प्रतिशोध के धागे : कहानी

बुलबुल शर्मा

कल मुझे काँथे की वह रजाई मिली जो मेरी माँ ने मेरी बेटी के लिए सिली थी, जब वह बच्ची थी। बड़ी सुंदर, हरे और गुलाबी फूलों वाली। मुझे याद है, मेरी माँ और मौसी हमारे छोटे-से बगीचे में बैठे हुए- काम और बातें करते। वे वहाँ सिर्फ दोपहर में बैठा करते थे, कॉटन की पुरानी साड़ियों से काँथे की रजाइयाँ बनाते, बीच-बीच में चाय पीते या फिर कभी कामवाली से अपने पैरों की मालिश करवाते, जो कि उनके आस-पास ही मँडराती थी। वे बाज़ार से कभी भी धागे नहीं खरीदते थे, ‘पैसे की बर्बादी।’ साड़ियों के बॉर्डरों के रंगीन धागे इस्तेमाल किया करते थे। मुझे याद है मैं भी बॉर्डरों से धागे निकलवाने में उनकी मदद किया करती थी और जल्दबाजी़ में निकालते हुए जब भी धागा टूट जाता था तो मुझे हाथ में गजब की चपत पड़ती थी।

एक दफ़ा मेरी मौसी, जो हमें कलकत्ता से मिलने आई थीं, अपने साथ बड़ा ही खूबसूरत कढ़ा हुआ एक कांथा लाईं, जिसे उन्होंने बाहर धूप में फै ला दिया। वह पुराना-सा रंग उड़ा-सा था, जिसमें सुंदर से फूल और चिड़िया बनी थीं, पर अगर तुम उसे गौर से देर तक देखो तो अजीबोगरीब चेहरे उभरकर आते थे जिनकी दर्दनाक आँखे तुम्हें तका करती थीं। मुझे तो वह कतई पसंद नहीं आया, पर मां को उसकी बारीक कढ़ाई जो उसमें जाल के जैसे बिछी थी, बेहद पसंद आई। उन्हें उसकी अलंकृत गहराइयों में कभी भी कोई झांकते चेहरे नहीं नजर आए। ‘मीरा, इस लड़की का दिमाग बहुत उड़ानें भरता है, जिंदगी में बाद में बहुत मुश्किल होगी इसे,’ मौसी मेरी मां को हमेशा आगाह करतीं, जब भी मैं उस कांथे के फूलों और कलियों के बीच मंडराते भूतों का जि़क्र किया करती थी। ‘मेरी सास ने मुझे दिया था,’ उसके नाज़ुक बार्डर को छूते हुए मौसी बोलीं।

‘वह बहुत सम्पन्न घर से थीं। बोरीशाल के ज़मींदार। उन्हें खूब दहेज मिला था, पर उनके पति, मेरे स्वर्गीय ससुर ने सब शराब में उड़ा दिया। मेरे बेचारे पति को कुछ भी नहीं मिला और मुझे तो उन लोगों से एक जोड़ी कंगन भी नहीं मिले। ख़ैर, भगवान की दया रही है और हम ठीक-ठाक ही हैं,’ वह बोलीं, बड़ी आत्मसंतुष्टि के साथ, अपने भारी सोने के कंगन छूते हुए। मौसी जब भी हमें मिलने आती थीं, बड़ी शिद्दत से, विस्तार से बताती थीं कि उनके पति की माँ का परिवार कितना पैसेवाला हुआ करता था। ‘अनपढ़, सामंती डाकू’ मेरे पिता बड़बड़ाते थे, हर बार जब वह यह कहानी शुरू करती  थीं और माँ कहती थी कि पिताजी उन लोगों की अथाह संपत्ति से जलते हैं। उनके पास नौकरों की फौज थी, 200 एकड़ जमीन और मौसी के पति जब छोटे थे तो उनके पास एक पालतू बकरी, ढेलहरा तोता और एक ‘मेड इन इंग्लैंड’ ऊनी जैकेट थी। पर शराबी ससुर ने सब खो दिया। मैं अकसर सोचा करती थी कि आखिर उस बकरी और तोते का क्या हुआ होगा। और मेरे पिता उनके विंटेज कार-संग्रह के बारे में सोचा करते थे।

‘अगर मेरी सास से मुझे कुछ मिला तो वह ये पुराना कांथा ही था,’ मौसी ने उस घिसे हुए कपड़े को अपनी गोद में फैलाते हुए कहा। ‘उन्होंने मुझे बताया था कि यह कांथा उनकी शादी में उनकी मां की बहिन ने भेंट दिया था। उन्होंने इस मौसी को पहले कभी नहीं देखा था, और तो और वे उस औरत का नाम भी नहीं जानती थीं। जब उन्होंने अपनी मां से सवाल किया तो उन्हें कोई जवाब नहीं मिला। उन्होंने अपनी मौसी को फिर कभी नहीं देखा।’ काफी साल बाद जब वे सब गुज़र चुके थे, तो मैंने परिवार की आधी-अधूरी कहानियों को जोड़कर उस कांथे के इतिहास को जाना। बाकी, काशीदाकारी में छुपे गमग़ीन चेहरों ने मुझे बता दिया।

आशिमा उस सुनहरे लिफाफ़े को देखते ही रो पड़ी। हालांकि रोने जैसी कोई बात नहीं थी क्योंकि वह कोई बुरी, मसलन किसी की मौत की, ख़बर नहीं थी । वह सिर्फ़ उसकी बड़ी बहिन की बेटी की शादी का न्यौता था। उसे अपनी बड़ी बहिन को देखे तकरीबन दस साल गुज़र चुके थे और यह बेटी …. वह तो अब उन्नीस साल की होगी। ठीक उन्नीस साल और तीन महीने। जब वह पैदा हुई थी तो उसका नाम पारुल था, पर अब वे सब उसे मोंदिरा बुलाते थे। आशिमा ने शादी के कार्ड में से आंसू पोछे। कार्ड लाल रंग का था और उसके ठीक बीच में एक ध्यान खींचने वाला, भद्दा सुनहरा और गुलाबी कमल बना था। सुनहरे टिशु पेपर में लिपटा, रेशमी धागे से बंधा हुआ। महंगा और भड़कीला। उसने कोई सरल नमूना चुना होता, एक छोटी-सी फूल की माला और हल्के-नारंगी रंग के पेपर पर सुनहरी धूल छिड़की हुई। पर वह मां नहीं थी। वह मां थी – मगर अब नहीं। वह तो उसे त्याग चुकी थी। नहीं। उन लोगों ने उन्नीस साल और तीन महीने पहले उसे अपनी बच्ची का परित्याग करने के लिए मजबूर किया था। आशिमा को शायद ही कभी अपनी बच्ची का ख़याल आता था। उसे अपने बेटों की परवरिश, अपने आलसी, निकम्मे पति की ख़ैर और घर संभालने से फ़ुरसत ही कहां मिलती थी। पर जब कभी खिड़की से चाँद की रोशनी बेदर्दी से उसके कमरे को इतना उजला कर देती थी कि सो पाना नामुमकिन हो जाता था, फिर उस दिन की याद ताजा हो जाती थी।
(threads of vengeance : story)

वह रेतीले तूफान-सा उस पर सवार हो जाता था, बेबस कर देता था और वह ख़ौफ़ में रो पड़ती थी। वह ख़ुद को खामोशी से सिसकते हुए देखती थी, मिनटों का हिसाब रखते हुए, उस दर्द के खत्म होने का इंतज़ार करते हुए। और फिर चांदनी छू हो जाती थी और सब ठहर जाता था। वह अपने पति के खर्राटों को सुनती, अपने आंसुओं से भीगे चेहरे के साथ एक बार फिर सो जाती थी।

पारुल देर शाम में उसके गर्भ से निकली थी, चिड़चिड़ी औरत के माफ़िक चीख़ती हुई, खू़न और मल में लिपटी हुई एक बदसूरत गठरी।

‘अरे, अरे, यहां तो बिगड़ा मिजाज़ नज़र आता है।’ आया पीक थूकते हुई बोली थी। और हँसी थी, बच्ची को मरी मुर्गी जैसे उलटा लटका के। ‘मैं जरा इन्हें एक थपकी दे दूं, इन्हें ये ध्यान दिलाने को कि ये औरत हैं, कोई राजकुमार नहीं जो अपनी बिगड़ी बानी दुनियां को दिखा सकती हैं।’ और फ़िर आशिमा ने उसे बच्ची के पुट्ठों में ज़ोर से मारते हुए देखा था। नींद की आगोशी में आने से पहले उसे याद है कि उसकी बहादुर बच्ची और जोर से दहाड़ी थी।

क्या अब उन्होंने उसे मार-मार के सुशील बना दिया होगा।या उन्होंने उसे वैसे ही बड़े होने दिया होगा, जि़द्दी और बिगड़ैल। लोग कहते थे, वह बहुत सुंदर है। कहते थे, पैसेवाले मां-बाप की इकलौती औलाद है, ज़रूर उसे एक अच्छा पति मिलेगा।

एक बार आशिमा उसके स्कूल के बाहर खड़ी हुई थी, उसकी एक झलक पाने की लालसा में। पर जब घंटी बजी थी और सारी लड़कियां बाहर निकली थीं तो उसे कुछ समझ में नहीं आया कि वह क्या करे। वह कैसे अपनी बेटी को पहचान पाती? वह देखती रही थी, घबराई हुई, जैसे-जैसे सारी बच्चियां उसके पास से भाग कर गुज़र रही थीं, हर एक उसे अपना ही खून, अपनी ही बेटी नज़र आ रही थी।

‘उसे जाने दो, आशिमा। उसे अपनी बहिन को दे दो। भगवान तुम्हें आशीर्वाद देगा। वह एक संपन्न परिवार में पलेगी, वे उसे रईस घराने में ब्याहेंगे। तुम्हारे तीन लड़के तो हैं ही। उनके भविष्य के बारे में भी तो सोचो। पैसे वाले रिश्तेदारों को खुश रखने से परिवार में सबके लिए अच्छा रहता है। हमें ऐसा मौका फिर कभी नहीं मिलेगा। यही हमारा वक्त है हमेशा के लिए उन्हें अपना ऋणी बना लेने का। दे दो उसे, लड़की ही तो है। वे परिवार पर बोझ होती हैं,’ ऐसा कहकर उसकी मां उसकी हथेली को सहलाने लगीं, उसे बहलाने लगीं।

उसके पिता, जिनका स्वभाव ज्यादातर शांत और सौम्य ही रहता था, उस दिन कुछ खासा उत्तेजित थे, जब वे लोग पारुल को लेने आये थे।

‘मामोनी ….. क्या तुम्हें मंज़ूर है? मैं बाद में कोई पछतावा नहीं चाहता। तुम मना कर सकती हो, अगर तुम अपनी बच्ची न देना चाहो तो,’ वे बोले, पर उन्होंने यह बड़े ध्यान से फुसफुसा कर कहा ताकि उसकी मां न सुन सकें।

‘नहीं, वह मना नहीं कर सकती। उसने अपनी बहिन को वचन दिया है। इस सब का फैसला बच्चे के पैदा होने से पहले ही हो चुका था, याद है? अगर बेटी हुई तो बच्चा हम उसे दे देंगे। आशिमा वही करेगी जो हम कहेंगे,’ उसकी मां पलट कर बोलीं। उसने अपने पति की ओर देखा, पति की इस अजीबोग़रीब हरकत से हैरान होकर। उनकी तीस साल की शांत शादीशुदा जि़ंदगी में उन्होंने न कभी ऊँची आवाज़ में बात की थी, न ही कभी उनके किसी फैसले का विरोध किया था। ‘तो बूढ़ी उम्र में भी इस आदमी में अर्भी चिंगारी बाकी है। मुझे उसे तुरंत बुझाना होगा,’ उन्होंने सोचा और तुरंत मुड़ गईं। अपनी भौहों को दो काली पट्टियों जैसे सिकोड़कर, आँखों का निशाना बाण जैसे अपने पति की ओर दागा। मुँह में ऐंठन ले आईं, एक तोड़ा-मरोड़ा आलेख, जो कि मुस्कान और खीस का बड़ा ही दहला देने वाला मेल था। जो कि कभी भी अपना काम करने से चूका न था। उनके पति अपने पैरों की ओर देखने लगे और घबराते हुए बड़बड़ाने लगे। वह अपने पति को तब तक देखती रहीं जब तक वह वापिस अपने पुराने आज्ञाकारी रूप में न आ गए, और फिर ज़ोर से बोलीं, ‘तो सब तय हो गया है और अब हम सब खुश हैं।’ वह सबकी ओर देखकर मुस्कराईं, बच्ची को पकड़ा और कमरे के बाहर चली गईं। दरवाज़ा जोर से भटका।
(threads of vengeance : story)

जब भी उसकी मां अपनी बात ख़त्म करती थीं, हर बार दरवाज़ा उतनी ही जोर से भटका करता था। अब भी, जबकि वे बूढ़ी हो चुकी हैं, दिनभर वे कुछ-न-कुछ बड़बड़ती रहती थीं। बरसों पहले गुजर चुके अपने पति पर, चिल्लाती रहती थीं उन लोगों पर जो सिर्फ उन्हें ही दिखाई देते थे। आशिमा को उनकी आवाज से डर लगता था।

उन्नीस साल और नौ महीने पहले उन लोगों ने उसकी बच्ची को दान दे दिया था और उसे हर पल हर दिन इसी का मलाल सताता था। वह बहुत कोशिश किया करती थी कि अपनी बच्ची के बारे में न सोचे, किसी तरह से अपने को बहला ले कि कुछ नहीं हुआ है, पर दर्द ने उसे जकड़ लिया था, मानो उसकी खाल की परतों में छुपा हुआ हो, उसके चेहरे को टीसता हुआ। अचानक रात में दो छोटे से हाथ उसके गले को भींच लेते, और वह चेहरा और दो छोटी-छोटी आँखें उसे परछांइयों से तका करती थीं। कभी जब वह घर पर अकेली होती थी तो उसे बच्चे की रोने की आवाज सुनाई देती थी।

‘तुम पागल हो, उसे भूल जाओ। पेट भरने को एक और मुँह ही तो थी वो,’ उसका पति कहता। ‘देखो जरा हमारे सुंदर, स्वस्थ लड़कों को। कितने अच्छे से ये बड़े हो रहे हैं।’ उसकी बेटी को इन्होंने घास-फूस जैसे उखाड़ फेंका ताकि इनके बेटों को और अधिक रोशनी मिल सके, लम्बे स्वस्थ और बलवान होने को।

उसके मन में उसे बस एक और बार देखने की लालसा थी ताकि वह तमाम उम्र उसका चेहरा याद रख सके, पर उसकी माँ नहीं चाहती थीं कि वह बहिन से मिले। ‘लोग बातें बनाएंगे,’ वह कहती थीं। पहले-पहल उसकी बहिन उसे खत भेजा करती थी कि कैसे पारुल, मोंदिरा, बड़ी हो रही थी, छोटी-छोटी बातें लिखा करती थी जैसे उसका पहला शब्द….. ‘बंधु’… उसका पसंदीदा खाना….. ‘केले’….. पर कुछ दिन बाद खत आने बंद हो गए। आशिमा को कभी घर पर नहीं बुलाया जाता था। दरवाजे को जोर से फिर बंद कर दिया गया। उसके बेटों को कभी नहीं बताया गया कि उनकी एक सगी बहिन भी है। बरसों बीत गए। उन्नीस साल और तीन महीने।

आशिमा ने खत मोड़ा और शादी के कार्ड को सिलाई की कंडी में रख दिया। फिर उसने गहरे लाल रंग का एक धागा निकाला और एक मुलायम सूती कपड़े पर बूटे काढ़ने लगी। वह पिछले कई सालों से इस कांथे को अपनी बेटी, अपनी खोई हुई बच्ची, के लिए बना रही थी। वह सिर्फ रात में काढ़ा करती थी जब चाँद की रोशनी उसे सोने नहीं देती थी। वह चिराग जलाकर खिड़की के पास बैठ जाती, कपड़े में छोटे-छोटे टांके मारते हुए, अपनी बच्ची के बारे में सोचते हुए। कभी-कभार उसका पति जाग जाता और गुस्से में बड़बड़ाता था पर वह ध्यान नहीं देती थी और वह फिर सो जाता था। इतना उसने अपनी माँ से सीखा था…. कि कैसे आदमी के गुस्से को नजरअंदाज किया जाए और अपनी एक नजर के इशारे से उसे काबू किया जाए।

उसे कभी भी उनकी बच्ची की परवाह नहीं थी। ‘उसे जाने दो। दहेज का पैसा बच जाएगा। लड़कों को थोड़ा और मिल जाएगा,’ उसने ऐसा कहा था। ‘तुम्हारी बहिन का पति इतना पैसे वाला है, अगर हम उसे खुश कर पाए, तो शायद वह हमारे बेटों के लिए बड़े होने पर नौकरियाँ ढूंढ दे,’ बिलकुल उसकी माँ के जैसे कहा था उसने। वह कभी-कभी सोचती थी कि कहीं उन दोनों ने मिलकर यह षड़यंत्र तो नहीं रचा। रात भर बैठकर तरकीबें बनाई होंगी कि उस पैसे का क्या करेंगे जो उसकी बेटी लेकर आएगी। पैसे लाने वाली लड़की एक बिरला चीज थी, अजूबा, बेशकीमती चीज जिसर्का जिंदगी में सिर्फ एक बार सौदा किया जा सकता है।
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उसकी बहिन ने पैसे और तोहफे देने में कभी कोई कमी नहीं दिखाई थी। लड़कों की एक अच्छे स्कूल में पढ़ाई, आशिमा का ऑपरेशन, छत की मरम्मत, एक नई जर्सी गाय और उसके पति के नए नकली दाँत, सब उसकी बहिन के पैसों की बदौलत था। उसकी छोटी-सी बच्ची सबर्की जिंदगियों में सहूलियत ले आयी थी पर वह आशिमा के उस दर्द को दूर नहीं कर पाई थी जिसके पंजों ने आशिमा के दिल को जकड़ रखा था, जो रात में उसका दम घोटता था।

वह सोलह फूल काढ़ चुकी थी, तीन और बचे थे। एक फूल हर उस साल के लिए जब उसने उसे नहीं देखा था और तीन छोटी पत्तियाँ महीनों के लिए। सिर्फ उसे यह राज पता होगा। उसकी बेटी को यह कभी नहीं पता चलेगा कि वह कौन थी। जब वह उसे पहली बार मिलेगी तो उसे क्या कहेगी? क्या उसके चेहरे में उसकी झलक होगी? जब वह उसे पहली बार मिलेगी तो उसे बहुत शांत और स्थिर होना होगा। सबकी नज़रें उन दोनों पर होंगी। कोई बातचीत नहीं होनी चाहिए। पर लोग क्यों बात बनाएंगे या परवाह करेंगे? उसने अपनी मां से पूछा था। ‘यह परिवार की इज्जत का सवाल है। मैं नहीं चाहती कि लोग कहें कि तुम्हारी बहिन बांझ है। इशारा मेरी तरफ है कि मैंने एक ऐबी बच्ची को जन्म दिया,’ ऐसा कहते ही उसकी मां अचानक से रोने लगीं। ‘मैं तुम दोनों बच्चियों के लिए अच्छे से अच्छा करना चाहती हूँ,’ वह रो रही थी और जिंदगी में पहली बार आशिमा ने अपनी मां की आंखों में उदासी देखी।

जैसे ही उसकी उंगलियों ने उस मुलायम कपड़े को फेरा, जो कि तीन पुरानी साड़ियों को कई बार मोड़ कर बना था, आशिमा तुरंत एक चेहरा काढ़ने लगी। वह एक छोटा, भद्दा चेहरा था जिसकी बड़ी-बड़ी आँखें और गंजा सिर था। एक बच्चे का चेहरा। एक चीखता मुँह। उसने उसे फूल में बदलने की कोशिश की, जल्दी से एक सीधी चेनस्टिच मारी, पर सुई मानो अपने आप घूम रही थी। आशिमा अपनी उंगलियों को उड़ते देख रही थी, और जैसे-जैसे कपड़े में आकार बन रहे थे उसका दिल जोर से धड़क रहा था। उसने एक लकीर बनाई, एक वक्र, जिसने एक अजूबा रूप ले लिया। आँखें, हाथ, मुँह और शरीर उभरने लगे मानो जैसे जादू। वह रुक नहीं पा रही थी। उसने पत्ती बनाने की कोशिश की, पर कुछ टांकों के बाद ही सुई उससे दूर भाग गई। उसने इतनी जल्दी कभी नहीं काढ़ा था। कपड़ा मिनटों में भर गया। कोई जगह बाकी रह ही नहीं गई। चारों तरफ नाचते फूल, अधखिली कलियाँ, मालाएँ, चिड़ियाँ, मछलियाँ और तिललियाँ और फिर उनके परे, छुपे थे चेहरे। उसके पिता लाचारी से उसे देखते हुए, उसका पति अपने लालची और खुले हुए मुँह के साथ और बगल में उसकी माँ, अपनी विजयी मुस्कुराहट के साथ। एक छोटे से कोने में, एक खाली चारपाई थी और उसके ऊपर स्वयं उसका चेहरा मंडरा रहा था, भावशून्य दृष्टि से देखता हुआ। चेहरे और आकार फूलों और चिड़ियों से गुंथे हुए थे। और फिर अचानक एक बच्चा- उसका बच्चा- उभर के आता और उस मुलायम सूती कपड़े में रेंगने लगता। और जैसे-जैसे वह काढ़ती गई, बच्चा बड़ा हो गया और एक लड़की बन गया। वह बगीचे में दौड़ी और कूदी, पेड़ों में चढ़ी, जैसे-जैसे आशिमा की उंगलियाँ तेज-तेज काढ़ती गईं। धागा खत्म हो गया पर इससे पहले वह यह जान पाती, सुई उसकी उंगली में चुभी और खून कपड़े में बहकर लाल और नारंगी धागों में समा गया। बार-बार सुई धागों के रेशों को खींच कांथे को छोटे, ओझल टांकों से भर रही थी।

आशिमा ने अपना खाली घर देखा, अपनी बहिन का शानदार महल, अपनी मां का विकृत मुंह, बूढ़े हो चुके अपने बेटे और फिर वह रुक गई। उसका सिर भन्ना रहा था, उंगलियाँ दर्द से जकड़ गई थीं और वह साफ से देख भी नहीं पा रही थीं। सुई उसकी उंगलियों से गिर गई और अंधेरे में गुम गई। वह कपड़ा जिस पर हजारों बारीक नमूने कढ़े थे चाँदनी की रोशनी में चमक रहा था। चाँदनी की रोशनी उस कपड़े पर चमक रही थी, जिस पर हजारों बारीक नमूने कढ़े थे, हर एक उसर्की जिंदगी का एक पल।

आशिमा सिर झुकाए बड़ी देर तक बैठी रही और जब उसने उसे उठाया तो भोर हो चुकी थी। उसकी मां पहली दफा चुप थीं और घर शांत था। बेटे दूर शहर में थे। वे उसकी बहिन के पति के लिए काम करते थे। उसका पूरा परिवार उसकी बहिन का ग़ुलाम था और वह उन्हें यह भूलने नहीं देती थी। उसकी मां कहती थीं कि पैसे वालों को अपना ऋणी बनाना अच्छा होता है, पर वह गलत थीं।
(threads of vengeance : story)

‘तुम गलत थीं, मांर्, जिंदगी में पहली बार चलो तुमने एक गलती तो की,’ आशिमा खाली चार-दीवारी पर चिल्लाई। ‘मैं हमेशा उसकी ऋणी रहूंगी। मैं हमेशा के लिए उससे बंधी हूँ क्योंकि मेरी बच्ची उसके पास है और मेरा दिल उसकी हथेली में है।’

आशिमा ने कपड़े को उठाया। सुई उसी में गडी थी। एक खाली जगह अभी भी बाकी थी जिसमें उसने अपना नाम काढ़ा पर फिर जल्दी से उसे एक घुमावदार पत्ती के नीचे छुपा दिया। उसने धागे को काटा और फिर कपड़े को एक तरफ रख दिया। वह अब उसे कतई नहीं देखना चाहती थी। उसकी बहिन उसे खोलेगी, वे चेहरे उसे ताकेंगे और वह जान जाएगी, सिर्फ वही जानेगी कांथा का कथन।

वह देखेगी अपनी माँ की आँखों में लालच, उसके पति के लालची हाथ, अपने पिता की लाचारी और फिर वह उसे देखेगी, आशिमा को। औरों को सिर्फ फूल, बगीचे, चिड़ियाँ और पत्तियाँ दिखेंगे, पर उसकी बहिन देख पाएगी उनमें छिपे चेहरे। वह आशिमा का दु:ख महसूस कर पाएगी, दर्द बांट पाएगी। वह हर एक बार जब कांथा देखेगी तो उसकी कहानी जानेगी और वही आशिमा का प्रतिशोध होगा। एक छोटा-मोटा, छिन्न प्रतिशोध, पर उन्नीस साल और तीन महीने बाद उसके पास इतना ही साहस था।

आशिमा ने नहाया, अपने सफेद बूढ़े बालों में ताजे फूल लगाए और फिर उसने अपनी सबसे अच्छी साड़ी पहनी, जो कि उसकी बहिन ने उसे भेंट दी थी। उसने एक सुनहरी चप्पलों का जोड़ा निकाला, जिसे उसकी बहिन ने ही उसे दिया था और वे भी पहन लीं। बिंदी बनाते हुए उसका हाथ कांप रहा था और वह उसके माथे पर तिरछी बनी रह गई।

उसकी माँ उसे बिस्तर से देख रही थीं, मुँह से खाना थूकते हुए और अपनी गांठदार उंगलियों को चादर में गाड़ते हुए।

मैं पारुल की शादी में जा रही हूँ, माँ…..याद है, मेरी बेटी…..पारुल? तुम्हें वह नाम कतई पसंद नहीं आया था जो मैंने उसे दिया था जब वह एक दिन की थी। ‘‘उसका नया नाम, मोंदिरा, ज्यादा अच्छा है…..ज्यादा ठीक बैठता है’’ तुमने कहा था। किसलिए ठीक बैठता है? सौगात जैसे दे देने के लिए ? माँ ….. तुम्हें कुछ याद भी है ? क्या किसी भी चीज से तुम्हें कोई फर्क पड़ता है ?’

आशिमा के मुँह पोंछने  पर उसकी माँ घिघियाईं। उसने धीरे से उनकी उंगलियों को छुड़ाया और सिर थपथपाया। ‘सो जाओ, माँ।’ मैं तुम्हारे लिए थोड़ा शादी का ‘‘पाएश’’ ले आऊंगी, उसने अपनी माँ के बालों में हाथ फेरते हुए कहा। और फिर वह कांथा उठाकर, दरवाजे को जोर से भटकते हुए कमरे के बाहर चली गई।

अंग्रेजी से अनुवाद : निधि पंत
(threads of vengeance : story)
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