न जाने कैसे

मधु जोशी

सुनीति को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ। कैसी अर्थहीन बात कही है राधिका ने। क्या वह वाकई कह रही है … हे, भगवान ! इस विषय में तो उसने सोचा भी नहीं था। उसे अचरज हुआ था जब राधिका ने बड़े सामान्य लहजे में कहा था, ‘क्या यह़ … अऱ … बेहतर नहीं होगा कि तुम डॉ. गांधी के साथ इतना समय नहीं बिताओ ? ये मत सोचना कि मैं यह कह रही हूँ कि इसमें कुछ खराबी है। परन्तु लोगों को तो तुम जानती हो। वह कैसी-कैसी बातें करते हैं। मेरा मतलब है़…’ सुनीति को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ। ‘डॉ. मल्होत्रा 19 नम्बर की नब्ज कमजोर होती जा रही है।’ नर्स ने आकर राधिका से कहा और राधिका अपनी बात बीच में ही अधूरी छोड़कर तीर की तरह कमरे से बाहर निकल गई।

सुनीति अपनी जगह बैठी रही –  स्तब्ध, जड़वत। ऐसा लगता था जैसे उसे लकवा मार गया हो। वह अपने आप को विश्वास दिलाना चाहती थी कि अभी-अभी जो बेहूदा बात राधिका ने कही है वह एक मनगढ़न्त बात है। सभी को मालूम है कि राधिका को चीजों में नमक-मिर्च लगाकर इधर-उधर फैलाने का कितना शौक है। परन्तु अगले ही क्षण सुनीति ने समझ लिया कि इस तरह से राधिका पर आरोप लगाकर कुछ हल नहीं होने वाला है। राधिका की बात के परिप्रेक्ष्य में कितनी बातें साफ हो गई थीं, पहेली के कितने छोटे-बडे़ टुकडे़ अपने-अपने नियत स्थान पर पहुँच गये थे – धीरे-धीरे, दर्द की छोटी-बड़ी लहरों की तरह।

उसका मन कर रहा था कि वह अपना चेहरा अपनी हथेलियों से ढंककर जोर-ज़ोर से चिल्लाये, अपने सिर को टेबल पर रखकर जी भरकर रोये। सुनीति को यह विचार बड़ा मूर्खतापूर्ण लगा और अपनी उद्विग्न मन:स्थिति के बावजूद वह मुस्कुराए बिना नहीं रह पाई। कैसा लगेगा अगर जानी-मानी स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. सुनीति चटर्जी, प्रसिद्घ और निर्भीक पत्रकार नीरज चटर्जी की पत्नी और दो बच्चों की माँ, इस तरह से बच्चों की तरह रोयेगी – सुनीति ने मन ही मन सोचा और एक गहरी सांस भरी ।

ऐसा भी नहीं है कि सुनीति को यह अहसास नहीं था कि जिस तरह के समाज में वह रह रही है और काम कर रही है उसमें महिलाओं, विशेषकर कामकाजी महिलाओं को इस तरह की छींटाकशी का सामना अक्सर करना पड़ता है। वह तो इस बात को लेकर परेशान थी कि जिस बात का जि़क्र राधिका ने किया था वह उसकी अपनी नजर में एकदम हास्यास्पद और अविश्वसनीय थी। यह बात तो सच है कि इधर कुछ समय से वह डॉ. गाँधी के साथ थोड़ा-बहुत समय बिताने लगी थी, किन्तु उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि इस सामान्य जान-पहचान को उसके सहकर्मी गलत नज़रों से देखने लगेंगे। इस विषय में वह जितना सोच रही है उसे लग रहा है कि अधिकांश लोग यही कहेंगे कि जिस समाज का वह एक अभिन्न हिस्सा है, उसकी प्रतिक्रिया से भी उसे भली-भांति परिचित होना चाहिये था और उसकी टीका-टिप्पणियों के प्रति पहले से सचेत रहना चाहिये था। किन्तु यह भी तो सच है कि राधिका की बात सुनकर वह स्तब्ध रह गयी थी। शायद इसका कारण यह है कि इस बात में सच्चाई का थोड़ा-सा भी अंश नहीं होने के कारण, वह इसके लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थी। इसीलिए उसे इस मुद्दे पर सोच कर इतना कष्ट हो रहा है।

इस मुद्दे पर सोचते-सोचते सुनीति के मन में यह विचार भी आया कि जब नीरज इसके विषय में सुनेंगे तो उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी। फिर उसने सोचा कि न जाने उनकी कोई प्रतिक्रिया होगी भी कि नहीं। और, सच तो यह है कि शायद वह स्वयं उन्हें इस विषय में बतायेगी भी नहीं। शायद, घर में इस विषय पर वह मौन ही रहेगी। हाँ, पिछले कुछ वर्षों से वह मौन रहना सीख गई है। मौन होकर ही उसने देखा है कि उसकी उन्नीस वर्ष पुरानी शादी धीरे-धीरे उस मोड़ पर पहुँच गई है, जहाँ पर उसका होना, नहीं होने के बराबर है। नीरज के साथ उसका रिश्ता शनै:-शनै: अर्थहीन और औचित्यहीन हो गया है, बिना किसी शोर-शराबे, लड़ाई-झगडे, रोने-धोने के- स्वत:, अपने-आप। न कोई मतभेद, न कोई मनमुटाव – कुछ नहीं, कहीं कुछ नहीं। और अब उस रिश्ते में कुछ भी नहीं बचा है – सिवाय दो युवा बेटियों के, जिन्हें देखकर ही सुनीति और नीरज को यदा-कदा याद आता है कि वह अभी भी पति-पत्नी हैं।
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जब भी सुनीति अपने विवाह के विषय में सोचती है, उसका दिल बुझ-सा जाता है – विवाह पूर्व डेढ़ वर्ष का वह स्वर्णिम समय जो पंख लगाकर उड़ गया था; विवाह के बाद का वह शुरूआती दौर जब एक-दूसरे से कहने-सुनने को, साथ-साथ करने को इतना कुछ होता था; बच्चियों के जन्म के बाद नयी जिम्मेदारियों को साथ-साथ उठाने की पुलक; बच्चियों को बढ़ते हुए देखने का सुख; एक-दूसरे के साथ का संतोष। फिर धीरे-धीरे सब कुछ बदलने लगा था। दोनों बच्चियां स्कूल जाने लगी थीं, सुनीति ने मैडिकल कॉलेज में फिर से नौकरी कर ली थी और पत्रकारिता और समाज-सेवा दोनों ही क्षेत्रों में नीरज की व्यस्तता दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई थी। जब तक सुनीति को यह समझ में आया कि कहीं कुछ गड़बड़ है, मामला बहुत अधिक बिगड़ गया था। सुनीति अपने कैरियर को सम्भालने में अत्यधिक व्यस्त थी और जहाँ तक नीरज का सवाल है, वह समाज की लड़ाइयाँ लड़ने में इतना अधिक उलझ गये थे कि उनके पास घर के मोर्चे की तरफ ध्यान देने के लिए समय ही नहीं था।

ऐसा भी नहीं है कि सुनीति नीरज के साथ अपने सम्बन्धों की मृतप्राय: हालत के लिए सिर्फ नीरज को ही दोष देती है। वह भली-भांति जानती है कि अपने विवाह में व्याप्त सन्नाटे के लिए वह भी उतनी ही जिम्मेदार है जितने नीरज। विवाह के बाद एक दशक से अधिक समय के लिए अपनी डिग्रियों, अपने कैरियर और ज्ञान को नजरअंदाज करने के बाद जब सुनीति अपने पुराने कार्यक्षेत्र की तरफ लौटी तो उसे लगा कि जैसे सदियों बाद किसी प्यासे को पानी मिला हो। आश्चर्य तो उसे इस बात का था कि इतने वर्षों तक, जब वह सिर्फ एक गृहिणी की भूमिका निभा रही थी, उसे अहसास ही नहीं हुआ था कि वह अपने वजूद के एक अति महत्पूवर्ण हिस्से का दम जबरदस्ती घोंट रही है। जब सुनीति ने नीरज से इस बात का जि़क्र किया था तब उसने स्वयं अपनी पीठ ठोंकते हुए जवाब दिया था, “अजी, डॉ. चटर्जी, यही तो है हमारे प्रेम का कमाल!” अब सुनीति बार-बार खुद से पूछती है कि क्या वह ‘प्रेम का कमाल’ था या महज आँखे भींचकर सच्चाई को पीठ दिखाना। आखिरकार, क्या प्रेम इतना कमज़ोर और क्षणभंगुर हो सकता है ?

शुरू-शुरू में जब सुनीति को यह अहसास हुआ था कि कहीं कुछ गड़बड़ है, कुछ ऐसी गड़बड़ जिसके स्वरूप के विषय में वह निश्चित तौर पर कुछ नहीं कह सकती है, तो उसने शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर छिपाकर मामले को नज़रअन्दाज करने का प्रयास किया था, शायद इस आशा में कि सब कुछ स्वत: ही ठीक हो जायेगा। किन्तु धीरे-धीरे हालात बद से बदतर हो गये थे और सुनीति को यह समझ में आ गया था कि अब वह मामले से मुँह नहीं मोड़ सकती है। परन्तु न जाने क्यों, बाकी सभी मामलों को शांति से निपटाने वाली सुनीति अपनी डगमगाती शादी को बचाने के लिए कुछ नहीं कर पाई थी। शायद परेशानी का सबब यह है कि अधिकांश मनुष्यों की तरह वह भावनात्मक सम्बन्धों के मामले में खुलकर कोई कदम नहीं उठा पाती है। बड़े लम्बे और पीड़ादायक अंतर्द्वंद के बाद अन्तत: सुनीति को यह समझ में आ गया था कि इतने वर्ष साथ-साथ चलने के बावजूद वह और नीरज दो अजनबी बन गये हैं। जो बात उसे सबसे अधिक परेशान करती थी, वह यह थी कि उसका जीवनसाथी उनके विवाह की स्थिति से एकदम परेशान नहीं था। वह तो एक आत्मसंतुष्ट अकेले राही की तरह था जो कि अपनी ही धुन में अपनी डगर पर आगे बढ़ता चला जा रहा था, एक ऐसा राही जिसे सुनीति के जीवन से कोई सरोकार ही नहीं है। कम से कम सुनीति को लगता तो ऐसा ही था।
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इसीलिए करीब दो हफ़्ते पहले, जब एक इमरजैन्सी ऑपरेशन के बाद वह रात दस बजे घर लौटी थी और नीरज ने उससे यूं ही सामान्य लहजे में, बिना अपनी किताब से सिर उठाये, पूछा था, “इतनी रात में लौटने में परेशानी तो नहीं हुई ? जिस कार से तुम आई वह डॉ0 गाँधी की थी क्या?”, तो उसे आश्चर्य तो हुआ था, किन्तु वह इतना थकी हुई थी कि उसने इस बात पर अधिक ध्यान नहीं दिया था। तब तो उसका ध्यान इस बात की तरफ नहीं गया था किन्तु अब जब वह इस विषय पर सोचती है, तो उसे लगता है कि उस वक्त नीरज का लहजा कुछ अधिक ही सहज, सायास था। और इसके अलावा, जहाँ तक उसे याद है उसने कभी भी नीरज के सामने डॉ. गाँधी का जि़क्र नहीं किया था।

सोचते-सोचते एक और वाकया सुनीति के जेहन में आया। अभी कुछ ही दिन पहले की बात है। हृदय रोग विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर अस्थाना ने उसके कमरे में आकर पूछा था, “अमोल यहाँ तो नहीं आया? मैंने उससे बच्चों में हृदय रोग वाले एक पेपर  के विषय में कुछ पूछना था।” उसने इस बात पर भी अधिक ध्यान नहीं दिया था हांलाकि उसे समझ में नहीं आया था कि डॉ. गाँधी को खोजने बालरोग विभाग में न जाकर प्रोफेसर अस्थाना उसके पास क्यों आये हैं। इस वाकये के विषय में अब वह सोचती है, तो उसे लगता है कि कहीं प्रोफेसर अस्थाना उसका मजाक तो नहीं उड़ा रहे थे। नहीं, वह इतने वरिष्ठ और संजीदा चिकित्सक हैं, वह ऐसा क्यों करेंगे ? वह अपनी कल्पना को कुछ अधिक ही छूट दे रही है।

वह क्या सोचे और क्या न सोचे। उसने तो कभी कल्पना भी नहीं की थी कि ऐसा भी हो सकता है कि लोग डॉ. गाँधी के साथ उसके ताल्लुकात को लेकर उंगलियां उठाने लगेंगे। उसे तो यह भी अहसास नहीं था कि वह डॉ. गाँधी के साथ अधिक वक्त बिताने लगी है। हाँ, यह अवश्य है कि सुनीति के मन में कहीं गहरे यह डर बैठा हुआ था कि कहीं वह अपने सहकर्मी चिकित्सकों की तरह पैसे कमाने वाली मशीन न बन जाये, जिनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य है तो पैसा, एकमात्र धर्म है तो पैसा। डॉ0 गाँधी से बातें करना उसे इसलिए अच्छा लगता है क्योंकि सुनीति की तरह उनकी भी रुचि, अपने कार्यक्षेत्र के अलावा, कला, संगीत, साहित्य और प्रकृति में है। अन्य चिकित्सकों की तरह उनकी बातें सदा प्राइवेट पै्रक्टिस और अपना निजी नर्सिंग होम बनाने की इच्छा के इर्द-गिर्द नहीं घूमती हैं। इसी कारण सुनीति को उनसे बातें करना अच्छा लगता है। और फिर स्त्रीरोग विभाग और बालरोग विभाग आस-पास ही हैं। अत: सुनीति की डॉ. गाँधी से अक्सर मुलाकात भी हो जाती है।

इसके बावजूद सुनीति ने डॉ. गाँधी के प्रति कभी किसी किस्म का भावनात्मक लगाव नहीं महसूस किया है। आज से पहले तो उसने कभी यह भी नहीं सोचा था कि डॉ. गाँधी एक पुरुष हैं, जिनके साथ उसका कोई भावनात्मक रिश्ता भी हो सकता है। वह सिर्फ एक सामान्य मित्र हैं – न कुछ कम, न कुछ ज्यादा। वस्तुत:, सुनीति ने सोचा, सही अर्थों में तो वह डॉ. गाँधी को अपना मित्र भी नहीं कह सकती है – वह कितना कम जानती है उनके बारे में, उनकी निजी जिन्दगी के बारे में। उसे यह तो मालूम है कि दो वर्ष पूर्व, एम.डी. करने के उपरान्त, डॉ. गाँधी ने नौकरी करना प्रारम्भ किया है और वह अविवाहित हैं। “हे भगवान, हमारी उम्र में फर्क भी तो कितना अधिक है!” सुनीति ने स्वयं से कहा और वह फिर से परेशान हो उठी। इन एकाध बातों के अलावा वह डॉ. गाँधी के विषय में कुछ और नहीं जानती है – उनके परिवार, मित्रों, शौक, आशाओं और चाहतों के विषय में। कम से कम इतना तो लोग अपने मित्रों के विषय में जानते ही हैं। इस लिहाज से तो वह डॉ. गाँधी को सिर्फ एक परिचित कह सकती है। और इस सब के बावजूद लोग हैं कि उनके बारे में कानाफूसी कर रहे हैं।

उसके दिमाग में यह खयाल भी आया कि इस तरह की अफवाहों का उसके और डॉ. गाँधी के ऊपर क्या प्रभाव पड़ेगा। वह स्वयं कभी इस तरह की कानाफूसी में शामिल नहीं होती है। फिर भी अपने सहकर्मियों, नर्सों और छात्र-छात्राओं के विषय में नमक-मिर्च से सराबोर किस्से यदा-कदा उसके कानों तक भी पहुँच ही जाते हैं। उनको सुनकर उसका मन सदा ही खिन्न हो उठता है, विशेषकर तब जब उसे पता हो कि इनमें सच्चाई का कितना कम अंश है। वह यह सोचकर अन्दर तक हिल गई कि अब उसके विषय में भी इसी तरह की भद्दी, बेबुनियाद अफवाहें मेडिकल कॉलेज में और उसके बाहर भी, जंगल में लगी आग की तरह इधर-उधर फैलने लगेंगी। सोचकर ही सिहरन हो गयी है सुनीति के तन-बदन में। वह अपने सहकर्मियों, छात्र-छात्राओं, पुत्रियों और, हाँ, नीरज का भी सामना कैसे करेगी। नहीं, उसे कडे़ कदम उठाने पडे़ंगे। महज मित्रता की खातिर वह अपने नाम पर धब्बा नहीं लगने दे सकती। वह किसी तरह का खतरा उठाने के लिए तैयार नहीं है। दाँव में बहुत कुछ लगा हुआ है।
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सुनीति यह बात भली-भांति समझती है कि इस मुद्दे पर कोई भी कदम उसे बहुत सोच-विचार कर, समझदारी से उठाना पड़ेगा। उसे इस बात का विशेष ध्यान रखना पड़ेगा कि डॉ. गाँधी की भावनाओं को किसी भी तरह से ठेस न पहुँचे। वह एक भले इन्सान हैं और इसके अलावा, वह बहुत समझदार और संवेदनशील भी हैं। अगर उसने बिना सोचे-समझे हड़बड़ी में कोई भी प्रतिक्रिया व्यक्त की तो वह तुरन्त समझ जायेंगे कि माजरा क्या है। सबसे बढ़िया उपाय यही रहेगा कि जब वह मिलें तो उनसे पहले जैसे ही पेश आया जाये। इसके साथ-साथ उसे इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि यथासम्भव उनसे कम से कम मिलना-ज़ुलना हो। हाँ, इस परेशानी को सुलझाने का यही एकमात्र उपाय है। उसे इस बात पर पूरा यकीन है।

नहीं, किन्तु यह बात भी पूर्णत: सच नहीं है।

बड़े लम्बे समय तक सुनीति बिना हिले-डुले अपने स्थान पर बैठी रही। बड़ा लम्बा समय – एक सम्पूर्ण युग। वह अपने-आप को यह समझाने का प्रयास कर रही थी कि उसने जो निर्णय लिया है, वही सबसे उपयुक्त निर्णय है। किन्तु मन ही मन वह जानती है कि वह खुद को धोखा दे रही है। दरअसल समझदारी से, सोझ-समझ कर निर्णय लेने की बात वह इसलिए कर रही है क्योंकि वह यह नहीं चाहती है कि डॉ. गाँधी को इस बात की भनक भी लगे कि वह भयभीत है – समाज से और समाज की उठी हुई उंगलियों से। वह डॉ. गाँधी की भावनाओं की कद्र तो करती है और यह भी नहीं चाहती है कि उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचे। किन्तु इससे भी बढकर वह यह नहीं चाहती है कि डॉ. गांधी को यह मालूम चले कि जब वह समाज से लोहा लेने की बातें करती है, जब वह छोटी-बड़ी सभी तरह की सामाजिक बुराइयाँ दूर करने की बातें करती है तो वह महज शब्दों का जाल बुन रही होती है। किन्तु जैसे ही बात कुछ ऐसा मोड़ लेती है कि उसकी निजी जिन्दगी के प्रभावित होने की सम्भावना उठ खड़ी होती है तो वह सोच-विचार कर, समझदारी के साथ समझौतावादी रवैया अपनाने को तैयार हो जाती है। वह अपना भय डॉ. गाँधी के समक्ष जाहिर नहीं होने देना चाहती है। भय – समाज से भय, समाज में होने वाली कानाफूसी से भय, उन शक्तियों से भय जिनकी उसने सदा मुक्तकण्ठ से भत्र्सना की है और जिनसे वह अभी भी नफरत करती है।

कितना प्रयास कर रही है सुनीति स्वयं को समझाने का किन्तु मन है कि मान ही नहीं रहा है। उसे पता है कि उसका खुद से यह कहना कि उसने सही निर्णय ले लिया है, मात्र एक छलावा है। कहीं, कुछ ठीक नहीं है। अगर उसने वाकई सही निर्णय लिया है तो संतुष्ट और प्रसन्न होने के स्थान पर वह इतनी परेशान क्यों है। परेशान और शर्मिन्दा। उसे ऐसा क्यों लग रहा है कि वह नैतिक, भावनात्मक और मानासिक रूप से पूर्णत: थक चुकी है, हार चुकी है, टूट चुकी है ?

धीरे-धीरे उसे यह समझ में आने लगा कि इस सोच-विचार में डॉ. गाँधी के साथ उसका रिश्ता मुख्य मुद्दा नहीं है। उसे तो एक और अधिक महत्वपूर्ण मुद्दा उद्वेलित कर रहा है। डॉ. गाँधी से बातचीत करना उसे अच्छा अवश्य लगता है किन्तु उसे मालूम है कि उनके साथ उसका सम्बन्ध उसके लिए बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। अगर वह अचानक कहीं चले जायें तो सुनीति एक अच्छे परिचित को अवश्य खो देगी, पर इससे उसके जीवन में बहुत अधिक फर्क नहीं पडे़गा। इस विषय में कोई शक-शुबह की गुन्जाइश नहीं है। प्रमुख मुद्दा डॉ. गाँधी के साथ उसका रिश्ता नहीं है। प्रमुख मुद्दा है वह सिद्घान्त, वह मूल्य जिन पर वह विश्वास करती है, जिसके अनुरूप वह जीवन जीने का प्रयास करती है। वह जो भी निर्णय लेगी उसका प्रभाव इन उसूलों, इन जीवनमूल्यों पर पड़ेगा। यदि वह इस समय कोई गलत कदम उठायेगी, यदि वह डर जायेगी तो शायद वह जि़न्दगी भर खुद से नज़रें नहीं मिला पायेगी। किन्तु, दूसरी तरफ, वह समाज है जिसमें उसे रहना है, जिसका वह अभिन्न अंग है, जिसकी बातों का उस पर, उसके कार्यक्षेत्र पर, उसके परिवार पर, उसकी बच्चियों पर दूरगामी असर पड़ सकता है। उसे दोनों में से एक को चुनना है। इसीलिए बड़े लम्बे समय तक सुनीति बिना हिले-डुले अपने स्थान पर बैठी रही। बड़ा लम्बा समय – एक सम्पूर्ण युग।

अचानक, यूं ही, उसके अन्दर कुछ हलचल हुई, कुछ चटक-सा गया और कुछ अपने स्थान पर जा पहुँचा। अचानक उसमें इस मुसीबत से जूझने के लिए एक नयी शक्ति का संचार हो गया। क्यों और कैसे – यदि उससे यह प्रश्न पूछा जाये तो वह कोई जवाब नहीं दे पायेगी। उसे मालूम है तो बस इतना कि एक पल पहले वह मायूसी, हताशा और असमंजस से घिरी हुई थी। अगले ही पल उसने महसूस किया कि उसने सही निर्णय ले लिया है और अब वह हताश और किंकर्तव्यविमूढ नहीं है। वह क्रोधित हो रही है। और इस क्रोध को महसूस करके उसे अच्छा ही लग रहा है। उसे अहसास हुआ कि अचानक, किसी तरह से – न जाने कैसे – उसने अपनी कमजोरी पर विजय पा ली है। उसे यह भी मालूम है कि वह हार और समर्पण के कगार से वापस आई है – एक बार फ़िर, न जाने कैसे।

उसने अन्तत: यह निर्णय ले ही लिया है कि अपने आदर्शों, अपने उसूलों और अपने आत्मसम्मान की खातिर उसे तूफान का सामना करना ही होगा। तूफान तो आयेगा ही – उसे इस विषय में कोई गलतफहमी नहीं है। इस तूफान का सामना करने के लिए उसे बड़ी हिम्मत से काम करना होगा। उसे मालूम नहीं, उसके परिवार की क्या प्रतिक्रिया होगी, उसे कैसी-कैसी बातें सुननी पड़ेंगी, डॉ. गाँधी इस विषय में क्या कहेंगे़… ? जो भी हो, उसने तो अपना निर्णय ले लिया है। उसके लिए वही उचित निर्णय है, वही एकमात्र निर्णय है।

“क्यों भाई, इतनी देर से यहीं बैठी हो। घर नहीं चलना हैं क्या ?” राधिका ने कमरे में आकर कहा।

“नहीं, तुम चलो। मुझे जरा डॉ. गाँधी से कुछ जरूरी बातें करनी हैं।” सुनीति ने जवाब दिया और राधिका के चेहरे का भाव देखे बिना वह कमरे से बाहर निकल गई।  
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