जापान के वह सुन्दर 21 दिन

चन्द्रप्रभा ऐतवाल

हमारे सन 1976 के कामिट अभियान के सदस्यों ने हमें माह जुलाई 1981 में जापान से निमंत्रण दिया था। इस समय भारतीय पर्वतारोहण संस्थान के अध्यक्ष  श्री एस.सी. सरीन (आई.एस.एस.) थे। बड़ी कठिनाईयों के बाद पासपोर्ट तैयार करा पायी और जून के अन्तिम सप्ताह तक हम लोग दिल्ली पहुंच गये थे। हम लोग तीन सदस्य थे। रमासेन गुप्ता, डॉ. मीना अग्रवाल और मैं। मुझे विदेश जाने का खास अनुभव नहीं था। इससे पहले नेपाल से काठमांडू तक ही मैं जहाज में बैठी थी। इसी प्रकार रमासेन गुप्ता का भी हवाई जहाज के इतने लम्बे सफर का अनुभव नहीं था। हां मीना अग्रवाल लन्दन में रहती थी, इसलिए उसे हवाई जहाज के लम्बे सफर का पूर्ण अनुभव था, पर उसने कोई मदद नहीं की, बल्कि हमारे साथ वाली सीट छोड़कर कहीं और जाकर बैठ गयी।

हम दोनो को अन्दर से थोड़ा-थोड़ा डर जरूर था, किन्तु साथ होने के कारण एक-दूसरे का भरोषा था। जुलाई प्रथम सप्ताह में पूरी तैयारी के साथ रात 9 बजे वाले जहाज से जापान के लिये चल पड़े। जापान जाने के लिये एयर इण्डिया की ओर से मुफ्त टिकट मिला था, आराम से जहाज में बैठे। सोचा था कि किस तरह से उठना-बैठना है, यह सब डॉ. मीना अग्रवाल से पूछ लेंगे, पर सीट में बैठते ही वह कहने लगी मुझे सोना है। अत: मैं किसी और सीट में बैठती हूं, कहकर हमें छोड़कर चली गयी। हम दोनों एक-दूसरे का मुँह देखते रह गये। रमा सेन को भी पता नहीं था कि सीट कैसे पीछे होती है? डरते-डरते लोगों को देखकर अपनी सीट पीछे की। थोड़ी देर में सीट की हत्थी उठायी तो वहाँ गाना सुनाई दे रहा था, फिर मैंने रमा को बताया कि सीट की हत्थी में गाना सुनाई दे रहा है।

इस प्रकार कोई भी नयी बात होती रमा मुझे बताती और मैं रमा को बताती। इस तरह दोनों ही सीखने, सिखाने का काम कर रहे थे और बड़े ही प्रसन्न थे। रात 2 बजे के लगभग हम लोग बैंकाक पहुंचे। अन्धेरी रात होने के कारण बिजली की रोशनी के अलावा कुछ नहीं दिखाई दिया। इधर-उधर हिलने की हिम्मत भी नहीं की। रमा को शौचालय जाना था। वह बड़ी हिम्मत करके शौचालय गयी। वापसी में बहुत खुश थी और मुझे भी बताया कि दरवाजा खुलते ही लाइट बन्द हो जायेगी और दरवाजा बन्द होते ही अन्दर लाइट जल जायेगी और बटन दबाने से पानी आयेगा आदि-आदि। अब मैं उसके बताये अनुसार शौचालय जाने की हिम्मत करके निकल गयी। जैसा-जैसा उसने मुझे बताया था, वैसा ही करके मैं बाहर आयी, क्योंकि लग रहा था कि कहीं मैं शौचालय में ही बन्द न हो जाऊँ। इस तरह जापान जाने का जहाज का सफर बड़ा ही मजेदार अभियान रहा।

हमारे समय के अनुसार शाम 4 बजे थे, पर हमारे पुराने 1976 के अभियान के सदस्य हमें लेने हवाई अड्डे पर आये हुए थे। उनको देखकर बहुत अच्छा लगा। हम लोग गले मिले, फिर सामान को लेकर आगे बढ़ ही रहे थे कि हम लोगों से पूछताछ शुरू हो गयी कि किसी को खांसी, जुखाम या किसी प्रकार की परेशानी तो नहीं है? मैं और मीना तो पूर्ण रूप से ठीक थे, किन्तु रमासेन गुप्ता का पेट खराब था। बस फिर क्या था, उसका स्वास्थ्य परीक्षण करने हेतु अन्दर ले गये। वह काफी समय लगाकर वापस आयी। उसे उसी समय दवाई मिल गयी, कितनी अच्छी व्यवस्था है।

यहाँ तक कि हर शिविर में उसके स्वास्थ्य के बारे में पूछा जाता था। मैं जापान की इतनी सुन्दर व्यवस्था को देखकर दंग रह गयी। यहां तक कि हम जहां-जहां पहाड़ पर जा रहे थे, वहां भी उसके लिये पूछा जा रहा था। जब स्वास्थ्य के बारे में इतनी सोच है तो क्यों नहीं वहां के लोगों का स्वास्थ्य अच्छा होगा ? ये बात मैं बार-बार अपने मन में सोचती थी। जापान के बराबर साफ और स्वच्छ स्थान मैंने अभी तक कहीं नहीं देखा है।

हवाई अड्डे से सीधा मिचिकों सुधा के घर गये। वहां हमें अन्य दोस्त भी मिले। मिचिको सुधा के दो बच्चे थे, पर वह अभी भी अपने पुराने मकान में ही रहती थी, क्योंकि उसके पति वैज्ञानिक हैं जो दूसरे शहर में रहते थे। बच्चों की देख-भाल करने का समय बहुत कम मिलता है। इस कारण उसने अपने लम्बे सुन्दर से बालों को काट दिया था। उसके बाग में जयपुर से लाये हुये मिट्टी के हाथी सजे हुये थे।

सुधा का घर छोटा सा था, पर मुझे बहुत पसन्द आया। मकान पूरा लकड़ी का बना था। रसोई घर के एक हिस्से में ही खाने का मेज लगा रखा था और ऐसी सुविधा भी थी कि खाना पकाकर खिलाने वाला और खाना खाने वाले आपस में बातें करते हुए खाना खा भी सकते हैं और पका भी सकते हैं। साथ ही रसोई घर के अन्दर ही सारा सामान रखने की सुन्दर व्यवस्था थी। जब सारा काम खत्म हो जाता, तो ऐसा लगता था कि घर में कुछ भी नहीं था। ऐसा ही सोने वाले कमरे का भी हाल था। सारे बिस्तर कमरे के कबर्ड के अन्दर रखने की व्यवस्था कर रखी थी। एक और विशेष बात सोने वाले कमरे में देखी। जैसे ही आप सुबह उठते हैं, कमरे के अन्दर नीचे से रोशनी आती है जो बहुत प्यारी लगती है और आपकी आंखों में चुभती भी नहीं है।

इसके अलावा जापान में बाहर के जूते घर के अन्दर नहीं आते है। दरवाजे के पास ही अलग-अलग साइज के चप्पल रखे रहते थे, उसे पहनकर आप कमरे के अन्दर आयेंगे और यदि आप शौचालय जाना चाहते हैं तो उसके लिये भी शौचालय के दरवाजे के पास ही अलग चप्पल रखे होते हैं। जापानी लोग व्यवहार में भी बहुत ही नरम होते हैं और हर बात पर एक प्रकार का अदब देखने को मिलता है। छोटे-बड़ों का बड़ा ही ख्याल रखा जाता है। सफाई यहां की सबसे बड़ी विशेषता है। घर से लेकर सड़क या कहीं पहाड़ आदि जगह पर भी बहुत सफाई देखने को मिलती है। कहीं भी कोई भी कूड़ा पड़ा हुआ नहीं दिखाई देगा। ये लोग सफाई का इतना ध्यान रखते हैं कि यदि सिर का एक बाल भी गिरता है तो वे अपने थैले, जिसे ये गोमा कहते हैं में डालते हैं। एक बार की बात है पथारोहण के समय च्यूंइंगम खा रहे थे, उसे बाद में बरल का सींग बनाकर एक पत्थर में चिपकाया, तो कहने लगे ”ऐसा नहीं करते है”। इसी से पता चलता है कि ये स्वच्छता से कितना प्रेम करते हैं।

जापान में हमें अलग-अलग जगह पर पथारोहण तथा पर्वतारोहण करने का मौका मिला। मैंने देखा कि हर एक घण्टे के बाद कुछ न कुछ खाते हैं। साथ ही अपने देश को इतना प्यार करते हैं कि हर बात पर यही सोचते हैं कि बाहर के देश वालों को किसी प्रकार का मौका न मिले कि वे उनके देश के लिये कुछ गलत बात कहें या सोचें।

हमने वहाँ की चार चोंटियों को फतह किया और हर चोटी में हमारे साथ अलग-अलग सदस्य थे, किन्तु फुकीको हर बार हमारे साथ थी, क्योंकि उसे अंग्रेजी आती थी और किसी प्रकार से भाषा सम्बन्धी तकलीफ न हो, यह सोच कर उसने हमेशा ही हमारा साथ दिया। इतना ही नहीं जापानी अल्पाइन क्लब और हमारे 1976 के जापानी सदस्यों ने जापान का हमारा सारा खर्चा उठाया। जबकि जापान बहुत ही खर्चीला देश है। यदि बाजार में चाय पीने जाओ तो भारतीय रूपये के 25 रु. में एक कप चाय मिलती है। हम उन लोगों के सेवा भाव को कभी भूल नहीं सकेंगे। जापान की चोंटियों में सबसे ज्यादा ऊंची चोटी 15000 फीट के लगभग माउन्ट फूजियामा थी, लेकिन अब फूजियामा में काफी दूरी तक मोटर सड़क बन गयी है। इस कारण लोगों की भीड़ बहुत रहती है। अत: हम लोगों को वहां नहीं ले गये, हमें ओकोहोदाका, ततियासा, चुरिगीसावा आदि चोंटियों पर ले गये। सभी चोंटियों की अपनी अलग ही विशेषता थी। वहां बहुत से जापानी मिले जो भारत को हमसे अधिक देखे हुये थे। किसी-किसी को तो भारत बहुत ही अच्छा लगता है। वे कहते हैं कि धन्य है आपका देश जहाँ इतनी विविधता है, पर कई यहाँ के भिखारी, मदारी आदि को याद करते हैं। सभी का अपना-अपना विचार है।
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जापान में माउन्टेन हट्स इतने सुविधाजनक है कि आप कहीं से दो घण्टे में चोंटियों पर जाकर वापस आते है तो कहीं दो) आधे से तीन घण्टे में। इन हटों में आवश्यकता के सभी सामान उपलब्ध हैं। खाने, रहने से लेकर पहनने व पर्वतों में प्रयोग होने वाले उपकरण तक यहां पर उपलब्ध रहते हैं। यदि आप नहाकर कपड़े बदलना चाहें तो आपको धुला हुआ कपड़ा मिल जायेगा और रातों-रात आपके कपड़े भी धुलकर सवेरे तैयार मिल जायेंगे। यहां इतनी सुविधाओं को देखकर ताज्जुब होता था।

चुरिगीसावा में तो हमें ऐसा हट देखने को मिला, जहां पर पर्वतारोहण के सभी उपकरण तैयार थे और दरवाजे पर कोई ताला नहीं लगा था। कोई भी आकर  किसी भी उपकरण का प्रयोग कर सकता था, पर प्रयोग करने के बाद वैसा ही सुखाकर जहां से उठाया था, उसी जगह रखना होगा। इतने महंगे उपकरणों को देखकर दंग रह गयी। यदि आपको जूता चाहिए तो वे भी मिलेंगे जो कि अलग-अलग साइज के थे। एक रात हम लोग उसी हट में रुके। यहां पटाखे जलाकर दीवाली जैसा वातावरण लग रहा था। दूसरे दिन जिसे जो सामान चाहिए था उसने उसे लिया, क्योंकि आज हमें अधिकतर बर्फीले स्थान से होकर जाना था। सभी लोग मजे-मजे से चलते चले गये। रास्ते में बहुत सी कहानियां भी सुना रहे थे। कह रहे थे कि जाड़ों में सबसे ज्यादा इसी पहाड़ पर दुर्घटनाएं घटती हैं। पहाड़ का ढ़ाल काफी तेज ढ़ाल वाला था। अभी तो ऐसा लग रहा था कि ये सब बेकार की बात है, पर उनका कहना शत-प्रतिशत सच था। हम गर्मी में चढ़ाई कर रहे थे और दुर्घटनाएं जाड़ों की बता रहे थे।

एक जगह नाश्ता करने के बाद उनके लीडर कहने लगे कि चन्द्रा क्या तुम रास्ता खोलोगी ? पूरी चोटी तक बर्फ ही बर्फ थी। मैने कहा हां, अपने शिव को याद किया और नरम बर्फ पर आईस एक्स की सहायता से चोटी तक रास्ता खोलती चली गयी। चोटी पर जाकर ही दम लिया। बेचारे लीडर भी मान गये कि कुछ दम तो है। मैं चोटी पर सभी का इन्तजार करती रही। मैंने जिग-जैक नहीं काटा, बल्कि सीधे ही रास्ता बनाया। यदि जिग-जैक काटती तो बर्फ कटकर अब्लान्च का रूप धारण कर सकता था। अत: ठीक सीध लेकर ही चली। इससे रास्ते में चलने का समय भी बच गया और पीछे वालों को बने हुए रास्ते में सीढ़ी सा चढ़ने को मिला, जिससे सभी आराम से चढ़ते हुये आये।

चोटी पर थोड़ी चट्टान भी थी, मैं वहां जाकर बैठ गयी। सभी के आने पर पूजा-अर्चना करने के बाद अब दूसरी तरफ का रास्ता अपनाकर वापस हुये। इस बार चट्टानी रास्ते को लिया। ऐसे चलने में दोनों ओर के दृश्य देखने का अच्छा मौका मिलता है। एक जगह पर काफी कठिन खड़ी चट्टान थी। वहां पर पहले से ही रस्सियां लगा रखी थी, इस कारण उतरने में आसानी हो गयी। मन कर रहा था कि उस चट्टान को चढ़ा जाय और फोटो खींचा जाय, पर चट्टान खड़ी थी। दोनों ओर दो सिपाही जैसे लग रहे थे, पर उतरने के लिये लोहे के संकल लगे थे, जिस कारण हम लोगों को उतरने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं हुई और आराम से पूरा दल उतर आया।

हम सभी ठीक समय पर वापस पहुँच गये थे। फिर सभी ने हट के आस-पास तथा पूरे हट को रगड़-रगड़कर साफ किया। जो उपकरण वहां से उठाकर ले गये थे, उसे धूप में सुखाया। फिर जहां से निकाला था उसी स्थान पर एक-एक करके रख दिया। इससे लग रहा था कि इन लोगों का चरित्र कितना ऊंचा और अच्छा है। किसी को किसी प्रकार का लालच नहीं है।

हमें अपने आगे वाली नयी पीढ़ी में इस भावना को जगाना होगा, तभी हमारा चरित्र सुधर सकता है और हम लोगों की बराबरी ही नहीं, बल्कि आगे निकल सकते हैं।

इस प्रकार उस दिन उस हट को जैसा था, उससे भी अच्छा करके हम आगे निकल आये। रास्ते में एक जगह विश्वविद्यालय वालों की हट या प्रशिक्षण शिविर की जगह थी, वहां रुके। यहां जाड़ों में स्कीइंग का शिविर लगता था। इसके अन्दर ही बहुत बड़ा स्वीमिंग पूल सा था, जहां सभी स्नान के बाद अपने शरीर को पूर्ण रूप से आराम देने हेतु इस गर्म पानी के टब या तालाब (जो कमरे के अन्दर ही है), में डूबकर घण्टों तक आराम करते थे। उसमें एक साथ बहुत से लोग होते हैं, हम लोगों को इसकी आदत नहीं थी और शर्म महसूस करते थे। इस कारण डूब नहीं पाये और लोगों के आने तक हम लोग उठकर चले आये, क्योंकि हमारे यहां ऐसे नंग-धड़ंग होकर रहने के संस्कार ही नहीं हैं, जबकि उन लोगों को कुछ भी बुरा नहीं लगता है।

उस हट या प्रशिक्षण स्थान पर सभी प्रकार की सुविधाएं थी। बस हम सभी को अनुशासित होकर उन उपकरणों का प्रयोग करना आना चाहिए। यहां से चोटी चढ़ाई का भी प्रशिक्षण दिया जाता है, पर ज्यादातर स्कीइंग का ही प्रशिक्षण होता है। इन लोगों का कहना है कि हम लोगों को केवल एक सप्ताह का प्रशिक्षण मिलता है, फिर हमें चट्टान आरोहण हो या अन्य किसी भी प्रकार का प्रशिक्षण हो हम अपने आप बार-बार के अभ्यास के द्वारा ही उस को बढ़ाते हैं। इसी से उन लोगों की तकनीक बहुत अच्छी होती है, क्योकि वे लोग बार-बार के अभ्यास से अपना ज्ञान बढ़ा लेते हैं। लेकिन कभी-कभी इन लोगों का अनुभव कम होने के कारण हिमालयों में अधिक दुर्घटनायें भी हो जाती हैं।

ये लोग कम ऊँचाई वाली चोंटियों पर ही अभ्यास करते हैं, पर हिमालय की ऊंचाई अधिक होती है, इसलिये (एक्लोमोनेटाइज होने) अनुकूलतन/ अभ्यस्त में समय अधिक लगता है। पर अपने जीवन को दांव पर लगाकर चोटी चढ़ने की की कोशिश करते हैं। मैंने उनके विश्वविद्यालय के पास अलग-अलग प्रकार के मानव निर्मित चट्टान बने हुए देखे, जिसमें बच्चों को चट्टान आरोहण का प्रशिक्षण देकर उनके आत्म बल को बढ़ाया जाता है। उन चट्टानों पर हमें भी चढ़ाई करने का मौका मिला। एक चट्टान बिल्कुल सीधी ढाल वाली थी, पर पकड़ने के लिये जगह बनी हुई थी। उसमें बड़े ही आराम से चढ़ती चली गयी और दूसरी तरफ से वापस आयी। उस समय वहाँ का प्रशिक्षक कहने लगा कि मान गये भाई तुम वास्तव में पर्वतारोही हो।

इस तरह वहां की सभी मानव निर्मित चट्टानों में चढ़ते-उतरते रहे। बहुत ही अच्छा लग रहा था। साथ ही विश्वविद्यालय को पूरा देखने का मौका भी मिला। सारी जगह साफ-सुथरी थी और चारों ओर फूल खिल रहे थे। जहाँ-जहाँ पर भी चोटी चढ़ने गये, वहाँ लोगों की भीड़ देखने को मिली। ऐसा लगता था कि सारे लोग पहाड़ पर ही चढ़ रहे हों। जगह-जगह रस्सी पर रास्ता (रोप-वे) भी लगा रखे थे। इससे समय की बचत होती थी। साथ ही ऊंचाई से दूर-दूर तक के सुन्दर दृश्य देखने का मौका मिलता था। पूरे एक दिन के पथारोहण के स्थान को केवल 45 मिनट में ही पूरा कर लेते थे। इस प्रकार की सुविधा को देखकर मन प्रसन्न हो जाता है। रोप-वे के उतरने व चढ़ने के स्थान पर अपनी आवश्यकता के सामान खरीद सकते हो, ऐसी सुविधा भी थी।
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इस प्रकार मैने वहां की कुछ विशेषताएं देखी जो निम्न हैं –

1.   जापान में लोगों को समय का बहुत पाबन्द देखा। हमारे लिये छ: महीने पहले समय सारणी आयी थी कि कहां जाना है और कैसे जाना है। इसमें जहाज से, रेलगाड़ी से, बस से तथा कार से सफर करना है, पर कहीं पर देरी है या सड़क बन्द है, इस प्रकार की बात सुनने को नहीं मिली।

2.   सफाई का बहुत ही अधिक ध्यान दिया जाता था। घर हो या सड़क सभी जगह गर्म पानी और ठण्डे पानी का नल होता है, जिससे गर्म पानी से हाथ पैर धोने से कीड़े-मकौड़े अपने आप मर जाते हैं और रोग फैलने का डर नहीं रहता।

3.   वहां के लोग बूढ़े नहीं होते है, बल्कि बूढ़े, जवान सभी को पहाड़ की ओर आते-जाते हुए देखा।

4.   ये लोग बड़े ही प्रकृति प्रेमी होते हैं। सप्ताह के अन्त में सभी प्रकृति की ओर भागते हैं और अपने दैनिक काम से निवृत होकर प्रकृति के निकट रहना पसन्द करते हैं।

5.   ये लोग बहुत ही मृदु भाषी होते हैं। बड़े व छोटों का लिहाज करते हैं और बड़ी ही मीठी भाषा में बातें करते हैं। हर किसी से बातें करने के बाद सिर जुझाकर उसका सम्मान करते हैं। जब वे लोग आपस में बातें करते हैं तो ऐसा लगता है कि गुस्सा उनको छू तक नहीं गया है।

इस तरह जापान की केवल 21 दिन की यात्रा में हमने टोकियो, ओसाका, ज्यूसी आदि शहरों को देखा। साथ ही इन शहरों के धार्मिक स्थानों को भी देखा। एक जगह पर संसार की सबसे बड़ी बुद्घा की मूर्ति है, इसमें हिन्दुस्तान, पाकिस्तान आदि देशों से भी लकड़ी आयी है। जब उन धार्मिक स्थानों को देख रहे थे तो ऐसा लग रहा था कि यहां बौद्घ धर्म के अनुयायी अधिक हैं, पर ईसाई धर्म को मानने वाले भी बहुत हैं। यहां पुजारी बाल-बच्चे यानी गृहस्थी वाला होता है। उन लोगों को भी बड़ी नजदीक से देखने को मिला।

एक दिन टोकियो का सबसे ऊंचा होटल जो 54 मंजिल का था, उसमें हमें खाना खिलाने ले गये। इस होटल से पूरा टोकियो शहर एक नजर में ही देख सकते थे। वहां से फुजियामा पहाड़ भी दिखाई देता था और बुलेट टे्रन भी दिखाई देती थी। हमारे जापानी दोस्तों ने हमारे लिये अपना बहुमूल्य समय निकालकर हमें जो-जो हो सकता था, उसे दिखाने की कोशिश की। ज्यूसी में हमें समुद्र में तैरने को ले गये। समुद्र में तैरना भी एक अजीब सा मजा होता है। अभी तक मैने समुद्र नहीं देखा था। आज जापान में पहली बार समुद्र के पानी को छूने व तैरने का मौका मिला। बहुत अच्छा लगा, पर थोड़ी ही देर में पूरे शरीर में खुजली शुरू हो गयी। अब हम लोगों को समुद्र में अधिक समय तक रुकना मुश्किल था। पहले तो मैने सोचा शायद मुझे ही खुजली हो रही है, बाद में पता चला कि हम तीनों को ही असहनीय खुजली हो रही है। बस समुद्र से निकले और उल्टे-सीधे कपड़े पहनकर घर की तरफ भागे।

डॉ. मीना सबसे पहले स्नानागार में घुसी, फिर मैं और सबसे बाद में रमा सेनगुप्ता गयी। स्नानागार में साफ पानी लगने के बाद ही चैन आया, पर जापानी लड़कियों का कहना था कि समुद्र में मछली के अण्डों के कारण खुजली होती है, ज्यूसी में जिस दोस्त के यहां रुके थे, उसका घर भी छोटा सा था, पर बहुत सुन्दर था। उसने अपनी शादी के समय कैसे कपड़े पहनते हैं, रीति-रिवाज आदि बताया। और कीमती और रेशमी कपड़े थे। हम लोगों ने भी थोड़ी देर तक अपने बदन में लगाकर देखा। बड़ा अच्छा लग रहा था। पूरे के पूरे रेशमी जड़ी का काम था।

उसके बाद ओसाका में काफी पैसे वालों के यहां ठहराया था। उनका मकान भी बड़ा था और मछली के लिये बहुत बड़ा तालाब था। पास ही बहुत बड़ा बागीचा भी था, जिसमें अलग-अलग प्रकार के सुन्दर-सुन्दर पेड़ व फूल लगे थे। इस घर में हम लोगों को एक-एक कीमोनो उपहार में दिया, फिर उसे सभी को पहनकर दिखाया।

जापान में सुबह सभी जल्दी उठकर नाश्ता करके अपने-अपने काम पर चले जाते हैं। वहां 8 बजे से कार्यालय लगता है। इस कारण रात खाना-पीना करने के बाद नहाकर सीधे बिस्तर पर सो जाते हैं। इससे नींद भी अच्छी आती है और दिन भर की गन्द्गी भी बिस्तर तक नहीं जाती। बच्चे भी अपना गृहकार्य आदि खत्म करने के बाद ही नहा-धोकर सीधे बिस्तर पर जाते हैं।

एक दिन ओसाका में हमें ग्रास स्कीइंग के ढलान से ले गये। बड़ा ही मजा आया। हरी घास में प्लास्टिक का स्लोप बनाया गया था। उसमें जगह-जगह पर कूदने के लिये रुकावट भी बनाया गया था। उसमें भी स्कीइंग की, पर ठण्ड का कुछ चक्कर ही नहीं था। यह एक प्रकार का अलग अनुभव था। इस ढलान के लीडर मिस्टर सुधा थे, जो हमें यहां तक ले गये थे। वह शहर से ज्यादा दूर नहीं था, पर ऊंचाई पर होने के कारण ओसाका शहर आराम से देख सकते थे।

ओसाका में जिनके घर रुके थे, उनकी मां व बेटी को हमने अपनी साड़ियां पहनाई। दोनों बड़ी ही खूबसूरत लग रही थीं। हम लोगों ने कीमोनो और उन लोगों ने साड़ी पहनकर फोटो खिंचवाई। बड़ी ही रौनक वाले थे। घर के मालिक काफी बड़े ऑफीसर थे। रात के खाने पर ही मुलाकात हो पाती थी। खाना खाने के बाद काफी देर तक बातें करते थे, फिर नहा-धोकर सोने का चक्कर चलता था। एक दिन हमें द्वितीय विश्व युद्घ के दौरान नागासाकी में जो तबाही हुई थी, उसे भी दिखाया। बहुत ही भयंकर था। उसकी कल्पना मात्र से ही डर लगता था। जहां भी जो भी नयी चीजें होती थी, हमें दिखायी गयी। एक दिन हमें उस स्थान पर ले गये जहां सिनेमा की शूटिंग होती है। हवा का चलना, घोड़े की टापों की आवाज कैसे निकाली जाती है ? एक-दूसरे को चाकू से मारने पर खून कैसे निकलता है तथा दुर्घटना होते समय कार को गिराना या जलाना कैसे होता है? उस समय खिलौने की कारों का प्रयोग किया जाता है, पर कैमरे के द्वारा उसे बड़ा दिखाकर असली कार दिखाया जाता है। सूप पर कंकड़ रखकर घोड़े की टापों की आवाज निकाली जाती है। इसी प्रकार सूप से ही तेज आंधी तक की आवाज निकाली जाती है।

एक-दूसरे को मारते समय असली खून या रंग की थैली को उस अंग पर बांधा जाता है, जहां पर चाकू से वार करना है। इसी तरह सारे सिर को मूंडा हुआ दिखाने के लिये उसमें एक प्रकार का लेप लगाया जाता है, फिर चुटिया को बाहर निकाला जाता है। विभिन्न प्रकार की पोशाकों का फ्रेम तैयार होता है। उसमें चेहरे की ही जगह खाली होती है। उसमें जिसको जो पोशाक चाहिए, मुंह निकालकर खड़े हो जाते हैं। बस ऐसा लगेगा कि उस व्यक्ति ने ही वह पोशाक पहनी है। ऐसे में मैने एक फोटो खिंचवाया था। इसी तरह कार, मोटर साईकिल, रेल, बस आदि का भी मॉडल तैयार होता है। उसमें ब्ौठाकर ऐसा लगेगा कि आप खुद उसमें सफर कर रहे हैं। इस तरह हमें एक नयी चीज की जानकारी मिली। सब कैमरा मैन की भूमिका का ही कमाल लगता है।

बहुत सी जगहों पर पथारोहण के समय दूर के क्षेत्र को पास से देखने के लिये अलग-अलग प्रकार की दूरबीन लगी होती हैं। उसका टिकट लेकर आनन्द उठाया जा सकता है। जहां आप खुद नहीं पहुंच पाते हैं, वहां आंखें पहुंच जाती हैं और उस घाटी का पूरा आनन्द उठा सकते हैं। इस तरह केवल 21 दिन में ही हमने जापान की 4 चोंटियों को फतह किया और वहां के मुख्य-मुख्य स्थानों का आनन्द उठाया। साथ ही कभी धनी परिवार वालों के साथ तथा कभी मध्यम वर्गीय परिवारों के साथ रहकर उनके रीति-रिवाज आदि की भी जानकारी प्राप्त की। साथ ही उन लोगों को अन्दर तक जानने का अच्छा मौका मिला।
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बहुत सी जगहों पर हमने स्लाइड शो कराकर हमारे यहाँ की संस्कृति को वहाँ के लोगों तक पहुँचाने की कोशिश की। जापान में स्लाइड शो के समय उनको उनकी भाषा में समझाने में हमारी दोस्त यूकीको बहुत मदद करती थी। एक दिन पूरे अल्पाइन क्लब की महिलाओं के साथ खाना खाया और उन्होंने भी हमारी साड़ियां पहनकर भारतीयता का आनन्द उठाया। बहुत सी महिलायें साड़ी पहनना बहुत पसन्द करती हैं, पर इसमें समय अधिक लगता है, कहती थीं। हमने कहा आदत हो जाती है, तो फिर समय नहीं लगता।

एक रात 1976 नन्दा देवी अभियान के लड़कों ने हमें रात का खाना खिलाया। बड़ा ही मजा आया और पूरा वातावरण पर्वतारोहण का हो गया था। उस समय की बहुत सी घटनाओं को याद करने लगे, पर जितना समय निश्चित होता है, उतना ही बैठते हैं, फिर सभी अपने-अपने घर चले जाते हैं। हमारे यहां की तरह महफिल चल रही है तो चलती ही जाती है, ऐसा नहीं करते हैं। इसी से लगता है कि वे लोग समय के महत्व को कितना समझते हैं।

पर्वतारोहण से सम्बन्धित सामान को देखकर कुछ सामान खरीद लाये। मेरे साथ वालों ने तो अनेक प्रकार के सामान खरीदे पर मेरे पास पैसा अधिक नहीं था। अत: एक अच्छा सा कैमरा व पर्वतारोहण सम्बन्धी सामग्री ही खरीदी। वापसी में तीन-चार दिन सिंगापुर रुकने की योजना बनाई।

सिंगापुर में रमा सेन गुप्ता की मित्र का परिवार था। इसलिये हमें रहने की सुविधा मिल गयी। सिंगापुर बहुत ही सस्ता शहर है, पर जापान से यहां पहुंचकर ऐसा लग रहा था कि सभी कितने रूड हैं यहाँ अधिकतर चीनी लोग हैं। ऐसा लगता जैसे हमेशा लड़ाई ही करते हैं। समुद्र के किनारे बसे होने के कारण पानी खारा है। अत: सबसे मंहगा पानी है। सिंगापुर में मैने 19 सिंगापुरी डॉलर में एक पेन्ट तथा 3 डॉलर में चप्पल खरीदा। हालांकि सामान खरीदने का तो बहुत मन कर रहा था, पर मेरे पास और लोगों की तरह से डॉलर नहीं था।

सिंगापुर में आस-पास के स्थानों को देखा। बाजार बहुत सुन्दर और सस्ता है। एक जगह सब्जी मण्डी देखी। वहां पर सांप, मेंढक आदि भी बिक रहे थे। वे सब इधर-उधर चल रहे थे। बेचने वाले उसे हाथ से पकड़-पकड़कर वापस अपनी टोकरी में डाल रहे थे। सांप लपलप करके चल रहा था, पर उन लोगों को डर ही नहीं लगता था। चलते-चलते मांस के बाजार की तरफ निकल पड़े। दुकान के सामने मांस का बड़ा सा नाग का फन बना रखा था। उसकी उस सजावट को देखकर अन्दर ही अन्दर एक प्रकार का डर समा गया और जितनी जल्दी हो उस स्थान को छोड़ें, ऐसा महसूस होने लगा।

रमा का मित्र हमें वहां के बहुत से स्थानों को दिखाने ले गया। थोड़ी देर हमें पानी के जहाज में बिठाकर समुद्री जहाज का भी आनन्द दिलाया। उस जहाज में सभी पर्यटक लोग थे जो समुद्र का आनन्द लूटने हेतु बैठे थे, पर किसी को किसी से कोई मतलब नहीं था। एक जगह समुद्र के किनारे बहुत से युवा जोड़े प्रेमालाप करने में व्यस्त थे। हमें यहां का दृश्य अच्छा नहीं लगा। मुझे इस दृश्य को देखकर शर्म भी महसूस हुई पर मीना कहने लगी कि चलता है, क्योंकि वह लन्दन में रहती है। उसने ऐसे दृश्य पहले भी देखें होंगे, पर मेरे लिए वह पहला व आखिरी था। जापान में इतनी जगह घूमे पर ऐसा गन्दा दृश्य कहीं भी देखने को नहीं मिला। इस तरह सिंगापुर में अलग-अलग जातियों के रहने के कारण आजादी भी काफी है। ऐसा वहां देखकर लगा, पर वहां की इतनी आजादी मेरी पसन्द से बाहर की बात है। 

सिंगापुर से वापस आते समय सभी के पास सामान काफी हो गया था। खैर मेरे पास उतना सामान नहीं था, पर पर्वतारोहण के सामान होने के कारण सभी को अपने चट्टान आरोहण के जूते पहनकर आना पड़ा। क्योंकि ये जूते काफी भारी थे इसलिये लोग हमें देखने लगते थे, खैर किसी प्रकार वापस आ गये। 27 जुलाई को दिल्ली पहुंचे, पर दिल्ली में हमें काफी पापड़ बेलने पड़े। साथ ही मुझे ताज्जुब भी हो रहा था। जिनके पास दो-दो कैमरे हैं वे तो साफ निकल गये और मैने अपनी सीधेपन में कैमरे को दिखा दिया तो मेरे साथ बवाल काटने लगे और मेरे साथ वालों ने उसे दिखाया ही नहीं तो वे निकल पड़े। किसी तरह से निकलने की कोशिश की पर वे काफी पैसा मांग रहे थे। मेरे पास पैसा तो था नहीं। भारतीय पर्वतारोहण संस्थान के नाम पर कैमरा को जमा करने की सोची, पर बाद में उन लोगों ने मुझे भी छोड़ दिया, जबकि परेशानी बहुत हो गयी थी। रात एयरपोर्ट पर संजीव सेठ लेने को आया था। बेचारा बहुत परेशान हो गया था, क्योंकि हम लोगों को निकलने में बहुत समय लग गया था। वहां से निकलकर सीधा भारतीय पर्वतारोहण संस्थान पहुंचे, पर काफी समय हो चुका था।
क्रमश:
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