केदारताल यात्रा-2

विनीता यशस्वी

सुबह टेंट में आ रही रोशनी से मेरी नींद खुली। धूप ऊँची पहाड़ियों में ही है। घाटी में अभी भी ठंड हो रही है। कर्ण बहादुर टैंट में ही चाय दे गया। चाय पीकर मैं जैसे ही बाहर आयी, ठंडी हवा के थपेड़ों ने मेरा स्वागत किया। बाकी ग्रुप वाले भी टेंट के बाहर धूप के आने के इंतजार में खड़े दिखायी दिये। मैं किचन टेंट में चली गयी जहाँ कर्ण बहादुर खाना बनाने की तैयारी कर रहा है। मेरे आते ही उसने टेंट में आने को कहा़…

कुछ देर बैठने के बाद मैंने कर्ण बहादुर से नेपाल में उसके गाँव के बारे में पूछा। स्टोव में पानी का बर्तन रखते हुए वह बताने लगा- चीसापानी। क्या चीसापानी ? मैं वहाँ गयी हूँ – मैंने एकदम से कहा। उसने हँसते हुए कहा – आप नेपाल गये हो ? हाँ गयी हूँ और उस समय मैं चीसापानी गाँव भी गयी थी। ये करनाली नदी के किनारे है और यहाँ एक बहुत बड़ा पुल भी है। उसने सहमति में सर हिला दिया। मैंने उसके परिवार के बारे में पूछा। वह फिर हँसते हुए बोला – मेरे घर मैं माँ है और दो छोटे भाई हैं। सब नेपाल में रहते हैं। वहाँ हमारी थोड़ी जमीन है पर उसमें खेती करके पूरा नहीं होता इसलिये मैं यहाँ मजदूरी करने आ जाता हूँ…

किचन का काम करते हुए वह बोलता रहा – मैंने बी़ए़ पास किया है और अब एम.ए. की तैयारी कर रहा हूँ इसके बाद पी़एच-डी़ करूंगा ताकि अच्छी सी नौकरी कर सकूँ और अपने परिवार को पालूँ। कर्ण बहादुर से बातें कर के बहुत अच्छा लगा। उसकी हिम्मत और उसका जज़बा तारीफ के काबिल है। बातों ही बातों में उसने काफी काम कर दिये और राकेश दा ने खाने में गरमा गरम पूड़ी और आलू बना दिये। खाना खाने के बाद मैंने टेंट समेट लिया़…
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टेंट समेटने के बाद मैं थोड़ा टहल कर आयी और एक जगह से दूर नीचे बहती केदारगंगा को देखा। काफी नीचे बहने के बाद भी केदारगंगा की आवाज में कोई कमी नहीं है। कुछ देर में राकेश दा ने मुझे चलने का इशारा किया और हिदायत दी कि आगे एक जगह बेहद खतरनाक लैंडस्लाइड है इसलिये उस जगह को मैं अकेले पार न करूँ। आज भी काफी तीखी चढ़ाई है पर जितना आगे बढ़ती रही, हिमायल की चोटियाँ मेरे नजदीक आती चली गयीं। मैंने इतना करीब हिमालय बहुत कम जगहों से ही देखा है। कुछ चढ़ाई और चढ़ लेने के बाद पेड़ खत्म हो गये जिनकी जगह सूखी पीली घास के बुग्याल ने ले ली जिसके बीच से हवा खनखनाती आवाज के साथ बह रही है़….

केदारगंगा साथ ही है। कभी थोड़ा नीचे तो कभी गरजती आवाज के साथ बिल्कुल करीब आ जाती। इन नजारों को देख लेने के लिये मैं रुकती रहती हूँ। कर्ण बहादुर मुझसे आगे जा चुका है और राकेश दा पीछे आ रहे हैं। रास्ता अभी ठीक है हालाँकि चढ़ाई हर कदम पर बढ़ती जा रही है और गर्मी इसे ज्यादा मुश्किल कर रही है। थलई सागर, मंदा और भृगुपंथ की चोटियाँ अब बेहद करीब हैं और उनकी विशालता दिखायी दे रही है़….
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लम्बा रास्ता तय कर लेने के बाद मैं लैंडस्लाइड वाली जगह पहुँच गयी और रुक कर राकेश दा के आने का इंतजार किया जो थोड़ी ही देर में आ गये। अब राकेश दा आगे चल रहे हैं और मैं उनके पीछे। लैंडस्लाइड वाकई खतरनाक है। ऊपर धसकती जमीन और नीचे पूरे वेग के साथ बहती केदारगंगा जिसे ऊँचाई से गिरने वाले पत्थर और खतरनाक बना रहे हैं। राकेश दा ने पहले ही मुझे इस जगह पर रुक कर फोटो खींचने के लिये मना किया है। वे चाहते हैं, मैं इस जगह को जल्दी पार कर लूँ। कुछ जगह तो रास्ता केदारगंगा को छूते हुए निकलता जिससे पानी के आवेग में संतुलन बनाना मुश्किल हो रहा है पर ऐसा ज्यादा दूर तक नहीं करना पड़ा। काफी रास्ता सीधा तय कर लेने के बाद पत्थरों के बीच चढ़ाई शुरू हो गयी। पत्थरों पर चलना परेशानी वाला है क्योंकि उनमें संतुलन बनाये रखना कठिन है़….

खैर ! ये रास्ता भी पार हो गया और फिर वापस सड़क वाले रास्ते में आ गये। अब ठंड बढ़ने लगी और हवायें भी तेज हो गयीं। अब राकेश दा आगे बढ़ गये और मैं फिर अपने तरीके से चलने लगी। रास्ता अच्छा है इसलिये मैं कुछ देर एक जगह पर बैठ कर बर्फीली चाटियों को देखने लगी। पूरी घाटी में सन्नाटा पसरा हुआ है जिसे बुग्याल में गूँजती हवा और केदारगंगा की आवाज तोड़ रही हैं। कुछ देर बैठे रहने के बाद मैं आगे बढ़ गयी और जल्दी ही केदारखड़क आ गया। केदारखड़क विशाल बुग्याल है। कुछ जलधारायें यहाँ बेतरतीब ढंग से बह रही हैं जिन्हें पार करने में मजा आता है। बुग्याल के लम्बे हिस्से को पार कर मैं वहाँ पहुँची जहाँ कर्ण बहादुर और राकेश दा ने किचन टेंट लगाया है़…

यहाँ बहुत तेज और ठंडी हवायें चल रही हैं पर अभी धूप है इसलिये ठंड का एहसास कम हो रहा है। यहाँ भी उतने ही केंप लगे हैं जितने भोजखड़क में थे पर फैली जगह होने के कारण सब दूर-दूर हैं। राकेश दा ने मेरे लिये अच्छी जगह ढूँढी है। ये बड़ा मैदान है जहाँ पर एक विशाल हिमालयन ब्लू शीप का सींग रखा है। इसके बारे में पूछने पर राकेश दा ने इतना ही बताया कि ये कई वर्षों से यहाँ है और इसे कोई कुछ नहीं करता। उन्होंने दूर ऊँचाई में मुझे हिमालयन ब्लू शीप का घास चरता हुआ झुंड दिखाया और बोले कुछ देर बाद वे नीचे आ जायेंगे़….
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थोड़ा सुस्ता लेने के बाद मैंने कर्ण बहादुर के साथ मिलकर टेंट लगाया और सामान अंदर रखा। राकेश दा ने खाने में खिचड़ी बनायी है पर उससे पहले उन्होंने मुझे चाय दी। मेरे टेंट से थलई सागर, मंदा और भृगुपंथ की चोटियाँ बिल्कुल सामने दिखती हैं। इनके अलावा और भी कई चोटियाँ यहाँ हैं। मैं अपने टेंट का दरवाजा खोल कर अंदर बैठ गयी और नजारे देखने लगी। कुछ देर में कर्ण बहादुर खिचड़ी दे गया। खाकर मैं टहलने निकल गयी। इन ऊँची चोटियों के सामने अपने को खड़ा देखकर बेहद खुशी हो रही है। केदारगंगा नीचे गहरी खाई में बह रही है और आसमान बिल्कुल साफ और नीला है। कहीं कोई बादल नहीं है। अब धूप जा चुकी है और हवायें भी तेज और तीखी हो गयीं….

टेंट की ओर लौटते हुए मुझे ब्लू शीप का झुंड दिखायी दे गया। उन्हें देखने के लिये मैं एक जलधारा को पार कर दूसरी ओर चली गयी और एक जगह बैठ गयी। कुछ देर में दो ब्लू शीप पत्थर को चाटने आये फिर कुछ और ब्लू शीप आ गये उस पत्थर को चाटने। उनमें आपस में लड़ाई भी हो रही है लेकिन सब वहीं बने रहे। इसी बीच कुछ छोटे बच्चे भी आ गये जिन्हें बड़ों ने संभाला और पत्थर पर उनके लिये जगह बनायी। उनमें से एक ब्लू शीप मेरी ओर आने लगा क्योंकि ये आक्रमक स्वभाव के नहीं होते इसलिये मैं अपनी जगह बैठी रही। उसकी भी मंशा मेरे पास आने की बिल्कुल नहीं है उसे तो पानी पीना है सो जलधारा के पास जाकर उसने पानी पिया और वापस हो लिया। उसके बाद बाकी भी आये और पानी पी कर चले गये पर यह क्या? अचानक ही एक बच्चा तेजी के साथ दौड़ता हुआ पत्थर की ओर बढ़ने लगा। उसके पीछे उसकी माँ भी दौड़ गयी। बच्चा फिर पत्थर को चाटने लगा और माँ उसे वापस ले जाने की कोशिश करने लगी। अब झुंड के दूसरे बच्चे भी वहाँ आकर पत्थर चाटने लगे जिन्हें वापस ले जाने में झुंड के बडे़ सदस्यों को बहुत मेहनत करनी पड़ी। अब तक शाम भी हो गयी सो मैं भी इस नाटक को देख के अपने टेंट की ओर लौट गयी़….

लौटते हुए आसमान में दूसरा नाटक मेरा इंतजार कर रहा है। ढलते हुए सूर्य की रोशनी चोटियों पर पड़ रही है और चोटियाँ सोने की तरह चमकने लगीं। कुछ देर में बादलों ने चोटियों को ढकना शुरू कर दिया जिसने इस नजारे को और खूबसूरत बना दिया। सूर्य के ढलने के साथ उसकी रोशनी से चोटियाँ नहाती रहीं फिर एकदम घुप्प अंधेरा छा गया और आसमान बादलों से भर गया। अब ठंड बेहद बढ़ गयी इसलिये मैं टेंट में आ गयी। बादलों ने जैसे आसमान को ढकना शुरू किया है, उससे मुझे डर भी लग रहा है। कर्ण बहादुर गरम सूप दे गया और बोला, कुछ देर में खाना भी लगा देगा। राकेश दा ने सुबह जल्दी ट्रेक पर चलने को कहा है़…
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खाना खाने तक आसमान बुरी तरह बादलों से ढक गया और धुंध छाने लगी। मेरी घबराहट बढ़ने लगी कि कहीं रात में मौसम ज्यादा खराब न हो जाये क्योंकि हिमालय के मौसम का कुछ भरोसा नहीं होता। खाना खाने के बाद मैं फिर मौसम देखने बाहर आयी और बीच-बीच में ऐसा करती रही। आधी रात का समय होगा जब मैंने फिर टेंट से बाहर झाँका। इस समय मौसम को देख के हैरान रह गयी। आसमान बिल्कुल साफ है और तारे चमचमा रहे हैं। यह देख कर मुझे कितनी तसल्ली हुई, इसका बयान नहीं कर सकती हूँ। इसके बाद मुझे नींद आ गयी और सुबह के उजाले से ही खुली़…

कर्ण बहादुर ने चाय और दलिया देते हुए जल्दी तैयार होने को कहा। आज केदारताल जा कर मैं वापस यहीं आऊँगी। मौसम अच्छा है रात को मैं नाहक ही डर गयी थी। हालाँकि अभी धूप नहीं है इसलिये कंपकंपाने वाली ठंड और तीखी हवाओं से हाल बेहाल हो गया। दलिया खाकर मैंने चलना शुरू कर दिया। फिलहाल मेरा इरादा धूप वाली जगह में जाकर कुछ देर धूप सेकने का है। कुछ देर की धूप में ही पूरी ठंडक चली गयी। अब राकेश दा भी आ गये और मैंने आगे बढ़ना शुरू किया। चढ़ाई बढ़ती रही और गर्मी भी हालाँकि हवा में अभी भी तीखी ठंड है। रास्ता अच्छा तो बिल्कुल नहीं है। पूरा रास्ता पत्थरों के बीच से ही होकर जा रहा है। सीधा रास्ता तो दिखा ही नहीं। पत्थरों के बीच रास्ता ढूँढना भी कठिन है पर जगह-जगह निशान बने हुए हैं इसलिये रास्ता मिलता जा रहा है। राकेश दा कभी मुझसे आगे तो कभी पीछे चल रहे हैं…
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चढ़ाई बढ़ती ही चली गयी और पत्थरों के ढेर भी। छोटे पत्थर, बड़े पत्थर, बहुत बड़े पत्थर, पूरा रास्ता इन पत्थरों से ही अटा हुआ है। ग्लेशियर होने के कारण यहाँ इतने पत्थर हैं। पत्थरों में चलने से थकान ज्यादा होती है और हर वक्त पैर के मुड़ने-तुड़ने का डर रहता है पर खूबसूरत नजारे थकान को हावी नहीं होने देते। चारों ओर फैली हिमालय की चोटियाँ इतने करीब आ गयी हैं जो मेरी कल्पना से भी परे है। चढ़ाई बेहद कठिन होने लगी और सांस लेने में तकलीफ भी बढ़ने लगी इसलिये थोड़ा चलने के बाद रुकना जरूरी हो रहा है। अब तो बस केदारताल आने का ही इंतजार है। हर मोड़ के बाद या हर ऊँचाई के बाद मुझे केदारताल के दिख जाने का इंतजार रहता पर ऐसा होता नहीं। फिर दूसरी चढ़ाई शुरू हो जाती और चलते ही जाना पड़ता। कभी मुझे दूसरे ट्रेकर भी दिख जाते। राकेश दा या तो मुझसे आगे निकल जाते या पीछे रह जाते। इस समय अचानक पीछे से आते हुए बोले- चलो, चलो बस, अब आने ही वाला है। उनकी बात सुनकर मैंने थोड़ा तेजी से चलना शुरू किया और सामने वाली चढ़ाई को एक झटके में पार कर लिया। पर ये क्या केदारताल तो अभी भी कहीं नहीं है। निराशा तो हुई पर काफी रास्ता तय हो गया़….

मैं यही सोच कर चलती गयी कि अभी तो केदारताल ने दिखना नहीं है इसलिये खूबसूरत नजारों को देखते हुए चलते रहो। पर इस बार मैं फिर चौंक गयी क्योंकि जैसे ही सीधा रास्ता पार करके मैं ढलान की ओर गयी, मेरे सामने केदारताल है। वही केदारताल जिस तक आने के लिये मुझे इतनी मेहनत करनी पड़ी। कुछ देर खड़े होकर मैं सिर्फ उसे देखती रही। हरे रंग के पानी का कुंड जिसमें चोटियों की परछाई तैर रही है। पानी इतना साफ है कि इतनी ऊँचाई से भी तल के पत्थर दिख रहे हैं। दूसरे यात्री ताल के किनारे पोज देते हुए फोटो खिंचाने या सेल्फी लेने में व्यस्त हैं। मैंने झील के पास जाने से पहले ऊँचाई में ही झील का चक्कर लगाया फिर नीचे गयी और एक जगह बैठ कर झील को देखती रही़….

झील के चारों ओर फैली चोटियाँ इतनी करीब हैं कि जैसे कुछ और कदम और चल लेने से इन्हें छू लूँ। ताल के गहरे हरे पानी में सूर्य की किरणें हीरे के टुकड़ों की तरह फैली हुई हैं। मैंने झील के तीन ओर चक्कर लगाया और बैठ गयी। कर्ण बहादुर मेरे लिये पराठे ले कर आया और देते हुए बोला – पराठों के साथ ताल को देखने में और मजा आयेगा। उसका हँसते हुए नेपाली ढंग से बात करना अच्छा लगता है। मैं काफी देर तक बैठी रही पर वापस जाना मजबूरी है इसलिये वापसी का सफर शुरू किया।
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शाम होने तक मैं केंप आ गयी। आज फिर चोटियों में सूर्यास्त का नजारा दिखने लगा पर ठंड बहुत ज्यादा है इसलिये मैंने टेंट में बैठ हुए ही नजारों का मजा लिया। अचानक मेरी नजर मंदा चोटी पर गयी जिसके  एक ओर सूर्य ढल रहा है और दूसरी ओर से चाँद निकल रहा है। ये अद्भुत नजारा है। मैंने ऐसा पहले कभी एक साथ होते हुए नहीं देखा है। इस नजारे को मैं काफी देर तक देखती रही और फिर टेंट बंद करके स्लीपिंग बैग के हवाले हो गयी। कुछ देर में कर्ण बहादुर खाना भी दे गया। यात्रा के बिना किसी परेशानी के पूरा होने की मुझे खुशी है़….

सुबह गंगोत्री के लिये वापसी। मैं आज गंगोत्री पहुँचूंगी। रात को वहाँ रुक कर अगली सुबह बस से हरिद्वार। वापसी मैं पहाड़ों से दूर होने का दु:ख हमेशा ही रहता है पर वापसी मजबूरी भी है। करीब 4 बजे मैं गंगोत्री पहुँच गयी। राकेश दा ने गंगोत्री में मेरे रुकने के लिये होटल का इंतजाम कर दिया और साथ ही यह भी बताया कि सुबह 5: 30 बजे हरिद्वार के लिये रोडवेज की बस जाती है। होटल में फ्रेश होकर मैं गंगोत्री मंदिर चली गयी। अभी आरती का समय है इसलिये मंदिर में हलचल बढ़ गयी। सबको मंदिर के सामने के फर्श मैं बैठने के लिये कहा गया। मैं भी जगह ढूँढ कर बैठ गयी। कुछ देर में पुजारी आये और उन्होंने कुछ हिलाना शुरू किया जिसके बाद यह सिलसिला चलता रहा। मंदिर में पारंपरिक वाद्य यंत्रों की आवाजें गूंजने लगी और पंडित बड़े दिये से आरती करने लगे। जब यह सिलसिला रुका तो मंदिर में दर्शनों के लिये आने दिया गया। मैं भी अंदर चली गयी। अंदर पंडे बैठे थे जिनकी नजर इस पर टिकी है कि किसने कितनी दक्षिणा चढ़ाई और उसके हिसाब से ही वे प्रसाद दे रहे हैं। खैर मुझे भी कुछ तो मिल ही गया हालाँकि पंडित जी की घूरती नजरें मुझे अभी भी याद हैं…

खैर यहाँ से मैं भागीरथी के किनारे गयी और कुछ देर उसकी गरजती आवाज सुनी और फिर बाजार आ गयी। कुछ दिनों में मंदिर के कपाट बंद होने वाले हैं इसलिये बाजार वाले अपना सामान सस्ती कीमत में भी बेचने को तैयार हैं। बाजार में टहलने के बाद मैंने रैस्टोरेंट में खाना खाया और होटल वापस आ गयी़….

सुबह जब स्टेशन पहुँची तो वहाँ काफी भीड़ थी। किस्मत अच्छी रही कि मुझे सीट मिल गयी क्योंकि बहुत से लोगों को वापस भी लौटना पड़ा। पर मेरी किस्मत इतनी भी अच्छी नहीं रही क्योंकि कुछ बिहारी मजदूर बस में बैठे हैं और उन्होंने उल्टियाँ करके जो हंगामा मचाया, उससे मेरा पीछा हरिद्वार में ही छूटा जहाँ से मैंने  नैनीताल के लिये बस पकड़ी़….
समाप्त 
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