दुख की सहभागिता : कहानी

मधुजोशी

मिसेज़ सुधा सुब्रह्मण्यम से बहुत समय बाद मुलाकात हुई, सम्भवत: तीन या चार वर्ष। मैं तो उन्हें पहचान ही नहीं पाया। यदि मेरी पत्नी ने मुझे याद नहीं दिलाया होता तो मैं उनके पास से बिना उनका अभिवादन किये चला जाता। वो तो भला हो आरती की याददाश्त का। वैसे सुधा जी को पहचानने में उसे भी काफ़ी समय लगा। वह वाकई काफ़ी बदल गयी हैं।

आरती और मेरी पी़ वी़ सुब्रह्मण्यम साहब तथा उनकी धर्मपत्नी सुधा जी से जान पहचान तब हुई थी जब हमने अपने जुड़वाँ बेटों को हॉस्टल में डाला था। पहले तो दोनों बच्चे हमारे साथ ही रहकर पढ़ते थे किन्तु फिर आरती और मैंने निर्णय लिया कि हर दूसरे-तीसरे साल नये स्कूल में दाखिला दिलाने की जगह हम उन्हें अम्मा-बाबूजी के पास बोर्डिंग स्कूल में डाल देते हैं और हम दोनों भारत सरकार के आदेशानुसार देश भर में घूमते रहेंगे। इसी नये स्कूल में सुब्रह्मण्यम साहब बच्चों के फिजि़क्स टीचर थे और सुधा जी हॉस्टल में उनकी हाउस मिस्ट्रैस। अभी तो मैं काफी इज़्ज़़त से दोनों को सुब्रह्मण्यम साहब और सुधा जी कह रहा हूँ। उस समय अवि-लवि की देखा देखी आरती और मैं भी उन्हें सुब्बु और सुब्बी कहते थे! जब तक बच्चे हॉस्टल में रहे तब तक दोनों पति-पत्नी से नियमित अन्तराल पर मुलाकातें होती रहीं। उसके बाद जब बच्चों ने बारहवीं की परीक्षा पास कर ली तो मुलाकातों का सिलसिला कुछ कम हो गया। कभी-कभार जब सप्ताहान्त अथवा छुट्टियों में पति-पत्नी शहर आते तब उनसे मुलाकात हो जाती।

बाद के सालों में जब भी हम मिलते तो सुब्रह्मण्यम साहब अपनी सेवानिवृत्ति की बातें करने लगते। मसलन, ‘‘बस दो साल बाकी हैं, कर्नल सिंह। फिर सुधा और मैं अपने घर लौट जायेंगे। आप दुनिया भर में घूमकर अपने इलाके में वापिस आ गये हैं। अब जैसे ही हम फ्री होंगे हम भी अपने मुल्क लौट जायेंगे। आपका शहर बहुत अच्छा है और यहाँ चौंतीस साल कब गुज़र गये पता ही नहीं चला। लेकिन रिटायरमैन्ट के बाद अपने लोगों के साथ रहना ही ठीक होता है। हमारे तो अपने बाल-बच्चे हैं नहीं। लेकिन भाइयों-बहनों के बच्चे, नाती, पोते सब कांचिपुरम में ही हैं। अब वहीं जाकर अपने लोगों के बीच रहेंगे। वैसे तो आपने पूरी दुनिया घूम ली है लेकिन जब हम कांचिपुरम में सैटल हो जायें तो हमारे पास ज़़रूर आइयेगा। हम आपको वहाँ का मठ तो दिखायेंगे ही, बाकी का तमिलनाडु भी घुमायेंगे और तरह-तरह का दक्षिण भारतीय खाना भी खिलायेंगे। आपका इलाका बहुत सुन्दर है, कर्नल सिंह। लेकिन घर तो घर ही होता है।’’
(Story Dukh ki Sahbhagita)

अन्तत:, अमूमन दो-ढाई साल पहले सुब्रह्मण्यम दम्पति कांचिपुरम लौट गये थे। बच्चों को उनसे बहुत स्नेह मिला था अत: दोनों अपनी-अपनी गृहस्थियों-नौकरियों में व्यस्त होने के बावजूद लगातार अपने ‘सुब्बु’ और ‘सुब्बी’ के साथ फेसबुक पर सम्पर्क में रहते थे। उन्हीं से यदा-कदा सुब्रह्मण्यम दम्पति के हाल-समाचार मिल जाते थे।

फिर पिछले वर्ष अवि ने एक दिन देर रात फोन करके सुब्रमण्यम साहब की मृत्यु का दुखद समाचार दिया। तत्काल मिसेज़ सुब्रह्मण्यम को फोन करने की हिम्मत आरती और मैं नहीं जुटा पाये। कुछ दिनों के बाद अवि से उनका फोन नम्बर लेकर उनसे सांत्वना व्यक्त की। पति की आकस्मिक मृत्यु से बेचारी सुधा जी सदमे में थी और बहुत ज्यादा बोल नहीं पायीं । सदा खुश रहने वाली, अपने हाउस के बच्चों पर ममता लुटाने वाली मिसेज़ सुब्रह्मण्यम की बुझी हुई आवाज़ सुनकर आरती और मैं दोनों बहुत दुखी हुये । बहुत दिनों तक हम उनकी बातें करते रहे और, फिर, आज उनसे मुलाकात हो गयी और उनको हम पहचान ही नहीं पाये।

सदा चमचमाती दक्षिण भारतीय सिल्क की साड़ियां पहनने वाली मिसेज़ सुब्रह्मण्यम ने साधारण सिन्थेटिक साड़ी पहनी हुई थी। उनके माथे पर दमकने वाली बड़ी सी बिन्दी तो गायब थी ही, उन्होंने अपने अधिकांश गहने भी उतार दिये थे। वह काफ़ी कमज़ोर भी लग रहीं थीं। उन्हें देखकर दु:ख तो हुआ लेकिन ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ। दुनिया बहुत आगे बढ़ चुकी है लेकिन अभी भी भारतीय महिलाएं बहुधा या तो अपने ‘वैधव्य’ को यूं ही ओढ़ लेती हैं या फिर उन्हें इसके लिए मजबूर किया जाता है।

उस मुलाकात में तो मिसेज़ सुब्रह्मण्यम से बस कुछ औपचारिक बातें ही हुईं। उनके जाने के बाद काफी देर तक आरती और मैं हमारे दकियानूसी समाज में महिलाओं की स्थिति पर बातें करते रहे। आरती ने मुझे बाबूजी की मृत्यु के दो माह बाद घटी एक घटना के विषय में भी बताया। फौज के प्रगतिशील माहौल में जि़न्दगी बिताने के कारण आरती पूरी तरह से रूढ़ियों और पुरातनपन्थी परम्पराओं से ऊपर उठ चुकी है। शायद इसीलिए उसके अपनी दोनों बहुओं से ऐसे दोस्ताना सम्बन्ध हैं कि दोनों अपनी सास से अपने पतियों और अपने मायके वालों तक की शिकायत कर लेती हैं! बाबूजी की मृत्यु के दो महीने बाद आरती ने जोर देकर अम्मा को किसी तरह से तैयार कर लिया था कि वह डॉक्टर के आदेशानुसार रोज शाम को सैर के लिए जाना पुन: प्रारम्भ करें। तब तक सांत्वना देने आने वाले लोगों की भीड़ कुछ कम हो गयी थी और अम्मा की शुगर का स्तर भी काफ़ी बढ़ गया था। डॉक्टर राय का कहना था कि डायबिटीज़ को नियन्त्रण में रखने के लिए अम्मा का सैर के लिए जाना बहुत ज़रूरी है।
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इस बीच आरती ने जोर देकर अम्मा की नाक में लौंग पुन: पहना दी थी और छोटी बहन गरिमा ने जिद करके उनके माथे पर बिन्दी भी लगा दी थी। पहले ही दिन जब अम्मा आरती के साथ घर से निकलीं तो कुछ ही दूरी पर उन्हें अपनी भजनमण्डली की मिसेज़ शाह मिल गयीं। इस घटना को घटे काफी समय गुज़र गया है। लगता है अम्मा भी उस कटु अनुभव से काफी हद तक उबर गयी हैं। तभी वह किसी महिला के पति की मृत्यु पर स्वयं उससे कहती हैं, ‘‘खाना-पीना, ओढ़ना-पहनना छोड़ने से कोई वापिस तो नहीं आता है। फिर खुद को और अपने अपनों को कष्ट पहुँचाने से क्या फ़ायदा।’’ जब बाबूजी की मृत्यु के लगभग आठ-नौ माह बाद रमेश चाचा जी की मृत्यु के उपरान्त मैंने अम्मा को यह कहकर शन्नो चाची के माथे पर बिन्दी लगाते हुए देखा था तो मुझे अपनी भोली-भाली, अद्र्घशिक्षित अम्मा पर बहुत गर्व हुआ था। आज जब आरती ने उस शर्मनाक घटना का जि़क्र किया तो मुझे लगा कि मेरी अम्मा कितनी दमदार हैं और मेरी शान्त-सौम्य जीवनसंगिनी कितनी समझदार।

जब यह घटना घटी थी तब आरती ने मुझसे इसका जि़क्र नहीं किया था। वह मेरी रग-रग से वाकिफ़ है। वह जानती थी कि इस बात की पूरी सम्भावना है कि मैं क्रोध में कोई उग्र प्रतिक्रिया व्यक्त करता और शाह आन्टी से कुछ कह बैठता। लेकिन ऐसा भी नहीं कि इस घटना से आरती नाराज़-परेशान नहीं हुई थी। इतने लम्बे अर्से के बाद, सुधा जी से मुलाकात के उपरान्त जब वह मुझे इस घटना के बारे में बता रही थी तब भी उसका चेहरा तमतमा गया था और उसका रोष उसकी आवाज़ से साफ़ झलक रहा था।
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आरती ने मुझसे कहा, ‘‘उस दिन जैसे ही शाह आन्टी की नज़र अम्मा जी पर पड़ी वह ठिठक कर ऐसे खड़ी हो गयीं जैसे उन्हें बहुत बड़ा झटका लगा हो। तुम तो जानते ही हो वह कितनी ओवरएक्टिंग करती हैं। फिर चौंकने का अभिनय करते हुए बोलीं, ‘अच्छा, साल पूरा हो गया सिंह साहब को गुज़रे। मुझे तो इसका अन्दाज़ा ही नहीं था।’ फिर वह गोल घूमकर, अम्मा जी से दूरी बनाते हुए यह कहते हुए चली गयीं, ‘वैसे भी अब हमारे समाजिक नियम-कानूनों को कौन मान रहा है। सब अंग्रेज बन गये हैं। न विधवा विधवा जैसी दिखना चाहती है और न सधवा सधवा जैसी। घोर कलियुग है यह तो।’ उनके जाने के बाद मैंने अम्मा जी की तरफ़ देखा तो वह बेचारी ऐसे लग रही थीं कि जैसे उन्होंने कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो। मैं ही जानती हूँ कि कैसे मैंने उन्हें थोड़ा और आगे जाने के लिए तैयार किया। घर वापिस पहुँचने तक वह रुँआसी हो गयी थीं। वह तो अच्छा हुआ कि उन दिनों गरिमा भी लखनऊ  से आयी हुई थी। बड़ी मुश्किल से हम दोनों ने अम्मा जी को अगले दिन सैर के लिए जाने को तैयार किया। उस दिन गरिमा भी हमारे साथ आयी। उसने तो यह तक कहा था, ‘मैं देखती हूँ कौन मेरी अम्मा से कुछ कहने की हिम्मत करता है। मैं वहीं उसकी जीभ खींच लूंगी, भाभी।’ वह तो अच्छा हुआ हमें फिर से शाह आन्टी नहीं मिलीं नहीं तो गरिमा तो उनकी जमकर खबर लेती। लेकिन तुमसे सच कहूँ, मुझे आज़ भी शाह आन्टी बिल्कुल अच्छी नहीं लगती हैं। और उन्होंने तो खुद शाह अंकल के जाने का दु:ख सहा था तो मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि उन्होंने अम्मा जी के साथ इतना बुरा बर्ताव क्यों किया। मेरा तो आज भी उन्हें नमस्ते करने को मन नहीं करता है। वह तो हमारी अम्मा जी बड़ी समझदार और स्ट्राँग हैं…।’’

खैर, चर्चा सुधा जी की हो रही थी। आरती और मुझे लगा था कि वह फैमली पेंशन, बैंक आदि के काम निपटाने के लिए आयी होंगी। इसलिए अगली बार मुलाकात होने पर आरती ने उनसे उनकी वापसी के विषय में पूछ लिया। कुछ पल चुप रहने के बाद उन्होंने जवाब दिया, ‘‘अब यहीं रहूंगी, आरती। स्कूल के पास ही दो कमरे का फ्लैट किराये पर ले लिया है। साल-दो साल में कांचिपुरम जाकर सबसे भेंट कर आऊँगी। इनके जाने के बाद मेरा वहाँ मन ही नहीं लगा। पहाड़ वापिस आने पर लगा कि जैसे घर वापिस आ गयी हूँ। अपनी खिड़की से बाहर देखने पर चिड़ियों की चहचहाट सुनती हूँ, सामने की पहाड़ी पर पेड़ों की कतारों को देखती हूँ तो लगता है कि यह भी तो सुब्रह्मण्यम साहब और मेरे बच्चे हैं। और फिर अपना घर तो अपना घर होता है।’’
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कुछ दिन बाद आरती और मैंने सुधा जी के घर जाने का कार्यक्रम बनाया। जब अम्मा को मालूम चला तो वह भी हमारे साथ आ गयीं। उन्हें सुधा जी बहुत अच्छी लगती थीं क्योंकि, उनके अपने शब्दों में, ‘‘वह अवि-लवि की देखभाल बिल्कुल माँ की तरह करती थीं।’’ हमें देखकर सुधा जी का चेहरा खिल उठा। अभी हम बैठे ही थे और एक दूसरे की कुशल़क्षेम पूछ रहे थे कि अम्मा ने अपने पर्स से बिन्दी का एक पत्ता निकाला और उठकर एक बिन्दी सुधा जी के माथे पर लगा दी। आरती और मैं थोड़ा घबड़ा गये लेकिन सुधा जी ने कोई प्रतिरोध नहीं किया। अम्मा ने उनसे कहा, ‘‘पिछले महीने नन्दा देवी के मेले से आरती मेरे लिए बिन्दियां लायी थी। एक पत्ता मैं आपके लिए ले आयी।’’

काफी देर तक सुधा जी सिर झुकाये अम्मा का हाथ थामे बैठी रहीं। फिर उन्होंने डबडबायी आँखों से अम्मा की तरफ़ देखा और भर्रायी आवाज़ में कहा, ’’आज यकीन हो गया है, दीदी, कि मैंने घर लौटकर ठीक काम किया। वैसे सुब्रह्मण्यम साहब को भी इस बिन्दी उतारने, गहने उतारने से सख्त नफ़रत थी। आज वह जहाँ भी होंगे खुश होंगे।’’ फिर वह खुद पर नियन्त्रण करके आरती की तरफ मुड़ीं और उन्होंने उससे अनुरोध किया, ’’आज सबको अपने हाथ की कॉफी पिला दो ना, आरती। महीनों हो गये किसी और के हाथ की कॉफी पिये।’’

इसके बाद न उन्होंने कुछ कहा और न ही हमने कुछ पूछा। अम्मा और सुधा जी ने अभी भी एक दूसरे का हाथ थाम रखा था। शायद इसी को दुख की सहभागिता कहते हैं। और, हाँ, अब अम्मा और सुधा जी साथ-साथ घूमने जाती हैं। सुधा जी अब अपनी दक्षिण भारतीय सिल्क की साड़ियां भी एक बार फिर से पहनने लगी हैं।
‘और एक रहिन वो’ से साभार
(Story Dukh ki Sahbhagita)

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