बातचीत- हमें तो अतिरिक्त व्यक्तिगत प्रयास करने होंगे

एक मुलाकात श्री मनोज चन्द्रन के साथ

श्री मनोज चन्द्रन 1999 बैच के वनाधिकारी हैं। 2014-15 में जब नारी निकेतन देहरादून में कई घटनाएं हुईं थीं, उस समय उन्हें समाज कल्याण विभाग के अन्तर्गत महिला कल्याण का प्रभार दिया गया था। उस दौरान नारी निकेतन में संवासिनियों के पुनर्वास के लिए जो प्रयास हुए, उसमें उनकी विशेष भूमिका रही। फरवरी 2019 में हेमलता पन्त और उमा भट्ट की श्री मनोज चन्द्रन से विस्तृत बातचीत हुई। जिसे लगभग अविकल रूप में यहां दिया जा रहा है।
आप वन विभाग में अधिकारी हैं, आप समाज कल्याण विभाग से कैसे जुड़े ?

दो साल तक मैं अपर सचिव, वन रहा। उस समय वन अधिकार अधिनियम आया। जिसे समाज कल्याण विभाग के अन्तर्गत जनजाति विभाग देखता है। वन अधिकार अधिनियम में ज्यादा काम नहीं हो रहा था तो शासन ने निश्चित किया कि वन विभाग के अधिकारी उसको देखेंगे। इस तरह उन्होंने मुझे समाज कल्याण विभाग में प्रतिनियुक्त कर दिया। इसी नियुक्ति के दौरान देहरादून में नारी निकेतन में एक संवासिनी के गर्भपात कराने तथा दो की मौत की घटना हुई थी। तब मुझे जनजाति विभाग का प्रभार न देकर महिला कल्याण का चार्ज दे दिया क्योंकि उस समय वह मुद्दा बहुत गर्मा रहा था।
(Talk with Manoj Chandran)
उस समय नारी निकेतन के अन्दर कैसा माहौल था?

कुछ पत्रकार जब वहां गये तो उनपर पथराव हुआ। मैं भी डर-डर कर नारी निकेतन में गया। पर जब मैं गया तो ऐसा कुछ नहीं हुआ। वहां सभी बहुत प्रेमपूर्ण थे। लेकिन बहुत दुर्दशा थी। बिस्तर खटमलों से भरे पड़े थे, बिस्तर पर ही पेशाब होता था, क्योंकि रात को बाथरूम बन्द हो जाते थे। न पानी था, न बिजली, न सीवर लाइन थी। रात को बाहर से ताला रहता था। मैंने देखा कि लोग मिट्टी खा रहे थे। अधिकांश मानसिक रूप से विक्षिप्त थीं। 75 संवासिनियों की क्षमता वाले उस गृह में 150 संवासिनियां उस समय थीं। बिस्तरों की कमी के कारण वे जमीन पर सो रही थीं।
आपने कैसे वहां काम शुरू किया?

पहला काम तो सफाई का था जो अगले दिन से ही शुरू कर दिया। एक दिन मैं अन्दर गया तो लगा कि बदबू आ रही है। पता चला, उसी बिस्तर में पेशाब हो रहा है। तो नये गद्दे मंगाये गये। शासन से हमें हर तरह की मदद मिल रही थी। हीटर की व्यवस्था भी करवायी। कुछ दिन बाद देखा तो फिर बदबू आ रही थी। पता चला कि पुराने गद्दों के ऊपर ही नये गद्दे डाल दिये गये थे। फिर उन्हें हटाकर मैंने अपने सामने पुराने गद्दों को जलवाया।
क्या इसके लिए अतिरिक्त बजट की आवश्यकता थी ?

बजट की जरूरत नहीं थी पर किसी ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया था। बहुत पहले से सब ऐसे ही चल रहा था। दूसरा काम उनके इलाज का था। वहां रजिस्टर में यह दर्ज नहीं था कि किसको कौन सी बीमारी है। मानसिक रोग भी अलग-अलग तरह के होते हैं। हमने पहला काम यह किया कि डाक्टरों की टीम बुलाकर सबकी जांच करायी। डाक्टर पहले भी आते थे पर हर एक की जांच हो, ऐसा नहीं था। केस हिस्ट्री नहीं थी सबकी। खून की जांच कराई तो पता चला कि 95 प्रतिशत एनिमिक हैं। 8 ग्राम से कम हीमोगलोबिन वाले थे। 5 ग्राम से कम हीमो वाले मिट्टी खाने लगते हैं। इसी से उन दो लड़कियों की मौत हुई थी। इनमें से 50 प्रतिशत को दून अस्पताल में भर्ती कराया। दून अस्पताल में एक वार्ड ही नारी निकेतन के नाम से आरक्षित हो गया। उस समय समाज कल्याण विभाग में श्रीमती भूपेन्द्र कौर औलख सचिव थीं। उन्होंने बहुत सख्ती से सारे काम करवाये। उन्होंने आदेश दिया था कि नारी निकेतन की कोई भी संवासिनी भर्ती हो तो उसका पूरा इलाज करना है। इस प्रकार सभी लोग बारी-बारी से 10-10 दिन तक अस्पताल में भर्ती रहे।
आप रोज जाते थे वहां ?
(Talk with Manoj Chandran)

हां, 150 संवासिनी थीं वहां। हर एक की समस्या को समझना था। ऑफिस के काम के बाद कुछ देर के लिए जरूर जाता था। एक दिन जब मैं वहां बैठा था तो उसी समय पुलिस एक महिला को दो बच्चों के साथ लेकर आई। पूछने पर पता चला कि गुमशुदगी का मामला है। मुस्लिम परिवार से बरामद हुई है। तो मैंने कहा जिन्होंने रिपोर्ट लिखवाई है, उन्हें सौंप दो। वह बालिग है। उसकी मर्जी है, जहां भी रहे। उसे नारी निकेतन में लाने की क्या जरूरत है ? उसके पिता को बुलवाया तो वे उसे घर ले जाने के इच्छुक थे। हमने एस.डी.एम़ के माध्यम से आदेश करवा कर उसे घर भिजवा इिया। वहां मौजूद लोग देख रहे थे कि एक ही दिन में नारी निकेतन से किसी का छुटकारा भी हो सकता है। फिर तीन-चार लड़कियां आकर मिलीं। सबने अपनी फरियाद सुनाई। कोर्ट का आदेश हो चुका है, फिर भी यहां से छोड़ नहीं रहे हैं या कोई बालिग है और नाबालिग दिखाकर रोक रखा है। फिर हमने सबको मनारोग विशेषज्ञ को दिखाया। इनको दवा खिलाना भी एक समस्या थी। नारी निकेतन में नर्स है, फार्मेसिस्ट है। दवा दी जाती है पर ये फेंक देती थीं या खाती नहीं थीं। कोई यह देखता नहीं था कि ये दवा खा रही हैं या नहीं। जैसे जैसे दवा अन्दर जाने लगी, ये ठीक होने लगीं। कुछ के लिए डॉक्टर ने कहा कि इनकी भाषा समझ में नहीं आ रही है। मैंने देखा उनमें से एक तमिल बोल रही थी। कुछ-कुछ तमिल मुझे आती है। मैंने उससे तमिल में बात की तो वह बहुत खुश हो गई। वह 10 साल से वहां थी और किसी से बात नहीं कर पाई थी। कुछ असामान्य बातें भी कह रही थी। उस समय देहरादून में एस़टी.एफ़ में पी़ रेणुका देवी एस़पी़ थीं जो तमिलनाडु से हैं। मैंने उन्हें बुलाया तो आधे घन्टे में वे आ गईं। उन्होंने उससे बात की और बताया कि यह तमिलनाडु के फलाने इलाके की है। शाम को रेणुका देवी का फोन आ गया कि वेलोर में इसकी गुमशुदगी की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज है। दो दिन में उसको लेने के लिए उसके परिवार वाले आ गये। उनको देखते ही उसकी सारी बीमारी खत्म हो गई। जब वह नारी निकेतन से गई तो सभी संवासिनियों से हाथ मिलाकर गई। यह सभी संवासिनियों के लिए एक बहुत बड़ी घटना थी कि दस साल में कोई महिला नारी निकेतन से जा रही है।
नारी निकेतन में यह व्यवस्था  है कि कोई संवासिनी वहां से जा सकती है ?

हां, जिसका कोई आश्रय नहीं है, वही वहां रहती है।
अपराधी पृष्ठभूमि की महिलाएं भी वहां रहती हैं ?

नहीं, जिनका पुनर्वास करना है, उनके लिए नारी निकेतन बनाया गया है। टै्रफिकिंग के मामलों में महिलाओं को कोई सजा नहीं होती, पुरुषों को होती है। महिलाएं स्वतंत्र हैं, वे जा सकती हैं। अगर कोई नहीं जाना चाह रही है तो उसके लिए शरणालय के रूप में नारी निकेतन है।
तो आपके सामने यह पहला मामला था जिसमें एक महिला का पुनर्वास हुआ ?

हां। जैसे ही तमिल महिला सबसे हाथ मिलाकर गई तो इसका बहुत प्रभाव पड़ा। इन संवासिनियों के मन में एक उम्मीद जागी कि हम भी जा सकते हैं। अगले दिन से मेरे पास वे आने लगीं कि साहब, हमको भी जाना है। वे एक-दूसरे के बारे में नोट करने लगीं कि किसका घर कहां हैं। कुछ बांग्लादेश से थीं, कोई बर्मा से थी, कोई श्रीलंका से और कोई नेपाल से थी। चार-चार साल से वे यहां थीं। पहले हमने जो अहिन्दीभाषी थीं, उनके केस लिए। उनमें कुछ सामान्य भी थे। बाग्ंलादेश से तस्करी के केस थे। हमने उनके घर फोन से बात कराई, व्हट्सऐप से या वीडियो से भी बात कराई।
उनके पास फोन नम्बर थे ?
(Talk with Manoj Chandran)

फोन नम्बर थे पर कभी बात नहीं होती थी। अतर्राष्ट्रीय कॉल करनी पड़ती थी। उनके घरों से सम्पर्क हुआ तो घरवाले पूछने लगे कि कैसे वापस आयेगी। कुछ के पास फोन नम्बर थे पर वे पहुंच के बाहर थे। गैरसरकारी संगठनों के माध्यम से उनके घरों की तलाश की। दूतावासों के माध्यम से भी कोशिश की। एक नेपाली महिला थी। उसने अपने गांव का नाम कांची बताया जो हमारी समझ में नहीं आ रहा था। यहां देहरादून में गोरखा लोगों से सम्पर्क किया तो पता चला कि नेपाल में अरगा कांची नाम का एक जिला है। इन्टरनेट में अरगा कांची डॉट कॉम नाम से मीडिया की एक वेबसाइट मिली। मैंने उसमें सन्देश भेजा कि आपके जनपद की एक महिला यहां है और अपने पिता का यह नाम बता रही है। रात को 12 बजे मुझे सन्देश मिला कि हमने इस सन्देश को रेडियो में चलाया है। सुबह दुबई से फेसबुक में एक सन्देश आया कि ‘यो मेरी दीदी हो।’ उस महिला के भाई ने दुबई से सन्देश भेजा कि यह मेरी दीदी है।
कोई महिला अगर सामान्य है तो अपना पूरा पता क्यों नहीं बता पाती है ?

कुछ मानसिक असन्तुलन होगा तो नहीं बता पाई। फिर दवाओं से ठीक हुई तो याद आता गया। धीरे धीरे एक-एक बात याद आती गई। हम लोग काउन्सलिंग भी कराते थे महिलाओं की। कई तरह से जानकारी लेने की कोशिश करते थे। किसी दुकान का नाम, बस स्टैण्ड का नाम, जिस गाड़ी से आई, उसका नाम ? पहाड़ में हैं कि मैदान में, बस से जाते हैं या रेल से ? थोड़ा-थोड़ा करके पता चला। कुछ तो मूक-बधिर भी थीं।
दुबई से उसका भाई आया ?

नहीं, नेपाल से आये। दुबई से भाई ने नेपाल में दूसरे भाइयों का नम्बर दिया। नेपाल में वहां के जिलाधिकारी से सम्पर्क किया। इसकी फोटो भेजी। वहां से भी 2-3 फोटो आईं। देखकर इसने पहचाना कि यह मेरा भाई है। जब वे इसे लेने आये तो उनके साथ मदद के लिए एक गैरसरकारी संगठन के लोग भी आये। उनसे हमने यहां नेपाल की और जितनी संवासिनियां थीं, सबकी बात कराई। नेपाल से एक और संवासिनी थी जो अन्धी थी। जब उसका बेटा उसे लेने आया तो उसने छूकर पहचाना कि मेरा बेटा है।
नेपाल से सभी मानव-तस्करी के मामले थे ?

सब तो तस्करी के नहीं थे। नेपाल से मजदूरी के लिए आई महिलाएं भी थीं जो यहां आकर खो गईं थीं। 10-15 साल पुरानी बात हो गई थी। उनको भी याद नहीं कि  क्यों आई, कैसे आई। उनसे ज्यादा पूछना भी ठीक नहीं होता था। जो बताती हैं, ठीक है। एक आन्ध्रप्रदेश की थीं। उसने बताया कि मजदूरी करती थी, सिर में ईंट गिर जाने से याददाश्त कम हो गई थी। एक दिन अनजाने में ट्रेन में बैठकर देहरादून पहुंच गई। वहां से घूमते-घूमते कालसी पहुंची। वहां से नारी निकेतन पहुंच गई।
यह भी वापस जा सकी ?
(Talk with Manoj Chandran)

हां। एक तेलुगु भाषी किसी को लेने आया तो औरों से भी उसकी बातचीत हम कराते थे। वे बता देते थे कि कौन किस इलाके की भाषा बोल रही है। उससे पहचान करवाने में आसानी हो जाती थी। एक थी जो तस्करी का शिकार थी। दुबई में नर्स बनाने का झांसा देकर उसे गांव से मुम्बई लाया गया। मुम्बई में उसे बेचकर छोड़ दिया। वहीं मानसिक सन्तुलन बिगड़ गया। एक महिला कहती थी, मेरा घर यहां से 3 किमी की दूरी पर दोहा में है। वह तेलुगु न बोलकर कोई और भाषा बोल रही थी। हमने देहरादून की तेलुगु एसोशिएशन से सम्पर्क किया। जब एक तेलुगुभाषी व्यक्ति वापस चले गये तो वह कहने लगी, मुझे भी इनके साथ वापस जाना है। मैंने कहा कि आप तो कुछ और भाषा बोल रही थी तो बोली, ये देवताओं की भाषा थी। फिर उसने अपनी कहानी बताई। जब पुलिस के माध्यम से हमने वहां सम्पर्क किया तो गांव वालों ने मना कर दिया। तब मैंने निजी तौर पर पता किया तो मालूम हुआ कि यह वहां की निवासी है। लगा कि इसमें कोई गड़बड़ है। वह बता रही थी कि यह सड़क है और यहां पर मेरा घर है। गूगल से हमने उसके गांव और घर को खोज लिया। तब पुलिस के साथ इसको भेजा। वहां जाकर इसने अपना घर ढूंढ लिया पर घर में ताला लगा था। किसी पड़ोसी ने बताया कि इसकी बेटी अध्यापिका है और किसी दूसरी जगह पर रहती है। तब उसे बेटी के पास छोड़ दिया। बच्चों को पता भी नहीं था कि मां जिन्दा है। बाद में उसने सबकी फोटो भेजी।
आपने गूगल, मेल, वीडियो, फेसबुक आदि नई तकनीकों की सहायता ली। नारी निकेतन के कर्मचारी या अधिकारियों ने इससे पूर्व इस प्रकार की कोशिशें की थीं ?

यह मैंने शुरू किया और सबको बताया कि आपको कैसे ढूंढना है, क्या-क्या पूछना है। सीधे अगर पूछेंगे कि तेरा नाम क्या है, कहां से आई है तो वे कुछ नहीं बतायेंगी। एक महिला का उदाहरण है, जो बिलकुल चुप रहती थी। एक दिन मैं ऐसे ही कार्यालय में अधीक्षिका की कुर्सी में बैठा था, तो वह दरवाजे से अन्दर झांक रही थी। स्टाफ ने उससे बाहर जाने को कहा तो मैंने कहा, उसे अन्दर आने दो। उन्होंने कहा, यह कुछ बोलती नहीं है। मैंने कहा, उसे अन्दर आने दो, वह कुछ कहना चाहती है। अन्दर आकर वह जैसे नींद में चली गई। मैंने उससे नाम पूछा तो उसने अपना नाम बता दिया। स्टाफ कह रहा था, इसने पहली बार अपना नाम बताया। रजिस्टर में कुछ और लिखा है। वह फिर सो गई। उसको फिर मैंने दो-तीन दिन लगातार बुलाया। एक दिन मैंने पूछा, क्या खाओगी ? उसने कहा, मुझे मछली खानी है। मैंने कहा, तुम मछली खाती हो तो बोली, हां। मैंने पूछा, अन्तिम बार कब खायी, उसने कहा, बारात में खायी। मछली की बात से वह उत्तेजित हो गयी। उसने बताया, बारात में मैंने डान्स किया। वह भोजपुरी में बात करने लगी। मैंने उसकी बातें रिकार्ड करके उस ओर के लोगों के पास भेजी तो उन्होंने बताया कि यह रक्सौल की है और कुछ मारपीट के बारे में बात कर रही है। देहरादून में हबर्टपुर क्रिश्चियन एसोशिएशन का एक अस्पताल है जिसे हमने संवासिनियों के इलाज के लिए अधिकृत कर दिया था। इस अस्पताल की एक शाखा रक्सौल में है। इसने बताया कि रक्सौल में मन्दिर के पीछे मेरा घर है।   रक्सौल में अस्पताल के लोगों ने इसका घर ढूंढ लिया। वहां बात हो गई। फिर मुझे पता चला कि इसका एक बेटा भी है जो शिशु सदन में है क्योंकि इसकी केस हिस्ट्री में इसे गर्भवती लिखा था। पता चला कि बच्चा हुआ था पर इसकी दिमागी हालत ठीक न होने से शिशु सदन में भेज दिया गया। शिशु सदन के रिकार्ड से भी पुष्टि हो गई। फिर उस बच्चे को मां से मिलाया।
वह समझ पाई कि यह मेरा बच्चा है ?
(Talk with Manoj Chandran)

हां, यह कह रही थी कि बच्चा पीछे है। मैं नहीं समझ पाया। उसके साथ की एक संवासिनी ने बताया कि पीछे का मतलब शिशु सदन में है। पहले नारी निकेतन से शिशु सदन में जाने का रास्ता पीछे से था। बाद में बन्द कर दिया गया। इसको पता था कि मेरा बच्चा पीछे ले गये थे। जब बच्चा उसे दिखाते थे तो बच्चे को पकड़ने में डरती थी। धीरे-धीरे उसको आदत हो गई। जब स्टाफ से पूछा तो पता चला कि 3-4 ऐसी महिलाएं हैं जिनके बच्चे पीछे हैं। अगर पता नहीं चलता तो ये बच्चे गोद ले लिए जाते। बच्चा मिलने पर उसने कहा, मुझे घर फोन करना है। नम्बर तो था नहीं, मैने यों ही एक नम्बर मिलाया और कहा, बात कर लो। उसने अपनी पूरी कहानी बताई जो रिकार्ड हो गई। फोन में गाली भी दे रही थी। हमें उसकी पूरी कहानी मिल गई। अन्त में जब उसके घरवाले मिल गये तो हमने नियमानुसार उसे भेजा। बच्चे को रक्सौल की बाल कल्याण समिति को सौंपा। बच्चे की पढ़ाई वहां हो रही है। यह अपने घर में है। रक्सौल के अस्पताल में इसका इलाज चल रहा है।
इस प्रकार जिन महिलाओं का पुनर्वास होता है, बाद में उनसे सम्पर्क रखा जाता है ?

हां, एक लड़की बांग्लादेश चली गई थी। आज भी उसका व्हट्सऐप में सन्देश आता है। उसने यहां सिलाई-कढ़ाई सीखी थी। वहां अपनी दुकान चलाती है।
महिला तस्करी के कारण आने वाली लड़कियों को उनके घरवाले स्वीकार करते हैं ?

हां, स्वीकार करते हैं। एक लड़की बर्मा की थी। उसकी कहानी सबसे अलग थी। बर्मा से एक लड़की उसे घुमाने के बहाने बांग्लादेश की सीमा तक ले आई। वहां से नाव में बैठकर वह बांग्लादेश पहुंची। वहां से कोलकाता, फिर दिल्ली। 4-5 दिन दिल्ली में रखकर फिर उसे रुड़की में 5 लाख रुपये में बेच दिया गया। उसे पता था कि मुझे बेचा गया है। वहां जब छापा पड़ा तो पुलिस ने देहरादून के नारी निकेतन में भेज दिया। वह केवल अपना नाम बताती थी, बर्मा की रहनेवाली हूं, और वहां के एक गांव का नाम बताती थी। मैं रोज उससे पूछता था –तुम्हारा नाम ? काजल। कहां रहती हो ? बर्मा। बर्मा में कौन सी जगह ? किंचा। स्कूल जाती थी ? हां। कहां तक पढ़ी हो ? 6 तक। कौन सा हाईस्कूल? किंचा हाईस्कूल। मैंने इन्टरनेट में पूरा ढूंढा, किंचा नाम की कोई जगह नहीं थी। एक दिन मैंने उससे पूछा, तुम आंग सांग सू ची को जानती हो ? वह 17-18 साल की लड़की थी। उसने कभी मेरी ओर नहीं देखा था। अचानक उसने मेरी ओर देखा। उसकी आंखें चमक रही थीं। उसने पूछा, अंकलजी, आप उनको कैसे जानते हो ? मैंने कहा, वे मेरी दोस्त हैं। तुम अपना असली नाम बताओ। तब उसने अपना नाम बताया जो काजल नहीं था। मैंने उससे कहा, अपनी पूरी कहानी बताओ। तुम घर से कैसे आई ? एक लड़की मुझे ले गई। बस से या रेल से? पहले दो घन्टा बस में, फिर नाव में। नाव में एक घन्टा बैठे। फिर ट्रेन में। रास्ते की किसी एक जगह का नाम बताओ। तुम्बरूं। तुंबरू मुझे नेट में मिल गया। बर्मा से नदी के रास्ते बांग्लादेश आने के लिए तुंबरू से नाव में बैठते हैं। तुंबरू से दो घन्टे की दूरी पर इसका गांव था। इस तरह इसके जिले का पता चला। उस जिले के सारे हाईस्कूलों के नामों की सूची निकालकर उसे अकारादि क्रम में लगाया। तब देखा कि ङ से शुरू होने वाले नाम कौन से हैं। तो एक नाम मिला जिसकी स्पेलिंग थी KYINCHIANG यानी केंचिआंग। जब उससे पूछा कि केंचिआंग में है तुम्हारा घर ? तो बोली, हां। अब समस्या थी कि केंचिआंग हाईस्कूल तक कैसे पहुंचें। फेसबुक के जरिये देखा कि केंचिआंग हाईस्कूल से कितने लोगों ने अपने को जोड़ा है। चार लोग ऐेसे निकले जिन्होंने वहां से पढ़ा था। इन सबको मैंने पूरा विवरण भेज दिया। वहां एक मीडिया था रोहिंग्या समाचार। उसमें मैंने इसका फोटो भेज दिया। रोहिंग्या समाचार के पहले पन्ने में इसकी फोटो छप गयी। शीर्षक दिया था – रोहिंग्या महिला के वापस जाने में खतरा। तो मैंने उस पत्रकार से पूछा, ऐसा क्यों लिखा है ? उसने बताया कि यहां के मुसलमान और बौद्घों में संघर्ष चल रहा है। यह वापस आयेगी तो इसे गोली मार देंगे। अगले दिन मैंने उससे पूछा तो बोली, लड़ाई तो चल रही है लेकिन हम लोगों को ऐसा कोई डर नहीं है। मेरे पिता वहां सब्जी की दुकान चलाते हैं। अब मैं वहीं जाना चाहती हूं। फिर यूएनएचसीआर ने मुझसे सम्पर्क किया कि सुना है आपके पास एक रोहिंग्या महिला है। उसे हमें दे दो। हम उसे दिल्ली कैम्प में रखेंगे। मैंने उनको मना कर दिया। वे बोले, बर्मा सरकार इसे वहां ले जाने के लिए कभी अनुमति नहीं देगी। मैंने कहा, ठीक है। अगर बर्मा सरकार लिखित में ऐसा दे देगी तो फिर सोचेंगे। इस बीच मेरी मुख्यमंत्री श्री हरीश रावत जी से चर्चा हुई। उन्होंने कहा, यदि बर्मा सरकार अनुमति नहीं देगी तो हम इसे अपनी बेटी की तरह यहीं रखेंगे। फैशन डिजायनिंग की उसकी ट्रेनिंग हुई थी। तभी फेसबुक में एक लड़के ने जवाब दिया कि किंछा मेरे घर से एक घन्टे की दूरी पर है। मैंने उसके पिता का नाम तथा अन्य विवरण भेज दिये। वह शनिवार को इसके पिता से जाकर मिला और उनका फोन नम्बर भेज दिया। मैंने नारी निकेतन से इसकी वीडियो कॉलिंग करवायी। चार साल बाद मां-बेटी की बात हुई। यह लड़की तस्करी के जरिये आई थी। इसलिए इसके पास पासपोर्ट नहीं था। ऐसे में गृह मंत्रालय से अनापत्ति लेनी पड़ती है। शासन के माध्यम से गृह मंत्रालय को पत्र भेजा पर पत्र का जवाब नहीं आया। एक बार जब मैं दिल्ली गया तो गृह मंत्रालय में सेक्शन अधिकारी से कहा, इस प्रकार का केस है तो उसने समझा, कोई सिपाही है। मैंने कहा, मैं अपर सचिव हूं तो उसे बहुत ताज्जुब हुआ। वह वहां से उठकर गया और कहा मैं पांच मिनट में आता हूं। उसे वापस आने में एक घन्टा लगा और उसने मुझे चिट्ठी पकड़ा दी। मुझे भी आश्चर्य हो रहा था कि इतनी जल्दी कैसे हो गया। उसने कहा, मैं शर्मिन्दा हूं कि आपको यहां आना पड़ा। उसने बताया कि अब आप दूतावास को लिखेंगे। वे इसका पासपोर्ट तथा ट्रैवल डाक्यूमेन्ट भेजेंगे। तब यह जा सकती है। मैंने कहा, दूतावास में भी कोई ऐसा व्यक्ति बताओ, जो मेरा काम कर दे। उसने एक महिला का नाम बताया। उन्होंने तुरन्त सारा काम कर दिया पर म्यांमार की सरकार से जवाब नहीं मिला। मैंने किसी तरह बर्मा की अपर सचिव का नम्बर हासिल किया और लगातार उनको फोन करता रहा। एक दिन फोन उठाया तो मैने कहा, आप उस लड़की से बात कर लीजिये। मैंने लडकी से कहा, तुम हिन्दी या बंगाली में नहीं बोलोगी। केवल बर्मी भाषा में बात करोगी। वे दो मिनट के लिए बात करने को राजी हुई थीं पर पूरे दो घन्टे तक उन्होंने इससे बात की और कहा, मैं पूरी कोशिश करूंगी। मैं बार-बार उनको मेल भेजता रहा। एक दिन मेल आई कि इसको भेजने का खर्चा कौन उठायेगा। मैंने कहा, हम उठायेंगे।
लेकिन एक संवासिनी के लिए आप इतना खर्चा कैसे कर सकते थे?
(Talk with Manoj Chandran)

मुख्यमंत्री तो जो भी हम कहें, देने के लिए तैयार थे। मैंने तुरन्त मुख्यमंत्री से अनुमति के लिए पत्र भेजा और अपने क्रेडिट कार्ड से उसके लिए टिकट बुक कर दिया। मैंने जिला न्यायाधीश से भी आदेश ले लिया कि इसे मुक्त कर दें। इमिग्रेशन में भी बात कर ली कि इस तरह का केस  है, इसे जाने दें। एक पूरा दिन मैंने उसे समझाया कि उड़ान में कैसे जाना है। हिन्दी-अंग्रेजी में लिखकर भी दिया कि कोई बात समझ में न आये तो यह दिखाना। क्योंकि लोग तो सब भले होते हैंं। प्रेम भावना सबमें होती है। बर्मा से इसका जो फार्म आया था, वह बर्मा की भाषा में था। उसी में भरना था। यहां विश्वविद्यालय में बर्मा के बच्चे पढ़ रहे थे, मैंने उनको बुलाया। पूरी बात सुनकर उसने कहा, यह तो मुस्लिम है। मैंने कहा, यह मत कहो कि मुस्लिम है। यह तुम्हारी बहिन है। इसकी मदद करनी है। तुम प्रश्न पढ़ो, मैं अंग्रेजी में जवाब दूंगा, तुम उसे अपनी भाषा में लिखोगे। मैं तुम पर भरोसा करूंगा। तो इस तरह सबने उसकी मदद की। लेकिन एक महीने तक उसके ट्रैवल डाक्यूमेन्ट नहीं आये। एक दिन मेरे पास सन्देश आया कि इसके कागजात आ चुके हैं पर वे केवल 15 दिन के लिए वैध हैं। तभी म्यांमार की सचिव का फोन आया कि कौन आ रही है, किस उड़ान से आ रही है आदि। मैंने पूरा विवरण इसका लिखकर भेज दिया। हमने मुख्यमंत्री की उपस्थिति में इसको अच्छी सी विदाई दी। इसे लेकर हवाई अड्डे पर पहुंचे तो देखा स्वयं म्यांमार की वही सचिव इसे लेने के लिए खड़ी थीं। हमने मय कागजात इसे उनको सौंप दिया।
उन्होंने इसकी पूरी कहानी सुन ली थी।

हां और वह स्वयं आई दिल्ली हवाई अड्डे में। यह पहली रोहिंग्या है जिसको म्यांमार ने पासपोर्ट दिया है। अब वह अपने परिवार के साथ खुश है।
आपके वहां से आने के बाद नारी निकेतन में क्या हो रहा है ?

काम तो चल रहा है। अस्पताल में संवासिनियों का ठीक से इलाज चल रहा है। आज भी कोई ऐसा मामला आता है तो वहां का स्टाफ मदद लेता है। अब तो वे लोग भी काफी सीख गये हैं। साफ-सफाई बढ़ गई है। भोजन व्यवस्था ठीक है। भजन-कीर्तन, योग, नृत्य, जॉगिंग सब होता है। पर्व-त्योहार मनाते हैं। शिशु सदन में भी नियमानुसार गोद लेने की व्यवस्था चल रही है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी मामले में हस्तक्षेप किया था। मुख्यमंत्री ने इसमें काफी रुचि ली थी। जो भी प्रस्ताव हमने रखे, किसी में रुकावट नहीं आई।
क्या अब वहाँ संख्या कम है ?

संख्या कम है पर नये भी आते रहते हैं।
संवासिनियों के लिए रोजगारपरक पाठ्यक्रम यहां पहले से चल रहे थे ?

कुछ कोर्स चल रहे थे लेकिन भूपेन्द्र कौर औलख मैडम के आने के बाद कई कोर्स शुरू किये गये। यहां व्यवस्थाएं थीं लेकिन ठीक से नहीं चल रहीं थीं। इन सुधारों से संवासिनियों को भी अच्छा लगने लगा। ठीक से कपड़े पहनना, सफाई रखना, काम में रुचि रखना, महिला दिवस के अवसर पर कुछ बोलना आदि होने लगा। कुछ संवासिनियों को होटल मैनेजमेन्ट का कोर्स करवाया। कुछ ने नर्सिंग का कोर्स किया। कोर्ट में जिनके केस थे, उनको निबटाया। वकील केस को खींचते रहते थे पर उनसे बात करके केस निबटाये। कुछ संवासिनियों के माता-पिता या संरक्षकों को बुलवाकर उन्हें सौंपा गया। वे इस डर से कि लोग क्या कहेंगे, अपनी लड़कियों को नहीं ले रहे थे। उनकी काउंसिलिंग करके उन्हें तैयार किया गया। बेटी तो बेटी होती है। इस काम में वन विभाग के कर्मचारियों ने काफी मदद की। हर गांव में वन विभाग के कर्मचारी घूमते रहते हैं। उन्होंने भी गांवों में लोगों को समझाया। कहीं डराना-धमकाना भी पड़ा। अगर लड़की को घर में नहीं रखोगे तो तुम्हारी जमीन-जायदाद लड़की के नाम कर दी जायेगी। मानसिक रूप से कमजोर लड़कियों को घरवाले मानसिक चिकित्सालय में भर्ती करके फिर उनकी ओर से मुंह मोड़ लेते हैं। हमने ऐसी लड़कियों को भी छुड़वाया। वहां जाकर मैंने देखा कि लड़कियों का इलाज हो गया है पर घरवाले उनको ले नहीं जा रहे हैं। तो उनके घरवालों को बुलाकर धमकाया कि हम इन्हें यहीं रखेंगे, इनका इलाज भी करेंगे लेकिन इनके हिस्से की जमीन-जायदाद आपको इनके नाम करनी पड़ेगी। तब वे अपनी लड़कियों को ले गये। नेपाल से भी लोग आकर अपनी लड़कियों को ले गये।
उस दौरान कितने पुनर्वास हो पाये ?
(Talk with Manoj Chandran)

देहरादून के नारी निकेतन से उस समय लगभग 80 महिलाओं को घर भेजा गया। हरिद्वार और देहरादून के शिशु सदन से लगभग 300 बच्चे अपने घरों को भेजे गये।
बच्चों को जब शिशु सदन में रखते हैं तो उनको घर भेजना ही लक्ष्य रहता होगा ?

पूरी कार्रवाई करने के बाद भी पुलिस जिनका पता नहीं लगा पाती, ऐसे बच्चे शिशु सदन में आते हैं। यह बहुत कठिन काम है। एक बार हमने बच्चों को कैलेंडर दिखाया तो उसमें हाथी का चित्र था। सब बच्चे हाथी-हाथी कहने लगे। एक लड़की ने कहा, यह तो हमारे घर के सामने आता है। मैंने पूछा, तुम जंगल में रहते हो ? वह बोली, मेरा घर चाय बागान में है। मैंने सोचा, जहां हाथी आता है, ऐसा चाय बागान या तो असम या दार्जिलिंग में होगा।
उतनी दूर से वह कैसे आयी ?

टै्रफिकिंग के कारण। उसने कहा, मैंने तीन साल दिल्ली में झाड़ू-पोछा किया। वहां से मैं एक दिन भाग आई। फिर उससे पूछा कि तुम्हारे चाय बागान के आस-पास क्या है। उसने बताया, एक ईंट की भट्टी है। इस नाम के जो चाय बागान थे, उनमें चार ऐसे थे, जिनमें ईंट की भट्टी थी। दो नेपाल में थे और दो भारत में। कालिम्पोंग में एक एनजीओ है। उन्होंने सिलीगुड़ी के पास ऐसे चाय बागान का पता लगाया। वन विभाग के लोगों ने भी सम्पर्क किया और इसके परिवार के लोगों का फोटो मेरे लिए भेज दिया। यह पहचान गई कि यह मेरी मां है, यह पापा हैं। तब उस एनजीओ के साथी इसके परिवार वालों को लेकर आये। जैसे ही यह वापस गांव पहुंची, इसको माला पहनाकर, पांव धोकर इसका स्वागत किया गया। अपने आदिवासी गांव की यह पहली लड़की है, जो गांव से बाहर निकली।
सरकारी तंत्र में इतनी मेहनत तो कोई नहीं करता।

लिखा-पढ़ी से, चिट्ठियों से तो कुछ नहीं होने वाला है। 100 में से 1 मामला हल होगा। चिट्ठी का जवाब तो कभी नहीं आयेगा। हमें तो अतिरिक्त व्यक्तिगत प्रयास करने होंगे। हमें तो सिपाही से पूछना होगा कि आपके यहां ये एफआईआर दर्ज है ? एस पी से पूछेंगे तो वे इतने कामों में व्यस्त होंगे कि नहीं बता पायेंगे। हमें कहीं का भी स्थानीय नेता, एनजीओ, सबसे बात करनी पड़ेगी। इसी प्रकार असम- अरुणाचल के बॉर्डर की एक साठ साल की महिला थी। पहले कहती थी कि मुझे कहीं नहीं जाना है, मेरे घर में कोई नहीं है पर जब नारी निकेतन की उसकी सब दोस्त जाने लगीं तो यह अकेली रह गई। एक दिन इसने कहा, मुझे घर जाना है। उसने बताया कि घर कहां है पर उसकी भाषा समझ में नहीं आ रही थी। गांव का नाम बताया- बंगाली जन लोगा सुन्न। यहां वन्य जीव संस्थान में असम के लड़के थे, उनको बुलाया कि इसकी बातें सुनो। उन्होंने बताया, यह आदिवासी भाषा बोल रही है तथा अपने व अपने पति का नाम बता रही है। तब हमने उस गांव की मतदाता सूची देखी। उसमें तीन-चार जोड़े इस नाम के थे। मेरी एक मित्र जो वहां काम करती हैं, वे उस गांव में जाकर ग्राम प्रधान से मिलीं तो पता चला कि इनके नाम के आगे पिछली मतदाता सूची में मृत लिखा है। इसके पति की मृत्यु 2009 में हो गई थी। यह तो लापता थी, इसलिए इसे भी मृत लिख दिया गया। लेकिन इनके बच्चे थे। बेटे ने वीडियो सन्देश भेज दिया कि मां, मैं तुम्हें लेने आ रहा हूं। हमने उसे सुनाया और दिखा दिया। वन्य जीव संस्थान का वह लड़का जब इससे बात कर रहा था तो यह बार-बार अन्दर जा रही थी। मैंने पूछा- अन्दर क्यों जा रही हो तो बोली- अन्दर बच्चा सो रहा है, उसे देखने जा रही हूं। उसको मतिभ्रम था कि अन्दर मेरा बच्चा सो रहा है। जब बच्चा चार साल का था, उस समय यह गायब हो गई थी। मैंने फिर पूछा- तुम्हारा पति कहां है? बोली- बाहर गेट पर है। नारी निकेतन वाले उसे अन्दर नहीं आने दे रहे हैं। उसे बीस साल पहले की स्मृति थी। उसका बच्चा आज 24 साल का हो गया है। जिस दिन उसका बेटा उसे लेने आ रहा था, यहां पत्रकार, टी वी वाले सब इन्तजार कर रहे थे। यह एक बहुत बड़ी घटना थी। वह साड़ी पहनकर सुबह से इन्तजार कर रही थी। बहुत उत्तेजित थी। जैसे ही वह आया, मां-बेटे दोनों गले मिले। गांव जाकर उसका स्वागत हुआ। जो मर चुकी थी, वह वापस आ गई।
विश्वास नहीं होता कि सरकारी सेवा में रहते हुए इस प्रकार भी कार्य किये जा सकते हैं। उन महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता होनी जरूरी है।

इस काम में मुझे बहुत से लोगों का सहयोग मिला। मैं तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री हरीश रावत जी व सचिव श्रीमती भूपेन्द्र कौर औलख के साथ-साथ मुख्य रूप से श्रीमती मीना बिष्ट, जिला परिवीक्षा अधिकारी को भी धन्यवाद देना चाहूंगा जिन्होंने इन कर्यों में मेरा सहयोग किया। नारी निकेतन व शिशु सदनों की अधीक्षिकाओं व समस्त स्टाफ व संवासिनियों को भी मैं धन्यवाद देना चाहूंगा जिनके सहयोग के बिना यह कार्य सम्भव नहीं हो सकता था। हर्बर्टपुर क्रिश्चियन हॉस्टिपटल, दून अस्पताल तथा अपने सभी मित्रों का भी मैं आभारी हूं जिन्होंने इन कार्यों में सहायता की।
(Talk with Manoj Chandran)

प्रस्तुति: उमा भट्ट
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