सामाजिक आंदोलनों से मैं निरंतर जुड़ी रही: सुदेशा बहन

My Mother Memoirs of Radha Bhatt
प्रस्तुति: महीपाल सिंह नेगी

अपने जन्म के बारे में कुछ बतायें
पिताजी हरिसिंह सजवाण आजादी से पहले लाहौर में एक जानी-मानी हस्ती जानकीदास जी के ड्राइवर थे। मेरा जन्म 1939 में लाहौर में ही हुआ। साल-छ: महीने बाद वापस अपने मुल्क टिहरी जिले के चंबा विकासखंड के कोट गांव चले आए।
(Sudesha Bahan Interview Uttarakhand)

तब तक ऋषिकेश से ऊपर सड़क नहीं थी। मुझे बताया गया कि मैं और मां, डांडी में गांव तक आए। चार मजदूरों को मजदूरी मिली, 16 रूपये। पिताजी और बड़ी बहन जो तब दस-बारह साल की थी, ऋषिकेश से पैदल ही गांव तक आए। कुछ दिन गांव में रहने के बाद पिताजी फिर लाहौर चले गये।

1946-47 में आजादी की निर्णायक लड़ाई शुरू हुई और हो गया भारत विभाजन। पिताजी का कुछ अता पता नहीं। काफी दिनों बाद पता चला कि जानकीदास को सपरिवार दिल्ली लाने के बाद पिताजी ने लाहौर में फंसे अन्य लोगों को वापस भारत लाने के लिए जानकीदास जी से गाड़ी और चार नौकर मांगे और उन्हें मिल भी गए। कई चक्कर लाहौर से दिल्ली तक लोगों को लाते रहे। लाहौर में एक मुस्लिम ने रास्ते में सुरक्षा के लिए एक पिस्तौल और कुछ कारतूस पिताजी को दिए थे। छ: महीने तक पिताजी यही करते रहे। जब संतुष्ट हो वापस दिल्ली लौट आए, तब जानकीदास जी ने उन्हें 700 रुपये इनाम दिया।
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बचपन के बारे में कुछ और बतायें, कैसा बीता ?
बड़ी बहन ने लाहौर में पढ़ाई शुरू की थी। पांच या छ: दर्जे तक पढ़ाई कर चुकी थी। गांव लौटने के बाद वह बीमार रही और फिर छोटी उम्र में ही चल बसी। पिताजी भी वापस घर आ गए। मैं कक्षा चार तक पढ़ी। गांव के ही निकट स्कूल था। फिर चंबा रेडक्रॉस स्कूल में सिलाई सीखी। चरखा भी कातने लगी। सरला बहन एक बार हमारे गांव भी आई। गांव की महिलाओं को तब हिंदी बिल्कुल नहीं आती थी। मुझे हिंदी आती थी, इसलिए सरला बहन से गांव की महिलाओं की बात अनुवाद करके मैने गढ़वाली से हिंदी में समझाई। तब तक 10 साल की रही हूंगी शायद। इससे मेरा आत्मविश्वास जागा। इसी दौरान गांव में बलिप्रथा और गौरक्षा को लेकर प्रभात फेरियां होती थीं, जिसमें मैं भी उत्साहपूर्वक शामिल होती।

गांव के लोग सर्दियों में पेड़ों से कच्ची लकड़ी काटते थे, जो सूखने के बाद जलाऊ  लकड़ी के काम आती थी। इससे गांव के काफी पेड़ कटते चले गए। पिताजी ने इसे रोकने के लिए आवाज उठाई। लोगों को समझाया और जंगल में चौकीदार भी रखा। इस तरह जंगल से लेकर खादी तक से मेरा परिचय बचपन में हो गया था।

विवाह कब हुआ और ससुराल कहां हुई ?
15 साल की थी, तब मेरी शादी हो गई थी। चम्बा से करीब 25 किमी दूर कुंजणी पट्टी के रामपुर गांव में। पति कुलबीरसिंह रौतेला मुझसे तीन साल बड़े थे। ससुर भगवानसिंह रौतेला राजशाही के दौरान मेजर रहे थे। रौतेला यानी बड़े ठाकुरों का परिवार। नौकरी वाले थे, लेकिन रूढ़िवाद तब काफी था। पति की ड्यूटी जब देहरादून में रही, तब उनके साथ कुछ समय मैं भी उनके साथ कुछ दिन देहरादून में ही रही। बंगाल इंजीनियर के सरकारी क्वार्टर में। बड़ा बेटा  नरेन्द्र वहीं जन्मा, फिर गांव आ गए। दो बेटियां सरोज और बीना गांव में जन्मीं। तब तक चार जेठ-जेठानियों का संयुक्त परिवार था।

ससुराल में सामाजिक सक्रियता कैसे शुरू हुई ?
गांव में कोई बैठक हुई थी, जिसमें मैं और कुछ और महिलाएं भी शामिल हुई थीं। किसी विषय पर मैंने खड़े होकर अपनी बात रखी और यहीं से सामाजिक सक्रियता ससुराल में भी शुरू हो गई। एक तरह से महिलाओं का समूह जैसा गांव में बन गया। बाद में जब महिला मंडल बना तो मैं उसकी अध्यक्ष भी बनी। यह वह समय था जब महिलाओं का सार्वजनिक व पंचायती सभाओं में ज्यादा बोलना रूढ़िवादी लोगों को अच्छा नहीं लगता था। लेकिन गांव में हमारा उत्साह आजाद हिंद फौज के दो सैनिकों ने हमेशा बढ़ाया और गांव वालों को भी समझाते रहे। उनके नाम सोबनसिंह और कमलसिंह थे। सोबनसिंह बाद में चिपको आंदोलन में जेल भी गए। 1971 में पति रिटायरमेंट लेकर घर आ गए। उनका सहयोग भी मुझे मिलने लगा। हालांकि पति भी कड़क मिजाज फौजी थे। शराब पीने पर कभी-कभी मुझसे मारपीट भी करते।
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चिपको आन्दोलन से कैसे जुड़ी ?
चिपको आन्दोलन के कार्यकर्ता सुंदरलाल बहुगुणा जी, धूम सिंह नेगी जी, कुंवर प्रसून, विजय जड़धारी और प्रताप शिखर आदि गांव में आते रहते थे। बैठक करते थे। मैं भी बैठकों में शामिल होती। बैठकों में वन सुरक्षा की बात होती। गांव के निकट जन जागृति संस्थान में भी बैठकें होती। वहां भी मैं भागीदारी करती। हमारे गांव में चिपको आंदोलन का बहुत जोर रहा। 1978 में मेरे साथ ही गांव की चार महिलाएं जेल गईं। तब घर और बच्चों की देखभाल मेरे पति ने ही की। नरेंद्र नगर में चिपको आंदोलन में और ज्यादा लोग गिरफ्तार हो सकते थे लेकिन नीलामी हाल के बाहर बैठे लोगों को गिरफ्तार नहीं किया गया।

जेल में मेरा और चिपको आन्दोलन के कार्यकर्ताओं का आत्मविश्वास तो बढा, लेकिन जब गांव लौटे तब गांव वालों ने बैठक कर हमारा बहिष्कार कर दिया कि यह तो जेल में रहकर आई हैं। ठाकुरों की बहू जेल चली गई। जबकि कभी ठाकुर लोग औरों को जेल भेज देते थे। सुदेशा के ससुर को तो रियासत में जागीर भी मिली थी। जेल तो राजा के विरोधी जाते थे। गांव के अनेक लोगों ने मेरे  हाथ का चाय-पानी पीना बंद कर दिया।

लेकिन गांव की महिलाएं तब भी साथ देती रहीं। हर बैठक में मेरे साथ कोई न कोई महिला साथ चल देती। मैंने भी गांव की महिलाओं को जागरूक करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। 1980 के दशक में तब पहली बार महिलाओं के पोस्ट अफिस में खाते खुलवाए जाने लगे। हरित हिमालय परियोजना में महिलाओं को काम मिला। जनजागृति संस्थान के माध्यम से धीरे-धीरे लोगों की सोच भी बदलती चली गई।

परिवार व सामाजिक कार्यों में तालमेल कैसे कर पाईं ?
फौज से रिटायरमेंट के बाद मेरे पति फिर से सिंचाई विभाग में नौकरी पर लग गए। परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी के साथ ही सामाजिक कार्यों में सक्रियता गांव के रूढ़िवादी लोगों को पसंद नहीं रहे। कुल चार बार गांव के रूढ़िवादी लोगों ने मेरा और परिवार का बहिष्कार किया। एक बार पत्रकार कुंवर प्रसून को पाइप लाइन से पानी देने के सवाल पर गांव वालों से मतभेद हो गया। प्रसून का जब किसी ने साथ नहीं दिया, तब मैं अपने गांव से अकेली उनके पक्ष में खड़ी रही। प्रसून के खेतों में रोपाई के लिए गई तो गांव वालों ने मेरा बहिष्कार कर दिया और जुर्माना लगाया।

मैंने कभी भी कोई जुर्माना नहीं दिया। हो सकता है गांव में ही किसी ने मेरा जुर्माना भरा हो। एक बार बीडीसी बैठक में महिला मंडल अध्यक्ष भी बुलाई गई थी। तब मेरे जेठजी प्रधान होते थे। मैंने प्रधानों के कामकाज पर बोला तो अनेक प्रधान विरोधी हो गए। गांव में  तब भी मेरा बहिष्कार किया गया।
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एक बार बीबीसी वाले हमारे गांव में आए। वे किसी महिला से भी बातचीत करना चाहते थे। मैंने इनकार कर दिया और गांव वालों से कहा कि वही बात कर लें या अपनी महिलाओं से बात कराएं। तब तक गांव में महिलाओं को ठीक से हिंदी बोलनी भी नहीं आती थी और फिर आंदोलनों के बारे में भी बताना था। पूर्व में किए गए बहिष्कार पर गांव वालों को मैंने खूब खरी-खोटी सुनाई और फिर बीबीसी की टीम से बातचीत भी की। जब बीबीसी के माइक पर रिर्कांिड हुई तो गांव वाले भी खुश हुए। उसके बाद से गांव में कुछ और बदलाव आया।

चिपको आंदोलन में जेल के अलावा और कहां कहां जाना हुआ ?
1978 में जेल जाने के अलावा मैं लगभग हर जगह सामाजिक आंदोलन में जाती रही। बैठकों में जाती और महिलाओं से बातचीत करती। सलेथ और अदवाणी गांवों में तो चिपको आंदोलन के दौरान पेड़ों से चिपकने वालों में मैं भी शामिल रही। चमियाला, गोतार्स, लोईताल आदि में भी चिपको आंदोलन में शामिल हुई। देहरादून जिले में नाईंकला आंदोलन में भी 1985-86 में भागीदारी की। नागणी में देवनगर में किसानों के लिए सिंचाई जल के संघर्ष में शामिल रही, तो कटाल्डी खनन विरोधी आंदोलन में भी भागीदारी की। बलिप्रथा विरोधी आंदोलन में थानगांव में शामिल हुई। पावरग्रिड लाइन के आंदोलन में भी चिपको कार्यकर्ताओं के साथ सहयोग किया।
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कई बार जब बैठकों में जाती तो देर शाम घर लौटना पड़ता। कुछ आंदोलनों में तो रुकना भी पड़ता, तब घरवाले सहयोग करते। हमारे हमेशा गाय, भैंस और बैल भी होते। कई बैठकों में रात खुलते ही निकलते तो चार पांच बजे सुबह ही खाना बना लेती। बच्चे बाद में खाना खा लेते। कभी-कभी कुछ बैठकों में तो मैं अकेली महिला होती, लेकिन भाइयों ने हमेशा सहयोग किया। मैं टिहरी से बाहर देहरादून, बनारस, मुंबई, गाजियाबाद आदि जगह भी गई। एक बार एक बैठक में तो मैं अकेली महिला थी।

अधिक सक्रियता का बच्चों पर क्या असर पड़ा ?
बच्चे भी आंदोलनों से जुड़े। बड़ा बेटा कुछ अस्वस्थ रहता है लेकिन बेटी बीना तमाम सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय रही और आज भी सक्रिय है। वह बहुत छोटी उम्र में भिल्लंगना विकास खंड की प्रमुख बनी। उसका विवाह चिपको आंदोलन में बचपन से जुड़े साहबसिंह सजवान से हुआ। दोनों का सहयोग भी मुझे मिलता रहा। बेटी बीना वकील हैं और जिला पंचायत सदस्य भी रही हैं। बड़ी बेटी सरोज का शादी के कुछ साल बाद निधन हो गया था। उसने भी हाई स्कूल करने के बाद बालवाड़ी की ट्रेनिंग इंदौर से ली थी।   

बीज बचाओ आंदोलन में कैसे शामिल हुई ?
1990 के दशक में सर्वोदय के भाइयों ने बीज बचाओ आंदोलन शुरू किया। हम सब खेती भी करते ही थे। बाहर के बीज, रासायनिक खादों और दवाइयों का दुष्प्रभाव हमने स्वयं देखा। हमने सिर्फ एक साल खाद का इस्तेमाल किया था और उसके दुष्परिणाम देख लिए थे। फिर कभी इनका प्रयोग नहीं किया। खाद वाले खेत व फसलों को ज्यादा पानी की जरूरत होती है। वर्षा कम हो तो फसल खराब।
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परंपरागत बीज पहाड़ के आदमी की तरह ही, कम-ज्यादा धूप, वर्षा, ठंड, सूखा, सब सह लेता है और विपरीत परिस्थितियों में भी जिंदा रहता है। हेंवल घाटी में चिपको और बीज बचाओ आंदोलन का असर आज भी देखा जा सकता है। पानी, जैव विविधता, जंगल और खेती की विविधता आज भी देखी जा सकती है। कुछ लोग रासायनिक खाद का प्रयोग कर रहे हैं लेकिन अनेक परिवार कुछ न कुछ पशु पाल रहे हैं। पशु हैं तो गोबर की खाद बन ही रही है। खेती के लिए पशुधन जरूरी है। यह एक दूसरे के पूरक भी  हैं और पहाड़ की संस्कृति भी।

जंगली जानवरों से खेती को बचाना क्या अब मुश्किल नहीं हो रहा है ?
पहले जानवर इन्सान से डरते थे, जंगलों में दूर ही रहते थे। जानवर अब इन्सान से डर नहीं रहे हैं। कारण यह भी है कि दिन रात सड़कों पर गाड़ियां चल रही हैं तो जानवरों को भी आदत पड़ गई, इन्सान के आस पास ही रहने की। गांव, बस्ती के आस पास ही रहेंगे तो नुकसान भी करेंगे। जानवरों का खान पान भी इन्सानों की तरह बदल रहा है। जंगलों में जैव विविधता का ध्यान भी रखना पडे़गा। जंगलों में जानवरों के भोजन की कमी हो रही है

समाज में किस तरह के बदलाव होते आपने देखे ?
पहले लोग पढ़े-लिखे कम थे, लेकिन समझ वाले थे। रूढ़िवाद था लेकिन एक बार लोग समझ जाते तो फिर सहयोग मिल जाता था। अब लोग पढ़े-लिखे ज्यादा हैं, पर चालाक हो गए हैं। सुनेंगे नहीं, बस अपनी ही लगाएंगे। अब सहयोग लेना ज्यादा मुश्किल हो रहा है।

पहले लोग रोजी रोटी के लिए मेहनत करते थे और अब पैसे के लिए करते हैं। अब संघर्ष करने वालों के परिवार और बच्चों को जरूर दिक्कत होती है लेकिन उनकी समझ बनती है और आगे समाज में मजबूत बनकर भी उभरते हैं। हमारे परिवार में शराब का प्रचलन नहीं है और पर्यावरण, जंगल, पानी, खेती की समझ आज भी बनी हुई है। अब पौष्टिक खाना वही खा सकता है जो खुद खेती करेगा और पशु भी पालेगा। अन्यथा पेट तो भरेगा लेकिन स्वस्थ रहने की गारंटी नहीं।  तभी शुद्घ दूध, दही, घी, मट्ठा मिलेगा। हां खेती अकेला व्यक्ति भी नहीं कर सकता है। यह संस्कृति की तरह सबके सहयोग से सम्भव है।
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