार हो। हम होश खोने को बेकरार थे पर हकीकत ने ऐसा होने नहीं दिया। यह दर्शन द्वार तो नरकद्वार साबित हो सकता है। दरवाजे के आगे बना संकरा अहाता बिना दीवार का है। अगर दो कदम भी दरवाजे के बाहर उठाये तो सीधे नीचे की मंजिल पर पहुँचेंगे। हड्डियाँ जो टूटेंगी सो अलग। हमारी भलाई इसको बंद रखने में ही है।
(Travelogue by Chetna Joshi )

कुछ खा पीकर हमने मंदिर के तरफ रुख किया। बहुत ही छोटा कस्बा होने का फायदा कि सब कुछ अगल-बगल ही है। मन्दिर मार्ग पूजा सामग्री, सिन्दूर, ताबीज, चूड़ियाँ, भगवान की छोटी-बड़ी तसवीरों, छल्लों, लाकेटों, मूर्तियों की दुकानों से भरा हुआ है। खरीददार इक्के-दुक्के हैं। इन दुकानों की मौजूदगी ने रास्ते को बेहद जीवंत बनाया है।

मंदिर के बाहर एक बोर्ड लगा है। जिसमें लिखा है ‘हिमालय की गोद में बसा यह तीर्थ स्थल, जहाँ गंगा माँ ने धरती को कृतार्थ किया था। पुराणों के आधार पर स्वर्ग की बेटी गंगा देवी ने नदी का रूप लेकर राजा भागीरथ के पूर्वजों को पाप मुक्त किया था। पुराणों के अनुसार भगवान शिव ने गंगा देवी का वेग कम करने के लिए उन्हें अपनी जटाओं में लिया था। भागीरथी के दायें तट पर गंगा देवी को समर्पित मन्दिर 18वीं शताब्दी में निर्मित है। यह तीर्थ स्थल समुद्र तल से 3.140 मी. की ऊँचाई पर स्थित है।’

सफेद रंग से पुता गंगोत्री मन्दिर गंगोत्री कस्बे की तरह ही शांत और स्निग्ध है। मन्दिर का रुख गोमुख की ओर है और इसके पीछे ऊँचे पहाड़ हैं। मन्दिर से गोमुख की ओर लंबा और चौड़ा विराट दृश्य मुग्ध करने वाला है। नदी किनारे की छलबल, घंटियों की आवाजें और साफ मौसम में आई धूप ने मन्दिर को और भी पावन बना दिया था। दोपहर में मन्दिर में खालीपन पसरा है। इस खालीपन की वजह से हम जितनी देर तक चाहें, यहाँ समय बिता सकते हैं। इस जगह में जो खास है, उसको अपने में समेटने सोखने के हिसाब से यह एक नायाब बात है।

शाम से पहले हमें गाइड की तलाश भी करनी है। सोचा, मन्दिर में मौजूद लोगों से इस बारे में पूछताछ की जाये। जिस बेंच में हम बैठे हैं, उसके अगल-बगल वाली बेंच में कुछ लोग हैं जो फोटो खिचवा रहे हैं। फोटोग्राफर तो अपने तौर तरीकों से यही आसपास का बंदा नजर आ रहा है। 18-19 साल का नौजवान फोटोग्राफर कागज पर तस्वीर निकालकर फटाफट देता है। वह शायद किसी गाइड को जानता हो।

हमें गोमुख और तपोवन जाना है। क्या आप किसी गाइड के बारे में बता सकते हैं? हमारा यह कहना ही था कि फोटोग्राफर भाई साहब ने अपना कैमरा फटाफट बगल में नीचे बेंच पर रख दिया। हमारी तरफ मुखातिब हुए और बोला मैं भी गाइड हूँ। अभी तीन-चार दिन पहले ही तपोवन से वापस आया हूँ। फोटोग्राफी तो मैं खाली समय में सीखने के लिए करता हूँ। वह हमारा गाइड बनने के लिए बेहद आतुर है। पर हमें उसके गाइड होने पर शक है। जल्दबाजी में इसके साथ कुछ भी तय करना ठीक नहीं। शायद यह हमें ठीक तरह से तपोवन नहीं पहुँचा सकेगा। विकास राणा नामक इस शख्स को हमने शाम की आरती के वक्त मन्दिर में फिर से मिलने का वादा किया। कुछ भी तय नहीं किया। ऐसा करने से हमें थोड़ा वक्त मिल जायेगा और शायद कोई बेहतर गाइड भी। उसने हमारा फोन नं. ले लिया और हमसे कहा कि परमिट में हम उसका ही नाम डलवा दें। गंगोत्री में केवल भारत संचार निगम के फोन ही काम करते हैं और हमारे नम्बर निजी कंपनियों के हैं। इसलिए नंबर देकर भी हम सुरक्षित थे।

परमिट 5 बजे से बनते हैं। हमारे पास करीब डेढ़ घंटे का समय है। इतनी देर में हम गंगोत्री घूम सकते हैं। गंगोत्री में मन्दिर के अलावा गौरीकुण्ड, सूर्यकुण्ड और पाण्डव गुफा देखने लायक हैं। मजबूत सफेद-भूरी चट्टानों की ओट से भागीरथी के तेज धारे कुण्ड के आकार के दरख्तों में गिरकर उसको भरकर छलछलाते हुए आगे बढ़ते हैं। नदी पर बने लोहे के पुल से इन्हें देखा जा सकता है। पुल के पार करीब एक किमी. आगे पाण्डव गुफा है। गुफा के अन्दर बाबाजी लोग विराजे हैं। धुएँ से भरी गुफा में उन्होंने लकड़ी जलाकर गर्मी लायी हुई है। जब आँखें धुएँ और अंधेरे की अभ्यस्त हुईं तो जटाधारी बाबाजी की काया और चिलम चमक उठे। पिछले कई सालों से बाबाजी का यही अड्डा है। वह लोगों की आवाजाही पसंद करने वाले जान पड़ते हैं। कुछ देर बाबाजी के साथ बिताकर हम रुखसत लेते हैं।
(Travelogue by Chetna Joshi )

5 बजे हम वापस बस स्टेशन पर थे। जिसके पास ही वन विभाग का दफ्तर है। गंगोत्री से आगे ‘गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान’ संरक्षित क्षेत्र है, वहाँ जाने के लिए वन विभाग से परमिट लेना जरूरी है। एक दिन में केवल 150 परमिट ही जारी होते हैं, जिसमें से गंगोत्री के वन विभाग के दफ्तर से हर दिन केवल 30 परमिट ही जारी किए जाते हैं। इसलिए देर से पहुँचने का कोई मतलब नहीं है। हमारे पहुँचने तक दफ्तर खुल चुका है और सरगर्मियाँ तेज मालूम पड़ रही हैं। खैर बिना किसी अड़चन के कुछ औपचारिकताएँ पूरी करके हमें 3 लोगों का परमिट मिल गया। तीसरा परमिट गाइड के लिए था पर हमने किसी गाइड का नाम दर्ज नहीं कराया था। परमिट लेकर हम बाहर निकले ही थे और चर्चा कर ही रहे कि कैसे अब एक अनुभवी गाइड को ढूंढा जाए, हमने अपने सामने विकास राणा को खड़ा पाया। हम समझ गये कि हमारी धर पकड़ हो चुकी है। हमने भी हाथ खड़े कर दिये। उसने तुरत-फुरत में हमारे परमिट का निरीक्षण भी कर लिया। किसी भी गाइड का नाम नहीं होने पर वह थोड़ा निश्चिन्त हुआ। परमिट लेकर उसने फटाफट दफ्तर का रुख किया और अपना नाम डलवाकर ही छोड़ा। विकास राणा ने हमें ज्यादा मौके नहीं दिये और हमारी गाइड की तलाश अपने आप ही पूरी हो गयी। काश जिन्दगी की दूसरी चाहतें भी इतनी ही आसानी से पूरी होतीं। राणा जी के आदेश पर हमने दस्ताने और टोपी खरीदी। अगली सुबह 5.30 बजे तक तैयार रहने को कहकर वह चला गया। साथ ही पराठे लेकर चलने की हिदायत भी दे गया।

एक नोट कीर्तिलोक के प्रभारी राणा जी के नाम। गंगोत्री पहुँचने पर जब हम एटीएम की तलाश में निकले तो जानकर सिर ही घूम गया कि गंगोत्री में अभी यह सुविधा नहीं है। ऐसे में राणाजी ने भरोसा दिलाया कि अगर हमारी जेब बिल्कुल खाली हो जाती है तब भी हम उनके होटल में रह सकते हैं और वापस उत्तरकाशी पहुँचकर उनके परिचित को भुगतान कर सकते हैं। अपनी जरूरत भर का सामान पिट्ठू में भरकर हमने बाकी सामान राणा जी के कमरे में रख दिया। खाना बनाने वाले को सुबह पाँच बजे तक 10 पराठे पैक रखने को बोलकर हम वापस गंगोत्री दर्शन को निकल लिए जो अब सुनहरा हो कर जगमगा उठा था। मन्दिर में भी चहल-पहल दिन से कहीं ज्यादा थी। आदमी, औरतें, बुजुर्ग, बच्चे सब पालथी मारकर बैठे थे। आरती की तैयारियाँ जोरों पर थीं।

अगली सुबह 5.30 बजे विकास हाजिर था। चाय पीकर 6 बजे के करीब हम गंगोत्री मन्दिर की ओर को निकले जिसके अहाते से ही गोमुख को रास्ता शुरू होता है। शुरूआत ऊँची खड़ी सीढ़ियों से होती है। इलाका हरा-भरा है और शुरूआत में हम तेजी से निकलते हैं। करीब 2 किमी. चलने के बाद वन क्षेत्राधिकारी, गंगोत्री नेशनल पार्क, गंगोत्री रेंज का ऑफिस आता है। यहाँ परमिट चेक होते हैं। चेकपोस्ट के बाहर जंगली भरल (ब्लूशीप) के पोस्टर चस्पा हैं। यह इनका इलाका है। भाग्य का साथ होने पर इनको देखा जा सकता है।

अगला चेकपोस्ट चीड़बासा में है जो कि अभी 7 किमी. दूर है। गंगोत्री के बाद अगली चाय भी वहीं मिलती है। नदी के बहने की उल्टी दिशा में पगडंडियों से होकर जाना है। रास्ता मुश्किल नहीं है। पर कहीं-कहीं पर पगडंडियाँ बर्फ से ढकी हुई जरूर हैं। बर्फ के ये बड़े ढेर पहाड़ों के ऊपर से नीचे आए होंगे और यहीं जमे रह गए। इन ढेरों के ऊपर मिट्टी, धूल, पत्ते जम गए। जब इनको डंडे से खुरेचो तो ही यह एहसास होता था कि ये बरफ के ढेर हैं। वरना तो इनमें और मिट्टी-पत्थरों के ढेरों में फर्क करना मुमकिन नहीं है। इन बर्फीले ढेरों के ऊपर से ही पगडण्डी बन गयी है। कहीं-कहीं इन के ऊपर सीढ़ियाँ भी नक्काश दी गयी हैं। बरफ ने नीचे नदी को भी लम्बाई में कई-कई मीटर बर्फ से ढका हुआ है। पर नदी ने बर्फीले ढेरों के नीचे से ही अपना रास्ता निकाल लिया है।

रास्ते में पानी के कई स्रोत चट्टानों से फूटते हुए दिखते हैं। कहीं ये ऊँची चट्टानों में कहीं ऊपर से पानी की छोटी बूंदों-फुहारों की तरह निकल रहे हैं और सराबोर कर जाते हैं तो कहीं बिलकुल बगल में से निकलते छोटे धारे की शक्ल में हैं और मटरगश्ती में रास्ता काटते हुए निकल जाते हैं। दो भयंकर खड़ी ऊँची चट्टानों के बीच की संकरी दरारों के बीच से होकर कई गाड़ें शोर मचाती चली आ रही हैं। ये छोटे-बड़े पत्थरों से अटी पड़ी हैं। सब धारे छोटी-बड़ी सभी गाड़ें एक-दूसरे में समाती हुई बड़ी से बड़ी बनती हुई बढ़ती जा रही हैं। इनको पार करने के लिए इनके किनारे पर पड़े ऊँचे बड़े पत्थरों के ऊपर टीन की पट्टियाँ जमाई हुई हैं। टीन की इन पट्टियों ने इलाके की खूबसूरती को और भी बढ़ा दिया है।
(Travelogue by Chetna Joshi )

बहते पानी की उल्टी दिशा में नदी को समकोण कर काटती भागीरथी पर्वत की तीन चोटियाँ अब धूप में चमक उठी हैं। हम रुक-रुक  कर उनको निहारते जाते हैं। हर अगले मोड़ पर वह ज्यादा निखरी हुई नजर आती हैं। कभी-कभार हवा में दौड़ते-फिरते बादलों की कोई टोली उन चोटियों पर टंग सी जाती है। पर इन बादलों को रुकना गवारा नहीं। साफ नीले आसमान पर रुई जैसे वे न आने में समय लगाते हैं और न ही रुकने में समय जाया करते हैं।

पाँच-छ: किमी. तो मजे में ही निकल गए। पर अब पीठ के बोझ का अहसास होने लगा है। चीड़बासा का इंतजार है। चीड़बासा में चीड़ के घने जंगल हैं जो दूर से दिखाई देने लगे हैं। रास्ते में लगे बोर्ड के हिसाब से यहाँ रई (स्प्रूस), मोरिंडा (सिल्वर फर), कैल (ब्लू पाइन) और देवदार (हिमालयन सिडार) के 1200 पेड़ 2001 में लगाए गये थे। पेड़ दिख रहे हैं तो जगह भी पास ही होगी। हर अगले मोड़ पर विकास हम से कहता है कि अगले मोड़ पर ही चीड़बासा है। उसकी बात सच मानने में ही हमारा भला है। रुकते, देखते हम चलते रहते हैं।

3600 मीटर की ऊँचाई में बसे चीड़बासा चेक पोस्ट पर नाम और गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र में रहने की अवधि दर्ज करानी होती है। पराठे खाने के लिए यह जगह ठीक है। चेक पोस्ट  में तैनात लोग चाय भी पिलाते हैं। बस्ते वहीं रखकर हमने पानी के एक छोटे से सोते के पास बैठकर गरम चाय की चुस्कियां लीं। चीड़वासा के आगे बीएसएनएल के मोबाइल सिग्नल भी नहीं हैं। दीन दुनियाँ से परे समय गुजारने के लिए भी यह जगह अच्छी है।

चीड़वासा में हम करीब आधा घंटा रुके होंगे। हम थोड़ा और सुस्ताना चाहते थे पर विकास राजी नहीं था। वह फटाफट हमें भोजवासा पहुँचाना चाहता था। बीच में रुकना कोई समझदारी नहीं है। अब तो उठना ही होगा। जब चलने को उठे तो लगा उठ ही नहीं पायेंगे। शरीर की किस-किस हड्डी को हमारे चलने से फर्क पड़ा है, समझ आने लगा था। हम सामान टाँगकर कभी धीरे, कभी मध्यम, कहीं रुकते, कहीं फोटो लेते चलते रहने की कसम खाते बढ़ते रहे। जल्द ही हरियाली भी पीछे की बात हो गयी। पहाड़ों का आकार और प्रकार दोनों ही तेजी से बदल गए। पगडंडियाँ तंग और पहाड़ मिट्टी के ढेर से हो गये हैं। ऐसा कि मानो एक चट्टान के ऊपर 35-40 फीट की ऊँचाई वाले मिट्टी-पत्थरों के कई ढेर रखे हों। ये एक अजीबो-गरीब कुदरती करिश्मा सा लगा। हम पहली बार ऐसा कुछ देख रहे थे।
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पगडंडियों पर मिट्टी के नीचे से चमकीली धातुएँ झाँकती थीं। इस इलाके में लैंडस्लाइड होते रहते हैं। छोटे-छोटे पत्थर तो नीचे ढुलकते ही रहते हैं। 100-200 किलो सामान लादकर ले जा रहे पोर्टर हमें इस इलाके को तेजी से पार करने की हिदायत देते निकल गए। यहाँ पर धीरे चलने का मतलब नहीं है। पर जल्दबाजी भी किसी काम की नहीं। रास्ता खूबसूरत पर जोखिम भरा जो है और बचते-बचाते निकलना है। भागीरथी की चोटियों के साथ ही अब दायीं तरफ की बर्फीली चट्टानें भी साफ दिखने लगी हैं। इसी बीच हमने एक पोर्टर को अपना बैग भी थमा दिया जो उसे चीड़वासा में छोड़ देगा। विकास भी पोर्टर के साथ ही निकल गया।

करीब डेढ़ बजे हम भोजवासा पहुँचे जिसका मतलब है कि हम चौदह किमी चल चुके हैं। वैसे ये कोई बड़ी बात नहीं पर पहाड़ के रास्ते में इतना भी चल पाना हम जैसे आधे शहरी लोगों के लिए काफी है। आज का सफर पूरा हुआ। ऊपर से दिखने में भोजवासा नदी के बगल में बसी फौज की छावनी जैसा है। यहाँ हमने सीधे राम बाबा के आश्रम में शरण ली। हालांकि यहाँ बंगाली बाबा का आश्रम और गढ़वाल मण्डल विकास निगम का एक यात्री आवास गृह भी है। राम बाबा के यहाँ जाना विकास ने तय किया था।

आश्रम में न तो बाबा दिखे, न ही आश्रम जैसी कोई निशानी। बाबा कहीं बाहर गए हुए हैं। आश्रम एक बच्चा चला रहा है। उसने हमें चाय पिलाई। यहाँ बर्तन बर्फ जितने ठण्डे पानी से धोकर रखने होते हैं। सामान काले रंग के बड़े से टेंट के अंदर रखकर हम बाहर रखी कुर्सियों पर पसर गए। धूप तेज है और बढ़ती ठंड में इसे सेकने का मजा ही अलग है।

आश्रम में हमारी मुलाकात दीपक राणा से हुई। ये एक पर्वतारोही हैं। विकास उनसे बातें कर रहा है। वह उनको पहले से ही जानता है। उनकी आँखें बड़े से काले चश्मे के पीछे छिपी हैं। चश्मे से बचा जो चेहरा नजर आ रहा है वह भी बेहद लाल हुआ है। चेहरे पर छोटे-छोटे चकत्ते से भी हैं। उन्होंने बताया कि वह अभी भागीरथी की दूसरी नम्बर की चोटी को फतह कर लौटे हैं। ऐसा करने में उनको केवल चार दिन ही लगे जो कि उनके हिसाब से एक नया रिकार्ड है। उन्होंने हमारे साथ कुछ रोचक साहसिक किस्से साझा किये। पिछले साल के उनके माउण्ड एवरेस्ट को फतह करने के अधूरे प्रयास का ब्यौरा रोंगटे खड़े करने वाला था। बर्फीले तूफान की वजह से आधे रास्ते में पहुँचकर उनको आगे बढ़ने का विचार छोड़ एक हाथ में सामान पकड़े वापस लौटना पड़ा था। इस सब के दौरान कड़कती ठंड में भारी सामान को देर तक पकड़ने की वजह से उनके एक हाथ की छोटी ऊंगली उनसे अलहदा हो गयी। चाय पीकर वह गंगोत्री के लिए निकल गये।
(Travelogue by Chetna Joshi )
क्रमश:

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