बचुलि गुस्याँण

यशोधर मठपाल

माता-पिता विहीना एक हत्भागी युवती की ससुराल से इतनी ही अपेक्षा हो सकती है कि उसे कोई अपना मानने वाला घर मिल जाए, जहाँ परिश्रम कर वह इज्जतपूर्वक दो रोटियाँ पका सके। बचुलि के सपनों का आदर्श भी इतना ही था। मोटा चश्मा पहिने, श्यामवर्र्णी, पिचके गालों वाले पतिदेव को पाकर, जो भीतर से कहीं अधिक कुरूप था। उसने अपने मन को यह कह कर समझा लिया कि सुरूप-कुरूप होना तो मनुष्य के हाथ की बात नहीं, वह तो भगवान ही बनाता है पर आदतों को त्याग ही सकता है। उसने भुवन को एकान्त में प्यार से समझाया भी। किन्तु जिसको उसके माँ-बाप न सुधार सके उसे पत्नी बचुलि कैसे सुधारती? उसका दिन का समय तो जंगल जाने या खेतों में काम करने में बीत जाता किन्तु रात में तो वह भुवन की घरवाली थी। न चाहते हुए भी दोनों के बीच दूरी बढ़ती ही गयी और जब बचुलि ने पाँच बरस तक भुवन को बाप बनने का सुख नहीं दिया तो सास ससुर की नजरों में भी वह गिर गयी। पास पड़ौस से भुवन का दूसरा विवाह करने के बिन माँगे सुझाव भी आने लगे। जो समाज इस प्रकार की नि:स्वार्थ सेवा करने को तैयार था। वह इतना बुद्धिमान भी था कि बचुलि के माँ न बन पाने में दोष उसके पति का भी हो सकता था, इस जैविक सत्य की भी अनदेखी कर गया। बचुलि के भाग्य ने भी उसके साथ खिलवाड़ कर गया। एक दिन जब जंगल में अन्य स्त्रियों के साथ वह घास काटने गयी थी, अपने नवजात शिशुओं के साथ घास में छिपी बाघिन ने समीप आने पर बचुलि के मुख पर पंजा मार दिया। उसकी चीत्कार पर और महिलाओं ने भी शोर मचाया और बाघिन को कुछ कदम पीछे हटना पड़ा। स्त्रियाँ घायल बचुलि को घर ले आई। दाँयी ओर के गाल का माँस नोंचा गया था। देघाट के अस्पताल में ले जाकर उसकी मरहम पट्टी की गयी। बचुलि को सामान्य होने में कई महीने लग गये। वह ठीक तो हो गयी किन्तु उसका चेहरा विकृत हो गया। दाँयी आँख और होंठ कुछ खिसक चुके थे। अब वह प्राय: घूँघट से आधा मुख ढाँके रहती थी। उसकी उपेक्षा बढ़ती गयी और हैसियत एक बौलिया (बधुआ मजदूर) की रह गयी थी।  उसकी सास वंशवृद्धि न होने से परेशान थी। घनश्याम ने भी किसी पुरानी पुस्तक में पढ़ा था ‘सा नारी या पतिप्राणा: सा नारी या प्रजावती।’नारी तो वही है जिसके प्राण पति में हों और जो संतान देने वाली हो। उसकी स्त्री भी रात-दिन किचकिच् लगाए थी प्रजावती बहू लाने की। जब बचुलि ने भी सौतन ले आने की हरी झंडी दे दी तो बात आसान हो गयी। भुवन को एक नयी पत्नी मिल गयी। उन्हीं दिनों एक परिचित वैद्य जी उधर से गुजरे। घनश्याम ने भुवन को उन्हें दिखाया। नाड़ी देखकर वे बोले, ‘नाड़ी धीमी है स्नायु दौर्बल्य है। इधर नजदीक में कहीं बरगद का वृक्ष है क्या?’ घनश्याम ने उत्तर दिया, ‘हाँ वैद्यराज आगे ही मोड़ पर कुछ ऊँचाई में है एक पुराना पेड़।’वैद्य जी पुन: बोले, ‘कल से प्रात: सूर्योदय से पूर्व बिना कुछ खाए पिए, एक टहनी तोड़ कर उसका दूध दो बताशों में रखकर डेढ़ माह तक सेवन करें, सब ठीक हो जाएगा। यह दीर्घजीवी संतान पाने का निरापद उपाय है।’ वहीं किया गया और साल पूरा होते-होते भुवन को पुत्र की प्राप्ति हो गई। आगामी चार वर्षों में दो बेटे और आ गये। इस भरे पूरे परिवार में अब कुरूपा निपूता बचुलि की कोई आवश्यकता न रह गयी थी। विधिवत् योजना बनी। हरिद्वार में अर्धकुम्भ था। गाँव से कई लोग तीर्थ नहाने जाने वाले थे। घनश्याम नयी बहू तुलसी व उसके बच्चों को घर पर छोड़कर पत्नी, भुवन व बचुलि को साथ लेकर हरिद्वार आए। दूसरे दिन गंगा स्नान कर जब धरमशाले में पहुँचे तो चुपचाप पंडे को यह कह कर कि यह विधवा हो चुकी है लेकिन बाल काटने को तैयार नहीं है, नाई को बुलवाकर बलपूर्वक उसके हाथ बाँध कर मुँडन करवा दिया। बचुलि ने कितना प्रतिकार किया पर उसकी एक न चली। बाल कटने पर वह कंबल ओढ़ कर रोती रही। भुवन, उसकी माँ तथा घनश्याम यह कह कर कि हम लोग बाजार घूमकर थोड़ी देर में वापस आ जाएंगे, बचुलि को एकाकी छोड़ घर भाग आए। कई घंटे बीत गये और अपराह्न हो गयी। बचुलि को घबराहट होने लगी। उसके पास न रुपये थे, न कोई परिचित महिला साथी और न ही वापस जाने का कोई साधन। जब दिन ढलने लगा तो पंडे ने आकर पूछा, ‘तुम्हारे घर वाले आए नहीं। कहाँ रह गये वे लोग?’ बचुलि क्या उत्तर देती? चुप रही। तभी पंडे को ध्यान आया कि इसने कुछ खाया नहीं है। वह एक पत्तल में छ: पूरियाँ और सब्जी का दोना लाकर उसे दे गया। लगभग एक घंटे बाद वह दो माइयों को लेकर आ पहुँचा। उन्होंने बचुलि से उसकी राम कहानी जानी और ढाढस बँधाकर अपने आश्रम में ले आई। उन्होंने बचुलि की इच्छा जाननी चाही कि क्या वह अपने घर वापस जाना चाहेगी या गुस्याणी बन कर अपना परलोक सुधारेगी? बचुलि ने काफी सोचा। वह अभी मात्र चौबीस बरस की थी। सारा जीवन मुँह बाए खड़ा था। माँ-बाप पहिले ही मर चुके थे। उसको अपना मानने वाली नानी भी चल बसी। चाचा-चाची ने गाय-भैंस के मोल बेच दिया। पति ने दूसरी शादी कर घर बसा लिया। सास-ससुर जो उसको आज विधवा बनाकर धरमशाले में छोड़ गये क्या भरोसा कल जान से भी मार डालें। उसका अब इस दुनिया में है ही कौन? जिन माइयों ने उसे इस विपदा में सहारा दिया उन्हीं को अपना जीवन सौपने में ही भलाई होगी। वह गुस्याण ही बनेगी। तीसरे दिन एकादशी थी। प्रात: नहा धोकर पूजा के बाद गुरुमाई ने उसकी चूड़ियाँ चरेवा उतराए। उसे कांठी पहिनाई, गेरुए वस्त्र सौंपे और कान में गुरुमंत्र दिया। अब वह बचुलि गुस्याँण हो चुकी थी। उसे लौकिक शिक्षा भी दी गयी। ‘पुरुष मात्र को चाहे वह पाँच साल का बाल ही हो, वह पिता जी’पुकारेगी। इसी प्रकार स्त्री जाति की छोटी-बड़ी हर देवी को ‘माता जी’ आपसी अभिनन्दन में ऊँ नमो नारायण पुकारेगी तथा भिक्षा से अपनी आजीविका चलाएगी। उसका इस दुनियाँ में कोई सगा संबंधी नहीं है। वह ब्रह्मचारिणी रहेगी, तीर्थ व्रत करेगी। हमेशा भगवत नाम की माला जपेगी। सभी प्रकार के मनोरंजनों से दूर रहेगी। सर्वोपरि गुरुमाता को भगवान् या देवी से भी बड़ा मानेगी। उनकी हर प्रकार की सेवा सुश्रूषा करेगी।
Story of Bachuli

बचुलि गुस्याँण कई वर्षों तक गुरुमाता की सेवा करती रही। वह आश्रम का हर कार्य करती। उसने अपने मन को समझाने का प्रयत्न किया कि उसका पुराना जीवन उसके पूर्व जन्मों के पापों का परिणाम था। इस जनम में वह अपने सारे पाप धो डालेगी और आवागमन के चक्र से सदा के लिए छूट जाएगी। एक दिन गुरुमाता माला जपते हुए समाधिस्थ हो गयी। बचुलि एकान्त में काफी रोई। आश्रम की बड़ी दीदी ने गुरुमाता की गद्दी सम्भाली। बचुलि गुस्याँण ने कई वर्षों तक साथी माइयों के साथ तीर्थ यात्राएँ करी। वह चारधाम यात्रा पर भी निकली। बदरी-केदार, यमुनोत्री, गंगोत्री ही नहीं  कैलास मानसरोवर, कामाख्या, गंगासागर, पुरी, जगन्नाथ, रामेश्वरम, कन्याकुमारी, उज्जैन, द्वारिका, मथुरा, वृन्दावन, काशी, प्रयाग, अयोध्या शायद ही कोई तीर्थ छोड़ा हो। वर्षों की यात्रा से उसके पाँव भी पथरा चुके थे। उनमें बड़ी-बड़ी बेवाइयाँ फट गयी थी। इन यात्राओं में कितनी बार उसने जोगी जमातियों से अपनी अस्मिता बचाई थी। उसने पाया कि जो कनफड़े जोगी, नागा बाबा, जटाधारी और नैष्टिक ब्रह्मचारी बने सन्यासी हैं उनमें भी सामान्य मानवीय कमजोरियाँ प्राय: पाई जाती हैं। बचुलि गुस्याँण का उन पर ही नहीं अपने मन पर से भी विश्वास उठ गया था। इतनी तीर्थयात्राओं और जोगिया जिन्दगी के बाद भी उसका मन उतना ही अशान्त था जितना युवावस्था में पदार्पण के समय था। रात्रि के नीरव अंधकार में कभी-कभी वह एकाकीपन अनुभव करती थी। उसको किसी साथी का अभाव खलता था। मन मालूम क्या-क्या सोचता रहता। उसे इस बात की भी ग्लानि थी कि कि वह एक बच्ची भी न जन सकी। वह ‘ईजा (माँ) सम्बोधन के लिए भी तरसती रह गयी। वह तभी क्यों न मर गयी जब उसके माँ-बाप दुनियाँ छोड़ गये थे। यदि वह माँ बन सकी होती तो उसकी ये दुर्गति न होती। क्यों सौत आती और क्यों उसे देश निकाला होता? उसका भाग्य ही खराब था। क्या बाघिन ने उसी पर झपटना था? और औरतें भी तो थीं वहाँ। मेरे पति का भी क्या कसूर? शादी तो बच्चों के लिए ही की जाती है। भगवानों के भी बच्चे हुए हैं। गिरस्ती में दु:ख है तो सुख भी तो है। क्या पता मरते समय भी कोई पानी देने वाला मिलेगा या नहीं।’बचुली ठोकरें खाने और संसार को स्वार्थी तथा क्षणभंगुर मानते हुए भी अपनी आसक्ति मिटा न पाई थी। अपनी तीर्थ यात्राओं के दौरान दो बार वह अपने परिचित गृह क्षेत्र से भी गुजरी थी। अनचाहे भी उसको इस क्षेत्र से आत्मीयता हो गयी थी।
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