शरणार्थी तिब्बती महिलाओं का संघर्ष

मंजू नेगी

तिब्बत भारत के हिमालय पर्वत श्रृंखला के ऊपर लगभग 4,500 मीटर की ऊँचाई पर स्थित एक सुंदर स्थान है। ऊँचाई पर स्थित होने के कारण इसे संसार की छत भी कहा जाता है। चीनी फौज ने सन् 1949 में तिब्बत में पहली बार प्रवेश किया और सन् 1959 में तिब्बत में चीन सरकार के विरोध में कई आंदोलन हुए। इन आंदोलनों में तिब्बती महिलाओं की सक्रिय भूमिका थी । राजनीतिक रूप से तिब्बती महिलाओं की यह राजनीतिक क्रियाओं में प्रथम भागीदारी थी। इस आंदोलन के दौरान अनेक महिलाओं ने अपनी जान गवांयी। चीनी फौज ने कई महिलाओं की नृशंस हत्या कर दी और कई महिलाओं को जेल भेज दिया गया परंतु चीनी फौज की इस क्रूरता के समक्ष महिलाओं ने घुटने नहीं टेके बल्कि पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चीनी फौज का सामना किया लेकिन चीनी सरकार की ताकतवर फौज के सामने अंतत: तिब्बत  हार गया। चीन ने संपूर्ण तिब्बत पर अपना अधिकार कर लिया। तत्पश्चात् तिब्बती समुदाय के राजनीतिक व अध्यात्मिक गुरु दलाई लामा व लगभग 80,000 तिब्बती लोग भारत में शरणार्थी के रूप में आए तथा भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा तिब्बतियों को उत्तरी भारत के हिमांचल प्रदेश में स्थित मैक्लियोड गंज, धर्मशाला में स्थान दिया गया और अन्य राज्यों से भी अपील की गयी कि वे अपनी खाली जमीन दान दें। वर्तमान में तिब्बती केवल भारत में ही नहीं, बल्कि अन्य 30 देशों में शरणार्थी के रूप में निवास कर रहे हैं। सबसे अधिक तिब्बती शरणार्थी भारत में निवास करते हैं।

तिब्बत में महिलाओं की स्थिति एशिया के संपूर्ण देशों की महिलाओं की तुलना में अच्छी थी । महिलाओं की घर- परिवार, व्यवसाय व खेती के कार्यो में महत्वपूर्ण व सक्रिय भूमिका थी। विवाह सम्बन्धित निर्णय लेने के लिए भी तिब्बती महिलाओं को पूर्ण स्वतंत्रता थी। तिब्बत में सामान्यतया एकल विवाह, बहुपति विवाह, बहुपत्नी विवाह प्रथा प्रचलित थी। बहुपत्नी तथा बहुपति विवाह प्रथा ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित थी। जमीन का बंटवारा न हो, इसलिए सभी भाइयों की एक ही पत्नी तथा सभी बहनों का एक ही पति होता था। परन्तु वर्तमान में शरणार्थी तिब्बती समुदाय में यह प्रथा लगभग समाप्त हो चुकी है। सम्पत्ति में अधिकार के मामले में पुत्र ही सम्पत्ति का मालिक होता है और यदि किसी परिवार में कोई पुत्र नहीं है तो पुत्री का पुत्र सम्पत्ति का अधिकारी होता है। महिलाओं का परिवार व व्यापार में महत्वपूर्ण स्थान था परंतु शिक्षा के क्षेत्र में तिब्बत में पुरुषों को महिलाओं की अपेक्षा अधिक वरीयता दी जाती थी। अर्थात् शिक्षा के मामले में भेदभाव था। राजनैतिक क्षेत्र में भी तिब्बती महिलाओं की कोई भागीदारी नहीं थी। तिब्बत की आजादी के आन्दोलन में तिब्बती महिलाओं ने चीन सरकार के विरुद्घ शान्तिपूर्वक आन्दोलन किया परंतु हथियारों से लैस चीनी फौज के सामने तिब्बत की हार हुयी और चीन ने तिब्बत को अधिकृत कर लिया। शरणार्थी के रूप में किसी दूसरे देश में रहकर अपना अस्तित्व बनाए रखना कोई सरल कार्य नही है, इसके लिए अदम्य साहस व मजबूत मनोबल की आवश्यकता होती है और तिब्बती महिलाओं ने प्रकृति द्वारा महिलाओं को दिए गए उपहार (मानसिक मनोबल) का भरपूर प्रयोग किया। भारत में शरणार्थी तिब्बती समुदाय की महिलाओं ने सन् 1959 से 1984 के मध्य तिब्बतन वीमेन एसोसियेशन (टी़ डब्ल्यू़ ए़) के नाम से एक संगठन बनाया और भारत तथा अन्य देशों की शरणार्थी तिब्बती महिलाओं को जोड़ने का प्रयास किया। टी़ डब्ल्यू़ ए़ ने न केवल महिलाओं को राजनैतिक रूप से सशक्त किया बल्कि तिब्बती समुदाय की विशिष्ट संस्कृति को भी जीवित रखा। इस संगठन ने भारत में रह रही तिब्बती मूल की महिलाओं को राजनैतिक तौर पर सशक्त तो किया ही, साथ ही साथ हथकरघा उद्योगों की भी शुरूआत की, जिसमें तिब्बती संस्कृति से सम्बन्धित वस्तुओं जैसे- तिब्बती वस्त्र, धार्मिक वस्तुओं आदि का निर्माण किया और एक कुशल व्यापारी की तरह उन वस्तुओं को अपने समुदाय के व्यक्तियों तक भी पहुँचाया। यह न केवल तिब्बती महिलाओं की मासिक आय का एक प्रमुख साधन बन गया बल्कि तिब्बती संस्कृति को भी विशिष्ट पहचान मिली। तिब्बतन वीमेन एसोसिऐशन आधिकारिक रूप से सितम्बर 1984 में परमपावन दलाई लामा के आशीर्वाद से एक गैर राजनैतिक सगंठन (एन. जी़ ओ़) के रूप में सक्रिय हुआ। शरणार्थी तिब्बती महिलाओं का यह पहला व एकमात्र संगठन है। इसका मुख्यालय मैक्लियोडगंज, धर्मशाला में है। तिब्बती महिलाओं के कुशल नेतृत्व में इस संगठन ने एक मजबूत नींव रखी है। वर्तमान में इसकी अध्यक्षा डोल्मा योंगसेन हैं, जिनका जन्म तिब्बत में हुआ था। इन्होंने सन् 1959 में अपने माता-पिता के साथ भारत में शरण ली थी। श्रिंग डोल्मा उपाध्यक्ष, श्रिंग छोयेजोम सचिव, तेनजिन शेला सह प्रशासनिक अधिकारी हैं, जो एक बौद्ध भिक्षुणी भी हैं। इनका जन्म भी तिब्बत में हुआ था। टी़ डब्ल्यू़ ए. की प्रमुख शाखाएं भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी हैं। इस संगठन में लगभग 15,000 सदस्य हैं और 52 शाखाएँ हैं, जो विभिन्न देशों में फैली हुई हैं। भारत में इस संगठन के प्रमुख क्षेत्रीय कार्यालय देहरादून, नैनीताल, दिल्ली, र्दािर्जंलग, शिमला, उड़ीसा, कर्नाटक, अरुणाचल प्रदेश, छतीसगढ़, महाराष्ट्र आदि स्थानों में हैं तथा भारत के अलावा भूटान, नेपाल, यूरोप, जापान, अमेरिका, कनाडा आदि देशों में इस संगठन की प्रमुख शाखाएं सक्रिय रूप से कार्यरत हैं जो समाज कल्याण व महिला सशक्तीकरण से सम्बन्धित कार्य करती हैं। तिब्बतन वीमेन एसोसियेशन शरणार्थी तिब्बती महिलाओं के राजनैतिक विकास के साथ-साथ तिब्बती महिलाओं का शैक्षिक विकास भी करता है, जिसमें तिब्बती महिलाओं को उच्च शिक्षा के लिए प्रोत्साहन राशि अर्थात छात्रवृत्ति प्रदान की जाती है। टी़ डब्ल्यू़ ए़ द्वारा समय-समय पर कार्यशालाएं भी आयेजित की जाती हैं, जिसमें महिलाओं को उनके राजनैतिक और सामाजिक अधिकारों के विषय में बताया जाता है। तिब्बतन वीमेन एसोसिएशन 12 मार्च को प्रत्येक वर्ष वीमेन अपराईजिंग डे के रूप में मनाता है। इस वर्ष 2016 में 12 मार्च को अपराईजिंग डे की 57वीं वर्षगांठ मनायी गयी। यह दिन उन महिलाओं की याद में मनाया जाता है, जिन्होंने तिब्बत में हुए आन्दोलनों के दौरान अपना बलिदान दिया। इस दिन सम्पूर्ण तिब्बती लोग अपने रोजमर्रा के कार्यों को छोड़कर चीन के प्रति अपना विरोध व्यक्त करते हैं। तिब्बतन वीमेन एसोसिएशन द्वारा महिला सशक्तीकरण व समाज कल्याण से सम्बन्धित अनेक कार्य किये जाते हैं, जो इस प्रकार हैं-
(The struggle of refugee Tibetan women)

1. तिब्बती महिलाओं को स्वास्थ्य, बच्चों की देखभाल, व परिवार नियोजन से सम्बन्धित पर्याप्त जानकारी देना।

2. तिब्बती समुदाय के अनाथ बच्चों, शारीरिक रूप से अक्षम, बुजुर्गों, बौद्ध भिक्षुणियों को आर्थिक रूप से सहायता करना।

3. विभिन्न प्रकाशनों  के द्वारा तिब्बती समुदाय की संस्कृति, भाषा, परम्परा, और कला को संरक्षित करना तथा तिब्बती समुदाय को शिक्षा द्वारा अपनी विशिष्ट संस्कृति को बनाए रखने के लिए प्रोत्साहित करना।

4. शरणार्थी तिब्बती महिलाओं व अधिकृत तिब्बत में रह रही महिलाओं को उनके सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक अधिकारों के विषय में जागरूक करना।

5. चीन द्वारा अधिकृत तिब्बत की भयावह स्थिति से विश्व को जागरूक करना तथा तिब्बत में मानवाधिकार के लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव बनाना।

इससे यह स्पष्ट होता है कि शरणार्थी तिब्बती महिलाएं न केवल शरणार्थी तिब्बती समुदाय के लिए कार्य कर रही हैं बल्कि अधिकृत तिब्बत में रह रही महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के विषय में भी विश्व को जागृत कर रही हैं।

तिब्बतन वीमेन एसोसिएशन ने शरणार्थी तिब्बती महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त तो किया ही साथ ही साथ राजनैतिक रूप से भी महिलाओं को उनके अधिकारों के विषय में बताया। यद्यपि पहले तिब्बती समुदाय की संसद में कोई भी महिला प्रतिनिधि नहीं होती थी परंतु वर्तमान में स्थिति इसके उलट है। भारत में मैक्लियोड गंज, धर्मशाला हिमाचल प्रदेश में तिब्बती समुदाय की प्रशासनिक संस्था है, जिसको सेन्ट्रल तिब्बतन एसोसिएशन के नाम से सन् 1959 में स्थापित किया गया था। इसके मुखिया परमपावन दलाई लामा होते हैं। वर्तमान में तिब्बती समुदाय की संसद में 46 सदस्य हैं जिनमें से 9 महिलाएं हैं। तिब्बती समुदाय की सरकार द्वारा नौकरी पेशा महिलाओं को तिब्बती संविधान के धारा 6 के पैरा 28 के आधार पर तीन माह का सवैतनिक प्रसूति अवकाश दिया जाता है।

शरणार्थी तिब्बती महिलाओं की एक तरफ जहां राजनैतिक स्थिति में बदलाव हुआ है वही दूसरी ओर धर्म के क्षेत्र में भी बदलाव हुआ है। तिब्बती समुदाय में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान है। इस समुदाय का प्रत्येक परिवार अपने घर से कम से कम एक व्यक्ति को मठों में धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए अवश्य भेजता है। सामान्यतया लड़कों को सात वर्ष की आयु में तथा लड़कियों को सात वर्ष से थोड़ा और अधिक बड़ा होने पर मठों में भेजा जाता है। तिब्बती मठों में धर्म व संस्कृति से सम्बन्धित शिक्षा दी जाती है। सन् 1959 से पहले तिब्बत में 270 बौद्ध भिक्षुणी गृह थे तथा 15,600 बौद्ध भिक्षुणियां पूरे तिब्बत में थीं। यद्यपि बौद्ध भिक्षुणी बनना या न बनना महिलाओं की अपनी स्वतंत्र इच्छा पर था, परंतु फिर भी बौद्ध भिक्षुओं की सख्ंया बौद्ध भिक्षुणियों से अधिक थी। सन् 1991 से तिब्बतन वीमेन एसोसिएशन द्वारा शरणार्थी बौद्ध भिक्षुणियों के लिए ‘तिब्बतन नन्स प्रोजेक्ट’ के नाम से एक अभियान चलाया जा रहा है, जिसमें बौद्ध भिक्षुणियों को धार्मिक क्षेत्र में उच्चतम शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहन राशि दी जाती है। भारत में डोल्मा लिंग ननरी एण्ड इन्स्टीट्यूट पहला संस्थान है, जो उतरी भारत में कांगड़ा वैली, धर्मशाला में स्थित है जहां बौद्ध भिक्षुणियों को बौद्ध धर्म व आधुनिक तकनीकी से सम्बन्धित शिक्षा दी जाती है। इसकी स्थापना 8 दिसम्बर, 2005 को हुई।  तिब्बती समुदाय के धार्मिक गुरु दलाई लामा द्वारा इसका उद्घाटन किया गया। वर्तमान में इस संस्थान में 238 बौद्ध भिक्षुणियां हैं। मई 2013 का वर्ष एक ऐतिहासिक समय था जब  पहली बार 10 बौद्ध भिक्षुणियों ने घेसेमा परीक्षा उत्तीर्ण की अर्थात् बौद्ध धर्म में पी़ एच़ डी  की डिग्री प्राप्त की। शरणार्थी तिब्बती समुदाय की महिलाओं के लिए यह गौरव की बात है। क्योंकि उन्होंने एक शरणार्थी के रूप में रहकर न केवल तिब्बती समुदाय की संस्कृति की विशिष्ट पहचान को बनाए रखा बल्कि अपनी भावी पीढ़ी को भी अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने के लिए वे प्रोत्साहित कर रही हैं।
(The struggle of refugee Tibetan women)
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