कई हैं ऐसी राधा दी पहाड़ में

कमल जेशी

कोटद्वार  में 24 जनवरी 1954 को जन्मे कमल जोशी एक घुमक्कड़, यायावर तथा प्रसिद्ध फोटोकार थे। पहाड़ को बहुत नजदीक से जाननेसमझने और उसके लिए चिन्तित रहने वाले व्यक्ति थे। आपने राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय पिथौरागढ़  से रसायन शास्त्र  में एम.एससी. किया तथा कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल में डॉ. के.एस. खेतवाल के निर्देशन में  शोध छात्र के रूप में कुछ समय तक कार्य किया लेकिन बाद में छोड़ दिया। कमल जोशी पी.टी.आई. के संवाददाता रहे। पहाड़, युगमंच, नैनीताल समाचार, उत्तरा महिला पत्रिका तथा महिला समाख्या से  जुड़े  रहे। पहाड़ द्वारा आयोजित अस्कोटआराकोट अभियान 1984, 94, 2014 में आपने यात्रा की। वे पहाड़ के फोटो संपादक भी थे। इसके अलावा आपने नन्दा राजजात, लेह लद्दाख  तथा अन्य कई छोटीबड़ी यात्राएँ की।युगवाणीमें आपके फोटो तथा लेख छपते रहे। अपने फेसबुक पेज से भी आप बड़े  वर्ग से जुड़े रहे।  3 जुलाई 2017 को कोटद्वार में कमल जोशी ने हम सबसे चिर विदा ली। उत्तरा परिवार की श्रद्धांजलि

नकचुण्डी तुम्हें चाहिये तो तुम ले लो अपनी कमर के पागुड़े से पतली जंजीर के सहारे बंधी नकचुण्डीञ् को दिखाते हुये राधा दी ने मुझसे कहा।

‘‘नहीं, तुम्हें यहां इसकी जरूरत है’’ मैने जवाब दिया, ‘‘मैं इसे कहीं और से ढूंढकर खरीद लूंगा’’ मैने राधा दी को आश्वासन दिया।

महासर ताल से लौटकर हम याने रेहा और मैं सरजू के घर की ऊपरी मंजिल की तिबारी पर बैठे थे। सायं सात बजे के आस-पास हम यहां पहुंचे थे। सरजू ने घर की व्यवस्था की कमान सम्हाली, हमारे लिये तुरंत गरम पानी करवाया। गुनगुने पानी से नहाया गया। शरीर की थकान गायब हो गयी और हम तरोताजा हो गये।

व्यवस्था यह हुई थी कि रेहा और मैं बजाय कमरे के अन्दर सोने के बाहरी हिस्से में सोयेंगे अपने-अपने स्लीपिंग बैग लेकर। बाहर मिट्टी की लिपाई के फर्श पर मरठा (रिंगाल से बुनी गयी चटाई) बिछा दी गयी थी। अपने-अपने स्लीपिंग बैग उसके ऊपर फैला कर हम आराम कर रहे थे।

तब तक एक बुजुर्ग महिला वहां आ गयी। गांव में मेहमानों के आने की खबर तेजी से फैल रही थी। बुजुर्ग महिला हमें मिलने, ‘‘हम हैं कौन, कहां से आए हैं’’ की तर्ज पर पूछताछ करने आ गयी थी।

उनसे पुराने संस्मरण पूछने लगा मैं। इस बीच वे अपनी कमर से जंजीर में बंधे तथा चाबियों से लटके बहुत सारे ‘‘औजारों’’ का इस्तेमाल दांत खचोरने, कान साफ करने वगैरह के लिये करती रहीं। इस तरह के ‘‘यंत्र’’ मैने अपनी दादी के पास देखे थे पर मुझे अब उनकी याद नहीं थी। मैं इस तरह की चीजों को लगभग भूल ही चुका था। कौतूहल वश मैने उनकी जानकारी चाही।

सरजू ने कहा कि पहाड़ में अमूमन हर स्त्री के पास ये चीजें कमर में या गले में लटकी होती हैं। चाबियों की तरह लटकी चीजों में दांत खचोरने की एक सींक, कान से मैल निकालने के लिये एक छोटी सी करछीनुमा पत्ती, एक पैनी सुई, सेफ्टीपिन तथा एक नकचुण्डी होती है। ‘‘नकचुण्डी’’ छोटी सी चिमटी है जिससे नाखून या पैर मे फंसे कांटे निकाले जाते हैं। महिलायें नकचुण्डी तथा सुई का इस्तेमाल पैर के कांटे निकालने के लिये करती हैं।

ग्रामीण स्त्रियों का दैनिक क्रम बिना घास लकड़ी लाये पूरा नहीं होता। नंगे पैर जंगल आने-जाने में स्वाभाविक है कि पैर में कांटे-छिल्ले चुभते रहते हैं। ऐसे में उन्हें निकालने के लिये विकसित किये गये ये यंत्र-नकचुण्डी तथा सुइयां वगैरह किसी भी पर्वतीय स्त्री के लिये आभूषण जैसे भले ही न हों, पर उनसे ज्यादा महत्वपूर्ण जरूर हैं।
(Story of Radha Di)

मैं नकचुण्डी में विशेष रुचि ले रहा था। अपने ‘‘लोक-संपदा’’ कार्यक्रम के लिये ऐसी ही लोकोपयोगी चीजों के संग्रह का विचार है मेरा। मेरी रुचि देखकर उन्होंने मुझे नकचुण्डी देने का प्रस्ताव किया था।

मैने मना कर दिया। नकचुण्डी की जरूरत मुझे संग्रह के लिये थी जबकि उन्हें रोज का जीवन जीने के लिये।

70 वर्षीय राधा दी का जीवन भी संघर्षपूर्ण था। आज इस उम्र में भी उन्हें अपने लिए लकड़ी लेने, खाना पकाने का कार्य खुद करना पड़ रहा था। काफी पूछने पर उन्होंने अपने जीवन की पर्तें खोलीं।

राधा दी की शादी भी अजीब हुई थी, पति आठ साल छोटा था उनसे, ऐसा कैसे हुआ यह रहस्य उजागर नहीं हो सका। पर राधा दी की बातों से यह तो पता चला कि पति-पत्नी में आपस में प्रेम था और दोनों की खूब पटती थी। वे समृद्ध परिवार से आयी थीं- खूब गहने-पाते थे उनके पास। आयी भी बहुत खाते-पीते तथा सुखी परिवार में थीं। पति से निभती भी खूब थी। वैवाहिक जीवन में एक ही दुख था कि उनकी कोई संतान नहीं हुई। पति, जिनका वे नाम नहीं ले सकती थीं, बिना बच्चों के दुखी रहते थे।

जब राधा दी की उम्र तीस साल के आस-पास की हुई तो पति का दुख उनसे देखा नहीं गया। उन्होंने पति के सम्मुख दूसरी शादी का प्रस्ताव ही नहीं रखा, बल्कि लड़की ढूंढने की जिम्मेदारी भी खुद ही ले ली। अपनी सौत के रूप में वे अपनी ही नौ वर्षीया भतीजी को ले आयीं। अपनी भतीजी को सौत के रूप में लाना टिहरी के इस तरफ आम बात है।

सौत-भतीजी जब युवा हुई तो उसके दो लड़के हुये। तीसरी सन्तान पैदा होते वक्त भतीजी-सौत मर गयी। बच्चों का भार राधा दी पर आ गया। वैसे भी बच्चों की देखभाल वही करती थीं। राधा के प्यार से सराबोर लड़के युवा हुए। बड़े लड़के की तीन बार शादी की। पहली दो पत्नियों को या तो उसने छोड़ा या वे छोड़कर चली गयीं। ‘‘उनके जाने पर मैंने ‘‘स्योंटका भी नहीं लिया’’ टिहरी में कहीं- कहीं पहले यह प्रथा थी कि गृहकार्य में लड़कियों-बहुओं की उपयोगिता देखते हुये अच्छी कन्या के पिता से बजाय दहेज लेने के, कन्या पक्ष को कुछ भेंट देकर शादी की जाती थी। यदि कन्या से विवाह टूट जाये या वह पतिगृह में न रह पाये तो मायके वापस आने पर पिता उस धन को वापस कर देता था। इसे ही ‘‘स्योंटका’’ कहते थे।

दूसरे लड़के की दो शादियां की उसकी जिद पर। काफी बड़ी जिमदारी (जमींदारी- कृषि- खेत) वगैरह थे, सब अपने इन पुत्रों के नाम कर दिये, अपने नाम कुछ नहीं रखा। प्राय: मां-बाप जमीन अपने नाम पर रखते हैं, ताकि पुत्र देखभाल न भी करे तो अपने हिस्से की जमीन से ही कुछ खा-कमा लें। पर राधा को अपनी स्नेह-सेवा पर भरोसा था, इसलिये पति की जायदाद से अपने नाम कुछ नहीं किया। पुत्रों के बड़े होने पर उनके बच्चों की सेवा टहल भी राधा दी ने की।

पर यह सतयुग नहीं है जहां प्रेम का प्रतिफल प्रेम या सम्मान से ही मिलता हो। अपनी-अपनी गृहस्थी में रमे दोनों पुत्र राधा दी से विमुख हो गये। उम्र के इस मोड़ में राधा दी अकेली खड़ी हैं। एक पुत्र गांव छोड़ कर ऋषिकेश चला गया, दूसरा पुत्र अपनी ससुराल में रहता है जहां वह घरजवांई की तरह ससुर की संपत्ति की देखभाल करता है। गांव की जमीन उसने बेच दी बिना यह सोचे कि मां कहां रहेगी। गांव वालों ने उसके पुत्र को, जो पड़ोस के गांव में ही रहता है, समझाया कि मां का ख्याल रखो। पर वह विमुख रहता है, किसी की नहीं सुनता।

राधा के पति के मकान को जिस व्यक्ति ने खरीदा, उसने दया कर राधा को एक कमरा दे दिया है। पति के मकान के एक उधारी के कमरे में सिमटी राधा दी की दुनिया मे कष्ट ही कष्ट हैं। गांव वालों के प्रयास से राधा दी को 1000 रु़ महीने की विधवा पेंशन मिल रही है, उसी से वह अपने लिये राशन खरीदती है, खुद ही कूटती, छानती तथा पकाती है। खाना पकाने के लिये जंगल जाकर लकड़ी बीनती है। गांव की महिलायें भी उसके पास लकड़ियां छोड़ आती हैं जिससे राधा दी को लकड़ियों की बहुत ज्यादा परेशानी न हो। अपनी कहानी सुनाते-सुनाते राधा दी चुप हो गयी और हमारी भूख गायब! हमारे बीच पसर गयी चुप्पी को राधा दी ने खुद ही तोड़ा। ‘‘ठीक से रहना, शरीर का ख्याल रखना’’ कहकर चली गयी अपनी दुनिया में।

यह कहानी अकेली राधा दी की नहीं है। पहाड़ में सैकड़ों की संख्या में राधा दी बिखरी पड़ी हैं जिन्होंने अपनी जवानी के बेहतरीन दिन, अपनी ताकत परिवार के लिए समर्पित कर दी, पर जब उन्हें सहारे की जरूरत पड़ी तो उनके आसपास खालीपन के सिवा कुछ नहीं था। कोई दो रोटी देने वाला भी नहीं।

पता नहीं कैसी देवभूमि है ये!
(Story of Radha Di)

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