कहानी: छतरियाँ

कमल कुमार

”यहाँ से र्सिकट हाउस पन्द्रह-बीस किलोमीटर होगा। आपको आने-जाने में परेशानी होगी।” विप्लव ने कहा था।

”तुम दिनभर की एक टैक्सी का प्रबंध कर दो।” शोभा ने आग्रह किया था। ”यहाँ टैक्सी र्सिवस इतनी सुचारु नहीं है। फिर भी आपका ऑफिस यहाँ से पास पड़ेगा। यह सेंटर में है। सुबह नौ बजे आपकी मीटिंग है। यहाँ से आपको आने-जाने में आसानी होगी।”

वह परेशान थी। ”सुनो, तुम मेरी टिकिट कैंसिल करवा दो। परसों की बजाय आज शाम की या रात की जो भी फ्लाइट मिल जाती है, ले लेती हूँ।”

”लेकिन आपकी कल की मीटिंग?” विप्लव ने आश्चर्य प्रकट किया था। ”जब मैं यहाँ रहूंगी ही नहीं तो र्मींटग का कोई मतलब ही नहीं रह जाता।” शोभा परेशानी में भी हँसी थी। उसने इंडियन एयरलाइंस का नंबर मिलाया था। मोबाइल पर बार-बार लाइन कट रही थी। उसने गाड़ी बाई ओर करके रोक दी थी। शीशा खोलकर दोबारा से नंबर मिलाया था और मोबाइल उसके हाथ में दे दिया था, ”आप बात कीजिए।” बड़ी ही अनप्रोफेशनल आवाज थी अनओब्लाइजिंग रवैये के साथ। आज की किसी भी फ्लाइट में संभव नहीं। कल रात की फ्लाइट है। परेशान होकर उसने एकबारगी अपना फैसला किया था, ”विप्लव, बस तब तुम र्सिकट हाउस ही ले चलो।”

”लेकिन आंटी,” वह रुका था, ”शहर से दूर बड़ी अकेली सी जगह। सरकारी अफसरों से ज्यादा वहाँ राजनेता और उनके छुटभैया आते हैं। कोई बहुत सुरक्षित जगह नहीं है। लेकिन आप इतनी टेंशन क्यों ले रही हैं? इतनी परेशान क्यों हो रही हैं? आप चलिए तो। अगर वहाँ आपको अच्छा नहीं लगा तो आप जैसे चाहेंगी, घर पर ही छोड़ आऊंगा। घर भी तो यहाँ से पन्द्रह किलोमीटर है। मम्मा नहीं है आजकल। घर सारा अस्त-व्यस्त है। मैं भी दिनभर बाहर ही रहता हूँ। आपको तकलीफ होगी, इसलिए कह रहा था।” विप्लव ने समझाने की कोशिश की थी।

वह अवश सी हो गई थी। ”यह जगह शहर के बिल्कुल सेंटर में है। आपका ऑफिस बगैरह सब पास में ही है।” वह जैसे उसे आश्वस्त कर रहा था।

शोभा का मन विद्रोह कर रहा था। इस तरह वह किसी अनजान के घर में कैसे ठहर सकती है? मन ही मन वह सारे विकल्पों पर विचार कर चुकी थी। यहाँ होटल में रहना भी उतना ही ऑकवर्ड सा था।

विप्लव ने गाड़ी घर के सामने रोकी थी। अनचाहे मन से वह कार का दरवाजा खोलकर बाहर आई थी। घंटी पर उंगली रखते ही दरवाजा खुला था। स्वागत की सी मुद्रा में वह सामने खड़ी थी, ”आइए। आपका ही इंतजार कर रही थी। सुमन ने बताया था कि वह यहाँ शहर में नहीं होगी इसलिए आपके लिए यही जगह सुविधाजनक रहेगी।” उसके चेहरे पर प्रसन्न भाव था। ”मैं मीरा रैना हूँ। आपके बारे में तो सुमन से बहुत सुना है। आपसे मिलने की उत्सुकता भी थी।”

लेकिन वह सोच रही थी कि कश्मीरी तो नहीं हो सकती, चाहे उसका रंग गोरा था। यूँ ही उसने भी पूछ लिया था, ”कश्मीर में कहाँ से हैं?” मैं कश्मीरी नहीं हूँ। ”मैं तो हिमाचल से हूँ। शिमला के पास ही सोलन जिले से। प्रताप रैना, मेरे पति कश्मीरी हैं। पर वे भी नाम मात्र के कश्मीरी हैं। बहुत पहले ही वहाँ से आ गए थे। यूँ भी प्रताप तो आर्मी में थे। जहाँ भी जिस स्टेट में र्पोंस्टग होती, वहीं घर बन जाता, यही स्टेट अपनी स्टेट हो जाती।”

वह उचककर खड़ी हो गई थी- ट्रे में पानी के गिलास रखे थे। ”पानी पूछना भी भूल गई। लीजिए।” वह शायद गिलास वापस ले जाने के लिए ट्रे हाथ में लिए खड़ी थी।

वह उठी थी, ”मैं रख देती हूँ।”

”दीजिए मुझे दे दीजिए।” उसने बढ़कर गिलास हाथ से ले लिया था। ”खाना लगाती हूँ।”

”नहीं मीरा, खाना तो खा लिया था। एयरपोर्ट से सीधे रेस्तरां ही चले गए थे। तब तो भूख भी नहीं थी। लेकिन पी.आर. को अपनी ड्यूटी पूरी करनी थी। मेरे साथ मेरे दो कुलीग भी थे। उन्हें आज ही आगे जाना था।”

”अच्छा तो चाय बनाती हूँ।” वह खड़ी हो रही थी। ”अगर आप चाहें तो फिल्टर कॉफी बनाती हूँ। यहाँ आकर कॉफी नहीं पी, तो कुछ नहीं पिया।” कुछ हँसी थी।

”आप बैठिए मीरा, प्लीज।”

”चलो, थोड़ा रुककर ही बनाती हूँ।” फिर इधर-उधर की कुछ बातें हुई थीं। जानकारी के लिए या बीच में चुप्पी का व्यवधान न हो इसलिए। फिर मीरा ने ही सुझाया था- ”आप चाहें तो नहा लें। फ्रैश हो लें। गीजर तो मैंने पहले ही ऑन कर दिया था।”

”हाँ, नहा ही लेती हूँ।” वह उठी थी। यह घर डुपलेक्स था। सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आई थी। वह भी साथ ही आई थी। ”यह बच्चों का कमरा है। असल में अभी तक हम सैटल नहीं हो पाए। वैसे यहाँ आए तो सात-आठ महीने हो गए हैं।” वह हिचकिचाई थी। ”इनकी तबीयत बहुत ठीक नहीं थी। फिर शिवानी की पढ़ाई डिस्टर्ब हो गई थी। अब वह प्राइवेट इम्तेहान दे रही है। उसी को लेकर ये मद्रास गए हुए हैं। आज रात को लौट रहे हैं। फिर कुछ मेहमान आए रहे, बस, गृहस्थी में जैसा होता है,” वह हँसी थी।
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अमन ने सूटकेस लाकर रख दिया था।

बाथरूम में फ्रैश टॉवल, सोप।

”मीरा, आप फिक्र मत कीजिए। जरूरी चीजें हैं”

नहाकर सच में अच्छा ही लगा था। कपड़े बदले और पता नहीं लेटते ही वह सो गई थी। आँख खुली तो शाम सी हो गई थी। नीचे आई थी। वह जैसे प्रतीक्षा में थी, मैं दो बार आपको देख आई थी। आप सोई हुई थीं। डिस्टर्ब करना अच्छा नहीं लगा था। आपका मोबाइल भी बज रहा था। आप मिस्ड कॉल में देख लेना। चलिए, अब मैं चाय बनाती हूँ। ये शेफाली मेरी बड़ी बेटी।”

”नमस्ते आंटी, आप बैठो मम्मा चाय मैं बनाती हूँ।”

”बेटा, चाय का पानी रखकर पहले ज्योत जला दे।”

ठक से दिमाग में कुछ चुभा था। एक बवंडर उठा था। धुंधलके में एक आवाज उभरी थी, माँ कह रही थीं, ”रुको, पहले ज्योत जला दूँ।” शाम उतरते ही मंदिर में ज्योत जलाती थीं। हम तब छोटे थे। सब भाई-बहन पाँच मिनट के लिए मंदिर में आते थे, माँ के साथ आरती गाते थे, ”ओम जय जगदीश हरे” हम बड़े हो रहे थे। बड़ी बहन की शादी हो गई थी। एक भाई बाहर चला गया था। एक भाई माँ-पिताजी के साथ रहता था। मैं हॉस्टल में आ गई थी। पर माँ ज्योत जलाती थीं। अकेले ही होंठों में बुदबुदाकर आरती भी करती थीं। हम अगर घर में होते तो उनके साथ खड़े भी होते थे। फिर माँ-पिताजी अकेले रह गए थे। माँ के ज्योत जलाने से एक बार मंदिर में आग पसर गई थी। किचन का पंखा काम करने वाली ने चलता छोड़ दिया था। यह बड़ा इश्यू बना था। माँ से कहा गया कि वे ज्योत न जलाया करें, अगरबत्ती जला लें। परन्तु माँ नहीं मानी थीं। फिर फैसला हुआ था कि दीये में घी नहीं डलेगा, बाती में जो लिपटा होगा वही रहेगा। माँ मान गई थीं। माँ को अब रसोई में नहीं जाने दिया जाता था। उनकी टांगें आर्थराइटिस से रह गई थीं। माँ चाहती थीं कि घर में बहू इस परंपरा को आगे बढ़ाए पर उसका इस सब में विश्वास ही नहीं था। पर सारी विपरीतताओं में भी माँ आखिरी दिन तब ज्योत जलाती रही थीं। बाद में मुझे लगा था वह ज्योत नहीं थी, माँ स्वयं थीं। अंधेरे में प्रकाश ढूंढती हुई औरत। समय कैसे गुजर गया? मेरी शादी हुई। मैं अपने भीतर माँ को संजोए और दिमाग में पिता को रखकर ससुराल आ गई थी। मैंने भी एक छोटा-सा मंदिर किचन में ही बना लिया था। माँ की तरह दोनों समय ज्योत तो नहीं जलाती थी पर नहाकर ऑफिस जाने से पहले दो पल के लिए हाथ जोड़कर एक अगरबत्ती जला देती थी। फिर एक दिन दीवाली की कर्मिशयल हलचल के बीच एक ज्योतनुमा बल्ब दिखा था, उसे खरीद लाई थी और मंदिर में जला दिया था। उस बल्बनुमा ज्योत में लौ दिन-रात फड़फड़ाती रहती थी।

”लेंगी आंटी आप?” शेफाली ज्योत की थाली लिए खड़ी थी। ”हाँ” जल्दी से हाथ बढ़ाकर प्रकाश को लिया और सिर पर और आँखों पर फिराया था। माँ कहती थीं ऐसा करने से बुद्धि तीव्र होती है और आँखों की ज्योति बढ़ती है।

”आप चीनी कितनी लेंगी।” शेफाली पूछ रही थी।

”बस, ऐसे ही दे दो।”

”शुगर फ्री दे दो बेटा,” मीरा ने कहा था।

”इसकी जरूरत नहीं। चाय को ऐसे ही एन्जॉय करती हूँ। कोई प्रॉब्लम नहीं है। मुझे यूँ भी आफिस में चाय बहुत हो जाती है। बस इसलिए चाय में चीनी डालना बंद कर दिया।”

”तभी आप इतनी दुबली-पतली हैं, कैलोरीज़ का ध्यान रखती हैं।”

”ऐसा कुछ नहीं, बस आदत समझ लो।”

जब उसकी शादी हुई तो माँ उसके भीतर बल्ब में ज्योत की तरह फड़फड़ाती थीं। पिता की दी गई ऊँची शिक्षा-दीक्षा के बाद भी माँ बहुत बार उसके क्रियाकलाप पर और व्यवहार पर हावी हो जातीं।

”जरा रुको देव, एक मिनट मंदिर में हाथ जोड़कर जाना।” वह चिढ़ा था, ”अब रहने दो  ये सब। ऑफिस के लिए देर हो रही है।” उसे भी तो ऑफिस जाना था। दो पल हाथ जोड़ने में क्या हो जाता? बुरा लगा था पर सोचने की फुर्सत नहीं थी।

मार्र्केंटग मैनेजर के काम में चैन कहाँ था! सुबह निकलती तो घर पहुँचते शाम गहरा जाती थी। घर में धीमा प्रतिवाद उठा था, ”नौकरी छोड़ दो।” पिता ने शादी निश्चित करने से पहले ही कह दिया था, ”नौकरी मत छुड़वाना। ऊँची शिक्षा-दीक्षा लेकर लड़कियाँ घर बैठ जाती हैं। एक तरह से यह राष्ट्रीय रिसोर्सेज की वेस्टेज है।” उसे भी धीरे से कहा था, ”नौकरी मत छोड़ना। अपने पैरों के नीचे जमीन बनी रहेगी।” घर में उसकी नौकरी को लेकर आवाज़ें तेज़ होने लगी थीं। उसने सामना किया था, ”समस्या क्या है? घर में पूरी तरह से टे्रंड मेड है। फिर पार्ट टाइम काम करने वाली मेड है। किसी तरह की कोई दिक्कत तो नहीं। सब ठीक ही तो है।”

”तुम जानती हो, बड़ी माँ किसी के हाथ का बना नहीं खातीं। माँ दिनभर घर देखती है। अब रात को फिर से वह करे, यह ठीक नहीं है। उनसे हमें इतना एक्सपैक्ट नहीं करना चाहिए।” वह चाहती थी, सबको खुश रखे। क्या फर्क पड़ता है? दिनभर की दिमागी कसरत के बाद शाम को आकर वह घर के सारे छुटपुट काम कर देती। बड़ी माँ के लिए कुछ बना देती। परन्तु तो भी घर के लोग खुश नहीं थे। उनकी माँगें बढ़ती जा रही थीं। पता नहीं कैसे, न चाहते हुए भी शादी के छ महीने बाद ही उसने कंसीव कर लिया था। जो हुआ, उसने स्वीकार किया। पहले बच्चे के स्वागत की तैयारी थी। ऑफिस के काम में कमी नहीं हो सकती थी। घर में सब कुछ ठीक-ठाक होने पर भी मानसिकता यह थी कि घर की बहू को यह करना चाहिए, यह नहीं करना चाहिए। उससे जो कहा जाए, उस पर अमल करना चाहिए। एक रुका हुआ-सा भाव घर में ठहरा हुआ था। वह थकने लगी थी। उसने मार्केटिंग से एचआरडी में ट्रांसफर के लिए एप्लीकेशन दे दी थी। समय पर तनु ने जन्म लिया था। उसकी छुट्टी खत्म होने को थी। उसने मेड को सब कुछ सिखा दिया था। देवेन से कहा था, ”एक महीने की छुट्टी तुम ले लो। तनु का सही सुपरवीजन हो जाएगा।”

देवेन ने छुट्टी ले ली थी। लेकिन घर में यह बात किसी को हज़म नहीं हुई थी। बच्ची की देखभाल भी अब देवेन करेगा और शोभा दफ्तर जाएगी। उसके घर में घुसते ही चक-चक होने लगती। देवेन भी परेशान था। घर के सदस्यों की बातों का असर उस पर हो रहा था।
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मीरा चाय लेकर ऊपर ही आ गई थी। ”मीरा प्लीज, मैं नीचे ही आ रही थी।”

”प्रताप के लिए लाई थी तो आपके लिए भी ले आई। लीजिए, इसमें क्या है।” उसके हाथों में ताजा अखबार थे।

”अरे, सुबह अखबार पढ़ने का समय कहाँ मिलता है? ऑफिस में ही उलट-पलट लेती हूँ।”

मीरा ने कहा था, ”मैं भी कहाँ अखबार पढ़ पाती हूँ सुबह? घर में ही सारा समय निकल जाता है। यूँ हैल्प तो है, पर इन मेड्स पर पूरी तरह डिपेंड भी तो नहीं किया जा सकता।”

”हाँ, हम होती हैं न सुपर मेड। हम पर ही डिपेंड किया जाना चाहिए।” दोनों हँसी थीं।

नौ बजे मीटिंग थी। वह देर से नहीं पहुँचना चाहती थी। इसलिए समय से पहले ही निकल गई थी। दोपहर तक लौटी थी। सुबह का उखड़ा-पुखड़ा घर फिर से व्यवस्थित कर दिया गया था। बाथरूम के तौलिये, मैट सब कदल दिए गए थे। सोफा-कवर, कुशन सब सही जगह थे। बेड्स पर बेडकवर बिछा दिए गए थे। घर की र्डंस्टग हो गई थी। फूलदानों में पानी बदल दिया गया था। किन्हीं दो हाथों का दृश्यमान संसार जगमगा रहा था। खाने की टेबल लगी थी।

धीरे-धीरे उसकी मुश्किलें बढ़ रही थीं। तनु जब से हुई थी, वह बार-बार छुट्टियाँ ले रही थी। उसकी लगभग सारी छुट्टियाँ खत्म हो चुकी थीं। देवेन से कहती तो वह चिढ़ जाता। उसका बर्ताव बदल गया था। उसका स्वभाव रूखा और खीझ भरा हो गया था। प्रमोशन के बाद दफ्तर में उसकी जिम्मेदारी बढ़ गई थी। जब भी उसे घर पहुँचने में देर होती, उसके नौकरी छोड़ने के तर्क तेज़ हो जाते। वह बिना वेतन की छुट्टी पर थी, तनु की तबीयत ठीक नहीं थी। वह समझाना चाहती थी कि तनु की जिम्मेदारी थोड़ी सी देवेन भी बाँटे। उसके पालन-पोषण में सहायक बने। देवेन के माँ और पिताजी तनु के जन्म के कुछ महीने बाद ही श्रीकांत के यहाँ चले गए थे। श्रीकांत की पत्नी हाउस-वाइफ थी। वे कहते, ”जैसे भी हो अपना घर सम्भाले, हमें क्या?”

देवेन दफ्तर से सीधे घर आने की बजाय श्रीकांत के घर जाता। सभी मिलकर उसकी भत्र्सना करते। देवेन उखड़ गया था। वह उसे समझाने की कोशिश करती, ”देखो तनु को इश्यू मत बनाओ। इस तरह की सोच गलत है। तुम्हारे और मेरे बीच गलतफहमी पैदा की जा रही है। समय बदल गया है। हम मिलकर साथ-साथ बहुत कुछ कर सकते हैं।” तनु को डे-र्बोंिडग स्कूल में डाल दिया था। वह देर शाम घर आती थी। श्रीकांत के पास रहकर भी उनकी हमारे घर में दखल-अंदाजी कम नहीं हुई थी। देवेन अपने माता-पिता की तरह ही बर्ताव करने लगा था। दफ्तर से लौटता तो तनु पर नाराज होता, घर में मेड और नौकर पर चिल्लाता।

एक दिन तंग आकर वह तनु को लेकर दफ्तर के फ्लैट में शिफ्ट कर गई थी। पता नहीं, उसका यह फैसला गलत था या उचित? तनु बड़ी हो रही थी, रोज-रोज का झगड़ा, देवेन का ऊँची आवाज में उससे गाली-गलौज करना। उसे लगा था तनु पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा। कंपनी को कई करोड़ का प्रॉफिट हुआ था। उसे एक बड़ी रकम बोनस में मिली थी। साथ ही एक और प्रमोशन भी। पर ऑफिस में उसकी जिम्मेदारी भी बढ़ गई थी। तनु स्कूल से शाम को लौटती, उसके बाद वह अपनी म्यूजिक क्लास के लिए जाती। घर लौटकर खेलती या पढ़ती। वह कोशिश करके जल्दी लौटने का प्रयत्न करती। सब ठीक ही था।

देवेन म्युचुअल कंसेंट से तलाक के कागज तैयार करके ले आया था। उसने कहा था, ”एक बार और सोच लो देवेन। हम साथ रह सकते हैं। तुम अपने फैसले खुद लिया करो। सब ठीक हो सकता है।” परन्तु वह नहीं माना था। लाचार होकर उसने बात बढ़ाई नहीं थी, और कागजों पर साइन कर दिए थे। उसने तलाक के चार महीने बाद ही दूसरी शादी कर ली थी। वह बार-बार सोचा करती, क्या हमें कैरियर और घर में किसी एक को ही चुनना जरूरी है। क्या हम दोनों को साथ नहीं निभा सकते? घर और बच्चों की जिम्मेदारी क्या हम मिल-जुलकर पूरी नहीं कर सकते थे? क्या देवेन सही था?

”कैसी रही आपकी र्मींटग?” दफ्तर की र्मींटग कैसी होगी? उसे सवाल ही अटपटा लगा था। मीरा अतीत में डुबकी लगाकर बाहर आई थी। ”मैंने भी शिमला रेडियो में दस साल काम किया। समाचार पढ़ने से लेकर वार्ता, फीचर, शिक्षा, युवा जैसे सभी सेक्शनों को संभाला, शादी के बाद शेफाली हुई थी। प्रताप ने कहा था, नौकरी छोड़ दो। बच्ची को पालो। कोई मुश्किल नहीं थी। आर्मी में अच्छा स्टाफ मिल जाता है। पर इन्हें पसंद ही नहीं था मेरा नौकरी करना। आखिरकार नौकरी छोड़नी ही पड़ी।”
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बस घर में सारा दिन, इधर से उधर, उधर से इधर। अब तो ये दोनों लड़कियाँ भी बड़ी हो गई हैं। समय भी रहता है। मुझे ऑफर भी मिले। पर इन्हें पसंद ही नहीं। सच कहूँ उसने एक लंबी साँस ली थी, ”कभी-कभी बड़ा डिप्रेशन होता है।” उसने आश्चर्य से देखा था, उसके खूबसूरत चेहरे पर विषाद की गहरी, छाया-सी पड़ी थी।

”अब सोचती हूँ कि कोई दूसरा काम करूँ पर जैसे अपने पर विश्वास सा ही नहीं रहा। अब तो बीस साल हो गए नौकरी छोड़े। फिर घर में सबको मेरी आदत भी पड़ गई है। लगता है हम औरतें छतरियों की तरह होती हैं। तपती धूप और बारिश में भीगती रहती हैं। अपने घर और बच्चों पर तनी हुई और उन्हें बचाती हुई। बस खुद ही छीज जाती हैं विपरीत मौसम से लड़ती हुई हम। सबको मेरे घर पर रहने की आदत हो गई है। जानती हूँ, इनडिसपेंसेबल नहीं हूँ। पर एक सुविधा तो हूँ सबके लिए, हमेशा उपलब्ध। एक बार घर के सदस्यों को यह आदत पड़ जाए तो उसे बदलना मुश्किल तो क्या, असंभव सा हो जाता है। शुरू-शुरू में बड़ा बुरा भी लगता था, पर अब तो सब ठीक ही है।  वह…… से उठी थी आइए खाना लगाती हूँ। शेफाली और शिवानी तो गई हैं, पता नहीं कब आयेंगी। प्रताप तो सुबह ही चले गए थे, कह गए थे कि खाने पर इंतजार न करना। उसने मदद करनी चाही थी, पर वह मुस्करा रही थी। ”आप बैठिए। सब कुछ तैयार है, बस जरा चपाती सेंकती हूँ। गर्म ही अच्छी लगती हैं।” ”मीरा आप बना लीजिए। इकट्ठे खाएंगे हम।” मेज पर इतनी सारी चीजें देखकर वह परेशान थी। उसने कहा था, ”आपने इतना कुछ क्यों बना दिया?”

”असल में निश्चित तो किसी का भी कुछ नहीं होता। शिवानी, शेफाली चली गई। प्रताप भी मना कर गए। पर कोई भी घर आकर खाना माँग तो सकता है। फिर जिसको जो चाहिए वह मिलना ही होता है।” उसकी फ्लाइट का समय हो गया था। विप्लव ने डिक्की खोलकर सूटकेस पीछे रख दिया था। मीरा और शोभा दो किनारे क्यों बन जाते हैं? क्या शोभा और मीरा एक नहीं हो सकतीं? मीरा कह रही थी, ”घर में सभी लोगों के बीच कभी-कभी बड़ी अकेली हो जाती हूँ। सबके अपने-अपने काम हैं। सबकी दिनचर्या है। बस एक मैं हूँ फालतू जैसी। फिर भी जरूरी हूँ, हर समय उपलब्ध।” तनु बड़ी हो रही थी। कॉलेज के पहले साल में आ गई है। बहुत तर्क करने लगी है। ”आज फिर देर से आई मम्मी। बहुत बुरी हो तुम। और सुनो। मैं बी.ए. पास कर लूं तो मेरी शादी कर देना। लड़का ढूँढ लो। मुझे नौकरी नहीं करनी। तुम्हारी तरह भागमभाग भी नहीं करनी। एक अच्छे से लड़के से शादी करूंगी। चार-पाँच बच्चे पैदा करूंगी। आपको याद है न? सीमा दीदी की शादी में पंडित जी ने फेरों के समय दूल्हे से क्या कहा था। पत्नी के लिए अन्न, धन, घर की सुरक्षा की जिम्मेदारी पति की होती है।”  तनु ठठाकर हँसती, ”मैं तो शादी करके ऐश करने वाली हूँ बस।”

एयर हॉस्टेस थी, ”आपके लिए वैज या नॉनवैज?”

उसने चौंककर आँखें खोली थीं। डिनर नहीं। चाय, एक कप चाय। बस। उसकी भूख मर गई थी। अंधेरे में प्लेन के पंख पर लगी लाल, हरी बत्तियाँ रह-रहकर चमक जातीं। कभी मीरा, तो कभी तनु उन बत्तियों की तरह अंधेरे में बारी-बारी उसके सामने आ रही थीं।
कमल कुमार की यादगारी कहानियाँ से साभार
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