सौ पुत्रों की माँ बनो

Story Sudha Murti
फोटो: स्व. कमल जोशी
-सुधा मूर्ति

थोड़ा अंधेरा हो गया था। मैं रात्रि 9 बजे की रेलगाड़ी पकड़ने के लिए जा रही थी। हम रेलवे स्टेशन का आधे से अधिक रास्ता तय कर चुके थे। ट्रैफिक और ज्यादा होता जा रहा था। ड्राइवर बड़ी मुश्किल से कार आगे बढ़ा रहा था। हालांकि सड़क काफी चौड़ी थी, लेकिन आगे खिसकने के लिए जरा भी गुंजाइश नहीं थी। पैदल चलने वाले और टू व्हीलर छोटे-छोटे अंतरालों में से निकलने की कोशिश कर रहे थे।
(Story Sudha Murti)

मैं अत्यधिक व्यस्त समय में ट्रैफिक जाम में रुक जाने की अभ्यस्त हो चुकी हूँ, लेकिन दिन के समय जाम में फँसना अलग बात है। मुझे कारण समझ नहीं आ रहा था। इसी दौरान मेरा ड्राइवर उतरकर सड़क पर किसी से पूछने लगा और मुझे बताया, ‘‘मैडम, ‘सौहार्द समवेश’ के कारण सारे रास्ते बंद हैं। इसमें मोबाइल वैन पर मंच बना रखा है और धार्मिक नेता इकट्ठे होकर भाषण दे रहे हैं। ऐसा लगता है कि अखबार में इसकी घोषणा की गई थी। आप किसी भी तरह ट्रेन पकड़ सकतीं।’’ उसनेअपनी लाचारी दिखाई और जल्दी से पास की लेन में कार एक तरफ करने लगा, क्योंकि पासवाली कार थोड़ा-सा खिसकने लगी थी।

सुबह मैंने अखबार में पढ़ा था कि आज कौमी एकता मीटिंग है, लेकिन यह कभी नहीं सोचा था कि इसका ट्रैफिक और मेरे सफर पर असर पड़ेगा। चूँकि यह समुदाय से जुड़ा सार्वजनिक समारोह है, इसलिए हर मिनट पर भीड़ बढ़ती जा रही थी। मैंने महसूस किया कि इतनी भीड़ में मेरा आगे जाना या पीछे हटना मुमकिन नहीं है। उस दिन का ट्रिप रद्द करने के लिए मेरे पास दो विकल्प थे-कार में आराम करूँ या नीचे उतरकर भाषण सुनूँ। मैंने बाद वाला विकल्प चुना।

दूर से मंच दिखाई दे रहा था। कुर्सियों पर अलग-अलग रंग की पोशाक पहने धार्मिक नेता बैठे थे।

मेरे आगे एक बुजुर्ग व्यक्ति खड़ा था। उससे कोई कुछ नहीं पूछ रहा था, फिर भी वह टीका-टिप्पणी कर रहा था- ‘‘ओह, यह सब ड्रामा है। भारत में चुनाव के दिनों में ‘जाति’ खास भूमिका निभाती है। जाति के आधार पर पार्टी के टिकट दिए जाते हैं, न कि काबिलियत के आधार पर। जो भी सत्ता में आता है, वह अपनी जाति और समुदाय का भला करता है। वास्तव में यहाँ लोकतंत्र का कोई अर्थ नहीं है। इस तरह भाषण देना आसान है, लेकिन उस पर अमल करना मुश्किल है।’’ वह व्यक्ति सनकी लग रहा था।

कुछ समय बीतने पर अधेड़ उम्र की एक औरत ने माइक ले लिया। उसने बोलना शुरू कर दिया। फुसफुसाहट की आवाजें कम होने लगीं और उसका भाषण साफ सुनाई देने लगा। वह लगातार बोले जा रही थी और ठोस तर्क दे रही थी। यकीनन वह कॉलेज के दिनों में अच्छी वक्ता रही होगी।

‘‘जब आप प्लेट में रखकर कुछ खाना चाहते हैं तो केवल चावल या चपाती ही नहीं, बल्कि आपको सब्जी, दाल, दही आदि भी चाहिए। इन सबके लिए अलग-अलग कटोरियों की जरूरत होती है। दो व्यंजन एक जैसे नहीं होते या उनका एक जैसा स्वाद नहीं होता। लेकिन भोजन में प्रत्येक की जरूरत होती है। ऐसा ही हमारा भारत है। हमारे अलग-अलग समुदाय हैं। पूरे भारत में ये छोटी-छोटी कटोरियों के समान हैं। हम सब मिलकर भारत बनाते हैं। हमें मिल-जुलकर रहना है। भारतीय होने की पहचान बनाए रखनी है। तभी तो हम बेहतर और मजबूत देश बना सकते हैं।’’
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‘‘ऐसे भाषण सुनने में अच्छे लगते हैं, लेकिन इन पर अमल कौन करेगा? जो कुछ हासिल किया जा सकता है, वह चाहने मात्र से नहीं होता और हर ऐसी चीज हासिल नहीं हो सकती, जिसकी हमें इच्छा है।’’ बुजुर्ग व्यक्ति ने बात जारी रखी।

‘‘हम ऐसा क्यों कहते हैं?’’ मैं उनकी निराशाजनक टिप्पणियों को बंद करना चाहती थी।

वह मेरी बात पर थोड़ा चौंक गए, क्योंकि शायद उन्हें इस प्रश्न की उम्मीद नहीं थी।

‘‘क्योंकि मेरा परिवार भुक्तभोगी है। साम्प्रदायिक पक्षपात के कारण मेरे बेटे को नौकरी नहीं मिल पाई। मेरी बेटी का तबादला कर दिया गया, क्योंकि उसका बॉस उसकी जगह पर अपनी बिरादरी का व्यक्ति लाना चाहता था। आप कहीं भी चले जाएँ, आपकी जाति के बारे में पहले बात की जाएगी न कि काबिलियत के बारे में; लेकिन गरीब लोगों की कभी मदद नहीं की जाती। कुल मिलाकर यह परेशान करने वाला विषय है।’’

मेरे पास तथा मंच पर दोनों जगह भाषण चल रहा था।

‘‘इसका क्या नाम है? मंच पर कौन बोल रही हैं?’’ मैंने बीच में टोक दिया।

‘‘वह अंबा भवानी है। पड़ोसी राज्य से आई है। अच्छी वक्ता है।’’

जैसे ही मैंने उसका नाम सुना, मैं यादों में खो गई। मुझे इस भीड़ का भी एहसास नहीं रहा। भाषण, जाति तथा अपने चारों ओर किसी भी चीज का होश मुझे नहीं रहा। मैं अपनी दादी माँ अंबा बाई की यादों में खो गई, जो 30 साल पहले इस दुनिया से चल बसी थीं।
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मेरी दादी अंबा बाई को गाँव में प्यार से ‘अंबक्का’ या ‘अंबक्का आई’ कहा जाता था। वह ग्रामीण महिला थीं, जो उत्तर कर्नाटक के बीजापुर जिले के जामखंडी ताल्लुके के सावलगी गाँव में जनमी, पलीं और मर गईं। उन्नीसवीं सदी के अन्य लोगों के समान उन्होंने स्कूल की दहलीज पर पाँव नहीं रखे। जल्दी ही उनकी शादी हो गई और बड़े परिवार की ढेर सारी जिम्मेदारियाँ उन पर आ गईं। विधवा हो जाने के बाद चाहे उनकी इच्छा थी या नहीं, उनका सिर मुँडा दिया गया और वह हमेशा लाल रंग की साड़ी के पल्लू से सिर ढँके रहती थीं। वह कट्टर ब्राह्मण समाज की परंपरा में बँधी थीं। वह 89 वर्ष तक जीवित रहीं। मरते दम तक वह जिस दुनिया को जानती थीं, उसमें उनके 10 बच्चे, 40 से ज्यादा नाती-पोते, जमीन, घर, पशु और छोटा सा गाँव शामिल था।

हम किसान थे और हमारा बड़ा सा कच्चा घर था। गाय, घोड़े, बैल तथा भैंस थे। जमीन के नीचे अन्न का भण्डार रखा था। आँगन में बहुत बड़ा नीम का पेड़ था। गरमियों के मौसम में इस पेड़ के कारण सारा घर ठंडा रहता था। मच्छर दूर भगाने के लिए घर के बाहर नागफनी या कैक्टस के पौधे लगे थे।

हालांकि हम छुट्टियों में अज्जी (कन्नड़ में दादी माँ को ‘अज्जी’ कहा जाता है) के पास जाते थे, लेकिन किशोरावस्था में पहुँचने पर ही मुझे पता चला कि वह अपने समय से कितनी आगे थीं और उनका सोचने का तरीका कितना आधुनिक था। मैं यह देखकर हैरान होती थी कि अंधविश्वासी और बजुर्ग होने पर भी वह नारी-शिक्षा तथा परिवार-कल्याण की प्रशंसा करती थीं। वह समाज में विधवाओं पर थोपे जाने वाले रिवाजों के खिलाफ थीं।

तब आज की तरह सभी जिलों में मेडिकल कॉलेज नहीं होते थे, न ही प्रत्येक ताल्लुके में सरकारी अस्पताल होता था और न ही प्रत्येक गाँव में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र होते थे। प्रसूति का काम दाइयाँ और महिला डॉक्टर करती थीं। मेरे दादी माँ को वास्तव में गर्व था कि ऐसे अवैज्ञानिक समय में, जब अनेक महिलाएँ प्रसव-पीड़ा के दौरान मर जाती थीं तब शिशु मृत्यु-दर इतनी ज्यादा थी, उन्होंने 10 तन्दुरस्त बच्चों को जन्म दिया और वे सभी जीवित थे।

हालांकि पिताजी की नौकरी के कारण हम अलग-अलग कस्बों में रहते थे, फिर भी छुट्टियाँ हम दादी माँ के साथ बिताते थे और नि:सन्देह हम वहाँ खुश रहते थे।

ऐसे ही एक बार हम छुट्टियाँ बिताने गए थे। हम पास के गाँव में किसी रिश्तेदार की शादी में भाग लेने के लिए अज्जी के घर इकट्ठे हुए थे। लेकिन चाहे कोई जाए या नहीं, अज्जी ऐसे समारोह में कभी नहीं जाती थीं और घर पर रहना पसंद करती थीं। उस समय मैंने उनके साथ रुकने का फैसला लिया। उस रात में मैं, अज्जी और हमारा सहायक दयामप्पा थे।

अपनी उम्र के लोगों से अलग अज्जी खाना पकाने की शौकीन नहीं थीं। मैंने उन्हें कभी भी अचार डालते, तरह-तरह की मिठाइयाँ बनाते या रसोईघर में पसीना बहाते नहीं देखा। अज्जी सुबह जल्दी उठ जाती थीं, भक्तिभाव से पूजा-पाठ करती थीं। कुछ देर तक चुपचाप भगवान की प्रार्थना करती थीं। यदि जरूरी होता तो ज्वार की रोटियाँ बनाकर सब्जी के साथ खाती थीं। घर में दही हमेशा होता था और यही उनका लंच होता था। लेकिन निश्चित रूप में उनमें भी काम करने की धुन थी। उन्हें खेती-बाड़ी और प्रसव के समय औरतों की मदद करना अच्छा लगता था।

वह अधिकांश समय खेतों में बिताती थीं। चूँकि वे किसानों का बहुत ख्याल रखती थीं, इसलिए उनकी बेहतरी अज्जी की खेती-बाड़ी के काम का हिस्सा थी- ‘क्या कुएँ में पानी का स्तर सही है या कहीं उसमें मिट्टी तो जमा नहीं हो गई?’, ‘क्या तुमने हल की मरम्मत कराई है?’, ‘पार्वती गाय कैसी है? कल वह बीमार थी।’ आदि।

जब किसी के प्रसव का समय आता, तब वह जाति या हैसियत की परवाह नहीं करती थीं। वह अपने बलबूते से बाहर जाकर जच्चा की मदद करती थीं।

वह गर्भवती महिला को सलाह देतीं- ‘‘सावित्री, सावधान रहना। तीसरा महीना चल रहा है। भारी सामान मत उठाना। अच्छा खाओ, दूध ज्यादा पियो।’’

‘‘पीरांबी, दो बार गर्भवती हो चुका है, इस बार सँभलकर रहना। ज्यादा माँस-मछली मत खाना। सब्जियाँ और फल ज्यादा लो। ज्यादा देर तक खाली मत बैठना। गर्भावस्था कोई बीमारी नहीं है। थोड़ा चुस्त रहा करो। हल्का-फुल्का काम करो। अपने पति हुसैन साब को मेरे घर भेज देना। मैं उसे सांबर पाउडर दूँगी। मेरी बहू ने इसे अच्छी तरह बनाया है।’’

कुछ लोग अज्जी की सलाह को बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। इनमें से एक शकुंतला देसाई थीं। वह किसी शहर से आई थीं और थोड़ा पढ़ी-लिखी थीं। वह टिप्पणी करतीं, ‘‘अंबक्का को सेहत का क्या पता? क्या वह डॉक्टर है? उसने कौन-सी किताब पढ़ी है?’’ आदि।

लेकिन अज्जी उसकी परवाह नहीं करती थीं। इसके विपरीत वह कहतीं कि वह शकुंतला को तब सलाह देगी जब वह गर्भवती होगी और चालीस बरस का तजुर्बा ही उसकी किताब थी।

वह दिसंबर की कँपकँपाती ठंडी रात थी। चाँद नहीं निकला था, न ही उन दिनों गली में बिजली होती थी। अज्जी और मैं एक ही कमरे में सो रही थीं और दयामप्पा मेन हॉल से बाहर सामने बरामदे में सो रहा था। पहली बार मैंने अज्जी को सिर से पल्लू हटाते देखा। मैं उसके छोटे-छोटे सफेद बाल देख रही थी। वह उन्हें पोंछ रही थीं और दु:खी होकर खुद से बातें कर रही थीं- ‘‘मुझे नहीं पता, समाज में ऐसी कुरीतियाँ क्यों हैं? मेरी इतनी मोटी-लंबी चोटी होती थी। मुझे उससे कितना लगाव था। हर कोई मेरी चोटी का दुश्मन था। मैं अकेली उस समय चिल्ला रही थी, पर कोई कुछ नहीं बोल रहा था; लेकिन जब पत्नी की मृत्यु होती है तब पति जीवनभर सिर मँुडाकर नहीं रहता। उलटे वह दूसरी बार शादी करने के लिए दूल्हा बन जाता है। कितना विचित्र है!’’

उस समय, मैं उनका दर्द नहीं समझ पाई। लेकिन अब, जब मैं उनके पीड़ा से भरे शब्दों को याद करती हूँ तो महसूस करती हूँ कि वह उस समय कितनी लाचार रही होंगी!

कुछ समय बाद उन्होंने बात बदल दी- ‘‘हमारी पीरांबी को बच्चा होने वाला है। आमतौर पर देखा गया है कि अमावस या र्पूिणमा की रात बच्चा पैदा होता है। हालांकि पीरांबी अच्छी और धार्मिक महिला है, लेकिन वह चुप रहने वाली है और मुझे यकीन है कि जब तक उसे दर्द नहीं उठेगा, वह किसी को नहीं बताएगी। मैं उसके सुरक्षित प्रसव के लिए कुल देवी काल्लोली वेंकटेश से प्रार्थना करूँगी और बीजापुर के पीर साहब दरगाह में भी दुआ माँगूँगी। हालांकि हर कोई कहता है कि उसके बेटा होगा, लेकिन मैं चाहती हूँ कि उसके बेटियाँ भी हों। बेटियाँ अपने माँ-बाप का ज्यादा ख्याल रखती हैं। कोई भी स्त्री-पुरुष का काम कर सकती है, लेकिन पुरुष स्त्री का काम नहीं कर सकता। तुम्हारे अज्जा के जाने के बाद क्या मैं पूरी खेती-बाड़ी नहीं देख रही? अक्कव्वा, याद रखो कि महिलाओं में धीरज और समझ-बूझ ज्यादा होती है, लेकिन नहीं समझ पाते कि…’’
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उनके कई पोते-पोतियाँ थे। सबके नाम याद रखना मुश्किल था। इसलिए वह पोतियों को ‘अक्कव्वा’ और पोतों को ‘बाला’ कहती थीं।

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। वह उठी और बोलीं, ‘‘दयामप्पा, हुसैनी तो नहीं आया!’’

हाँ, यह हुसैनी था।

तुरंत अज्जी ने पल्लू से सिर ढँका। अपने विधवा जीवन के तमाम कष्ट भुलाकर वह मुझे सलाह देने लगी थीं। वह बहुत ज्यादा व्यावहारिक हो गई थीं।

‘‘हुसैनी, पीरांबी को दर्द उठ रहा है?’’

‘‘हाँ, शाम से उसे दर्द हो रहा है।’’

‘‘तब तुम इतनी देर से क्यों आए? तुम समझते नहीं कि जब औरत को दर्द हो रहा हो तब समय बरबाद नहीं करना चाहिए। एक-एक मिनट कीमती होता है। अब बिना समय गँवाए जल्दी चलो।’’

उन्होंने हुसैनी और दयामप्पा को हिदायतें देनी शुरू कर दीं।

‘‘हुसैनी, कैक्टस काटो, नीम की कुछ पत्तियाँ तोड़ो। दयामप्पा, दो बड़ी लालटेन जलाओ।’’

‘‘अक्कव्वा, तुम घर पर ठहरो। दयामप्पा तुम्हारे साथ रहेगा। अब मैं जल्दी में हूँ।’’

वह सामान इकट्ठा करने लगीं। सारी चीजें लकड़ी की संदूकची में डाल लीं।

इस समय तक दयामप्पा ने बड़ी सफेद पगड़ी बाँधी, मूँछों पर ताव दिया और तेज रोशनीवाली दो लालटेन लेकर खड़ा हो गया। काली-घुप्प अंधेरी रात में ऐसा लग रहा था मानो रामलीला में कोई रावण का अभिनय कर रहा हो। मैंने पिछले हफ्ते रामलीला देखी थी।
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मैं डर गई और अज्जी का कहना मानने से इनकार कर दिया। मैं उसके साथ जाने की जिद कर रही थी।

‘‘अक्कव्वा, जिद मत करो। तुम सयानी लड़की हो। तुम्हें ऐसी जगह पर साथ नहीं जाना चाहिए। मैं किसी मंदिर में नहीं जा रही हूँ। ठीक है, मैं तुम्हें अपनी सहेली गिरिजा के घर छोड़ जाती हूँ।’’

मैं कोई ऐसी-वैसी लड़की नहीं थी और अपने फैसले से टस-से-मस नहीं हुई।

अब अज्जी ने ज्यादा बात नहीं की। वह कुछ और ही सोच रही थीं। वह पूजा-घर गईं, भगवान के आगे हाथ जोड़े, दीये में और तेल डाला, प्रणाम किया और बाहर आ गईं।

अज्जी ने मकान में ताला लगाया। चारों घोर अंधेरी रात में चलने लगे। हुसैन साहब आगे-आगे लालटेन लेकर चल रहे थे। अज्जी और मैं दोनों हाथ पकड़कर चल रही थीं। हम बीच में थे, पीछे एक और लालटेन थामे दयामप्पा चल रहा था।

हमने अनेक गलियाँ पार कर लीं। अज्जी को पैदल चलने की आदत थी और मैं लड़खड़ा रही थी। मैं तेज नहीं चल पा रही थी। मैं नहीं जानती थी कि वे लोग कहाँ जा रहे हैं, बस चल रही थी। ठंड से ठिठुर रही थी। सारे रास्ते अज्जी हुसैन व दयामप्पा को लगातार हिदायतें दे रही थीं और साथ ही खिसकते पल्लू से सिर ढँकती जा रही थीं।

‘‘हुसैनी, बाहर रखे ड्रम में पानी भर देना। दयामप्पा तुम्हारी मदद करेगा। थोड़ा पानी उबाल लो। थोड़ा सा कोयला जलाओ। सारे चूजे और मेमने शेड में रख दो। देखो, कोई बाहर न घूमे।’’

जब हम हुसैनी के घर के पास पहुँचे, पीरांबी की दर्दनाक चीखें सुनाई दे रही थीं।
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हुसैनी और पीरांबी के घर कोई बड़ी-बूढ़ी नहीं थी, न ही उनका कोई रिश्तेदार था। वे गरीब मजदूर थे, दिहाड़ी पर मजदूरी करते थे। झोपड़ी में रहते थे, लेकिन बहुत ईमानदार थे। केवल पास में रहने वाली बूढ़ी औरत महबूब बी आई हुई थीं और पीरांबी के पास बैठी थीं। अज्जी को देखकर उसे राहत मिली, ‘‘अब चिन्ता की कोई बात नहीं। अंबक्का आई आ गई हैं।’’ उसने लंबी साँस लेकर कहा।

अज्जी ने हाथ-पैर धोए, अपनी संदूकची के साथ कमरे के भीतर चली गईं। दरवाजे और खिड़कियाँ बंद कर दीं।

बाहर लकड़ी के बेंच पर हुसैनी और दयामप्पा बैठकर अज्जी की हिदायतों का इंतजार करने लगे। हालांकि मैं यह जानने के लिए उत्सुक थी कि अंदर क्या हो रहा है।

मैंने अज्जी की स्नेहमयी आवाज सुनी, जो पीरांबी से कह रही थीं-

‘‘पीरांबी, फिक्र मत करो। बच्चा जनना कोई कठिन बात नहीं है। मैंने दस बच्चों को जन्म दिया है। तुम सिर्फ मेरा साथ दो, मैं तुम्हारी मदद करूंगी। भगवान से प्रार्थना करो कि तुम्हें ताकत दें। हिम्मत मत हारो।’’ इस बीच आधी खिड़की खोलकर हुसैनी से बात करने लगतीं-

‘‘हुसैनी, मुझे हल्दी चाहिए। मैं तुम्हारे घर में हल्दी नहीं ढूँढ सकती। महबूब बी के घर से ले आओ। दयामप्पा, बड़े बर्तन से उबलता पानी और ले आओ। हुसैनी, छाज लाओ। उसे हल्दी के पानी से साफ करके भीतर दे दो। दयामप्पा, मुझे थोड़ा जलता हुआ कोयला और चाहिए।’’
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आमतौर पर धर्मनिष्ठ अज्जी हुक्म चला रही थीं।

सब कुछ काफी जटिल हो गया था। पीरांबी दर्द से चीख रही थी। अज्जी उसे सांत्वना दे रही थीं, हुसैनी तनावग्रस्त था, दयामप्पा अशांत था, एक लड़की चिन्तित थी… सभी बेचैनी से एक ही परिणाम का इंतजार कर रहे थे। रात और अंधेरी हो गई तथा ज्यादा हल्की होती गई। हालांकि भीतर मुर्गा बंद था, फिर भी वह सुबह होने पर बाँग देना नहीं भूला था। तड़के ही बच्चे के रोने की आवाज आई।

अज्जी ने खिड़की का ऊपरी हिस्सा खोलकर खुशी-खुशी घोषणा की- ‘‘हुसैनी, तुम्हें बेटा हुआ है। बिल्कुल तुम्हारे पिता मोहम्मद साहब जैसा लगता है। पीरांबी ने बड़ी तकलीफ उठाई है, लेकिन ऊपरवाला मेहरबान रहा। जच्चा-बच्चा दोनों ही सुरक्षित और स्वस्थ हैं।’’

‘‘सलाम!’’ दरवाजा फिर बंद हो गया।

बाहर तनाव कम हो रहा था और माहौल खुशी से भर गया।

हुसैनी पूर्व की ओर मुँह करके घुटनों के बल बैठ गया, माथे से जमीन छुई, आँखें बंद कीं और मालिक से प्रार्थना की- ‘‘या अल्लाह, परवरदिगार!’’ आप बड़े मेहरबान हैं। मेरे बच्चे को दुआ देना।

वह उठा और बच्चे को देखने के लिए भागा। उसने दस्तक दी, लेकिन अज्जी ने अंदर आने की इजाजत नहीं दी।

‘‘तुम्हारे कपड़े गंदे हैं। इससे बच्चे और बीवी को नुकसान होगा। पहले नहाओ, साफ कपड़े पहनो तब अंदर आओ।’’

हुसैनी गुसलखाने की ओर भागा। वहाँ पर छप्पर पड़ा हुआ था। कुएँ से साफ पानी की बाल्टियाँ भर-भरकर डालीं। आधे घंटे तक अज्जी की आवाज ही सुनाई दे रही थी। पीरांबी की आवाज सुनाई नहीं दे रही थी।
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‘‘पीरांबी, मेरा काम हो गया है। मुझे घर जाना है। आज मेरे पति की बरसी है। हमारी बिरादरी में कई कर्मकाण्ड करने पड़ते हैं। मुझे ठंडे पानी से नहाना है और तैयारी करनी है। पंडित किसी भी समय आ जाएंगे और मुझे उनकी मदद करनी है। अब मैं जाऊँगी। यदि तुम्हें कोई चीज चाहिए तो हुसैनी से कहलवा देना। पीरांबी जैसी औरत के लिए बच्चा पैदा करना मृत्यु-शय्या पर जाने के बराबर था। मैं अपने कुल देवता कल्लोली वेंकटेश का शुक्रिया अदा करूंगी, जिन्होंने तुम्हारी मदद करने के लिए मुझे यह कार्य सिखाया। यदि मैं उसका शुक्रिया नहीं करूँगी तो यह मेरी एहसानफरामोशी होगी। महबूब बी, पीरांबी का कमरा साफ-सुथरा रखना। बच्चे को नए कपड़े मत पहनाना। इससे उसे तकलीफ होगी। उसे पुरानी साफ धोती में लपेटना। बच्चे के होठों को मत चूमना। हर किसी को बच्चा मत दिखाना। उसे छूते मत रहना। पीने का पानी उबाल लो और जब तक आवाज आती रहे, लोहे की कलछी डुबोकर रखो। पीरांबी, वही पानी पीना। अक्कव्वा के हाथों में घर में बने घी और चावल रसम पीरांबी के लिए भेज दूँगी। आज भीमाप्पा को आना है और बगीचा भी साफ करवाना है। यदि मुझे देर हो गई तो वह चला जाएगा।’’

अब पूरी खिड़कियाँ खोल दी गईं। उत्सुकता से मैंने भीतर झाँका। अंदर थकी-माँदी लकिन प्रसन्न पीरांबी थी। उसके पास फटा हुआ कंबल था। छोटे मोहम्मद साहब सो रहे थे। वह छोटा-छोटी आँखों से नई दुनिया देखने की कोशिश कर रहा था।

नीम के पत्ते बाँध दिए, कोने में कैक्टस रख दिया तथा पूरे कमरे में ‘लोबान’ की खुशबू फैल गई। अज्जी थकी दिखाई दे रही थीं। उनके माथे पर पसीना था, लेकिन चेहरे पर संतोष था। उन्होंने अपना सामान गरम पानी में साफ किया, धोया, फिर लकड़ी की संदूकची में रख दिया।

हम वहाँ से निकल ही रहे थे कि हुसैनी आया और अज्जी के पैरों पर झुक गया तथा आँखों में आँसू भरकर रुँधे स्वर में बोला, ‘‘अंबक्का आई, आपने सारी रात परेशानी उठाई। मैं नहीं जानता कि किन लफ्जों में आपका शुक्रिया अदा करूँ। हम गरीब हैं, हम आपको कुछ नहीं दे सकते। लेकिन मैं तहेदिल से आपका शुक्रिया अदा करता हूँ। आप सौ बच्चों की माँ हैं। आपने मेरे बच्चे को आशीर्वाद दिया। यह कभी झूठा नहीं जाएगा।’’
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तत्काल अज्जी ने उसके कंधे पर कोमल हाथ रखकर उसे उठाया।

मैं कट्टर अज्जी को देखकर हैरान थी, जो कभी भी किसी को नहीं छूती थीं उन्होंने हुसैनी के कंधों पर हाथ रखा।

उनकी आँखों में आँसू छलक आए थे; लेकिन उन्हें तुरन्त पोंछकर कहा, ‘‘हुसैनी, प्रत्येक व्यक्ति को मनुष्यों की तकलीफ में मदद करनी चाहिए और मैंने भी वही किया है। पीरांबी मेरी अक्कव्वा जैसी हैं।’’

इस समय आसमान में सूरज चढ़ आया था और मैं अज्जी के हाथों को पकड़े बिना आराम से चल सकती थी। मेरे आगे-आगे अज्जी चल रही थीं और मैं पीछे-पीछे।

सुस्त दयामप्पा हमसे बहुत पीछे था। हुसैनी के साथ उनकी बातें सुनकर मेरे मन में जो शंका पैदा हो गई थी, मैं उसे दूर करना चाहती थी।

‘‘अज्जी, तुमने तो केवल दस बच्चों को जन्म दिया है। हुसैनी ने ऐसा क्यों कहा कि तुम सौ बच्चों की माँ हो?’’

अज्जी मुसकराईं और सिर से सरकता पल्लू ठीक करते हुए बोलीं, ‘‘हाँ, मैंने केवल दस बच्चों को जन्म दिया है; लेकिन इन हाथों ने हमारे गाँव में सौ से भी अधिक बच्चे पैदा किए हैं। अक्कव्वा, स्त्री के अपने चाहे कितने भी बच्चे हों, लेकिन समाज-कार्य करके वह सौ बच्चों की माँ हो सकती है।’’
(Story Sudha Murti)

सुधा मूर्ति की लोकप्रिय कहानियाँ से साभार

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