गंगो का जाया

भीष्म साहनी

गंगो की जब नौकरी छूटी तो बरसात का पहला छींटा पड़ रहा था। पिछले तीन दिन से गहरे नीले बादलों के पुंज आकाश में करवटें ले रहे थे, जिनकी छाया में गरमी से अलसायी हुई पृथ्वी अपने पहले ठण्डे अछ्वास छोड़ रही थी,और शहर-भर के बच्चे-बूढ़े बरसात की पहली बारिश का नंगे बदन स्वागत करने के लिए उतावले हो रहे थे। यह दिन नौकरी से निकाले जाने का न था। मजदूरी की नौकरी थी बेशक, पर बनी रहती, तो इसकी स्थिरता में गंगो भी बरसात के छींटे का शीतल स्पर्श ले लेती। पर हर शगुन के अपने चिह्न होते हैं। गंगो ने बादलों की पहली गर्जन में ही जैसे अपने भाग्य की आवाज सुन ली थी।

नौकरी छूटने में देर नहीं लगी। गंगो जिस इमारत में काम करती थी उसकी निचली मंजिल तैयार हो चुकी थी, अब दूसरी मंजिल पर काम चल रहा थाँ नीचे मैदान से सो गारे की टोकरियाँ उठा-उठाकर छत पर ले जाना गंगो का काम था। मगर आज सुबह जब गंगो टोकरी उठाने के लिए जमीन की ओर झुकी, तो उसके हाथ जमीन तक न पहुँच पाये। जमीन पर, पाँव के पास पड़ी हुई टोकरी को छूना एक गहरे कुएँ के पानी को छूने के समान होने लगा।

इतने में किसी ने गंगो को पुकारा, ‘मेरी मान जाओ गंगो, अब टोकरी तुमसे न उठेगी। तुम छत पर ईंट पकड़ने के लिए आ जाओ।’

छत पर लाल ओड़नी पहने और चार ईंटें उठाये, दूलो मजदूरन खड़ी उसे बुला रही थी।

गंगो ने न माना और फिर एक टोकरी उठाने का साहस किया, मगर होंठ काटकर रह गई। टोकरी तक उसका हाथ न पहुँच पाया।

गंगो के बच्चा होने वाला था, कुछ ही दिन बाकी रह गये थे। छत पर बैठकर ईंट पकड़ने वाला काम आसान था। एक मजदूर नीचे मैदान में खड़ा एक-एक ईंट उठाकर छत की ओर फेंकता और ऊपर बैठी हुई मजदूरन उसे झपटकर पकड़ लेती। मगर गंगो का इस काम से खून सूखता था। कहीं झपटने में हाथ चूक जाए और उड़ती हुई ईंट पेट पर आ लगे तो क्या होगा?

ठेकेदार हर मजदूर के भाग्य का देवता होता है। जो उसकी दया बनी रही तो मजदूर के सब मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं, पर जो देवता के तेवर बदल जाएँ तो अनहोनी भी होकर रहती है। गंगो खड़ी सोच ही रही थी कि कहीं से मकान की परिक्रमा लेता हुआ ठेकेदार सामने आ पहुँचा। छोटा-सा पतला शरीर, काली टोपी, घनी-घनेरी मूँछों में से बीड़ी का धुँआ छोड़ता हुआ, गंगो को देखते ही चिल्ला उठा-

‘खड़ी देख क्या रही, उठाती क्यों नहीं, जो पेट निकला हुआ था तो आई क्यों थी?’

गंगो धीरे-धीरे चलती हुई ठेकेदार के सामने आ खड़ी हुई। ठेकेदार का डर होते हुए भी गंगो के होठों पर से वह हल्की-सी स्निग्ध मुस्कान ओझल न हो पाई, जो महीने भर से उसके चेहरे पर खेल रही थी, जबसे बच्चे ने गर्भ में ही अपने कौतुक शुरू कर दिये थे और गंगो की आँखें जैसे अन्तर्मुखी हो गई थी। ठेकेदार झगड़ता तो भी शान्त रहती, और जो उसका घरवाला बात-बात पर तिनक उठता तो भी चुपचाप सुनती रहती।
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‘काम क्यों नहीं करुंगी? छत पर ईंटें कपड़ने का काम दे दो, वह कम लूंगी।’गंगो ने निश्चय करते हुए कहा।

‘तेरे बाप का मकान बन रहा है, जो जी चाहा करेगी? चल, दूर हो यहाँ से। आधे दिन के पैसे ले और दफा हो जा। हरामखोर आ जाते हैं….’

‘तुम्हें क्या फरक पड़ेगा, दूलो मेरा काम कर लेगी, मैं उसकी जगह चली जाऊंगी, काम तो होता रहेगा।’

‘पहले पेट खाली करके आओ, फिर काम मिलेगा। क्षणभर में ठेकेदार का रजिस्टर खुल गया और गंगो के नाम पर लकीर सिर गयी।’

ऐन उसी वक्त बारिश का छीटा भी पड़ने लगा था, गंगो ने समझ लिया कि जो आसमान में बादल न होते तो काम पर से भी छुट्टी न मिलती। आकाश में बादल आये नहीं कि ठेकेदार को काम खत्म करने की चिन्ता हुई नहीं। इस हालत में गर्भवती मजदूरन को कौन काम पर रखेगा। गंगो चुपचाप ओढ़नी के पल्ले से अपने गर्भ को ढकती हुई बाहर निकल आई।

उन दिनों दिल्ली फिर से जैसे बसने लगी थी। कोई दिशा या उपदिशा ऐसी न थी, जहाँ नई आबादियों के झुरमुठ न उठ रहे हों। नये मकानों की लम्बी कतारें, समुद्र की लहरों की तरह फैलती, अपने प्रसार में दिल्ली के कितने ही खण्डहर और स्मृति कंकाल रौदती हुई, बड़ रही थी। देखते ही देखते एक नई आबादी, गर्व से माथा ऊँचा किये, समय का उपहास करती हुई खड़ी हो जाती। लोग कहते, दिल्ली फिरसे जवान हो रही है। नई आबादियों की बाड़ आ गई थी। नया राष्ट्र नये निर्माण कार्य, लोगों को इस फैलती राजधानी पर गर्व होने लगा था। जहाँ कहीं किसी नईआबादी की योजना पनपने लगती तो सैकड़ों मजदूर खिचे हुए अपने फूस के छप्पर कंधों पर उठाये, वहाँ जा पहुँचते और उसी की बगल में अपनी झोपड़ी की बस्ती खड़ी कर लेते और जब वह नयी आबादी बनकर तैयार हो जाती तो फिर मजदूरों की टोलियाँ अपने फूस के छप्पर उठाये किसी दूसरी आबादी की नींव रखने चल पड़ती। मगर ज्योंही बरसात के बादल आकाश में मंडराने लगते, तो सब काम ठप हो जाता, और मजदूर अपने झोपड़ों में बैठे आकाश को देखते हुए चौमासे के दिन काटने लगते। कई मजदूर अपने गाँवों को चले जाते पर अधिकतर छोटे-मोटे काम की तलाश में सड़कों पर घूमते रहते। काम इतना न था जितने मजदूर आ पहुँचते थे। दिल्ली के हर खण्डहर की अपनी गाथा है, कहानी है, पर मजदूर की फूँस की झोपड़ी का खण्डहर क्या होगा और कहानी क्या होगी? हँसती-खेलती नई आबादी में इन झोपड़ों का या इन नये झोपड़ों में खेले गये नाटकों का स्मृति चिह्न भी नहीं मिलता।

उस रात गंगो और उसके पति घीसू देर तक झोपड़े के बाहर बैठे अपनी स्थिति को सोचते रहे।

‘जो छुट्टी मिल गई थी तो घर क्यों चली आयी, कहीं दूसरी जगह काम देखती।’

‘देखा है। इस हालत में कौन काम देगा? जहाँ जाओ ठेकेदार पेट देखने लगते हैं।’

झोपड़े के अन्दर उनका छ: बरस का लड़का रीसा सोया पड़ा था। घीसू कई दिनों से चिन्तित था, तीन आदमी खाने वो और कमाने वाला अब केवल एक, और ऊपर चौमासा और गंगो की हालत! उसका मन खीज उठा। अगर और पन्द्रह-बीस रोज मजदूरी पर निकल जाते तो क्या मुश्किल था? गर्भ वाली औरतें बच्चा होने वाले दिन तक काम पर जुटी रहती हैं। घीसू गठीले बदन का, नाटे कद का मजदूर था, जो किसी बात पर तिनक उठता तो घंटों उसका मन अपने काबू में न रहता। थोड़ी देर चिलम के कस लगाने के बाद धीरे-धीरे कहने लगा, ‘तुम गाँव चली जाओ’।
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‘गाँव में मेरा कौन है?’

तू पहले से ही सब पाठ पड़े हुए है, तू इस हालत में जायेगी तो तुझे घर से निकाल देंगे?

‘मैं कहीं नहीं जाऊंगी। तुम्हारा भाई जमीन पर पाँव नहीं रखने देगा। दो दफे तो तुमसे लड़ने-मरने की नौबत आ चुकी है।’

‘तो यहाँ क्या करेगी? मेरे काम का भी कोई ठिकाना नहीं। सुनते हैं सरकार ज्यादह मजदूर लगाकर तीन दिन में बाकी सड़क तैयार कर देना चाहती है।’

‘मरम्मती काम तो चलता ही रहेगा? गंगो ने धीरे से कहा’

‘मरम्मती काम से तीन जीव खा सकते हैं? एक दिन काम है, चार दिन नहीं।’ काफी रात गये तक यह उधेड़बुन चलती रही।

सोमवार को गंगो काम पर से बर्खास्त हुई और सनीचर तक पहुँचते-पहुँचते झोपड़ी की गिरस्ती डाँवाडोल हो गई। माँ, बाप और बेटा, तीन जीव खाने वाले और कमाने वाला केवल एक। गंगो काम की तलाश में सुबह घर से निकल जाती और दोपहर तक बस्ती के तीन-तीन चक्कर काट आती। किसी से काम पूछती तो या तो वह हँसने लगता, या आसमान पर मंडराते बादल दिखा देता। सड़कों पर दर्जनों मजदूर दोपहर तक घूमते हुए नजर आने लगे। फिर एक दिन जब घीसू ने घर लौटकर सुना दिया कि सरकारी सड़क का काम समाप्त हो चुका है तो घीसू और गंगो, मजदूरों के स्तर से लुढ़ककर आवारा लोगों के स्तर पर आ पहुँचे। कभी चूल्हा जलता, कभी नहीं। भरपेट खाना किसी न मिल पाता। छोटा बालक रीसा, जो दिनभर खेलते न थकता था अब झोपड़े के इर्द-गिर्द ही मंडराता रहता। पति-पत्नी रोज रात को झोपड़े से बाहर बैठते, झगड़ते, परामर्श करते और बात-बात पर खीझ उठते।

फिर एक रात हजार सोचने और भटकने के बाद घीसू के उद्विग्न मन ने घर का खर्चा कम करने की तरकीब सोची। अधभरे पेट की भूख को चिलम के धुँए से शान्त करते हुए बोला, ‘रीसे को किसी काम पर लगा दें।’

‘रीसा क्या करेगा, छोटा-सा तो है?’

‘छोटा है? चंगे भले आदमी का राशन खाता है। इस जैसे सब लड़के काम करते हैं।’

गंगो चुप रही। कमाऊ बेटा किसे अच्छा नहीं लगता? मगर रीसा अभी सड़क पर चलता भी था, तो बाप का हाथ पकड़कर वह क्या काम करेगा? पर घीसू कहता गया, ‘इस जैसे लैण्डे बूट-पालिश करते हैं, साइकिलों की दुकानों पर काम करते हैं, अखबार बेचते हैं, क्या नहीं करते? कल इसे मैं गणेशी के सुपुर्द कर दूंगा। इसे बूट पालिश करना सीखा देगा।’

गणेशी घीसू के गाँव का आदमी था। इस बस्ती से एक फर्लांग दूर, पुल के पास छोटी-सी कोठड़ी में रहता था। एक छोटा-सा सन्दूकचा कंधे पर से लटकाये गलियों के चक्कर काटता और बूटों के तलवे लगाया करता था।
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दूसरे दिन घीसू काम की खोज में झोपड़े में से निकलते हुए गंगो से कहा गया-

‘मैं गणेशी को रास्ते में कहता जाऊँगा। तू सूरज चढ़ने तक रीसे को उसके पास भेज देना।’

रीसा काम पर निकला। छोटा-सा पतला शरीर, चकित, उत्सुक आँखें। बदन पर एक ही कुर्ता लटकाये हुए। गणेशी के घर तक पहुँचना कौन-सी आसान बात थी। रास्ते में प्रकृति रीसे के मन को लुभाने के लिए जगह-जगह अपना मायाजाल फैलाये बैठी थी। किसी जगह दो लौंडे झगड़ा कर रहे थे, उनका निपटारा करना जरूरी था। रीसा घण्टा-भर उन्हीं के साथ घूमता रहा; कहीं एक भैंस कीचड़ में फँसी पड़ी थी; कहीं पर एक मदारी अपने खेल दिखा रहा था, रीसा-दिन-भर घूम-फिरकर, दोपहर के वक्त, हाथ में एक छड़ी घुमाता हुआ घर लौट आया।

कह देना आसान था कि रीसा काम करे, मगर रीसे को काम में लगाना नये बैल को हल में जोतने के बराबर था। पर उधर झोपड़े में बची-बचायी रसद क्षीण होती जा रही थी। दूसरे दिन घीसू उसे स्वयं गणेशी के सुपुर्द कर आया, और पाँच-सात आने पैसे भी पालिश की डिब्बिया और ब्रश के लिए दे आया।

उस दिन तो रीसा जैसे हवा में उड़ता रहा। दिल्ली की नयी-नयी गलियाँ घूमने को मिलीं, नये-नये लोग देखने को मिले। चप्पे-चप्पे पर आकर्षण था। रीसे की समझ में न आया कि बाप गुस्सा क्यों हो रहा था, जब उसे यहाँ घूमने के लिए भेजना चाहता था। दूकानें रंगबिरंगी चीजों से लदी हुई और भीड़ इतनी कि रीसे का लुब्ध मन भी चकरा गया।

रीसे की माँ सड़क पर आँखें गाड़े उसकी राह देख रही थी, जब रीसा अपने बोझल पाँव खींचता हुआ घर पहुँचा। अपने छ: साल के नन्हे-से जीवन में वह इतना कभी न चल पाया था, जितना आज एक दिन में। मगर माँ को मिलते ही वह उसे दिन-भर की देखी-दिखायी सुनाने लगा। और जब बाप काम पर लौटा तो रीसा अपना ब्रुश और पालिश की डिब्बिया उठाकर भागता हुआ उसके पास जा पहुँचा, ‘‘बप्पू, तेरा जूता पालिश कर दूँ?’’

सुनकर, घीसू के हर वक्त तने हुए चेहरे पर भी हल्की-सी मुस्कान दौड़ गयी-

‘‘मेरा नहीं, किसी बाबू का करना जो पैसे भी देगा।’’

और गंगो और उसका पति, अपने कमाऊ बेटे की दिनचर्या सुनते हुए, कुछ देर के लिए अपनी चिन्ताएँ भूल गये।

दूसरा दिन आया। घीसू और रीसा अपने-अपने काम पर निकले। दो रोटियाँ, एक चिथड़े में लिपटी हुई, घीसू की बगल के नीचे, और एक रोटी रीसे की बगल के नीचे। दोनों सड़क पर इकट्ठे उतरे और फिर अपनी-अपनी दिशा में जाने के लिए अलग हो गये।

पर आज रीसा जब सड़क पर तलाई पार करके पुल के पास पहुँचा तो गणेशी वहाँ पर नहीं था।

थोड़ी देर तक मुँह में उँगली दबाये वह पुल पर आते-जाते लोगों को देखता रहा, फिर गणेशी की तलाश में आगे निकल गया। शहर की गलियाँ, एक के दूसरी, अपना जटिल इन्द्रजाल फैलाये, जैसे रीसे की इन्तजार में ही बैठी थीं। एक के बाद दूसरी गली में वह बढ़ने लगा, मगर किसी में भी उसे कल का परिचित रूप नजर नहीं आया, न ही कहीं गणेशी की आवाज सुनायी दी। थोड़ी देर घूमने के बाद रीसा एक गली के मोड़ पर बैठ गया, अपनी पालिश की डिबिया और ब्रुश सामने रख लिये और अपने पहले ग्राहक की इन्तजार करने लगा। गणेशी की तरह उसने मुँह टेड़ा करके ‘पालिश श श श श…..! का शब्द पूरी चिल्लाहट के साथ पुकारा। पहले तो अपनी आवाज ही सुनकर स्तब्ध हो रहा, फिर नि: संकोच बार-बार पुकारने लगा। पाँच-सात मर्तबा जोर-जोर से चिल्लाने पर एक बाबू, जो सामने एक दुकान की भीड़ में सौदा खरीदने की इन्तजार में खड़ा था, रीसे के पास चला आया।’
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‘‘पॉलिश करने का क्या लोगे?’’

‘‘जो खुशी हो दे देना।’’ रीसे ने गणेशी के वाक्य को दोहरा दिया। बाबू ने बूट उतार दिये, और दुकान की भीड़ में फिर जाकर खड़ा हो गया।

रीसे ने अपनी डिब्बिया खोली। गणेशी के वाक्य तो वह दोहरा सकता था, मगर उसकी तरह हाथ कैसे चलाता? बूट पर पालिश क्या लगी, जितनी उसकी टाँगों, हाथों और मुँह को लगा। एक जूते पर पालिश लगाने में रीसे की आधी डिबिया खर्च हो गयी। अभी बूट के तलवे पर पालिश लगाने की सोच ही रहाथा कि बाबू सामने आन खड़ा हुआ। रीसे के हाथ अनजाने में ही ठिठक गये। बाबू ने बूटों की हालत देखी, आव देखा न ताव, जोर से रीसे के मुँह पर थप्पड़ दे मारा, जिससे रीस का मुँह घूम गया। उसकी समझ में न आया कि बात क्या हुई है। गणेशी को तो किसी बाबू ने थप्पड़ नहीं मारा था।

‘‘हरामजादे, काले बूटों पर लाल पालिश!’’ और गुस्से में गालियाँ देने लगा।

पास खड़े लोगों ने यह अभिनय देखा, कुछ हँसे, कुछ-एक ने बाबू को समझाया, दो-एक ने रीसे को गालियाँ दीं, और उसके बाद बाबू गालियाँ देता हुआ, बूट पहनकर चला गया। रीसा, हैरान और परेशान कभी एक के मुँह की तरफ, कभी दूसरे के मुँह की तरफ देखता रहा, और फिर वहाँ से उठकर धीरे-धीरे गली के दूसरे कोने पर जाकर खड़ा हो गया। हर राह जाते बाबू से उसे हिम्मत न हुई। रीसे को माँ की याद आयी, और उल्टे पाँव वापिस हो लिया। मगर गलियाँ और सामने आ जातीं। अनगिनत गलियों में घूमने के बाद वह घबराकर रोने लगा, मगर वहाँ कौन उसके आँसू पोछने वाला था। एक गली के बाद दूसरी गली लाँघता हुआ, कभी गणेशी की तलाश में, कभी माँ की तलाश में वह दोपहर तक घूमता रहा। बार-बार रोता और बार-बार स्तब्ध और भयभीत चुप हो जाता। फिर शाम हुई और थोड़ी देर बाद गलियों में अंधेरा छाने लगा। एक गली के नाके पर खड़ा सिसकियाँ ले रहा था, किउस जैसे ही लड़कों का टोला यहाँ-कहाँ से इकट्ठा होकर उसके पास आ पहुँचा। एक छोटे-से लड़के ने अपनी फटी हुई टोपी सिर पर खिसकाते हुए कहा, ‘‘अबे साले रोता क्यों है?’’

दूसरे ने उसका बाजू पकड़ा और रीसे को खींचते हुए एक बराण्डे के नीचे ले गया। तीसरे ने उसके धक्का दिया! चौथे ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए, उसे बराण्डे के एक कोने में बैठा दिया। फिर उस छोटे-से लड़के ने अपने कुर्ते की जेब में से थोड़ी-सी मूँगफली निकालकर रीसे की झोली में डाल दी।

‘‘ले साले, कभी कोई रोता भी है? हमारे साथ घूमाकर, हम भी बूट-पालिश करते हैं।’’

आधी रात गये, नन्हा रीसा, जीवन की एक पूरी मंजिल एक दिन में लाँघकर, सिर के नीचे ब्रुश और पालिश की डिबिया और एक छोटा-सा चीथड़ा रखे, उसे बराण्डे की छत के नीचे अपनी यात्रा में नये साथियों के साथ, भाग्य की गोद में सोया पड़ा था।

-उधर, झोपड़े के अन्दर लेटे-लेटे, कई घण्टे की विफल खोज के बाद, घीसू गंगो को आश्वासन दे रहा था: ‘‘मुझे कौन काम सिखाने आया था? सभी गलियों में ही सीखते हैं। मरेगा नहीं, घीसू का बेटा है, कभी-न-कभी तुझे मिलने आ जायेगा।’’

घीसू का उद्विग्न मन जहाँ बेटे के यूँ चले जाने पर व्याकुल था, वहाँ इस दारुण सत्य को भी न भूल सकता था कि अब झोपड़े में दो आदमी होंगे, औरबरसात काटने तक, और गंगो की गोद में नया जीव आ जाने तक, झोपड़ा शायद सलामत खड़ा रह सकेगा।

गंगो झोपड़े की बालिश्त-भर ऊँची छत को ताकती हुई चुपचाप लेटी रही। उसी वक्त गंगो के पेट में उसके दूसरे बच्चे ने करवट ली। जैसे संसार का नवागन्तुक संसार का द्वार खटखटाने लगा हो। और गंगो ने सोचा- यह क्यों जन्म लेने के लिए बेचैन हो रहा है? गंगो का हाथ कभी पेट के चपल बच्चे को सहलाता, कभी आँखों से आँसू पोंछने लगता।

आकाश पर बरसात के बादलों से खेलती हुई चाँद की किरनों के नीचे नये मकानों की बस्ती झिलमिला रही थी। दिल्ली फिर बस रही थी और उसका  प्रसार दिल्ली के बढ़ते गौरव को चार चाँद लगा रहा था।
प्रतिनिधि कहानियाँ से साभार
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