हाय-हाय मिर्ची : कहानी

स्वाति मेलकानी

सीटियाँ बजाते लड़के जोर-जोर से गा रहे थे। पुल पर पीले शार्ट्स पहने एक लड़की साइकिल चलाना सीख रही थी। लड़कों ने यह गीत और सीटियां यकीनन उसी लड़की की खिदमत में पेश किये थे।

पहाड़ में साइकिल और घुटने से ऊँचे शॉर्ट्स पहने लड़की, मैंने चौंकते हुए पूछा, ”कौन है यह लड़की?” साथ चल रही विनीता दीदी बोली, ”अरे मैडम, इसे कौन नही जानता ? हमारे स्कूल की सबसे बिगड़ी हुई लड़की है यह। दो सालों से हाईस्कूल में फेल हो रही है, फिर भी शर्म नही है। जरा देखिये, कैसे चारों ओर आवारा लड़कों की भीड़ इकट्ठी कर रखी है”। मैने देखा कि लड़की लम्बी, छरहरी और आकर्षक थी। आसपास की नजरों से बेफ्रिक वह साइकिल चला रही थी। मुझे उस लड़की की बेपरवाही भली लगी।

बाजार में सब्जी, दूध लेने और राह में मिलते लोगों से बतियाने में काफी देर हो गयी। जब हल्का अंधेरा छाने लगा तो घर लौटने की याद आई। तेज कदमों से चढ़ाई पार कर रही थी कि घास का गट्ठर उठाये दो लड़कियाँ सामने आ गयीं। गट्ठर की लटकती घास से दोनों के चेहरे ढके हुए थे। एक लड़की से तो मैं टकराते-टकराते बची। वह लड़की हँसकर बोली, ”नमस्ते दीदी, आप हमारे स्कूल में नई आई हो ना।” मैने उसके चेहरे पर नजर डाली, ”अरे यह तो वही लड़की है जो कुछ देर पहले पुल पर साइकिल चला रही थी। इतनी जल्दी कैसे रूप बदल लिया।” मैने हैरान होकर सोचा। घर पहुँचने की जल्दी में मैं मुस्कराते हुए आगे बढ़ गई। घर पहुँचने तक वाकई रात हो गयी थी।

अगली सुबह स्कूल पहुँचने पर प्रार्थना सभा के बीच ही हाईस्कूल की दो लड़कियाँ लड़ पड़ीं। झगड़े की वजह जानी तो पता चला कि दोनों लड़कियों में से एक क्लास मॉनिटर है और दूसरी क्लास में उत्पात मचाने की आरोपी। मॉनिटर का कहना था कि आरोपी लड़की न सिर्फ उसके आदेशों का उल्लंघन करती है बल्कि अन्य लड़कियों को भी बगावत के लिए उकसा रही है। मैंने नजदीक जाकर पूरा मामला सुनना चाहा पर तब तक क्लास टीचर ने आरोपी लड़की को धूप में कान पकड़कर खड़े रहने का दण्ड दे दिया था। मैंने देखा कि आरोपी वही पहली शाम वाली लड़की थी, और उसका नाम था ‘त्रिषा’।  नाम सुनकर थोड़ी हैरानी हुई बड़ा ही अलग-सा और सोच कर रखा गया नाम था। साथी शिक्षिकाओं ने बताया कि त्रिषा का असली नाम तारा है। वह हमेशा कहती थी कि उसका नाम पुराने जमाने का है। जब पहली बार उसने हाईस्कूल का फार्म भरा तो कहीं से एफिडेविट बनवा लाई और नाम तारा से बदलकर त्रिषा रख लिया। वरना इस ग्रामीण कस्बे में कौन उसका नाम त्रिषा रखता। जो भी हो पर नाम अच्छा चुना था, त्रिषा।

त्रिषा दिन भर कान पकड़े धूप में खड़ी रही पर चेहरे पर न सजा का कोई मलाल था और ना ही उसने अपनी कक्षाध्यापिका से माफी मांगना जरूरी समझा।

स्टाफ रूम में अक्सर त्रिषा के बिगडै़ल स्वभाव की बातें होती थी। उसके फैशन और प्रेम प्रसंगों की चर्चा रहती थी। कहा जाता था कि उसके घर के नजदीक जो पुलिस थाना है उसमें आने वाले सभी नये कांस्टेबल ज्वाइनिंग के कुछ ही दिनों बाद उसके घर के चक्कर काटते देखे जाते हैं। उसकी एक बड़ी बहिन भी ससुराल छोड़कर मायके में रहती है। रोज शाम दोनों बन-ठन कर बाजार घूमने निकल जाती हैं। आसपास के लोग बताते थे कि उसका बाप एक नम्बर का शराबी है। अपनी जवानी में उसने खूब ऐश किये हैं। यहाँ तक कि उसकी माँ को वह किसी दूर के गाँव से घोड़े में बिठाकर भगा लाया था। और भी न जाने क्या-क्या़…..।

कुल मिलाकर त्रिषा हमेशा खबरों में रहती थी। मिर्च जैसी तेज और नदी जैसी धारदार थी त्रिषा जिंद्गी के फीकेपन से कोसों दूर वह हर नये स्वाद को चख लेना चाहती थी।

स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में त्रिषा खूब भाग लेती थी। उसकी आवाज अच्छी थी और नाचती तो वह गजब का थी। यह अगल बात है कि उसकी शिक्षिकाओं की राय में उसका सारा ध्यान सिर्फ नाच गाने की तरफ था और इसी वजह से वह दो सालों से फेल हो रही थी। अंजना मैडम ने तो यहाँ तक कहा कि अगर एक साल त्रिषा और फेल हो जाए तो स्कूल से उसका नाम कट जाएगा और सारे स्कूल का भला होगा।  इन तमाम उलाहनाओं के बीच त्रिषा की मुस्कान कायम थी और शिक्षिकाओं के उपदेश या गालियाँ उसे छूती तक नही थी।

एक दिन त्रिषा की एक सहेली घर से भाग गई। भागने वाली लड़की उसकी करीबी सहेली थी और बीते सालों से उसी के साथ फेल हो रही थी। अफवाह यह थी कि उसे भगाने में त्रिषा का भी हाथ है। पर त्रिषा लगातार स्कूल आती रही। करीब छ: महीने बाद त्रिषा की वह सहेली मांग में सिंदूर भरे, गुलाबी साड़ी पहने कस्बे के नामी दुकानदार के बेटे के साथ मोटरसाइकिल में मंदिर जाती देखी गयी। अब वह एक बच्चे की माँ है और उसी सम्मानित दुकानदार के घर की लाड़ली बहू है।
(Story by Swati Melkani)

गाँव के कृष्ण मंदिर में जन्माष्टमी का मेला लगा था। सारा बाजार दुकानों और लोगों से ठसाठस था। मैं दोपहर को छत पर खड़ी मेले में सजी दुकानें देख रही थी। सड़क पार की एक दुकान में लाल-लाल जलेबियाँ तली जा रही थी। चाशनी से निकलते ही हाथों हाथ बिक रही जलेबियों को देख कर मेरे भी मुँह में पानी आया पर मेले की भीड़ में घुसने के ख्याल से मैंने जलेबियों का लालच छोड़ दिया और छत से उतरकर वापस अपने कमरे में आ गई। गैस पर चाय रखी ही थी कि तभी दरवाजे में दस्तक हुई। दरवाजा खोला तो काली जीन्स, लाल टॉप और कानों में कंगन जितनी बड़ी गोल बालियां पहने त्रिषा खड़ी थी। दरवाजा खुलते ही बोली, ”दीदी, ये लीजिए जलेबी”। ”जलेबी”, मैं चौंक पड़ी, ”पर तुम्हे कैसे पता चला।” उसने गर्म जलेबी का थैला मुझे पकड़ाया और बेतकल्लुफी से भीतर आकर बोली, ”दीदी, मैं तो सुबह से मेले में घूम रही हूँ। सारे टीचर मेला घूम रहे हैं पर एक आप ही नहीं दिखी। इसीलिये मैं आपके लिए जलेबी ले आई। दीदी, यह हमारे यहाँ का सबसे बड़ा मेला है। जलेबी तो खानी ही चाहिए। मेले की जलेबी रोज थोड़ी मिलती है। मैं अवाक उसे देखती रही। कमर तक लम्बे खुले बालों में वह नौसिखिया जादूगरनी सी लग रही थी। चारों ओर नजरें घुमाकर बोली, ”दीदी, आप इतनी चुपचाप, इतनी अकेली कैसे रह लेती हो।” फिर किताबों की अलमारी देखकर कहने लगी, ”ये सारी किताबें आपने पढ़ी हैं दीदी? बाप रे बाप, आपके सिर में दर्द नहीं होता क्या?”

मैने जलेबियाँ प्लेट में रखते हुए कहा, ”चलो, साथ में खाते हैं।” ”नही दीदी, आप खाओ। मैं तो खाकर ही आ रही हूँ।” त्रिषा बोली। ”अच्छा तो फिर चाय पियेगी” मैने आग्रह करते हुए पूछा। ”नहीं दीदी, मैं चाय नही पीती।” वह उठकर चलने को तैयार हुई। ”देख झूठ मत बोल, मैं तो चाय बना ही रही थी, थोड़ी सी पी ले” मैंने उसे रोकते हुए कहा। ”नही दीदी, मैं सचमुच चाय नहीं पीती। माना मुझमें कई ऐब हैं पर मैं चाय नही पीती हूँ। आप मेरे घर आकर किसी से भी पूछ लेना।” त्रिषा दृढ़ता से बोली।

 जलेबियां देकर वह चली गई। मेला शाम तक चलने वाला था और अभी बहुत कुछ देखना बाकी थी। रुकने का वक्त कहाँ था त्रिषा के पास।
***
स्कूल की जाम नालियों में बरसात भर कूड़ा जमा होता रहा। पेड़ों के गिरे पत्ते सड़ गये थे। स्कूल के मैदान में लगा कूड़े का ढेर सबकी आँखों में खटक रहा था पर आगे बढ़कर उसकी सफाई का कोई इंतजाम नहीं था। एक दिन श्रमदान की कक्षा में मैंने कुछ लड़कियों को साथ लेकर कूड़े का ढेर साफ करने की पेशकश की। बड़ी कक्षाओं की कुछ लड़कियां साथ आई पर कूड़े की तेज बदबू की वजह से पीछे ही रुक गई। मेरे हाथ में फावड़ा देखकर न जाने कहाँ से दौड़ती हुई त्रिषा आई और मेरे हाथ से फावड़ा छीनते हुए बोली ”दीदी आप हटो हम करेंगे।” पल भर में ही उसने  अपनी सफेद सलवार को घुटनों से ऊपर तक मोड़ा और नीले कुर्ते को कमर में खोसकर  कूड़े के ढेर के बीचों-बीच खड़ी हो गई। जब उसने फावड़ा उठाकर कूड़े की बाल्टियों में भरा तो बाकी लड़कियों को भी आगे आना पड़ा। कुछ ही देर में कूड़े का ढेर साफ हो गया। मैंने मन ही मन कहा ,”यह काम तो त्रिषा ही कर सकती थी।” और शायद यह सच भी था।

हाईस्कूल की बोर्ड परीक्षाएँ शुरू हो गई थी। विज्ञान के पेपर की पहली शाम त्रिषा अचानक मेरे कमरे में पहुँच गयी। हाथ में एक क्वैश्चन बैंक दिखाकर बोली,”दीदी मुझे कल के पेपर के लिए कुछ इम्पोरटैन्ट बता दो।”

”कल सुबह सात बजे पेपर है अब इस समय मैं तुझे बताऊँ?” मैंने समझाते हुए कहा।

तभी उसकी दाहिनी आँख से एक आँसू टपका और उसने नजरें झुका ली। ”दीदी, अगर मैं इस साल पास नहीं हुई तो मेरे पापा किसी बुढ्ढे से मेरी शादी करके मुझे दफा कर देंगे। प्लीज दीदी, कुछ भी ऐसा बता दो कि मैं पास हो जाऊँ।” न जाने मैंने कौन-कौन से प्रश्नों को महत्वपूर्ण बताकर उसे लौटा दिया।

हाईस्कूल का रिजल्ट आया और त्रिषा पास हो गयी। प्रिंसिपल और कई अन्य शिक्षिकाओं के आँख की किरकिरी ‘त्रिषा’ एक बार फिर हमारे स्कूल में ग्यारहवीं की छात्रा थी।

त्रिषा खेलकूद में अच्छी थी। अन्डर फोर्टीन की कबड्डी टीम में उसे उम्र कम बताकर ले जाना पड़ा। राज्य स्तरीय प्रतियोगिता किसी दूसरे शहर में थी। वहाँ पहुँचते ही स्लीव लेस टॉप पहनकर बोली, ”दीदी, थोड़ा बाजार घूम आते हैं।  मैंने उसे मना किया और कुछ देर आराम करने के बाद सब लड़कियों को लेकर ट्रायल मैच के स्टेडियम चलने को तैयार हुई। बाहर आकर देखा तो गेट बंद था। जिस हॉस्टल में हम रुके थे उसका चौकीदार बाहर ताला लगाकर कहीं चला गया था। हम सब अंदर बंद रह गये। उसी शाम टीम का रजिस्ट्रेशन करना जरूरी था। ”अब क्या होगा” सोचकर मैं परेशान हो उठी। तभी त्रिषा न जाने कहाँ से हाथ पैर बढ़ाकर खिड़की के सहारे गेट पर चढ़ी और फिर गेट फांदकर बिल्डिंग की बाहरी दीवार पर चढ़ गयी। चौकीदार शायद आसपास की किसी दुकान पर बैठा था। दीवार पर चढ़ी त्रिषा चीखकर बोली, ”ओ भैया, कमाल के आदमी हो आप। हमें अंदर बंद करके आराम से चाय पी रहे हो। हम यहाँ खेलने आये हैं, सोने नही। गेट खोलो।” चौकीदार आया और गेट खुला।
(Story by Swati Melkani)

स्टेडियम पहुँचकर सभी लड़कियाँ सुस्ताने लगीं। हमारी टीम का नम्बर बहुत पीछे था। मैं रजिस्ट्रेशन फार्म भर रही थी। तभी मैने देखा कि एक अनजान लड़का स्टेडियम के दूसरे कोने में त्रिषा के साथ बैठा है और दोनों हँस-हँस कर बातें कर रहे हैं। वापस आकर पूछने पर उसने बताया, ”दीदी, वो मेरा भाई था, मामा का लड़का। यहीं रहता है इसलिए मिलने चला आया। मैं सच कह रही हूँ दीदी।”

खैर दूसरे राउण्ड में टीम बाहर हो गयी और हम वापस लौट आये।
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एक दिन जानकी मैडम स्टाफ रूम में आई और जासूसी अंदाज में बोली,”कक्षा ग्यारह की एक लड़की क्लास में मोबाइल लेकर आई है।” बात प्रिंसिपल तक पहुँची। छुट्टी के समय प्रिंसिपल ने ग्यारहवीं की लड़कियों को रोककर तलाशी लेने का आदेश दिया। मामला भाँपकर त्रिषा आगे आई और सीधी जानकी मैडम के पास जाकर बोली, ”दीदी, जब आपको पता है कि मोबाइल मेरे पास है तो पूरी क्लास को क्यों रोक रही हो। जो कहना है मुझसे कहो।” उसकी हिम्मत देखकर प्रिंसिपल सहित सभी शिक्षिकाएं दंग रह गई। हमेशा की तरह उसे बहुत डांट पड़ी। पर त्रिषा तो फिर त्रिषा ही थी।

रामलीला के दिनों लाउडस्पीकर में त्रिषा के गाये फिल्मी भजन अक्सर गूँजते थे। रामलीला में मिलने वाले नकद ईनाम के लिए भी उसका नाम कई बार पुकारा जाता था। बारहवीं तक आते-आते वह महिला मंगल दल में काम करने लगी। उसके स्कूल में अनुपस्थित रहकर दूसरे गाँवों में महिला मंगल दल के कार्यक्रम करने की खबरें आती थी। ऐसे ही एक बार वह कई दिन बाद स्कूल आयी थी। लन्च बे्रक में मेरे पास आकर बोली, ”दीदी, मैं एक लोकनृत्य के कार्यक्रम में ब्लाक आफिस गई थी। वहाँ कोई फिल्म वाले आये थे। कार्यक्रम के बाद मुझे अपना कार्ड दे गये। कह रहे थे कि कुमाउँनी एलबम के लिए मुझे लेना चाहते हैं। मैंने घर में बताया पर पापा-मम्मी दोनों मना कर रहे हैं।” फिर मुझे विजिटिंग कार्ड देकर बोली, ”दीदी, ये देखिये, इसमें उनका पता लिखा है। आप मेरे घर में बात करोगी दीदी।” मैंने कार्ड देखा। दिल्ली का पता था। मैंने त्रिषा से कहा, ”त्रिषा, तू इण्टर पास कर ले। तब तक तुझे कई चीजें खुद समझ में आने लगेंगी। तू अच्छा डान्स करती है। ऐसे मौके तो फिर मिल जाएंगे। फिलहाल पढ़ाई पर ध्यान दे। एक बार इण्टर पास हो जा फिर आगे की सोचना।  मेरी बात से वह खुश हो गयी और कार्ड वहीं पर छोड़ वापस लौट गई।

कुछ दिन बाद एक खाली पीरियड में वह फिर मेरे पास आई। बोली, ”दीदी, पुलिस में जाने के लिए क्या करना पड़ता है?” मेरे जवाब देने से पहले ही बोली, ”फिजिकल और दौड़ तो मैं कर लूँगी पर लिखित परीक्षा मेरे बस की नहीं है। इस बार जब कॉन्सटेबल भर्ती आएगी तो मैं भी फार्म भरूंगी, आप मुझे कुछ दिन ट्यूशन पढ़ा देना, हाँ।” उसकी हाँ के बाद मेरे ना की कोई गुँजाइश नहीं थी।

उसी साल गर्मी की छुट्टियों में यह चर्चा फैली कि त्रिषा भाग गई है। कई दिनों तक सचमुच वह नहीं दिखाई दी। सबने मान लिया कि वह भाग गई। तभी अचानक एक दिन वह लौट आई। लौटन पर उसने बताया कि उसकी चचेरी दीदी को बेटा हुआ है और उसी की देखभाल के लिए वह अपनी दीदी के घर गयी थी। उसके लौट आने पर कईयों को निराशा हुई।

एक साल फेल होने के बाद दूसरे साल त्रिषा इन्टर पास हो गई और उसने स्कूल को अलविदा कह दिया। पर स्कूल से लगा हुआ घर होने के कारण वह लगभग रोज दिख जाती थी। उसने घर के एक कमरे में जोर से गाने बजाकर डांस सिखना शुरू कर दिया। हमारे स्कूल की शिक्षिकाएं भी 100 रु.  महीने की फीस देकर अपने छोटे बच्चों को त्रिषा की डांस क्लास में भेजने लगी। एक घंटे के नाम पर बच्चे चार घंटे नाच कर आते थे। और उनकी माताओं की सारी शाम चैन से कटती थी। यह कस्बे का पहला और इकलौता डांस स्कूल था।

एक शाम त्रिषा बाजार में मिल गई अपनी चिर-परिचित तेजी के साथ बोली, ”दीदी, आपको पता है ज्योति की शादी हो गयी।” ”ज्योति कौन?” मुझे ज्योति को याद करने समय लगा। आपने तो उसे पढ़ाया था हाईस्कूल में। मेरे साथ ही तो पढ़ती थी पर वह पहले ही साल पास हो गयी थी।” उसने अपना टच स्क्रीन मोबाइल निकाला और बोली, ” ये देखिए ज्योति की फोटो।” मोबाइल में एक सजी हुई दुल्हन की फोटो देखकर मुझे उसका चेहरा पहचाना हुआ लगा। तपाक से किसी दूसरी दुल्हन की फोटो दिखाकर त्रिषा बोली, ”देखो दीदी, कितनी सुन्दर लग रही है ना। इन दोनों का मेकअप मैंने किया है। मैने गर्मियों की छुट्टी में अपनी दीदी के यहाँ ब्यूटी पार्लर का काम सीख लिया था। मैं मेंहदी लगाने भी जाती हूँ। जब आपकी शादी होगी तो आप मुझे ही बुलाना। हाँ दीदी, बहुत अच्छा तैयार करूंगी मैं आपको।”
(Story by Swati Melkani)

पर मुझसे पहले उसी की शादी हो गयी। स्कूल में कार्ड आया। मैं तो नही जा पाई पर सुना था महिला संगीत में त्रिषा चार बार नाची थी।

करीब डेढ़ महीने बाद एक शाम पीली साड़ी और कोहनियों तक चूड़ियाँ पहने त्रिषा मेरे घर आ गई। माथे के ऊपरी सिरे से आधे सिर तक लम्बी मांग में लाल सिंदूर चमक रहा था। उसे इस बदले मिजाज में देखकर सुखद आश्चर्य हुआ। पैर छूकर बोली, ”दीदी, मैंने सोचा कि सबसे पहले आपसे मिलकर आती हूँ। अभी कई जगह जाना है। मैं परसों ही आई और इतवार को लौट जाऊँगी। आप तो शादी में भी नहीं आई।”

 तू तो बहुत सुन्दर लग रही है त्रिषा। मैने पूछा, ”कैसा है तेरा ससुराल।”

”अरे, बहुत अच्छा है दीदी। मेरी सास भी बहुत अच्छी है। रामगढ़ तो सुना होगा आपने। वहीं रहते हैं हम लोग। बहुत ठण्डी जगह है दीदी।” त्रिषा जोरा के साथ बता रही थी। ”रामगढ़ में तो बहुत फल, सब्जियां होती हैं” मैने पूछा। ”हाँ दीदी, ”आजकल आडू, पुलम, बीन और शिमला मिर्च लगे हैं। यहाँ भी लेकर आई हूँ। वहाँ तो घर के सब लोग कटोरा भर-भर कर सब्जी खा जाते हैं। मुझसे तो इतना नहीं खाया जाता दीदी।”

”अच्छा, घर की ताजी सब्जियाँ तो खानी चाहिए। मुझे तो शिमला मिर्च बहुत पसंद है।” मैंने बात जारी रखने को कहा।

”ओह, सच दीदी, मैं तो बहुत सारी सब्जियां लाई थी। सब बांट दी। मुझे अगर पता होता तो आपके लिए बचा लेती। चलो,  कोई बात नही। जब मुझे लेने आएंगे तो मैं आपके लिए और मँगा लूंगी। आप कभी आना न हमारे यहाँ, वहाँ तो और भी़……”

वह बोलती जा रही थी। उसका चेहरा चमक रहा था । बस यूँ ही बोलती रहना त्रिषा। सच-झूठ जो भी हो, बस बोलती रहना। कभी खामोश मत होना।

उसके जाने तक अंधेरा होने लगा था। वह गई तो बीस मिनट बाद फिर कोई आ गया। दरवाजे पर त्रिषा का छोटा भाई खड़ा था। मेरी ओर एक थैला बढ़ाते हुए बोला,”दीदी, ये त्रिषा ने शिमला मिर्च भिजवाई है। उसके ससुराल से आई थी। वह कह रही थी कि अब बस इतनी ही बची है। अभी खराब नही हुई है। आप खा लेना। उसने कहा था कि आपको पसंद है।

थैला खोला तो पांच-छह शिमला मिर्च के साथ उतनी ही हरी मिर्च भी थी। हाथों में मिर्च का थैला लिये जब रसोई में लौटी तो उसी फिल्मी गीत की पंक्तियाँ फिर याद आ गई जो तब सुना था जब त्रिषा को पहली बार देखा था – हाय-हाय मिर्ची, उफ-उफ मिर्ची, हाय-हाय मिर्ची़…..

स्वाति मेलकानी
(Story by Swati Melkani)

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