इन लड़कियों में आशा शक्ति है

मधु जोशी

पुलिट्जर पुरस्कार से सम्मानित लेखिका मैडिलन ब्लेस की 1995 में प्रकाशित पुस्तक इन दीज गर्ल्स , होप इज अ मसल, (न्यूयार्क वार्नर बुक्स, 1995, शाब्दिक अनुवाद: इन लड़कियों में आशा शक्ति है) ने गद्य लेखन हेतु नेशनल बुक क्रिटिक्स अवार्ड्स की अन्तिम सूची में अपना स्थान बनाया था। यू.एस.ए. टुडे पत्रिका के अनुसार ”खूबसूरती से लिखी” यह पुस्तक ”लड़कियों और खेलकूद की प्रशस्ति गाथा है।” रियो डि जिनैरो में सम्पन्न ओलम्पिक प्रतियोगिता के दौरान जिस तरह से सिन्धु, साक्षी, दीपा, अंकिता, सायना, सानिया जैसी प्रतियोगियों के नाम भारत में घर-घर में चर्चा का विषय बन गये हैं, उस संदर्भ में यह कहना अनुचित नहीं होगा कि इन दीज गर्ल्स … ऐसी कृति है जो लड़कियों के खेलकूद में भाग लेने के महत्व को समझने वाले पाठकों को रोचक लगेगी।

इन दीज गर्ल्स …. कहानी है अमेरिका के मैसाचूसेट्स राज्य के एमस्टर शहर के हाई स्कूल की ”एमस्टर लेडी हरिकेन्स” नामक बास्केटबॉल टीम की। यह एक भले शहर में रहने वाली लड़कियों की भली-सी टीम है, जो विगत पाँच वर्षों से लगातार अच्छे प्रदर्शन के बावजूद राज्य स्तरीय प्रतियोगिता के फाइनल में हार जाती है। अन्तत:, 1992-93 की बास्केटबॉल प्रतियोगिता से पूर्व टीम के प्रशिक्षक रॉन मॉयर इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कमी लड़कियों के कौशल अथवा प्रशिक्षण में न होकर उनकी मानसिक स्थिति में है। इसके बाद वह जुट जाते हैं इस मर्ज का उपचार करने में। वह प्रत्येक खिलाड़ी की खूबियों और खामियों का विश्लेषण करके टीम में आत्मबल और ऊर्जा का संचार करते हैं और अन्तत: टीम 1993 का राज्य स्तरीय खिताब अपने नाम करने में सफल हो जाती है।

कहने को तो यह पुस्तक एक राज्य स्तरीय प्रतियोगिता का रेखीय विवरण प्रस्तुत करती है, किन्तु गहराई से इसका विश्लेषण करने पर समझ में आता है कि वास्तव में यह अनेक स्तरों पर परिचालित होती है। एक तरफ जहाँ यह ‘एमस्टर लेडी हरिकेन्स’ के विजय- अभियान की सीधी-सादी कहानी बयान करती है, दूसरी तरफ यह इस टीम की विभिन्न सदस्यों के निजी जीवन से जुड़ी परिस्थितियों, समस्याओं और चुनौतियों से भी पाठकों को रूबरू कराती है। इसके अलावा यह एक विहंगम चित्र प्रस्तुत करती है। अमेरिका के खेल इतिहास के उस स्वर्णिमयुग का जब मैसाचूसेट्स शहर अपने शहर की महिला खिलाड़ियों के उत्साहवर्धन हेतु कुछ इस तरह से एकजुट हो गया था जिस तरह से वह इससे पहले सिर्फ अपने पुरुष खिलाड़ियों के पक्ष में खड़ा होता था। पुस्तक में वर्णित कालखण्ड और सामाजिक परिस्थितियों के वृत्तान्त को पढ़कर यदि वर्तमान समय में भारतीय महिला खिलाड़ियों के समक्ष खड़ी होने वाली चुनौतियों और बहुधा नजरअन्दाज कर दिये जाने वाली उनकी उपलब्धियों का विचार पाठकों के मन में उपजे तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।

इन दीज गर्ल्स के आवरण पृष्ठ में पुस्तक का सार प्रस्तुत करते हुए लिखा गया है कि यह कृति ”महिला आन्दोलनों की सफलता का नाट्यांतरण भी है और उन सभी परिवर्तनों का संकेत भी जो अभी हुए नहीं हैं।” सम्भवत: इसीलिए कहा गया है कि यह पुस्तक न केवल उन्हीं किशोरियों और महिलाओं को रोचक लगेगी जो स्वयं खेलकूद में सहभागिता करती हैं अथवा करती थीं, वरन् उनको भी जो खेलना तो चाहती थीं लेकिन जिन्हें हतोत्साहित किया गया अथवा जिन्हें मौके नहीं मिले। उल्लेखनीय है कि पुस्तक उस दौर की बात करती है जब अमेरिका के अनेक महाविद्यालयों में महिलाओं के लिए बास्केटबॉल टीमें नहीं थीं और राष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसी टीमें अस्तित्व में नहीं आयी थीं। ऐसे समय में मेडिलेन ब्लेस ने न्यूयार्क टाइम्स मैगजीन के लिए इस विषय पर एक लेख लिखा था जिसमें शामिल तथ्यों को उन्होंने कुछ समय बाद विस्तार से इन दीज गर्ल्स में शामिल किया।

जैसा कि पहले भी उल्लेख किया गया है, इस पुस्तक में लेखिका ने 1992-93 के बास्केटबाल सत्र के दौरान ‘एमस्टर लेडी हरिकेन्स’ द्वारा खेले गये मैचों की विस्तार से चर्चा की है। इसमें वह मैच भी शामिल है जिसमें यह टीम अगवान शहर की ‘ब्राउनीज’ से हार जाती है। इस हार के बावजूद टीम का आत्मबल कम नहीं होता और अन्तत: टीम 16 मार्च 1993 के दिन हेवरिल की टीम को 74-36 के बड़े अन्तर से हराकर मैसाचूसैट़्स राज्य की स्कूल स्तरीय बास्केटबाल प्रतियोगिता का खिताब अपने नाम कर लेती है।
(There’s hope in these girls)

मैडिलेन ब्लेस ने इन दीज गर्ल्स में टीम की सदस्यों के जीवन से जुड़ी जानकारी भी विस्तार से दी है। टीम की दो कप्तान हैं- पहली जमीला वाइडमैन जो समय पूर्व पैदा हुई थी और जिसके जिन्दा रहने की उम्मीद भी नहीं थी, और जो अपनी कर्तव्यपरायणता और खेल के प्रति निष्ठा के कारण टीम की अन्य सदस्यों के समक्ष बहुत अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करती है, और दूसरी जैन परीसो जो निस्वार्थ भाव से सबकी सहायता करने के कारण टीम की ही नहीं, स्कूल की सभी लड़कियों की भी चहेती बन जाती है। टीम की एक अन्य सदस्य कैथलीन पो है जो बास्केटबाल सीजन के दौरान ही नहीं, सीजन से इतर भी कड़ी मेहनत और अभ्यास करती है ताकि वह सर्वोत्कृष्ट प्रदर्शन कर सके। इसी तरह से किम वार्नर पढ़ाई करने के साथ-साथ अंशकालिक कार्य करके पैसे भी कमाती है ताकि वह बास्केटबाल कैम्प जा सके, क्योंकि उसके माता-पिता इतने सम्पन्न नहीं हैं कि उसे इस कैम्प के लिए पैसे दे सकें। इसी तरह से पैट्री ऐबड, सोफी किंग, ऐमली शौर, लूसिया मैरनिस, रीटा पावल, ऐमली जोन्स आदि की भी अपनी-अपनी प्रेरक कहानियां हैं जो किसी भी खेल-प्रेमी का उत्साहवर्धन कर सकती हैं।

यह पुस्तक केवल इन लड़कियों की निजी कहानियाँ ही नहीं सुनाती हैं, यह इनके पारस्परिक सम्बन्धों और आपसी सहयोग पर भी प्रकाश डालती है। उदाहरणत: जब रीटा पावल को एक बदमाश परेशान करता है तो उसकी समस्या को भांपकर जैन परीसो अपने-आप उसकी सहायता करने लगती है। इन लड़कियों को इनके कौशल से अनभिज्ञ लड़कों को छकाने में भी मजा आता है एक बार जमीला और जैन बास्केट बॉल खेल रहे अपरिचित लड़कों को किसी तरह से राजी कर लेती हैं कि वह इन दोनों को अपने खेल में शामिल कर लें। जब यह लड़के इन दोनों को अपने साथ खिलाकर इन पर अहसान करने को तैयार हो जाते हैं तो जमीला और जैन अपने ऊँचे दर्जे के खेल से लड़कों को ऐसे चमत्कृत कर देती हैं कि लड़के पूछते रह जाते हैं, ”तुम हो कौन? तुम हो कौन?”

इन लड़कियों को जीतने की राह दिखाते हैं उनके प्रशिक्षक रॉन मॉयर। खुशमिजाज कोच मॉयर यूँ तो चुटकुलों और मनोरंजक प्रसंगों की सहायता से टीम को प्रेरित करते हैं कि वह सभी तरह के भय और संकोच से ऊपर उठकर सर्वोत्कृष्ट प्रदर्शन करे, किन्तु आवश्यकता पड़ने पर वह कठोर निर्णय लेने में भी नही हिचकिचाते हैं। जब उन्हें पता चलता है कि पेट्री एैबड स्कूल देर से आयी है तो वह उसे टीम में खेलने नहीं देते हैं क्योंकि उनके अनुसार वह अन्य लोगों के लिए बुरा उदाहरण प्रस्तुत कर रही है। इसी तरह से जब सौम्य स्वभाव वाली कैथलीन पो अपनी भलमनसाहत के कारण आक्रामक खेल नहीं खेल पाती है तो वह उसे प्रेरित करते हैं कि वह मैच के दौरान अपनी काल्पनिक अंतरंग मित्र ‘स्किपी’ का रूप धारण कर ले जो आक्रामक होने के साथ थोड़ी दुष्ट भी है! कोच मॉयर के इस टोटके का कुछ ऐसा प्रभाव होता है कि शीघ्र ही सीधी-सादी, कैथलीन मैदान में ”हमारी शान्त हत्यारी” बन जाती है!

‘एमस्टर लेडी हरिकेन्स’ के विजय-अभियान के विस्तृत चित्रांकन के अलावा इन दीज़ गर्ल्स महिला बास्केटबाल की लगभग एक शताब्दी की यात्रा को भी बयान करती है। टीम की सदस्य ऐमली जोन्स की माँ बर्नडेट जोन्स एक बार उस जमाने को याद करती हैं जब वह बर्नडेट बीचर नाम की प्रतिभावान खिलाड़ी के रूप में घुटने तक लम्बी, कड़क, तनी हुई पोशाक पहनकर सप्ताह में सिर्फ एक दिन खेल पाती थीं- यह उस युग की बात है जब महिला खिलाड़ियों को केवल तीन बार ‘ड्रिबल’ करने की अनुमति होती थी। इसी तरह से स्प्रिंगफील्ड कॉलेज की प्रोफेसर स्टीवाडा चेपको महिला बास्केटबॉल की एक शताब्दी के उपलक्ष्य में ”लेडीज आफ द क्लब” शीर्षक से व्याख्यान देती हैं तो वह साझा करती हैं  कि किस तरह से आरम्भ में यह माना जाता था कि महिला खिलाड़ी पूर्ण रूप से पुरुष खिलाड़ियों से कमतर होती हैं अत: वह पुरुषों की तरह खेल ही नहीं सकती हैं।

कोच मॉयर की पत्नी बैट्सी मॉयर, जो स्वयं एक कोच हैं, 23 जून 1972 को राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन द्वारा हस्ताक्षरित ”टाइटल IX” का जिक्र करती हैं और बताती हैं कि इस अधिनियम को पारित कराने में बहुत कठिनाई हुई थी क्योंकि इसके विरोधी यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि लिंग के आधार पर छात्रों और छात्राओं के बीच शैक्षणिक संस्थानों में, खेलकूद सहित किसी भी क्षेत्र में, भेदभाव करना उचित नहीं है।

इन दीज गर्ल्स….. एक प्रेरणादायक कहानी भी सुनाती है और यह एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक और सामाजिक दस्तावेज भी है। इसके सभी विविध और प्रेरक पक्षों को ध्यान में रखते हुए मिशैल एल का कहना है, ”यह वस्तुत: आशादायक पुस्तक है।… इन लड़कियों ने न सिर्फ एक राज्यस्तरीय प्रतियोगिता जीती, इन्होंने निजी विजय भी हासिल की जो जीवन पर्यन्त इनके साथ रहेगी। इस उत्कृष्ट कृति से पाठकों को प्रेरणा भी मिलती है और सद्गुणों का उदाहरण भी। मैं इस पुस्तक को पढ़ने की राय उन सभी को दूंगी जिन्हें बास्केटबाल तथा युवा महिलाओं की शक्ति में थोड़ी भी रुचि है।”
(There’s hope in these girls)
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