कहानी: अनुत्तरित प्रश्न

गजेन्द्र सिंह पांगती

व्यापार हेतु तिब्बत की यात्रा, वर्ष में चार बार तीन स्थानों को उत्क्रमण, उत्सव व मेले तथा शादी-ब्याह जैसी विभिन्न सामाजिक धार्मिक व आर्थिक गतिविधियों ने जोहार के शौकाओं को ऐसी सुस्पष्ट समय सीमाओं में बाँध रखा था कि मौसम चक्र के थोड़ा भी गड़बड़ाने पर कभी भी और कहीं भी कुछ भी अनहोनी हो सकती थी। इसलिए इन विभिन्न गतिविधियों में आपसी सहयोग व ताल-मेल अपरिहार्य था।

इस वर्ष भी शौका व्यापारी तिब्बत से वापस आ चुके थे। केवल कुछ बड़े व्यापारी अभी नहीं आए थे क्योंकि वे ज्ञानिमा मण्डी से गढ़तोक चले गए थे और हमेशा की तरह सीधे मुनस्यारी पहुँचने वाले थे। व्यापारियों के मिलम आने से पहले ही महिलाओं ने खेती का काम समेट लिया था। जौं, फाफर व सरसों की कटाई व आलू की खुदाई हो चुकी थी। व्यापारियों के आने के बाद आलू को अगले वर्ष के खाने व बीज के लिए गड्ढों में दबा दिया गया था। मीट सुखाने व उनकी मालाएँ बनाने का काम भी सम्पन्न हो चुका था। क्रिया चक्र में अब बारी थी मुनस्यारी उत्क्रमण की।

शुभ-अशुभ का विचार कर उत्क्रमण की तिथि निर्धारित की गई। पाछू, गनघर व रिलकोट के लोग हमेशा की तरह पहले जा चुके थे क्योंकि व्यापार कम होने के कारण उनका सामान एक ही खेप में मुनस्यारी चला जाता था जिसके तुरन्त बाद वे उत्क्रमण कर लेते थे। इसके विपरीत मिलम वाले, व्यापार अधिक होने के कारण, दो खेप के बाद ही उत्क्रमण करते थे। एक बिरादरी के करीब दस-बारह परिवार सामान्यत: एक दो दिन आगे-पीछे चलते थे पर उस वर्ष उन्होंने निर्णय लिया कि सभी साथ चलेंगे।

शौकाओं के अपने-अपने शिल्पकार भी बहुधा उनके साथ-साथ चलते थे। शिल्पकार लोग सदियों से अपने गुसाँइयों (मालिकों) पर आश्रित थे। तिब्बत व्यापार पूर्णत: मित्र व्यवस्था पर आधारित था और शिल्पकारों के कोई हुनिया मित्र नहीं होते थे जिस कारण गुसाँइयों पर निर्भरता तथा अन्तहीन गरीबी उनकी नियति बन चुकी थी। उत्क्रमण में साथ चलना गुसाँई तथा शिल्पकार दोनों के लिए सुविधाजनक था। शिल्पकार गुसाँइयों का छोटा-मोटा काम करते रहते और बदले में उन्हें भोजन-पानी मिल जाता। शिल्पकारों को इस र्आिथक निर्भरता की लाचारी के साथ-साथ अमानवीय छुआछूत का दर्द भी झेलना पड़ता था। पर शिल्पकार लोग न गुसाँइयों से शिकायत करते न भगवान से। शायद इसलिए कि इस भेदभाव वाली व्यवस्था में एक अच्छाई भी छुपी थी, यदि हम उसे अच्छाई कह सकें तो। इस व्यवस्था में शिल्पकारों को कुछ हद तक र्आिथक सुरक्षा मिल जाती थी, भले ही वह उनकी मूलभूत आवश्यकता मात्र की पूर्ति करती हो।

ऐसी व्यवस्था में एक विधवा शिल्पकार महिला की गुसाँइयों पर निर्भरता आसानी से समझी जा सकती है। इस विधवा शिल्पकार महिला का नाम था गांगी बजलानी। छोटी कद-काठी, आग से झुलसा मुँह एवं स्वत: झपकती बायीं आँख। उम्र्र यदि आड़े न आ रही होती तो देखने वाले को एक बार तो लगता कि वह आँख मार रही है। हँसमुख गांगी के व्यक्तिव में विवशता की लेशमात्र भी झलक न थी। उसकी आँखों की चमक और बात-व्यवहार में आत्मविश्वास इतना कि बड़ी-बड़ी सेठानियाँ भी उसकी बराबरी न कर सकें। और उसकी हाजिर-जवाबी का तो कहना ही क्या। विधवा गांगी के दो छोटे-छोटे पुत्र भी थे जो हरदम साये की तरह उसके साथ चलते रहते।

इस बार मिलम के जिन परिवारों के साथ गांगी ने मुनस्यारी जाने का निश्चय किया था वे उसके गुसाँई नहीं थे पर थे उसके अपने आत्मीय ही क्योंकि उसने अपने बुद्धि कौशल से उनके बीच अपने लिए सम्मानजनक स्थान बना लिया था। उन परिवारों में अधिकांश परिवार सम्पन्न थे और उनको गांगी की सेवाओं की जब-तब आवश्यकता पड़ती रहती थी। कलाराठ पाँगतियों के इन परिवारों के साथ उसका उत्क्रमण सुखकर रहेगा इससे वह आश्वस्त थी।

आखिर मिलम से रिलकोट के प्रथम पड़ाव की यात्रा का दिन आ गया। बकरी वाले तीन दिन पहले ही जा चुके थे। अब परिवारों के साथ घोड़े, गायें व देवता पूजन के लिए रखी तिब्बती बकरियाँ ही चलनी थी। बुग्यालों (चारागाहों) से घोड़े एक दिन पहले ही आ चुके थे। उनके गले में बँधी घन्टियों की घन-घनाहट से सारे घर-आँगन गुँजायमान थे। बच्चों के लिए तो यह उत्सव का सा समय था। प्रात: ही उठ कर सभी ने ज्या (नमकीन चाय) तथा सत्तू का नाश्ता किया। घोड़ों को लाद कर चलने से पहले पुरुषों ने महिलाओं को गायों के साथ और लड़कों को तिब्बती बकरियों के साथ आगे भेज दिया। गांगी भी अपने दो लड़कों को लेकर महिलाओं के साथ चल दी।

सुहावना मौसम था। मिलम से मुनस्यारी का मुख्य मार्ग बिल्जू-बूर्फू होकर जाता था पर मानी बूढ़ा द्वारा मिलम में गोरी गंगा पर पुल बनाए जाने के बाद पाछू होते हुए कम दूरी वाले नए एवं सुविधाजनक मार्ग का प्रयोग होने लगा था। मौसम खराब होने से पूर्व या अन्तिम परिवारों के उत्क्रमण से पहले इस पुल को समेट लिया जाता था ताकि वह जाड़ों में बह न जाए। इस वर्ष मौसम अच्छा होने के कारण पुल अभी भी प्रयोग में था। अत: यह काफिला उसी मार्ग पर अग्रसर हुआ। सुबह की सुनहरी किरणें जहाँ पश्चिमी पहाड़ियों की चोटियों पर आलौकिक सौन्दर्य बिखेर रही थीं वहीं ढलानों के मखमली बुग्यालों पर पड़ रही शिखरों की छाया को भी दुगनित कर रही थी। लगता था मानो किसी कुशल चित्रकार ने अपनी तूलिका से धूप व छांव के बीच रेखा खींच दी हो। उत्तर पश्चिम में गोरी गंगा की घाटी के अन्तिम छोर पर हिम शिखर त्रिशूल सूर्य की स्र्विणम रोशनी में नहा कर अपने धवल शरीर को और भी कांतिमय बना रहा था। ऐसे अलौलिक वातावरण में गायों के पीछे-पीछे चलती महिलाएँ, लड़कियाँ व छोटे लड़के सुवासित मंद-मंद वायु का आनन्द लेते और बतियाते हुए चल रहे थे। गांगी अपने दुहरे अर्थों वाली शब्द व वाक्य रचना तथा उनके अनोखे अंदाज में प्रयोग से महिलाओं का भरपूर मनोरंजन तो कर ही रही थी साथ में बच्चों का सामान्य ज्ञान भी बढ़ा रही थी। लगता था धरा में न तो इससे सुंदर कोई जगह है और न इससे सुखकर कोई जीवन। काश! समय वहीं ठहर जाता और वह सुखानुभूति शाश्वत् हो जाती। पर समय की शायद कुछ और ही मंशा थी।

घोड़े वाले अन्य लोगों से तेज चलते हैं इसलिए पाछू के पास वे महिलाओं से आगे निकलने लगे। जैसे ही कोई पुरुष किसी महिला से आगे निकलता तो महिला (बिरादरी से बाहर की महिलाओं और रिश्ते में छोटे भाई की पत्नी को छोड़) अपनी पीठ पर लदे डोके (रिंगाल की बनी टोकरी) में रखे कट्ठी (मदिरा रखने की लकड़ी की सुराही) से एक चुस्की दारु (मदिरा) निकाल एक छोटे से चाँदी के प्याले में उसे देती। पुरुष एक ही घूँट में उसे पी जाता और उन्हें जल्दी-जल्दी आने को कह कर आगे बढ़ जाता।
Story: Unanswered Questions

हमेशा की तरह पहला पड़ाव रिलकोट निर्धारित था। जब पुरुषों का काफिला मर्तोली कम्मर (ढलान में सीधी सड़क) पहुँचा तो मौसम ने अचानक करवट बदली। मखमली घास के बीच से निकलते पगडण्डीनुमा रास्ते में चलने का आनन्द तिरोहित हो गया और उसकी जगह चिन्ता ने ले ली। यद्यपि वहाँ से रिलकोट नजदीक ही था पर डर यह था कि वर्षा होने पर हिमपात न हो जाए। इस मौसम में थोड़ी सी वर्षा में हिमपात होना सामान्य बात है। इसी चिन्ता में डूबे घोड़े वाले जब रिलकोट पहुँचे तो हिमपात शुरू हो गया। पड़ाव डालने से पहले मन्त्रणा हुई कि पड़ाव यहीं रिलकोट में डाला जाए या उसके लिए मापांग कूच किया जाए। मापांग जाने पर विचार इसलिए किया जा रहा था क्योंकि इस अवधि में सामान्यत: वहाँ बर्फ नहीं गिरती है। मौसम को देख अनुभवी लोगों का मानना था कि लम्बे समय तक बर्फबारी की सम्भावना है इसलिए मापांग जाना उचित रहेगा। पर एक चिन्ता थी, यदि महिलाएँ अपनी सामान्य गति से चलकर रिलकोट देर से पहुँची तो फिर अँधेरा होने के बाद वे मापांग का रास्ता कैसे तय करेंगी। निर्णय हुआ कि ऊपर की ओर जाने वाले किसी व्यक्ति के द्वारा महिलाओं को जल्दी चलकर मापांग आने का संदेश भेजा जाए। और यदि ऊपर की ओर जाने वाला कोई व्यक्ति न मिले तो उनमें से ही कोई संदेशवाहक बने। सौभाग्य से उन्हें ऊपर जाता हुआ एक घोड़े वाला मिल गया जिसके मार्फत महिलाओं के लिए यथायोग्य संदेशा भेज कर काफिला मापांग की ओर बढ़ गया।

देर शाम जब काफिला मापांग पहुँचा तो बहुत तेज वर्षा हो रही थी। सबके कपड़े भीग चुके थे। बड़ी ही मुश्किल से उन्होंने तम्बू खड़े कर सामान व्यवस्थित किया। पड़ाव तैयार हो गया तो वे महिलाओं की राह देखने लगे। शाम ढल रही थी और बारिश जोरों पर थी। अत: सभी को महिलाओं व बच्चों की चिन्ता होने लगी। आखिर अँधेरा होते-होते महिलाओं व बच्चों का काफिला भी पहुँच ही गया। सभी लोग भीग कर तर-बतर व थक कर चकनाचूर हो चुके थे और ठण्ड से काँप रहे थे। उन्हें आशा था कि पड़ाव में पहुँचते ही आग के सामने बैठने व गरमा-गरमा ज्या पीने का आनन्द मिलेगा। पर यह क्या? चूल्हा तो जला ही नहीं था। तेज वर्षा के कारण पुरुष सूखी लकड़ी नहीं ला पाए थे और कच्ची लकड़ी जल नहीं रही थी। रात भर भूखे-प्यासे ठण्ड में ठिठुरते दुबकने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। जब गुसाँइयों का ही ऐसा हाल था तो गांगी का क्या होता। वह भी एक बड़े पत्थर की आड़ में अपने दो बच्चों को गोद में दबा, सिर में ऊनी कपड़ा डाल, रात गुजारने की चेष्टा करने लगी।

जैसे-तैसे भूखे-प्यासे रात कटी और दिन खुल गया पर वर्षा थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। सब कातर निगाह से कभी आसमान और कभी बच्चों को देख नन्दा देवी, दरकोट धार की देवी, नागनी-जोगनी व अन्य कुल देवताओं की मनौती मना रहे थे। उन्हें विश्वास था कि देवी-देवताओं की कृपा दृष्टि ही इस अकस्मात् आ धमकी विपत्ति से उनकी प्राणरक्षा कर सकती है। बड़े-बूढ़े देवी-देवताओं से वर्षा रोकने की प्रार्थना कर ही रहे थे कि एक भयंकर गर्जन-तर्जन ने सबका दिल दहला दिया।

मापांग में जहाँ डेरा डाला गया था उसकी पश्चिम दिशा से एक छोटी नदी गोरी गंगा में आ कर मिलती है। वर्षा के कारण पिछली शाम उसमें असाधारण रूप से उफान आ गया था पर आज उसमें सामान्य से भी कम पानी था। लोग समझ नहीं पा रहे थे कि ऐसा क्यों है। अचानक हुई गर्जन-तर्जन तीव्र हो चुकी थी और वह भयंकर आवाज निरन्तर निकट आती जा रही थी। आखिर वह इतने पास आ गई कि शिलाखण्डों के एक दूसरे से टकराने की आवाज अलग से पहचानी जाने लगी। यह गर्जना पश्चिम दिशा की ओर से आ रही थी अत: सबकी निगाहें उस ओर मुड़ गई। और यकायक देखते क्या हैं कि उस अकारण शान्त नदी की जगह बर्फ, पत्थर, मिट्टी व पानी के सम्मिश्रण से बना विशालकाय पहाड़ उनकी ओर बढ़ रहा है। यह भयावह दृश्य देखते ही सब सकते में आ गए। ईश्वर की इतनी तो कृपा थी कि इस विशालकाय बहते पहाड़ की गति धीमी थी। लोगों में कोलाहल मच गया ‘बचो-बचो’ चिल्लाते हुए, बच्चों को खींचते या उठाते हुए, गिरते-गिरते सभी अपने प्राणों की रक्षा के लिए दक्षिण की ओर भागने लगे। इसी बीच गन्दले मिट्टी व पत्थर युक्त बर्फ का वह पहाड़नुमा रेला नजदीक आ गया और नीचे गोरी गंगा में समाने लगा। उस मलवे के एक छोर ने पड़ाव के एक तम्बू को अपनी चपेट में ले लिया। तम्बू वाले परिवार के लोगों ने रोना-धोना शुरू कर दिया पर सभी असहाय थे। उस स्थिति में सामान बचाने का प्रयास करना साक्षात् मौत को न्यौता देने के समान था। प्रकृति के इस प्रहार से भौंचक्के लोगों ने ऐसे क्षण में भी अपने को संभाला और प्रभावित परिवारजनों को ढाँढस बँधाया कि देवी माँ की कृपा से उनका सामान बच जाएगा। उस दिन इस काफिले पर ईश्वर की कृपादृष्टि अवश्य रही होगी। लोग तो उस मलवे के चपेट में आने से बचे ही, मलवे की चपेट में आए तम्बू ने चमत्कारिक रूप से सामान को ढक कर बहने से बचा लिया। रेले के साथ बह जाने की जगह वह तम्बू मय सामान बड़े-बड़े पत्थरों के बीच अटक गया। पड़ाव के अन्य तम्बू नदी से कुछ दूरी पर थे इसलिए वह रेला वहाँ तक नहीं पहुँचा। पत्थर, मिट्टी व बर्फ का वह विशालकाय पहाड़ तो निकल गया पर गोरी गंगा की उस सहायक नदी में अब भी निरन्तर बर्फ का रेला आए जा रहा था। लोगों का दिल दहलाने के बाद ईश्वर ने उन्हें बचा तो लिया पर विपत्ति अभी भी सिर पर मंडरा रही थी। उधर वर्षा भी रुकने का नाम नहीं ले रही थी।

मापांग में गोरी गंगा दो उत्तुंग शिखरों के बीच की तंग घाटी में पश्चिमी छोर के पहाड़ी के विशालकाय चट्टान की तलहटी से सटकर चलती है। जोहार व मुनस्यारी की सीमा रेखा मापांग से नीचे गोरी गंगा की भयानक तंग घाटी प्रारम्भ होती है और गोरी गंगा का एक विकराल स्वरूप सामने आता है। प्रारम्भ में यात्रियों को इस तंग घाटी व चट्टानों के कारण एक खतरनाक व कष्टकर चढ़ाई व उतार से होकर निकलना पड़ता था। लोगों के उस कष्ट के निवारण के लिए धरम राय पांगती ने उस विकट चट्टान को काटकर एक नया रास्ता बना दिया था। जिसके कारण आवागमन आसान हो गया था। लोग पुराने रास्ते को भूल से गये थे और नई पीढ़ी को तो पुराने रास्ते के अस्तित्व का भी पता न था। हाँ, घोड़ों के परिचारकों को उस रास्ते की अब भी अच्छी जानकारी थी क्योंकि घास व लकड़ी लाने के लिए वे अक्सर पुराने रास्ते की ओर ही जाया करते थे। उन्हीं लोगों ने सुझाया कि विपदा की इस घड़ी में पुराने रास्ते के बड़े उड्यार (गुफा) में महिलाएँ व बच्चे शरण ले सकते हैं। पुरुष वर्ग नए रास्ते की चोटी पर स्थित एक छोटे से उड्यार में सिर छुपा सकते हैं। सभी इस सुझाव से सहमत थे। अत: निर्णय हुआ कि पहले महिलाओं को उस उड्यार तक पहुँचाया जाए।

महिलाओं ने अपने-अपने डोके में सूखा मीट व सत्तू रखा। वे मेवे तथा खाजा (उबालने के बाद भूना गया चावल) तो पहले से ही डोके में था। फिर कम्बल व गिलास इत्यादि बटोर कर वे चल दिए अपनी शरणस्थली की ओर। स्वाभाविक है कि जिसके पास जितना कम सामान था वह उतने ही आगे चल रहा था। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि जो जितना ज्यादा गरीब था वह उतना ही आगे चल रहा था। स्वाभाविक है कि इस समूह में सबसे आगे थी गांगी व उसके दो बच्चे क्योंकि उसके पास जो कुछ भी था वह पहले से ही उसके डोके में था।
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गांगी अपने बच्चों के साथ सबसे पहले उड्यार पहुँची। उड्यार था तो अच्छा-खासा बड़ा पर इतना बड़ा भी नहीं कि तीस-चालीस लोग उसमें आराम से बैठ सकें। गुफा के भीतरी सिरे पर एक चौकीनुमा लगता था मानो किसी ने ऐसे ही विपत्ति में चट्टान काटकर उसे बनाया था। इन परिस्थितियों में वह चौकी किसी रार्जंसहासन से कम न थी। गांगी अपने बच्चों के साथ उस पर विराजमान हो गई। अपनी सम्पन्नता के क्रम में सेठानियाँ आती गईं और उसी क्रम में उड्यार के भीतर बैठती गईं। जगह कम होने पर लोग एक-दूसरे से सटकर बैठ रहे थे। सबसे सम्पन्न घरों की महिलाएँ लछिमा, बसन्ती व हँसुली सबसे अंत में उड्यार पहुँचीं। उनको बड़ी ही मुश्किल से उड्यार के अंतिम सिरे पर घुटने के बल बैठने भर को वह जगह मिली, जहाँ से हजारों फीट नीचे गोरी गंगा का रौद्र रूप निरन्तर दिख रहा था- हर पल यह आभास कराते हुए कि आज गोरी गंगा एक हल्की-सी चूक भी क्षमा नहीं करेगी।

उड्यार के दूसरे छोर पर गांगी का दिल जोरों से धड़क रहा था। उसके मन में एक ही प्रश्न था- क्या सेठानियाँ उसे उसकी राजगद्दी से बेदखल तो नहीं कर देंगी? क्या उसे उड्यार के भीतरी सिरे पर मिले इस राज सिंहासन को छोड़ बाहरी सिरे पर बैठ उफनती गोरी गंगा को ताकना पड़ेगा। एक विधवा शिल्पकार होने के अहसास से वह सहसा सिहर गई।

पति की मृत्यु के बाद गांगी ने अपनी बुद्धि बल से गुसाँइयों के बीच अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया था। पति जिन्दा रहते बढ़ई का काम करता था और वह गुसाँइयों के घरों के आँगन में झाड़ू लगाने से लेकर उनके लिए घर की पुताई के लिए लाल व सफेद चिकनी मिट्टी लाने, जंगल के घास व लकड़ी लाने तथा घट (पनचक्की) से आटा व सत्तू पीस कर लाने का काम करती। अन्य शिल्पकार लोहार, दर्जी, बढ़ई आदि का दायित्व निभाने के साथ-साथ बोझा ढोने का काम भी करते थे। कुछ कुशल शिल्पकारों का खाना-पीना तो चल जाता था पर वे चाहे कितनी भी हड्डी-पसली तोड़ लें गरीबी उनका साथ छोड़ने को तैयार नहीं होती। ऐसे में जब गांगी के पति की आकस्मिक मृत्यु हुई तो उसके सामने अपनी और अपने दो बच्चों के पेट पालने की समस्या मुँह बाये खड़ी हो गई। उस पर कुछ वर्ष पूर्व मिट्टीतेल का दिया गिरने से उसकी झोपड़ी में लगी आग को बुझाते हुए जल जाने से उसके चेहरे का जो हाल हो गया था उसे देख बड़े-बड़े बच्चे तक डर जाते थे। गांगी जीवन के एक सुखद मोड़ पर खड़ी थी और उसे आसानी से कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। पर विश्वास था कि रास्ता कहीं आसपास ही है। होना भी चाहिए। आखिर एक व्यक्ति की ईश्वर कितनी परीक्षा ले सकता है।

गांगी को बचपन में एक-दो बार देवता (कुल देवता व प्रेतात्मा का शरीर में प्रवेश करना) आया था। उसने सोचा क्यों न इसी को आजीविका का साधन बनाया जाए। उसके सौभाग्य से उन्हीं दिनों जब एक सेठानी के लड़के को तेज बुखार आया तो गांगी को देवता आ गया। देवता के प्रभाव में आकर वह विक्षिप्त अवस्था में, बाल खोलकर नाचने लगी। मतिभ्रम (ट्रांस) में नाचते गांगी सेठानी से कहने लगी, “तुमने मेरी अवहेलना की है इसलिए मैं तुम्हारा कोई भला नहीं करूंगी।” समाज में अन्धविश्वास कूट-कूट कर भरा था। सभी उपस्थित महिलाएं डर गईं और देवी से क्षमा माँगते हुए सभी महिलाएं नतमस्तक हो गईं। डरी-सहमी सेठानी गांगी को देखते हुए बोली, “हे देवी! हमें क्षमा कर दो। हमने आपकी जो भी अवहेलना की है उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। आप आदेश दें। हम उसका पालन करेंगे।”

गांगी इसी अवसर की तलाश में थी। वह और जोर से घूम-घूम कर नाचती हुई ऊँचे स्वर में बोली, “हाय रे सुनाली होय! मैं जौंल बौकोरो खौंल!”(मैं जुड़वाँ बकरियों की बलि खाऊंगी!)। र्गिमयों के दिन थे और तिब्बती बकरियाँ अब बची न थी। अन्य किसी तरह से बकरियों की व्यवस्था करना आसान न था। इसलिए सेठानी ने अनुरोध किया, “हे देवी, रातांग(पूजा-बलि में प्रयुक्त होने वाली छोटी तिब्बती बकरी) तो सब बलि चढ़ाई जा चुकी हैं। आप इस बार कृपा कर एक ही बकरी से मान जाओ।” सेठानी के इस अनुरोध को गांगी इस शर्त पर मानी कि भोज की अन्य सामग्री में कहीं कोई कमी नहीं होनी चाहिए। सेठानी के आश्वासन पर गांगी  ने बीमार लड़के के मुँह पर मास-ज्यूनाल (दाल-चावल) फैंका। मतिभ्रमित, वह अब एक स्थान पर खड़ी थरथरा रही थी। उसी अवस्था में लड़के पर मास-ज्यूनाल फैंकते हुए वह कहने लगी, “छार! छार! छ्यौर थे छार, नत में त्यर भल नि कों!” (लड़के को छोड़ो नहीं तो मैं तुम्हारा भला नहीं करूंगी)। लग रहा था मानो वह किसी को भगा रही हो। इसके बाद गांगी ने कुछ दाल, चावल और लाल मिर्च को एक साथ मिलाया और सेठानी को देते हुए बोली, “इसे रात में एक दिए के साथ चौराहे में रख देना। लड़का स्वस्थ हो जाएगा।”

इस रस्म के सम्पन्न होने पर गांगी को भरपूर दाल-चावल आदि मिला। सेठानी ने उसे यह भी आश्वासन दिया कि लड़के के ठीक होने पर जब बलि-पूजन होगा उसमें गांगी मुख्य अतिथि होगी। ईश्वर की कृपादृष्टि गांगी पर रही और सेठानी का लड़का दूसरे ही दिन ठीक हो गया। गांगी की ख्याति सर्वत्र फैल गई और उसे भरपूर सम्मान मिलने लगा। इस प्रसंग से उसे एक अच्छी सीख भी मिली। उसने जाना कि ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए भी जरूरतमंद की र्आिथक स्थिति के अनुसार मोल-भाव किया जा सकता है। इस ज्ञान के बल पर उसने बलि में मुर्गा व मीट की माला स्वीकार करना भी प्रारम्भ कर दिया जिससे उसके यजमानों की संख्या में अच्छी बढ़ोत्तरी हुई। दो अर्थों वाले शब्दों से वह महिलाओं का मनोरंजन पहले से ही करती आ रही थी अत: इस नए रूप के समावेश होने से उसकी सर्व ग्राह्यता और भी बढ़ गई। उसकी र्आिथक स्थिति भी सुधर गई। पर नहीं सुधरा तो अपमानजनक छुआछूत।
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तत्कालीन शौका समाज छुआछूत की बीमारी से बुरी तरह ग्रसित था। शौका लोग शिल्पकारों व मीरासियों की छाया तक से बचते थे- खासकर महिलाएँ। अति इतनी थी कि एक बार थकी होने के कारण जब गांगी अपने गुसाँई के गोठ (भूतल) की बाहरी दीवार पर अपनी पीठ टिका कर थोड़ा आराम कर रही थी तो उस घर की महिला ने उसे ऐसा करते हुए देख लिया और उसे बुरा-भला कहने लगी। महिला ने उस दीवार के भीतरी ओर रखे दुम्के (ज्या व छाछ बनाने में काम आने वाला लकड़ी का उपकरण) की ज्या यह कहकर फेंक दी कि ज्या में छूत लग गया है। प्रतिवाद करते हुए गांगी बोली, “मैंने दुमका छुआ तो है नहीं जो तुम्हारी ज्या अपवित्र हो गई। मेरा छूत दीवार से कैसे सरक सकता है?” और यदि ऐसा हो सकता है तो हम अछूत लोग भी तो इसी धरती में चलते हैं। फिर यह छूत धरती से क्यों नहीं सरकता ? फिर भी वह कोई तर्क सुनने को तैयार नहीं थी।

उड्यार में बैठी गांगी को ऐसी ही एक और घटना याद आई, मीरासी महिला देपुली वाली। देपुली जब बसन्त ऋतु के आगमन पर उसी शौक्याणी महिला के आँगन में ऋतुगीत गा कर नाच रही थी तो नाचते-नाचते उसके पैर पास रखे घड़े को छू गए। क्रोधित महिला ने देपुली को भला-बुरा कहते हुए घड़े का सारा पानी फैंक दिया जिसे वह थोड़ी ही देर पहले भर कर लायी थी। क्षमा माँगने पर भी जब महिला भला-बुरा कहती रही तो देपुली से नहीं रहा गया। उसने आखिर पूछ ही लिया, “गुसाँनी जी, जब गुसाँईं न केवल मेरे हाथ का बना खाते हैं वरन् मुझे खुश करने के लिए छिछोरी हरकतें करते हैं तो क्या तब छूत नहीं लगती? और अगर छूत लगती है तो तुम उन्हें बाहर क्यों नहीं फैंक देती?” इस प्रश्न का भी न तो कोई उत्तर दिया जा सकता था और न ही दिया गया।

ऐसी ही कई अन्य घटनाओं को याद कर गांगी की चिन्ता बढ़ती गई। वह डर रही थी कि उसे व उसके बच्चों को उड्यार से बाहर तो नहीं निकाल दिया जाएगा। इस भय का कारण वह पानी भी था जो उसके पास की चट्टान से रिस रहा था। उसे चिन्ता थी कि छूत के कारण कहीं महिलाएँ उस पानी को पीने से मना न कर दें। ऐसे समय में जब वह रिसता पानी ही पेयजल का एकमात्र स्रोत था, गांगी को लग रहा था कि उसका अपने स्थान से बेदखल किया जाना अनिवार्य है।

पर गांगी का डर, मात्र डर ही रहा। शौक्याणियों की आत्मा मरी नहीं थीं। न तो किसी ने गांगी को गुफा छोड़ने को कहा और न ही अपनी गद्दी। उसकी पीठ से सटे चट्टान से रिस कर आ रहे पानी को भी सभी नि:संकोच पी रहे थे। उस शाम किसी को छूत नहीं दिखी। अचम्भित गांगी सोचने लगी कि शौका सेठानियों का यह व्यवहार सही है या घर वाला व्यवहार। ऐसा क्यों कि जीवन दाँव पर लगने पर ही भेदभाव तिरोहित हो गए। क्या सब को दूसरे लोक की जवाबदेही का भान हो गया है? गांगी सोचने लगी कि क्या अब ये महिलाएँ छुआछूत को हमेशा के लिए त्याग देंगी? क्या छुआछूत की महामारी अब दूर हो जाएगी? क्या छुआछूत को दूर करने के लिए ही ईश्वर ने यह त्रासदी रची है? यही सब सोचते-सोचते गांगी अपने बच्चों को गोद में लिए भूखे ही सो गई। पूरे दिन प्रकृति का ताण्डव देखने के बाद अपने-अपने डर में खोईं और बेहद थकी अन्य महिलाएँ तथा बच्चे भी उस रात भूखे ही सोए।

अगले दिन सवेरे सभी ने सादे पानी के साथ सत्तू व खाजा खाकर पेट की क्षुधा मिटाई। महिलाओं ने कुल देवताओं की मनौती माँगने के साथ-साथ गांगी को भी उकसाना शुरू कर दिया ताकि उसके सहारे देवी माँ से मनौती माँगी जा सके। उकसाने का वान्छित असर हुआ और गांगी को देवता आना प्रारम्भ हो गया। महिलाओं ने उसे सूखे मीट की माला तथा सूखे मेवे की भेंट चढ़ाना शुरू कर दिया। समय का अजब खेल- अब हवा विपरीत दिशा में बहने लगी। अछूत मानी जाने वाली शिल्पकार गांगी और उसके बच्चे उड्यार के सबसे उत्तम स्थान पर बैठ चढ़ावे का सूखा मीट व मेवा खा रहे थे। वहीं गुसाँइयों के परिवार की महिलाएं व बच्चे सत्तू व खाजा पर निर्भर थे।

वर्षा अब भी थमने का नाम नहीं ले रही थी। अगले दो दिन तक वर्षा अविरल गिरती रही और गांगी को तरह-तरह का चढ़ावा मिलता रहा। तीसरे दिन भी वर्षा नहीं थमी। अब तक सभी खाद्य सामग्री समाप्त हो चुकी थी अत: गांगी को भी चढ़ावा मिलना बंद हो गया। उस रात सभी चुपचाप भूखे पेट सोए। बच्चों तक ने शिकायत नहीं की। शायद सभी जानते थे कि अब से वर्षा थमने तक भूखे रहने के सिवा और कोई चारा नहीं है। सभी महिलाएँ मन ही मन अपने व अपनों के जीवनरक्षा की कामना कर रहीं थीं। पर गांगी अलग ही सोच में डूबी थी, “विपत्तियाँ भी कैसी अनोखी समरसता लेकर आई हैं? क्या दु:ख और डर में जन्मीं यह समरता स्थाई हो पाएगी और शिल्पकारों का भविष्य सदा के लिए बदल जाएगा? या फिर समय चक्र सामाजिक भेदभाव को पुन:स्थापित कर देगा?”
Story: Unanswered Questions

मृत्यु का भय उन सेठानियों को और भी अधिक था जो उड्यार के सिरे पर बैठी थीं। किसी की गोद में एक बच्चा था और किसी की गोद में दो। उड्यार में भीतर की ओर खिसकने की तिल भर भी जगह नहीं थी। उन्हें हर समय यही चिन्ता लगी थी कि नींद की झपकी के कारण कहीं बच्चे हाथ से गिर नीचे बह रही निर्दयी गोरी गंगा में न समा जाएं। उन्होंने अंदर की ओर बैठी महिलाओं से बहुत अनुनय-विनय किया कि वे बच्चों को अंदर की और स्थान दे दें, पर कोई भी महिला नहीं मानी। इस अभूतपूर्व स्थिति में जहाँ गांगी को समरसता दिख रही थी वहीं इन सेठानियों को दिख रहा था उनके अपने लोगों की हृदयहीनता व स्वार्थ।

सेठानी हँसुली को सबसे अधिक रोष था। उड्यार में बैठी महिलाओं के परिवारों की उसके पति ने समय-समय पर उधार देकर मदद की थी। उसका पिता जोहार के सबसे बड़े सेठों में से एक था और हरदम लोगों की सहायता करने को तैयार रहता था। यही महिलाएँ जो आज उसके निवेदन को अनसुना कर रहीं थी प्राय: उसके आगे-पीछे फिरती रहतीं और बार-बार दोहराती थीं कि हँसुली के पति की कृपादृष्टि से ही उनका परिवार पल रहा है। हँसुली ने पाया कि आज इस विपत्ति की घड़ी में उनमें से किसी को भी वे शब्द और उपकार याद नहीं हैं। किसी को भी उसके बच्चों पर दया नहीं आ रही थी।

दया आती भी तो कैसे? ऐसा उपकार करने का एक ही अर्थ था- अपनी मृत्यु से साक्षात्कार! बच्चे तो गोद में बैठे थे पर बच्चों को अन्दर बैठने की जगह देने वाले को तो जमीन पर बैठना पड़ता, वह भी उड्यार के बाहरी छोर पर। सेठानी की ऋणी एक महिला को हँसुली और उसके बच्चों पर दया तो आई पर फिर अपने बच्चों के भविष्य की सोच कर वह चुप बैठ गई। वह कैसे जानबूझ कर अपने बच्चों को अनाथ कर सकती थी। उसके मन-मस्तिष्क में घरमोरा की घटना अब भी ताजा थी। घरमोरा में कुछ परिवारों ने पड़ाव डाल रखा था। मध्यरात्रि में अचानक बादल फटने के कारण नदी में ऐसा उफान आया कि नदी किनारे तम्बू डाले सो रहा एक परिवार नदी की तेज धारा में बह गया। उस परिवार के दो छोटे-छोटे बच्चे, नारायण व लछ्मू, नदी के बीच में स्थित एक बड़े पत्थर में अटक कर बच गए। उन्हें जीवनदान भी मिला। अपने बच्चों के बारे में सोचते ही महिला सहम गई और उसने तुरन्त अपने को सेठानी के परिवार से स्वयं को ऋण मुक्त करते हुए सेठानी के अनुरोध को अनसुना कर दिया।

उड्यार के बाहर अब भी मूसलाधार वर्षा हो रही थी। उड्यार के भीतर बह रही भावनाओं की झड़ी में भी कोई कमी नहीं आ रही थी। उड्यार के बाहरी किनारे पर बैठी सेठानी बसन्ती सोच रही थी कि यदि वह झपकी आने से गोरी में समा गई तो दयान के पिता का क्या होगा? उसे चूल्हे या अंगीठी के सामने बैठ कर उनका घंटों बतियाना और बतियाते-बतियाते साथ में भोजन करना याद आ रहा था। उसे याद आ रहा था दयान के पिता का घंटों हुक्का गुड़गुड़ाना और उसका हुक्के में आग फूँकते रहना। यही सब याद करके वह रोते-रोते बोलने लगी, “पता नहीं दयान के बाबा (पिता) ने कुछ खाया भी होगा कि नहीं? वे तम्बाकू कैसे पी रहे होंगे?”

यह सुनते ही लछिमा भड़क कर बोली, “यहाँ हमें अपनी जान की पड़ी है और बसन्ती को पति के हुक्के की चिन्ता है।” फिर बसन्ती की ओर देख उसे सम्बोधित करते हुए बोली, “क्यों उन निष्ठुर मर्दों की चिन्ता कर रही हो? उनको तो अच्छा सबक मिल रहा होगा। मेरे उनको अब समझ आ रहा होगा खाना कैसे बनता है? घर में खाना लगने में जरा भी देर हुई तो गाली देना शुरू कर देते हैं। पिछले साल एक दिन लकड़ी गीली होने के कारण देर हुई थी तो इन्होंने चिल्लाना शुरू कर दिया था। इससे पहले कि बात और आगे बढ़ती मैंने जल्दी से भात बना कर परोस दिया। जल्दीबाजी में भात थोड़ा कच्चा रह गया तो गुस्से में इन्होंने मेरे सिर पर हुक्के की नली दे मारी और सरका कर दन्न से बाहर चले गए। आज पता चल रहा होगा कि भात कैसे बनता है और क्यों कच्चा रहता है।” बातों के इन सिलसिलों को गांगी ध्यान से सुन रही थी। वह सोचने लगी कि क्या यह विपत्ति छुआछूत के साथ पति-पत्नियों और अमीर-गरीबों के आपसी सम्बन्ध को भी बदल देगी? यही सोचते-सोचते एक और रात कट गई।

उड्यार में बैठ वर्षा के बंद होने की प्रतीक्षा करते हुए तीन दिन बीत चुके थे। बाहरी किनारे पर बैठी महिलाओं के लिए अब नींद रोकना मुश्किल हो रहा था। पर अपनी व बच्चों की रक्षा तो करनी ही थी। अत: वे जैसे-तैसे अपने को झपकी लेने से रोक रहीं थी। अपनी राजगद्दी से गांगी यह सब कुछ देख रही थी। अपनी व उन महिलाओं की बेबसी पर उसे तरह आ रहा था। सहसा उसे विचार आया कि पौकौर से काम बन सकता है। दो-तीन मीटर सफेद कपड़े से बने पौकौर का शौका महिलाएँ कमरबंध के रूप में उपयोग करती थीं। शौका महिलाओं का पहनावा देश व प्रदेश के अन्य लोगों से काफी भिन्न था। उनके पहनावे की समानता केवल गढ़वाल के शौकाओं से थी। घाघरा (अधोवस्त्र), आंगरा (अंगवस्त्र) व खोपी (सर ढ़कने व परदे का वस्त्र) के अलावा वे काला कमला भी पहनती थी और उसके ऊपर कमर में कमरबंध की तरह पौकौर बांधती थी जो अन्य किसी समुदाय में प्रचलित नहीं था। पौकौर के अनेकानेक उपयोग थे। इसी के कारण शौका महिलाएँ घास, लकड़ी, आदि का बोझ अन्य समाजों की महिलाओं की तरह सिर पर न ढोकर पीठ में पौकौर के सहारे टिका कर ढोती थीं। पानी का घड़ा भी उसी में टिका कर ढोया जाता था। बच्चे को पीठ में ढोने के लिए उसे पौकौर में टिकाया जाता और एक अतिरिक्त पौकौर से लपेट कर पीठ पर बाँधा जाता था। गांगी ने सेठानियों को सुझाया कि अपने-अपने जीवन रक्षक पौकौर को कमर से निकालें और उनको आपस में बाँध एक लम्बा पौकौर बना कर सबको उसके घेरे में ले लें। ऐसा करने से वे सब एक साथ जुड़ जायेंगे और किसी एक को झपकी आई तो उस झपकी का झटका सबको सचेत कर देगा। और अगर गलती से कोई एक सो भी गई तो ओरों से जुड़ा होने के कारण वह कम से कम गोरी गंगा में जलमग्न होने से तो बच ही जाएगी। सभी को गांगी का यह प्रस्ताव बहुत अच्छा लगा और सेठानियाँ तुरन्त ही पौकौरों के बंधन में बँध गईं।
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आखिर एक चिन्ता तो कम हुई। पर अब भूख सबको बुरी तरह सताने लगी थी। भोजन तो तीसरे दिन ही समाप्त हो चुका था और वर्षा थी कि बंद होने का नाम ही नहीं ले रही थी। थकान, नींद और भूख से तड़पते इन लोगों को क्या पता था कि चौथा दिन और भी दिल दहलाने वाला होगा।

अपने अच्छे दिनों को याद करते और अपने डर को दबाते हुए लोग बेबसी का चौथा दिन व्यतीत कर ही रहे थे कि अचानक एक भयंकर आवाज से घाटी काँपने लगी। एक पल तो लगा कि प्रलय आ गया है। सबने जब उड्यार से बाहर की ओर देखा तो वे देखते ही रह गए। उड्यार के ठीक सामने वाली पहाड़ी टूट कर गोरी गंगा में गिर रही थी। दिल दहला देने वाली आवाज से ऐसा लग रहा था कि उड्यार वाली पहाड़ी भी अब भड़भड़ा कर गिर पड़ेगी। पहाड़ का मलवा इतना अधिक था कि नदी का बहाव ही बंद हो गया और उफनती गोरी गंगा तालाब का रूप लेने लगी। उड्यार वाली पश्चिमी पहाड़ी टूटी तो नहीं पर तेजी से बढ़ रहे तालाब को देख कर लग रहा था कि  अब यह पूरी पहाड़ी ही तालाब में समा जाएगी। प्रार्थनाएँ और मनौतियाँ और भी तेज हो गईं। एक निश्चित और दर्दनाक अंत के पूर्वाभास से कई आँखें नम हो गईं, डर से गले सूखने लगे और कुछ सिसकियाँ भी उड्यार में गूँजने लगी। बच्चे घबरा कर अपनी माताओं से और जोर से लिपट गए। एक और दिन किसी ने सूरज को उगते और ढलते नहीं देखा, एक और रात आ गई। रात के घुप्प अँधियारे में अनहोनी का डर अपनी चरम सीमा पर था। उस रात शायद ही किसी को झपकी आई हो। हाँ, डरे और सहमे बच्चे अवश्य अपनी नींद न रोक पाए।

अगली सुबह की रोशनी सभी को अच्छी तो लगी पर वह रोशनी बिना कोई आशा की किरण लिए आई थी। वर्षा अब भी पहले जितनी ही गिर रही थी और तालाब एक सागर बनने के हठ पर अड़ा था। उड्यार की नि:शब्द शान्ति में सब चुपचाप बैठे थे कि एक बार फिर एक भयंकर आवाज ने सबको दहला दिया। स्वयं को नियति के सुपुर्द कर चुके लोगों ने इस बार उतनी उत्तेजना नहीं दिखाई। प्रतीत होता था कि उन असहाय जनों की भावनात्मक प्रतिक्रियाएँ कुंद हो चुकी हैं। तभी हँसुली सेठानी चीखते हुए बोली, “ओ ईजा, धरती फिर खिसकने लगी है? अब तो हमारा अंत निश्चित है!” अन्य महिलाओं ने भी नीचे की ओर देखा। सभी को लगा की सृष्टि का अंत आ चुका है। लोग एक बार फिर चीखने-चिल्लाने लगे। भय से बच्चे भी अछूते नहीं रहे और उनके करुण कं्रदन से उड्यार गूँज उठा। हँसुली सेठानी अब भी एकटक नीचे देख रही थी। वह भयंकर आवाज अब थोड़ा कम हो गई थी। तालाब के पानी को घटते देख उसे समझ आया कि वह भयंकर आवाज मलवे से बने बाँध के टूटने की थी। बाँध के टूटते ही गोरी गंगा में भीषण उफान आ गया था पर अब धीरे-धीरे कोलाहल कम होने लगा था। हँसुली ने जब यह बात अन्य लोगों को बतार्ई तो लोगों की जान में जान आई। एक तरह से तो यह एक शुभ संदेश था पर किसी को भी इसमें कुछ शुभ नहीं दिख रहा था। बाहर की तरह उड्यार के भीतर का कोलाहल भी धीरे-धीरे कम हो गया। वर्षा अब भी थमने को तैयार नहीं थी। शोक में व्याप्त संध्या एक और अनचाही रात्रि में परिर्वितत हो गई।

फिर एक नई सुबह आई। एक निर्जीव सुबह जिसके आने की न किसी ने राह देखी और न जिसके आने से किसी को खुशी हुई। वर्षा अब भी उतनी ही तेजी से गिर रही थी। न नाश्ते का कोई झंझट था, न खाने का। सभी अनन्त में टकटकी लगाए बैठे थे। शरीर के साथ-साथ दिमाग भी शिथिल हो चुके थे। कानों ने लगातार हो रही वर्षा की आवाज सुनना बंद दिया था। चारों तरफ एक मुर्दानी शान्ति फैली थी। पांचवें दिन ने छठे और छठे दिन ने भी यूँ ही भूखे-प्यासे कट कर सातवें दिन को आमंत्रण दिया। वर्षा अब भी कम होती नहीं दिख रही थी। लगता था सब मान चुके थे कि सब कुछ समाप्त हो गया है कि तभी गांगी जोर से बोली, “गुसाँनियों, लगता है आज देवी माँ की हम पर कृपा होगी। आज सतझर का अन्तिम दिन है। आज बारिश को सात दिन पूरे हो रहे हैं। लगता है कि अब इसकी समाप्ति निकट है।” गांगी को देवता आना तो तभी बंद हो गया था जब सेठानियों के मीट व मेवे खत्म हुए थे पर शायद प्रकृति का यह भयावह रूप भी उसकी बुद्धिमत्ता और जीवन्तता को कम नहीं कर पाए थे। उसका सहज ज्ञान अब भी विद्यमान था। वह तो मन ही मन यह आशा कर रही थी कि आगे उसे छुआछूत रहित नए समाज में सम्मान के साथ जीने का अवसर मिलेगा। बिना देवता आए की गई गांगी की भविष्यवाणी को सभी ने बहुत ध्यान से सुना। सेठानियों ने उसे वादा किया कि अगर उसकी भविष्यवाणी सही निकली तो वे सब उसे घर पहुँच कर भरपूर उपहार देंगे।

सातवें दिन की समाप्ति तक वर्षा वास्तव में बंद हो गई।

वर्षा के शिथिल होते ही पुरुष लोग अपनी गुफा से बाहर आए और कुछ लोग तुरन्त टोला गाँव जाकर सूखी लकड़ियाँ ले आए। थोड़ी देर में वर्षा थम गई। आग जलाई गई और मडुवे की रोटियाँ बनी जिन्हें ले कर कुछ पुरुष महिलाओं वाले उड्यार आए। सभी महिलाओं के हिस्से आधी-आधी रोटी आई। वे सब अपनी-अपनी रोटी पर टूट पड़ीं। आधी रोटी भी कैसे एक भूखे पेट को सहला सकती है इसका विवरण तो केवल वे ही दे सकते हैं जिन्होंने उस भूख की मार सही हो। पर यह खुशी भी क्षणभंगुर निकली। एक घंटे बाद सभी के पेट में दर्द होने लगा। और फिर होने लगे दस्त। चिन्ता ने एक बार फिर सभी को घेर लिया। तरह-तरह की अटकलें लगने लगीं। लोगों ने रोटी में जहर मिले होने तक की संभावना पर विचार कर डाला। पर आश्चर्य कि गांगी और उसके बच्चे बिल्कुल ठीक-ठाक थे। असल में गांगी व उसके बच्चे आखिरी दिन तक थोड़ा-थोड़ा मीट व मेवे खाते रहे थे। सबको परिस्थिति समझाते हुए गांगी बोली, “चिन्ता मत करो। सात दिन तक भूखे पेट रहने से अन्न लग गया है। एक दिन में सब कुछ ठीक हो जाएगा।” बात आगे बढ़ाते हुए वह बोली, “आप लोगों ने भूख देखी ही कहाँ है जो आप ऐसी अस्वस्थता को समझ सको। इसे तो वे ही समझ सकता है जिसने इसे भोगा हो।”
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अन्तत: वही हुआ जो गांगी ने बोला था। अगले भोजन के बाद किसी का पेट खराब नहीं हुआ।

अगले दिन सामान को मलवे से निकालने तथा जानवरों को ढूँढने का काम प्रारम्भ हुआ। सामान तो सब मिल गया पर कुछ गायें व बकरियाँ मर गईं थीं। घोड़ों ने भूख से एक दूसरे की पूँछ तक खा डाली थी। सब काम निपटा कर काफिला अगले दिन बोगड्यार की ओर चला जहाँ सबने दो दिन आराम करने की योजना बनाई। कमजोरी के मारे सभी लोग बड़ी मुश्किल से वहाँ पहुँचे यद्यपि यह दूरी ज्यादा नहीं थी। गांगी भी अपने बच्चों के साथ काफिले के पीछे-पीछे चली और बोगड्यार पहुँच कर उसने गुसाँइयों के पास ही अपना भी अड्डा बना लिया।

धूप निकल चुकी थी। अत: सभी ने भीगे कपड़े व अन्य सामान धूप में सूखने डालना प्रारम्भ कर दिया। घोड़ों को भी उसी दिन र्पोंटग घास चरने भेज दिया गया। र्पोंटग पाँगतियों द्वारा जानवरों के चारागाह हेतु बसाया गया सुंदर गाँव है। वहाँ की पौष्टिक घास से घोड़ों के दो दिन में ही बोझ ढोने लायक होने की पूरी उम्मीद थी और ऐसा हुआ भी।

जीवन के सामान्य गति में वापस आते ही सामाजिक ताने-बाने का विचित्र खेल एक बार फिर शुरू हो गया। सेठों के पास अधिक सामान होने से उन्हें उसको धूप में सुखाने में स्वाभाविक रूप से अधिक समय लग रहा था। जो महिलाएँ गुफा में सेठानियों के बच्चों के लिए जगह छोड़ने को तैयार नहीं थीं वही महिलाएँ अपने आप आकर सेठानियों की मदद करने लगीं। उन्हें उनके उपकारों का ऋण जो चुकाना था। तभी गांगी भी मदद हेतु आ गई। उसे दिखा नहीं कि महिलाएँ ज्या की केतली भी साथ लायीं हैं। गलती से उससे केतली छू गई। फिर क्या था। महिलाएँ गुस्से से आगबबूला हो गईं। छूत लगने के कारण उन्होंने ज्या फेंक दी और गांगी को अपने शब्द-बाणों से छलनी कर दिया। गांगी की स्वाभाविक बुद्धिमत्ता ने उसका साथ छोड़ दिया। उसे न तो कोई तर्क सूझा न कोई मजाक। बुझे मन के साथ वहाँ से जाते हुए वह सोचने लगी- गुसाँनियों का उड्यार वाला व्यवहार असली था कि आज का व्यवहार असली है? गुफा की सामाजिक समरसता व समानता क्या मरघट के वैराग्य की तरह क्षणिक या छलावा तो नहीं थी? हर प्रश्न के उत्तर के साथ तत्पर रहने वाली गांगी के पास आज इन प्रश्नों का कोई उत्तर न था।

यह कहानी वास्तविक घटनाओं पर आधारित है, पर गांगी के अतिरिक्त अन्य पात्रों के नाम पूर्णतया काल्पनिक हैं। पात्रों का किसी व्यक्ति विशेष से मेल पूर्णतया संयोग है। 1956 में घटी इस त्रासदी के भुक्तभोगियों में अन्य पाँगती परिवारों के साथ लेखक का परिवार भी था।
चैती नखराली तथा अन्य कहानियाँ से साभार
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