ये क्षणिकायें नहीं

सुजाता

तीन साल का हिमांशु गोद में मचल रहा था। माँ का बार-बार रोना अब उसे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता था। ध्यान बांटने को वह कभी जमीन से छोटा पत्थर उठाकर हवा में उछाल देता, कभी मिट्टी मुठ्ठी में भरकर उड़ा देता, तो कभी माँ का मैला पुराना धोती का कोना फाड़ने की कोशिश करता। लता बता रही थी- “अपने पिता के मरने के बाद से यह बड़ा जिद्दी व गुस्सेवाला हो गया है। सौतेली सास का कहर और भी बढ गया है। उसे पता है मेरा साथ देने वाला न मेरा घरवाला रहा और न मायके में सगा भाई बचा है। ससुर तो पहले से ही मिट्टी के माधो सा है़…. दिनभर ताश और शाम को दारु….।

आठ माह के गर्भ से, तेईस साल की लता ने पीले पडे चेहरे पर, सूखी धंसी आखों को बडी हिम्मत से उठाकर, अपने ठण्डे हाथों से मेरे हाथों को पकडकर पूछा-”बताओ तो जरा, मेरा घरवाला तो मर गया है और ये दूसरा बच्चा अगले महीने पैदा होगा। पर सरकार मेरे घरवाले को अभी मरा हुआ नहीं मान रही है, वह अभी गुमशुदा है। छोटे बच्चे के बाप के नाम के आगे स्वर्गीय लिखना होगा या गुमशुदा…..??”
…..2……
इस गाँव के ग्यारह लोग मारे गये थे, सब खच्चर चलाने वाले। न एक भी खच्चर बचा और न उसका मालिक। तीन लड़के भी 13 से 16 साल के काम पर गये थे, वे भी खत्म हो गये। ‘वो’ बता रही थी कितने ही दिन इन्तजार किया बेटे का और घरवाले का-अब लौटेंगे, तो तब लौटेंगे। जो भी वहां से जिन्दा वापस आता उसी के पास जा पहुँचती, खबर जानने के लिए। आस-पास के गाँवों तक भी जा-जा के पता किया। पर आस धीरे-धीरे चटकती गई और फिर टूट गई़….। तब पण्डित जी ने सलाह दी धार्मिक रीति से पूजा अनुष्ठान करना जरूरी है नहीं तो ‘उनकी’ आत्मा को भी शान्ति नहीं मिलेगी, और न तुम ‘छाया’ से दूर हो पाओगी। मुश्किल से कुछ रुपये जोड़-तोड़ कर, मन पक्का कर धर्म से भी मान लिया कि अब तो ‘वो दोनों’ मर ही गये हैं। पर अगर कहीं पहाड़ों पर भटक गये होंगे और वापस लौट आये़……? कंरट सी फुर्ती से ‘वो’ उछल पड़ी-”अरे, तब तो बडा खर्चा आयेगा दोबारा सारी पूजा और जन्म का सारा अनुष्ठान करवाना होगा़….. ना, ना अब हम ऐसे ही ठीक हैं।”
….3…..
“सच कहूँ जी, बड़ा ही लायक था मेरा बेटा। दसवीं में 70 प्रतिशत नम्बर लाया था। और वह भी तब जब न स्कूल में लगातार पढ़ाने वाले मास्टर थे, न बेचारे को किताबों के लिए हम पैसे दे पाते थे। कहाँ-कहाँ दोस्तों के पास पढने जाता था। कहता था-“माँ, बस पढ़-लिखकर किसी भी नौकरी पर लगूंगा और सबसे पहले तुझे इस नरक से निकालूंगा। फिर छोटे भाई को भी तो पढाना है। “अपने बाप के निकम्मेपन से बडा दुखी रहता था। आये दिन बाप दारू पीकर झगडा करता, मेरे साथ मारपीट तो कभी बच्चों के साथ गाली-गलौज़….. हमारा तो जीना मुश्किल कर रखा था। दोनों बाप-बेटा केदार गये थे। मेरा बेटा वहीं दफन हो गया, उसका बापू बचकर लौट आया।”

“जी, मैं तो बेटे के लिए आँसू भी ढंग से नहीं बहा पाई। उसके बापू ने घर आते ही इतनी ज्यादा दारू पीनी शुरू कर दी है कि मेरी और छोटे बेटे की जिन्दगी पूरी तरह तबाह हो गई है। घर में खाने को कुछ नहीं है, रात-दिन दारू के नशे में पडा रहता है। मेरे मरे बेटे का सरकारी पैसा भी उसे ही मिला है। उसने वह भी पूरा दारू में उड़ा देना है। मै कुछ कहूँ या गांव के लोग समझायें तो कहता है-” जवान बेटे को खोने का गम क्या होता है, मुझसे पूछो़…..”। मै माँ हूँ अपना दुख दिखाने के लिए किस ठेके पर जाऊँ?? एक बलि ही भगवान ने मेरे घर से लेनी थी-काश मेरा बेटा लौट आता, ‘यह’ …..।
…….4……
“अरे, बेटा मैने खोया है अपना। अट्ठाइस साल तक पाला-पोसा था। ब्याह को तो अभी पांच महिने हुए हैं। सरकार के पैसे बहू को क्यों मिलेंगे? नियम मत सिखाओ मुझे”। मुठ्ठी गर्म होते ही नियम बदल गये। चैक पर 19 साला विधवा सुभद्रा का नाम कटकर, 62 साला बाप द्गिम्बर सिंह लिखा गया।

अरे, बहू ने इतने पैसे का करना भी क्या था। बिना बात पैसों का रौब दिखाती और लडाई करती। अब चुपचाप सास-ससुर की सेवा कर आराम से जिन्दगी बिता लेगी।
……5……
“लक्ष्मा, तुम्हें सरकार की तरफ से सहायता के पैसे मिल गये हैं?” साथ खडे लगभग अपनी सी ही उमर के एक लडके की तरफ देखकर उसने ‘हाँ’ में सिर हिलाया। ”यह कौन है?” जी, मेरा बडा लडका। ”पर तुम्हारी तो खुद की उमर इसके बराबर है”?

“जी, मै 24 साल की हूँ यह 21 का है। मेरे घरवाले की मै दूसरी औरत हूँ, पहली वाली पिछले साल ही मर गई थी। पैसा बैंक के खाते में आ गया है। मैंने इस बडे लड़के को सारा सौंप दिया है। मैं तो जा नहीं सकती बैंक में, एक दिन बस खाता खुलवाने गई थी-” हांफती लक्ष्मा ने बताया, जो सीधे जंगल से घास लेकर लौटी थी। पैंसो का जिक्र आते ही पास खडे हमउम्र बेटे ने बोलना शुरू किया- “मेरी दो ब्याहता बहनें भी हैं वे भी पैसो में हिस्सा मांग रही हैं। मै बेरोजगार हूँ सोचता हूँ गाडी ले लूँ, टैक्सी चलाऊँगा। घर भी टूट रहा है, ठीक करवाना है। पिताजी ने उधार भी लिया होगा वह भी चुकता करना है।”

और अपनी इस माँ को? ”इसे क्या चाहिए, दो टैम की रोटी मिल जायेगी। पिताजी हर साल केदार जाते थे और सही सलामत आते थे, इसकी बुरी छाया पड़ी तभी इस साल नहीं लौटे। शुक्र मनाये यह, मैं तो बिरादरी के कहने के बाद भी इसे घर से नहीं निकाल रहा हूँ। पता है मायके में एक टैम की रोटी भी इसे नहीं मिलेगी। घर संभाले और जानवर देख ले- रोटी, कपडा तो मैं दे ही दूँगा”। लक्ष्मा अहसान भरी नजरों से उसे देख रही थी।
….6….
चौदह साल का मेरा कमल बार-बार मना करने पर भी अपने चाचा के साथ चला गया था। गांव के और लडके भी जा रहे थे। स्कूल की टुट्टी होते ही बोला- “मां जाने दे, थोडे पैसे कमा लाऊँगा, तू बहन की शादी के लिए गले का कुछ बनवा देना। कुछ तो देना ही है हमने उसे”। दो साल का था जब उसके पिताजी बस दुर्घटना में मर गये थे, बहन पांच साल की थी तब। कितनी लडाइयां तब मैने ससुर और जेठ से लड़ी थी। सब मिलकर मुझे तब मायके भेज देना चाहते थे। पर मैंने अपने हिस्से का कमरा और दो खेत छीन ही लिए थे।

उसका चाचा, चाचा का बेटा और मेरा कमल तीनों तेज पानी के बहाव में फंस गये थे। मेरे कमल ने जेब से निकाल कर छोटी सी थैली, नदी से दूर भागते गांव के लडके पंकज की तरफ फैंकते हुए आखिरी बार कहा था-“इसे माँ को जरूर दे देना, कहना इतना ही कमा पाया मैं”। वह मुझे अन्दर अंधेरे कमरे के एक कोने में ले गई, जहां कुछ देवता फोटो में विराजमान थे। वहीं वह छोटी प्लास्टिक की थैली रखी थी, नन्हीं हथेलियों की गर्माहट को संजोये-आखिरी, अमूल्य सम्पत्ति।
….7….
मृतकों की लम्बी लिस्ट लगभग 17 पेज की मेरे हाथ में पकडाते हुए सरकारी कर्मचारी ने कहा-“देख लो एक भी महिला मृतक का नाम नहीं है हमारे इस क्षेत्र से। सारे पुरुष मरे हैं या लडके। लगभग 700 लोगों की सूची में कोई महिला व लड़की नहीं है। है ना महिला सशक्तीकरण़।” मेरी आखों के आगे जिन्दा लाशों सी महिलाओं और उनकी सहमी डरी लड़कियों के निस्तेज चेहरे घूम गये। ‘मृतक सूची’ में हर पुरुष के क्रमांक के नीचे कितनी महिलाओं और बच्चियों के नाम दफन हो गये-वो अलिखित, अदृश्य हैं।

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