किसान आंदोलन में अदृश्य किसानों की कहानी

Story of Invisible Farmers in Farmers Protest
-गिरिजा पाठक

किसान आंदोलन की जब भी बात होती है तो कंधे में हल रखे या ट्रैक्टर से खेत जोतते एक पुरुष किसान की छवि हमारे मन में उभरती है, जबकि खेती-किसानी से जुड़े कामों में बड़ी संख्या में महिला किसान होती हैं। उत्तराखंड सहित अनेक राज्यों में तो महिलाएं ही इस भूमिका में हैं। हाँ, यह जरूर है कि वह कृषि कामगार की भूमिका में ही होती हैं, चाहे स्वयं के खेत में हो या किसी दूसरे खेत में। अक्सर अगुवा भूमिका में रहने के बावजूद पुरुषसत्तात्मक समाज में हर मोर्चे पर महिला की भूमिका को हमेशा ही कमतर आंका जाता है। आज दिल्ली में मोर्चे पर बैठे किसानों के आ रहे समाचारों और तस्वीरों में भी महिला किसान कम ही नजर आती हैं। जबकि आंदोलन में महिला किसानों का प्रभावी हिस्सा भागीदारी कर रहा है। इस लेख का आशय वर्तमान आंदोलन को पुरुष बनाम महिला किसान के रूप में देखना नहीं है। इसमें सिर्फ यह देखने की कोशिश की गई है कि इस ऐतिहासिक आंदोलन में वह कहां है और आंदोलन को किस रूप में देख रही हैं।
(Story of Invisible Farmers in Farmers Protest)

इन महिला किसानों को देखने से अहसास नहीं होगा कि राजनैतिक रूप से इनकी चेतना का स्तर कितना गहरा है। हमारी मानसिकता के मुताबिक मेहनत और पहनावे से साधारण दिखने वाली ये महिलाएं अपनी चेतना और लड़ाकू तेवरों से असाधारण नजर आती हैं। सभी मोर्चों पर मौजूद अधिकांश लड़कियों या महिलाओं ने पीला दुपट्टा पहना है, जो भगतसिंह की याद /विरासत का प्रतीक है। महिलाओें से बात करने पर स्पष्ट होता है कि संघर्षों और उसमें लगातार भागीदारी के चलते आधी आबादी के इस हिस्से में चेतना के स्तर पर महत्वपूर्ण रूपांतरण हुआ है। पंजाब का किसान आंदोलन इसकी जीती जागती मिसाल है। हरप्रीत और कंवलप्रीत जो किसान संगठन में पिछले एक दशक से जुड़ी हैं, बताती हैं कि सभी महिलाएं संगठन में आने से पहले घर, चूल्हा-चौका और ढोर-डांगर को संभालना, पति-बच्चों की सेवा को ही अपनी दुनिया मानती हैं।

संगठन ने हमें सिखाया की दुनिया असल में है क्या? यह हमारा संगठन ही था जिसने हमें सही और गलत को समझना सिखाया। इस कड़ाके की ठंड में धरने में क्यों पहुंची हैं? पूछने पर जवाब देती हैं कि किसान की जिंदगी तो हमेशा ही कठिन रही है। क्या जाड़ा-क्या गर्मी, मौसम का मुकाबला तो किसान अपने खेतों में फसल उगाने के लिए भी करता है। तभी अपने परिवार और देश को पालता है, लेकिन जब हमारी जिंदगी का सबसे बड़ा सहारा (जमीन) ही हमसे छीन लिया जाएगा तो हमारी जिंदगी तो खत्म ही हो जाएगी। जमीन ही तो हमारी जिंदगी है। सिंघू बार्डर धरने में बैठे खेत मजदूर सुखवंती और उसके पति अमरदीप, जो खेतों में काम करके अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं, बताते हैं कि खेत ही हमारी रोजी-रोटी का सबसे बड़ा जरिया हैं। खेती ही नहीं रहेगी तो हमारे रोजगार का बड़ा जरिया भी खत्म हो जाएगा। अपनी जमीन और रोजगार को तो बचाना ही होगा।

टिकरी बार्डर पर शुरूआत से ही मोर्चे का नेतृत्व कर रही पंजाब किसान यूनियन की उपाध्यक्ष जसबीर कौर बताती हैं कि कोरोना महामारी के समय सरकार का काम होना चाहिए था कि वह अपने नागरिकों के बेहतर स्वास्थ्य, रोजगार और रोजी-रोटी का बंदोबस्त करे। लेकिन इससे हमारे हाकिमों को कोई मतलब नहीं रह गया है। उनका एकमात्र काम कारपोरेट की सेवा करना रह गया है। इसीलिए प्रधानमंत्री ने महामारी में भी अपने लिए अवसर खोज लिया। विश्व के अधिकांश देश जब अपने नागरिकों को बचाने के लिए उन्हें सब्सिडी और राशन, कोरोना से बेहतर बचाव के लिए अस्पतालों में इलाज की बेहतर व्यवस्था सहित विभिन्न उपाय खोज रहे थे तब हमारे प्रधानमंत्री जनता को सड़कों पर जान बचाने के लिए छोड़, मजदूरों और किसानों को अंबानी और अडानी का बंधक बनाने के लिए संसद में कानून बना रहे थे। हमें अच्छी तरह से जानकारी है कि भारत में किसान के साथ साथ मजदूरों – कर्मचारियों सहित सभी मेहनतकशों के हितों पर हमला हो रहा है। इसीलिए हमें अपने आंदोलन के प्रति समाज के हर वर्ग का समर्थन मिल रहा है और हर वर्ग हमारी इस लड़ाई को आशा भरी निगाह से भी देख रहा है। उनके साथ ही खड़ी रजविंदर कहती हैं, सरकार ने संसद में भारी विरोध के बावजूद प्रक्रियाओं से बाहर जाकर कानून पास कराया है। आखिर इतनी हड़बड़ी किस बात की है? आज प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि इन कानूनों से किसान की आमदनी दुगुनी हो जाएगी, उसे अपनी फसल बेचने के लिए बाजार में कई खरीददार मिल जाएंगे, जिससे वह अपनी फसल मुनाफे में बेच पाएगा। लेकिन किसान जब कहते हैं कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने के लिए कानून तो बना दे, तो सरकार कहती है हम तो हमेशा ही इसकी घोषणा करते हैं, लेकिन कानून नहीं बनाएंगे। किसान इसको अच्छी तरह से जानता है कि अन्नदाता के लिए तुम कानून नहीं बनाओगे और हमारी मेहनत के बदौलत मुनाफा कमाने वाले के लिए, सेठों के लिए तुम रातोंरात कानून बनाकर हमारी ही संपत्ति पर डकैती डालने का पुख्ता इंतजाम करोगे। इसीलिए चोर दरवाजे से हमें बेघर बनाने के लिए जैसे ही यह कानून लाया गया, पूरे देश के किसान ने इसका विरोध किया। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र सहित पूरे देश में किसान सड़क पर उतरा लेकिन जब हाकिम के कानों में जूं तक नहीं रेंगी तो हमें मजबूरन हाकिम के दरवाजे पर ही दस्तक देने आना पड़ा। अब तो हमारा पिंड (गांव) यहीं है, यहीं रहेंगे जब तक यह सरकार हमारी नहीं सुनती।

सचमुच आज दिल्ली की सभी सीमाओं पर जनता अपना पिंड बसा चुकी है। सिंघू – टिकरी – गाजीपुर- चिल्ला – पलवल सहित दिल्ली की सभी सीमाओं पर कई किलोमीटर तक टै्रक्टर ही टै्रक्टर नजर आते हैं, यही टै्रक्टर संघर्षरत किसानों के पिंड हैं। किसी ट्रैक्टर को अंदर से दो मंजिला बनाकर बिछावन बिछा है, तो कोई भंडार गृह का काम कर रहा है। किसी में बच्चों की पढ़ाई का बंदोबस्त है। रोज सुबह-सवेरे दूध, राशन, सब्जी और जरूरत की चीजों के साथ टै्रक्टर धरनास्थल पर पहुंच रहे हैं। किसानों की तैयारी देखते हुए साफ लगता है कि राज्यों से दिल्ली की ओर चलने से पहले उन्हें इस बात का अच्छी तरह अहसास था कि लड़ाई लंबी और कठिन है। दिल्ली की सीमा से लगे राज्यों पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान और मध्यप्रदेश के किसानों की भागीदारी प्रदर्शनों में ज्यादा है लेकिन महाराष्ट्र, गुजरात, उड़ीसा, तमिलनाडु, कर्नाटक सहित सभी राज्यों के किसान धरने में भागीदारी कर रहे हैं। कहा जा सकता है कि देश का किसान आज दिल्ली बार्डर पर देश की खुशहाली, स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता को बचाने की लड़ाई की जद्दोजहद में लगा है।
(Story of Invisible Farmers in Farmers Protest)

आंदोलन में शामिल महिलाएं अपने घरों की तरह ही यहां भी कई भूमिकाओं में नजर आती हैं। उन्हें अपने साथ आए बुजुर्ग और बच्चों की भी विशेष देखभाल करनी है। घर की तरह ही यहां भी बच्चों की ऑनलाइन पढ़ाई-लिखाई के साथ ही होमवर्क और टेस्ट भी हो रहे हैं। बच्चों को समय पर उठाना, तैयार करना और पढ़ाई के लिए जरूरी जगह और रोशनी का बंदोबस्त करना, उसके बाद नाश्ता-खाना, यह सब आंदोलन में शामिल महिलाएं स्वाभाविक रूप से करती नजर आती हैं। इनके अंदर संघर्ष की जिजीविषा कितनी मजबूत है, वह इसी बात से समझा जा सकता है कि इस कड़ाके की ठंड में पंजाब से मोर्चे पर चलने से पहले यह पूरी व्यवस्था और मन को मजबूत बनाकर एक लंबी लड़ाई के लिए आए हैं। टिकरी बार्डर के मोर्चे पर जसबीर कौर नत नेतृत्वकारी भूमिका में हैं। कुछ ही समय पहले सभा समाप्ति के बाद अपने रात्रि आवास ट्रेक्टर के अंदर तीन-चार महिलाओं के साथ बैठी हैं। पंजाबी में महिलाओं से उनकी जो बातें हो रही हैं, उसके बारे में उनकी बेटी नवकिरन, जो कि काफी पहले डेंटिस्ट की पढ़ाई पूरी कर दिल्ली में आगे की पढ़ाई कर रही है और दिन-रात इस आंदोलन का हिस्सा है, बताती हैं कि दिन भर चली कार्यवाही और महिलाओं को हो रही दैनंदिनी दिक्कतों और कैसे उन्हें हल किया जाय, इस चिंता पर महिलाओं में बातचीत हो रही है।

कई किलोमीटर तक फैले ट्रैक्टर और छोटे- छोटे टैंट की बस्तियों में कड़ाके की ठंड और बारिश में जबकि रात का तापमान 4 से 8 डिग्री सेल्सियस तक चला जाता है, बारिश का पानी बिछावन को गीला कर देता है और पूरी रात उनींदी-सी कटती है लेकिन सुबह के सूरज के साथ ही संघर्ष का हौसला फिर से सड़क पर होता है। बच्चे ऑनलाइन क्लास करते हैं, भगतसिंह के नाम पर पुस्तकालय भी बन गया है, जहां बैठकर किताबों को पढ़ने या फिर अपने साथ ले जाने की व्यवस्था भी है। आंदोलन की वास्तविक अपडेटिंग के लिए अपना अखबार ट्राली टाइम्स निकलने लगा है तो सोशल मीडिया में विरोधियों द्वारा फैलाई जा रही अफवाहों का जवाब देने के लिए ट्विटर और यूट्यूब में किसान एकता मोर्चा के नाम से एकाउंट भी शुरू किया गया। सिंघू बार्डर में तो एक किसान मॉल भी शुरू कर दिया है, जिसमें आसपास के किसानों-दुकानदारों से सामान लेकर बेचा जा रहा है ताकि आंदोलनरत किसानों को सामान मिले और आंदोलन से आसपास के दुकानदारों और किसानों की आर्थिकी भी प्रभावित न हो। सबके अपने-अपने काम निश्चित हैं। हाई-वे जो अब संघर्ष का आंगन है, में झाडू-बुहार से लेकर झंडे, बैनर और मंच की व्यवस्था तक सब नौजवान लड़के- लड़कियों के कंधों में है, बुजुर्ग महिला-पुरुष लंगर की व्यवस्था देख रहे हैं। 10 बजते- बजते संघर्ष अपने तेवर में होता है। जिसमें रोज हजारों की संख्या में नए चेहरे जुड़ते हैं। कोई शामिल होने आया है तो कोई समर्थन देने और कई ऐसे हैं जो अवसर की तलाश में हैं कि कैसे एक लोकतांत्रिक और संगठित आंदोलन को अराजक आंदोलन में बदलने के मौके तलाशे जाएं। इसके लिए शराब बांटने से लेकर अफवाह फैलाने तक कई नकारात्मक कोशिशें हो रही हैं। जसबीर कौर कहती हैं, इन सारी बातों पर हमारी नजर है। हमें पता है कि सरकार इस आंदोलन को भटकाने और तोड़ने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। इसीलिए हमारे स्वयंसेवकों के समूह बारी-बारी से लगातार आंदोलन स्थल के चारों ओर इस पर नजर रखने के लिए गश्त लगाते रहते हैं। वह कहती हैं हम इस आंदोलन को अपनी जिंदगी से जोड़कर देखते हैं। हमें पता है कि हमारी जमीन और फसल में ही तो हमारी जिंदगी बसती है, जब यही नहीं रहेगी तो हम कहां रह पाएंगे।

किसान संगठनों ने दीर्घकालिक लड़ाई की योजना लेते हुए संघर्ष के पहले चरण में महिलाओं और नौजवानों के एक हिस्से को पंजाब में ही रोके रखा। जैसे-जैसे दिल्ली में आंदोलन का ताप बढ़ने लगा और सरकार आंदोलन के समानांतर अपने अभियान चलाने और वार्ताओं के नाम पर आंदोलन को लंबा खींचने की रणनीति पर काम करने लगी तो किसानों ने भी दीर्घकालीन पड़ाव के लिए अपने आंदोलन को तैयार किया। इसके लिए अब कई दिनों से मोर्चे में बैठे किसान अपने घर, बच्चों, खेती की देखभाल और सामान्य जीवन के लिए अपने राज्यों को लौट रहे है और उनके स्थान पर बड़ी संख्या में पहले ही गांवों में रूके किसान दिल्ली मोर्चे में भाग लेने के लिए आ रहे हैं।

आंदोलन के दौरान किसानों की समस्याओं को हल करने की जिम्मेदारी किसान संगठनों की ग्राम कमेटियों की होती है। दिल्ली के मोर्चे पर गए किसानों के घर -परिवार, खेती- बाड़ी, बीमारी में देखभाल या आर्थिक जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी किसान संगठनों द्वारा पूरी की जाती है। आंदोलन के दौरान गिरफ्तारी या किसी अन्य संकट के समय सारी जिम्मेदारी किसान संगठन संभालते हैं। पंजाब में किसान आंदोलन की गहरी पैठ को इस बात से समझा जा सकता है कि किसान संगठन में संपूर्ण परिवार आंदोलन में मौजूद है। टिकरी बार्डर में आंदोलन की अगुवाई कर रही जसबीर कौर नत, सुरिंदर कौर गिल, बलबीर सहित अनेक आंदोलनकारियों की तीन से चार पीढ़ियां, सबसे छोटे पोता और नातिन से लेकर बेटा, पत्नी, पिता और मां, कई परिवारों के साथ तो दादा-दादी भी आंदोलन में भागीदारी कर रहे हैं।

 सिंघू बार्डर पर भारतीय किसान यूनियन (उग्रांदा) की नेतृत्वकारी सदस्य कंवलप्रीत बताती हैं कि भारतीय किसान यूनियन (उग्रांदा) की विशेषता रही है कि इसमें बडी संख्या महिला किसानों की है। कंवलप्रीत जो इस संगठन में पिछले 7-8 वर्ष से सक्रिय हैं, बताती हैं कि संगठन में शामिल होने से जहां उनमें आत्मविश्वास आया वहीं यह बात भी समझ में आई कि सरकारें किस तरह से किसानों का शोषण कर रही हैं। हम कड़ी मशक्कत करके सब्जी-फल-अनाज उपजाते हैंं, बदले में हमें अपने अनाज की लागत भी नहीं मिलती। वह कहती हैं कि पिछली फसल में उन्हें अपने आलू का मूल्य 2 रु. प्रति किलो मिल रहा था। गुस्से में कंवलप्रीत कहती हैं कि आप ही बताओ, आज बाजार में आलू किस भाव बिक रहा है और उसे उपजाने वाले किसान को इसका क्या और कितना दाम मिल रहा था। अब तो मोदी सरकार द्वारा लाए जा रहे बिल में इन दो रुपयों को छीनने की व्यवस्था भी कर दी गई है। हम तो जानते थे कि सरकारें आम जनता के कल्याण के लिए काम करती हैं, लेकिन मोदी सरकार तो जो कुछ भी हमारे पास है, उसे भी छीनने पर आमादा है। बगल में खड़ी हरप्रीत कहती हैं, सरकार के नुमाइंदे बातचीत का ढोंग कर रहे हैं। पूरी जिंदगी खेती-किसानी में कट गई, क्या अपना अच्छा-बुरा हमारी समझ में नहीं आता है। क्या प्रधानमंत्री मोदी के पास इस बात का जवाब है कि अपनी जायज मांगों के साथ आंदोलनरत देश के लाखों किसानों को कौन बरगला रहा है? हरप्रीत दो बच्चों की मां है। 2 एकड़ खेती की जमीन है। वह बताती है कि कुछ वर्ष पहले तक जमीन से अनाज बेचकर अपने बच्चों के लिए कापी, किताब, दवा का बंदोबस्त हो जाया करता था। लेकिन समय के साथ- साथ डीजल, खाद, बीज, बिजली सभी कुछ तो महंगी होते जाने से किसान की खेती घाटे का सौदा बन गई है। अब तो जितना खर्च हो रहा है उतना भी किसान को नहीं मिल रहा है। सरकार को तो चाहिए कि अपनी जनता के सशक्तीकरण के लिए काम करे। लेकिन मोदी सरकार पूरी बेशर्मी से सशक्त लोगों (अंबानी-अडानी) के सशक्तीकरण में लगी है।
(Story of Invisible Farmers in Farmers Protest)

पंजाब किसान यूनियन की जसबीर कौर कहती हैं कि जो कानून सरकार ला रही है, वह किसानों के लिए गुलामी का दस्तावेज है। वह कहती हंै कि एक ओर सरकार सोच-समझ कर मंडी सिस्टम को खत्म करना चाहती है, वहीं वह (सरकार) कह रही है कि किसान को बेचने के लिए खुला मार्केट दे रही है जिससे किसानों को अपनी उपज का बेहतर मूल्य मिलेगा। लेकिन किसान इस बात को अच्छी तरह से समझता है कि एक दो-साल में वाजिब दाम मिल भी जाएंगे लेकिन जैसे ही मंडियां खत्म होंगी, किसान अंबानी-अडानी के रहमोकरम पर आ जाएंगे। यही नहीं, ठेका खेती और भंडारण की पाबंदी पूरी तरह से हटा लेने के बाद इस क्षेत्र को मुनाफे के लालच से देख रहे अंबानी और अडानी पूरी जमीन और अनाज को हड़प लेंगे और बाद में सरकारी सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से गरीब ही नहीं निम्न मध्यम वर्ग को मिलने वाले अनाज को भी बंद कर उसे खुले बाजार में महंगे अनाज को लेने पर मजबूर किया जाएगा। पूरे कानूनों को समझने के बाद हमें पता है कि यह कानून किसान को तो पूरी तरह भूमिहीन मजदूर में बदल देगा, जो आने वाले दिनों में अपने ही खेतों पर मजदूरी के लिए अभिशप्त हो जाएगा लेकिन सब कुछ निजी क्षेत्र को सौंप देने के बाद जनता की भी जीवन स्थितियां बहुत कठिन होने जा रही हैं। वह अपनी बात को समझाते हुए कहती हैं, पंजाब में पुराने मंडी सिस्टम में आठ प्रतिशत फीस देनी होती थी, जिसका बड़ा हिस्सा किसानों के विकास के लिए खर्च का प्रावधान था लेकिन नए कानून के मुताबिक बिना किसी टैक्स के किसान से खरीददारी होगी और न ही खरीददार किसान को किसी तरह के न्यूनतम मूल्य को चुकाने के लिए ही बाध्य होगा। इस तरह से खरीददार, जो कि बड़े कारपोरेट घराने-अंबानी और अडानी जैसे ही होंगे, को किसानों को लूटने के लिए सौंप दिया गया है। जसबीर आगे कहती हैं, हमें अच्छी तरह पता है कि लूट का यह सिलसिला सिर्फ फसल तक सीमित नहीं रहेगा, जिस तरह से किसान के लिए खेती घाटे का सौदा बना दी गई है और अब जब उसके हाथ से मंडियों के आढ़ती, जो वक्त बेवक्त उसकी सहायता किया करते थे, का सहारा भी छीन लिया जाएगा तो किसान या तो खुदकुशी करेगा या फिर अपनी जमीन कारपोरेट को सौंप खुद अपनी जमीन पर बंधुआ बन जाएगा। इसके लिए ही ठेका खेती का कानून है, जिसमें जमीन का मालिक किसान अपनी ही जमीन में मजदूर होगा। महाराष्ट्र से आंदोलन में भागीदारी करने आई ज्योत्सना शुरूआत से ही किसान आंदोलन से जुड़ी हैं, वह कहती हैं यह सरकार बेशर्मी के साथ विकास और सुधार के नाम पर जो कुछ कर रही है वह हम भारतीयों को विश्व व्यापार संगठन के हिसाब से सब कुछ बाजार के हवाले कर देने के सिवाय और कुछ नहीं है।

अगर मोदी किसानों के हमदर्द हैं तो वह स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट पर खामोश क्यों हैं? उसे लागू क्यों नहीं करते? हरलीन जो कि पंजाब किसान यूनियन से जुड़ी हैं, कहती हैं, हाकिम (सरकार) ने तो खेती को घाटे का सौदा बना दिया है। वह मोदी सरकार से प्रति प्रश्न करती है – अगर किसानों को फायदा देने की बात कर रहे हो तो पंजाब और हरियाणा सहित देश के विभिन्न हिस्सों में सैकड़ों एकड़ जमीन पर 2017 से ही अडानी और अंबानी के अनाज इकट्ठा करने के बडे- बड़े स्टोर (शाइलो) क्यों बन रहे हैं ? (फाइनेंसियल एक्सप्रेस 2008 की रिपोर्ट के मुताबिक 2005 में ही एफसीआई और अडानी एग्री लाजिस्टिक लिमिटेड के बीच वेयर हाउस निर्माण को लेकर करार हुआ जिसके तहत 2007 में पंजाब के मोंगा और हरियाणा के कैथल में आधुनिक शाईलो स्टोरेज का निर्माण पूर्ण हो गया) जबकि उस समय तो जरूरी वस्तुओं के एक सीमा से अधिक भंडारण पर भी कानूनी रोक थी। साफ है कि कारोबारियों को पता था कि सरकार उनके मुनाफे के माफिक कानून बनाएगी। तुमने (सरकार) ऐसा ही किया किसान को तो उसकी फसल का न्यूनतम मूल्य देने की भी तुम गारंटी नहीं कर रहे हो, लेकिन उनके गोदाम अनाज से भर जाएं इसके लिए आवश्यक वस्तुओं के भंडारण पर लगी रोक को भी खत्म कर दिया गया है।

पिछले कई वर्षों से कठिनाइयों में फंसे किसान-मजदूर-नौजवान बड़ी संख्या में आत्महत्या को गले लगा रहे हैं तो एक हिस्सा इसके खिलाफ लगातार संघर्षरत है। इस संघर्ष को सरकार और मीडिया बौद्घिक वर्ग का एक हिस्सा लगातार नजरअंदाज करता रहा है। लेकिन किसानों ने जब सत्ता के केन्द्र को सीधे चुनौती दी है तो किसी के लिए भी किसानों के इस ऐतिहासिक उभार को नजरंदाज करना संभव नहीं रहा। पंजाब किसान यूनियन से जुड़ी मलकीत कौर हो या जसबीर कौर सभी एक स्वर में इस बात को कह रहे हैं कि हमें पता है, परिस्थितियां बहुत कठिन है। रोज हमारे साथी शहादत दे रहे हैं, बुजुर्ग – महिलाएं- बच्चे बहुत बुरी स्थितियों का सामना कर रहे हैं लेकिन इतिहास भी इसका गवाह रहा है कि कोई भी बदलाव बिना कीमत चुकाए नहीं आता। हमारे जीवन को तो हमारे घरों में भी खत्म करने की व्यवस्था की जा रही है तो क्यों नहीं हम भगतसिंह के रास्ते पर चलकर काले अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते-लड़ते शहादत दें और आम महिलाओं के लिए वास्तविक रूप से आत्मनिर्भर और आत्मसम्मान से भरे देश के निर्माण की लड़ाई में अपना छोटा-सा योगदान दें। जिस तरह से पूरे देश की जनता ने हमारे संघर्ष को समर्थन और प्यार दिया है, उससे हमें विश्वास है कि जीत हमारी ही होगी।
(Story of Invisible Farmers in Farmers Protest)

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