अब भी एक गांव में रहती है वह : कहानी

हुस्न तबस्सुम निहाँ

मेरी आवाज में कुछ दखल उनका भी  है। उनकी याद आती है तो घर अच्छा नहीं लगता। शिप्रा दौड़कर उस घर में घुस गई और भीतर से सड़ाक से कुण्डी लगा ली। दरवाजे पर बच्चों की टोली धमाल मचाए थी।
‘शिप्रा दी खोलो़… आओ ना बाहऱ…’
मिसेज डिसूजा भाग कर किचन से बाहर आई, ‘ओह बेटा़… क्या बात है़…?’
‘देखिए ना आंटी, सब तंग कर रहे हैं। मेरा दुपट्टा छीन रहे हैं… बतलाइए भला मैं अपने ससुर के सामने नंगे सिर जाऊंगी’

ओ.के़… ओ.के़…. चलो बैठक में बैठो, मैं तुम्हारे लिए चाय लाती हूँ, कहती हुई वह किचन  में चली गई और शिप्रा बैठक की तरफ दौड़ गई। कुछ क्षण बाद मिसेज डिसूजा चाय की ट्रे लेकर पहुँची तो शिप्रा गायब़….। वह समझ गई कि वह बैडरूम में होगी। वह वहाँ पहुँची तो देखा शिप्रा कास्मेटिक की दुकान खोले बैठी है। कई-कई शेड्स के पाउडर चभोड़े। लिपस्टिक, चूड़ियाँ-झुमके सब लपके-लपके के उसके जिस्म पर सज गए थे। वह बिल्कुल नई-नवेली दुल्हन-सी लग रही थी। मिसेज डिसूजा दूर से ही देख-देख मुस्कराती रही। वह मगन थी। कोण बदल-बदल के आईना निहार रही थी। तभी सायास उसकी निगाह मिसेज डिसूजा पर पड़ी तो वह पुलक उठी।

‘आंटी, अच्छी लगती हूं ना़…।’
‘सो ब्यूटीफुल डार्लिंग…. अब आओ चाय पी लो़…।’
‘आती हूँ आंटी, सिन्दूर की डिबिया कहाँ है़…. ओह मिल गई़…।’ तर्जनी और अंगूठे से चुटकी बना के उसने क्षणभर में मांग भर दी। गोरे, तीखे नैन-नक्शवाला चेहरा फूट निकला था। ‘दुल्हन बनेगी, तो बड़ी प्यारी लगेगी़….’ एक पल को मिसेज डिसूजा ने ठहरकर सोचा फिर उसका हाथ पकड़ बोलीं-

‘अब सब हो गया। बहुत अच्छी लग रही हो, चलो चलते हैं बाहऱ….।’
बैठक में आकर बैठी ही थी कि डोरबेल घनघनाई, मिसेज डिसूजा पलटकर दरवाजा खोलने गई। वह पलटी तो भीतर से आवाज आई-
‘आंटी, कौन है़…..?’
‘अंकल़….’
‘कौन, शिप्रा’
‘हाँ, अभी आई है।’ कहती हुई वह मिस्टर डिसूजा के साथ बैठक में दाखिल हुई।’
‘हाय, शिप्रा’
‘हाय़…. अंकल़….।’
वह टाई ढीली करने लगे कि शिप्रा चहकी-
‘अंकल, मुझसे शादी करोगे़….?’
‘शिप्रा़…..।’ मिसेज डिसूजा चिल्लाई। मिस्टर डिसूजा असहज होते हुए तेज-तेज कदमों से बाहर निकल गए। फिर वह समझाने के लहजे में बोली-
‘शिप्रा बेटे, वह अंकल हैं, अंकल से शादी नहीं होती।’
‘फिर किससे होती है?’
‘…. उन्हें जवाब ही ना सूझा। वह फिर बोली-‘
‘तो आंटी ऐसे कहतीं, डांटती क्यूँ हो़….?’
मिसेज डिसूजा भीतर-भीतर कसैली पड़ गई और चुप लगा गई। अभी वह भीतर ही भीतर कुछ रख-उठा रही थी कि धड़ से मुख्य दरवाजा खुला और शिप्रा की माँ हाजिर। सीधी बैठक में जा पहुँची और सिर पीट लिया।
(Story By Husn Tabasum Nihan)

‘आए़…. हाय़़ करमजली़…..मुँहजली़…..राँड की माँ… क़ कैसा चमक के बैठी है, जैसी अभी-अभी भरतार के यहाँ से आई हो़…..तनिक सजावट तो देखिए़…..मांग में सिन्दूऱ….. हाय राम, मुँहजली ने थुकवा डाला।’ कहते हुए उन्होंने दोहत्था घुमा के दिया पीठ पर, शिप्रा ने दौड़ कर मेज पर लगे फलों की टोकरी से चाकू उठा लिया।
‘अम्मा, आज तुझे ही खत्म कर दूँ। तू ही जड़ है़…..’
मिसेज डिसूजा के पसीने छूट गए। चीखीं-
‘जरा देखिए़…. गजब हो गया़..ज़ल्दी आइए़….’
एक झोंके से मिस्टर डिसूजा दाखिल हुए और आँख झपकते उसे कस कर पीछे से पकड़ लिया। चाकू छीना। वह गुस्से और कुछ दौरे के प्रभाव के
रण थर्रा रही थी़…..।
‘अंकल, इसको नहीं छोड़ूंगी। अम्मा को नहीं छोड़ूंगी।’
दोनों पति-पत्नी ने मिलकर माँ-बेटी को शान्त किया फिर मिसेज डिसूजा ने संयत होते हुए शिप्रा की माँ के सामने एक बड़ा-सा क्वैश्चन मार्क खींच दिया-
‘शिप्रा की माँ, शिप्रा की शादी क्यूँ नहीं कर देती़….।’
‘बहन जी, किसके सिर थोप दूँ, क्या घोड़े-गधे के गले बाँध दूँ। बाप को तो चिंता ही नहीं कि उसने बेटी पैदा की है। अपने कामों से ही चिपका रहता है। और माँ-बाप के होते, बेटे क्यूँ लेंगे जिम्मा। दो बहुएँ हैं, दोनों नागिन। पैंतीस साल की हो गई है, कौन करेगा ब्याह़…..? वो भी इस हाल में।’

‘मेरा मतलब था कोई डाइवोर्सी या विडोवर ही़…..।’
‘आप भी क्या बात करती हो बहन जी, हम अपनी कुँवारी बेटी को रँडवे के साथ ब्याहेंगे़…. इससे बेहतर है बैठी ही रहे। मेरे घर भी खाना है़….।’
‘तब तो ये ठीक हो चुकी। आप लोग चाहते ही नहीं हैं….।
‘तो क्या ब्याह से ये ठीक हो जाएगी, इसका प्रेत उतर जाएगा? मैंने कई ओझा और पंडित कर रखे हैं। ऐसे-ऐसे मंत्र पढ़ेंगे कि़…..। आठ-दस साल पहले एक नए जोड़े का एक्सीडेंट हो गया था ना़…. सामने वाली रोड पर। दोनों चल बसे। बस, वही दुल्हन की आत्मा पूरे मोहल्ले में तांडव मचाए है। बच्ची जान थी ना़….।’
‘हो सकता है, लेकिन अधिक समय तक अविवाहित रहना भी लड़कियों की ऐसी स्थिति का कारण बन सकता है़….।’
‘नहीं बहन जी, ऐसा नहीं है। हम शरीफ लोग हैं। लड़कियाँ हमारे यहाँ बोलना तक नहीं जानती। बस, खा-पका के अपने कमरों में, दुनिया से फिर कोई सरोकार नहीं….।’
‘इसीलिए, बस यही कारण है़….।’ उन लड़कियों का समाज से सीधा सरोकार है। कुंठित और अवसादित नहीं हैं। उनके पास जीने के, खुश रहने के हजारों बहाने हैं। जबकि शिप्रा जैसी लड़कियाँ एक दमघोंटू काम्प्लेक्स में जी रही हैं। इसके पास जीने की वजह ही नहीं है। ऐसी लड़कियाँ एडजस्ट नहीं कर पातीं। हिस्टीरिया के दौरे भी इन्हें ही पड़ेगे। पागलपन के दौरे भी इन्हें ही पड़ेंगे औऱ….. आगे कुछ कहती कि शिप्रा की अम्मा उछल पड़ी।
(Story By Husn Tabasum Nihan)

‘अरे ओ छोलहट, फिर दर्पन निहारने लग गई। देखिए़….. देखिए बहन जी़….. बेहयाई की भी कोई सीमा होती है।’ और शिप्रा का हाथ पकड़कर खींचती हुई बाहर निकल गई। मिसेज डिसूजा लुटी-पिटी-सी खड़ी रह गई। मिस्टर डिसूजा ने छेड़ा-
‘यार मीना, यह सब क्या है़….’
‘है क्या, अच्छी-भली लड़कियाँ थीं। परिवार की लापरवाही और वर्जनाओं की बलि चढ़ा दी गई लड़कियाँ। कितनी शालीन, सभ्य और मितभाषी लड़कियाँ थीं।’
‘वह सब छोड़ो हमारे दूसरे बच्चे तो परिवार बना के बाहर शिफ्ट हो गए। उनका नहीं टेंशन। मगर हमारा रजत अभी बच्चा है। संवेदनशील भी है। उस पर इन चीजों का प्रभाव पड़ेगा।….’
‘तुम्हारी बात ठीक है, मगर वे भी तो हमारी बेटियों जैसी हैं। हमारे घर बचपन से आती रही हैं। उन्हें कैसे मना कर दूँ और वह भी क्या मान जाएंगी?’ तभी बैठक के बाहर हलचल-सी हुई। वह देखने के लिए जब तक बाहर निकली, चलने वाले पाँव स्वयं सामने आकर खड़े हो गए। वे सकते में थीं। सामने अप्सरा खड़ी थी।
‘गुड ईर्वंनग आंटी।’
‘अ़…. अरे़…. समीरा़….. तू़….. तो बहुत सुन्दर लग रही है। दुल्हन जैसी।’
‘सच आंटी?’
‘हाँ सच्ची। कहते हुए मिसेज डिसूजा ने समीरा को वहीं पकड़कर सोफे पर बैठा दिया। वह मुस्कुराई।’
‘आंटी, आज बहुत खास दिन है।’
‘अच्छा, तेरी बर्थ डे है।’
‘नहीं आंटी, उससे भी खास दिऩ…. पहले बताइए, रजत कहाँ है?’
‘वो तो स्कूल गया है।’
‘उफ़…. आज के दिन भी़….।’
‘क्यों, ऐसा क्या हुआ है आज़….?’
‘अरे आंटी, आज, आज रजत से हमारा निकाह है।’
‘हे़….  ईश्वऱ….. मिसेज डिसूजा सकपका गई। डिसूजा ने एक तीखी निगाह से उन्हें देखा। वह अकबकाई-सी बोली-‘
‘समीरा़…. वेरी बैड़….. वह तुम्हारा भाई है़…. बेटे।’
‘तो क्या हुआ आंटी, मैं तो उसी से शादी करूँगी। ये देखो, कहती हुई उसने अपनी हथेली आगे बढ़ा दी, जिस पर महेंदी से लिखा था- ‘रजत आई लव यू़…..’ और कहीं-कहीं पेन से।
वह कुछ नहीं बोली। मिस्टर डिसूजा ने शोखी की-
(Story By Husn Tabasum Nihan)

‘मिसेज मीना डिसूजा, अब आप बहुत जल्दी पति और बच्चे से हाथ धोने वाली हैं। फिर मत कहना।’ वह निर्विकार भाव से पति और समीरा को बारी-बारी से देखती रही। मिस्टर डिसूजा बाहर चले गए। मिसेज डिसूजा कसैली हो गईं। समीरा उलट-पुलट के अपनी चूड़ियाँ, पायल, सुर्ख लहंगा और चुनरी को आँखों से सराहे जा रही थी। तभी बाहर लॉन से पुकारा गया।

‘रजत की मम्मी क्या समीरा आयी है?’ वह कुछ बोलती, इससे पहले समीरा ही बोल पड़ी-
‘हाँ, मम्मी, आई हूँ… आज शादी है मेरी।’
दनदनाती-सी समीरा की अम्मी सीधी बैठक में दाखिल हुई और वही किया जो शिप्रा की अम्मा ने किया था। आते ही दो हत्था जड़ दिया और चीखी-
‘बेशरम, बेहया, गलीज… अब यही बाकी रह गया था…।’
मिसेज डिसूजा फुर्ती से बीच में आ गई।
‘आप बैठिए भाभी, मैं चाय लाती हूँ…’ समीरा की मम्मी बगल के सोफे में धँस गई।

‘शुक्रिया रजत की मम्मी, शुक्र है आप लोगों के यहाँ ही आती है, वर्ना कब की नाक कट चुकी होती।’ मिसेज डिसूजा बाहर चली गई। समीरा की मम्मी उसे लानत-मलामत करती रहीं। आखिर समीरा उठकर किचन में ही चली गई। फिर मिसेज डिसूजा के साथ कमरे में आई वापस। तीनों खामोशी से बैठकर चाय पीने लगीं। समीरा बीच-बीच में मुग्ध हो जाने वाली निगाहों से अपने-आपको सहलाती, सराहती रही। अपना झूमर चोटी ठीक करती रही। अम्मी बोली- ‘बताइए बेगम साहिबा उन खटीकों के यहाँ तीन नए सूट देकर उनका ये लाल जोड़ा ले आई है।… वो… जिनके यहाँ का हम पानी नहीं पीते। अभी उन्हीं के वहाँ का लड़का बता गया है। और कपड़े वापस कर गया है। और अब भाई-बाप के सामने सज-धज के घूम रही है…’

‘आप मेरी मानो भाभी, जितनी जल्दी हो सके इसकी शादी कर दो, सब ठीक हो जाएगा। घर-गृहस्थी में फँसेगी तो पागलपन बिला जाएगा।’
‘हाँ … वही तो मैं अभी कह रही हूँ…।’
‘चुप… चुड़ैल कहीं की, बेहया माटी मिली…’ अम्मा गरजी। समीरा की बोलती बंद। अम्मा बोली। ‘बेगम साहिबा, इस हालत में किसके गले मढ़ दूँ… इसे, कौन हाथ पकड़ेगा जब सब कुछ ठीक था तब ना हुआ तो…’कुछ सोच में पड़ गई फिर बोलीं, ‘वैसे झाड़-फूँक चल रही है। डाक्टर, हकीम नजूमी कुछ बाकी नहीं छोड़ रखा है। देखिए किससे शिफा मिलती है। हजार रुपए लाश-ए-पनाहवाले बाबा को दे आई हूँ। वह भी दुआ कर रहे हैं…’
‘इससे बेहतर आप इसे किसी मनोचिकित्सक को दिखातीं…’
‘अरे बेगम, क्या कहती हो, गजब हो जाएगा। ये कोई पागल-वागल थोड़े ही है। दस जिन्नों का साया है…पूरे दस। मेरी देवरानी है ना, पूरी जादूगरनी। ये चुड़ैल हर वक्त चाची के पास घुसी रहती थी। उसी ने कुछ खिला-पिला दिया। अब देखिए हाल तक पूछने नहीं आती। बल्कि इसकी हरकतें सुन-सुन हँसती रहती है।’

मिस्टर डिसूजा, जो बैठक में कुछ तलाशने आए थे, एक तंजिया निगाह से पत्नी को देखा और सिर हिलाकर बाहर निकल गए।
मिसेज डिसूजा ने उनकी अनदेखी करते हुए बात जारी रखी-
‘समीरा के लिए रिश्ते तो आते ही होंगे…’
‘अजी बिल्कुल आते हैं। एक नहीं दस-दस आते हैं।
हठात दरवाजा खुलता है। सामने एक आठ-दस साल का बच्चा स्कूली यूनिफार्म पहने दाखिल हुआ और तीर की तरह समीरा से जा लिपटा।
‘समीरा आपा…’
‘आ… गया मेरा दूल्हा…मेरा रजत देख कब से बैठी हूँ तेरे इंतजार में। ये निकाह का जोड़ा… मेरी चूड़ियाँ देख, मेरी चोटी… चल, आज हम शादी कर लेते हैं…’
मिसेज डिसूजा बगलें झाँकने लगीं। अम्मी, पहले तो झेंपी, फिर लपक कर धरा तमाचा।
‘बेहया… अगर सही उम्र में तेरी शादी हुई होती तो इसकी उम्र का तेरा बच्चा होता। या मौला… ये क्या दिखा रहे हो…इज्जत रेजी…।’
(Story By Husn Tabasum Nihan)

मिसेज डिसूजा बढ़ी छुड़ाने के लिए। तब तक अम्मी समीरा के बालों को हाथ में लपेटकर बाहर खींच ले गई।
मिसेज डिसूजा की आँखें भर आईं… हे ईश्वर…इन लड़कियाँ को पार लगा।
घर पहुँचकर समीरा की अम्मी ने समीरा को इतनी जोर से धकेला कि वह दीवार से टकरा के मुँह के बल गिरी। सिर दीवार से टकरा के चिटक गया। चूड़ियाँ टूट गई। खून बह निकला। छोटे भाई सिराज ने पास पड़ा एक डंडा उठाया और उस पर टूट पड़ा। वह पिटती रही। कुछ देर तक चला यह तमाशा फिर वह डंडा फेंककर कमरे में चला गया। वह आँगन में बैठी बेढब आवाज में बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोए जा रही थी। शोर-शराबा सुनकर इधर-उधर की औरतें आ गईं। घर की खादिमा, जो खादिमा कम घर की मेम्बर ज्यादा मानी जाती थी, हलीमा बाई दौड़कर चूना गर्म कर लाई और उसके सिर में थोपते हुए बड़बड़ाने लगी- ‘छोटे, ये तुमने अच्छा नहीं किया, वह क्या अपने आप में है। बेचारी, मजबूर या…पीर बाबा…या जो भी शख्स हो इस मासूम का पीछा छोड़ दे। लड़की जात…हम सब बर्बाद होकर रह गए हैं।’

‘बाहर…बाहर वालों ने तो कभी चूँ की आवाज ना सुनी। बाहर की दुनिया क्या होती है, ये क्या जाने। घरवाले ही इसकी आवाज सुनने को तरसते थे। अब बताइए…’
‘अब बाजी, ये पाकीजा रूहें ऐसे ही पाक साफ परहेजगार लोगों की तो सवारी करती हैं। जिन्न-जिन्नात तो खासकर…’
समीरा अपनी ही धुन में थी
‘मैं रजत से ही शादी करूंगी, चाहे मुझे काट डालो…आई… लव… यू… रजत’ हलीमा बाई ने उसके मुँह पे हथेली पूरी ताकत से जमा दी। समीरा दम घुटने की-सी स्थिति लिए छटपटाने लगी। समीप खड़ी औरतों ने मुँह पे दुपट्टे का कोना दबा लिया और धीमे-धीमे हँसने लगीं।
‘नहीं बेटी…बुरी बात…’ कहती हुई हलीमा बाई समीरा को अपने कमरे में खींच ले गई।

वास्तव में समीरा एक सुलझी हुई सीधी सादी कमजोर सूरत-शक्ल वाली लड़की थी। रूढ़िवादिता व परंपरागत वर्जनाओं से ग्रस्त परिवार। पिता के चार ट्रांसपोर्ट। इसके अलावा वह मौलाना थे। जिससे प्राय: शहर के बाहर ही रहते। घर से ताल्लुक नॉमिनल। कम बोलते, कम खाते। कम सोते। अपना मदरसा था। ज्यादा वक्त वहीं बिताते। चालीस-चालीस दिन या छह-छह महीने के चिल्ले पर चले जाते। कारोबार बेटे सम्भालते। बाप के नक्शे-कदम पर चलते हुए वे भी अध्यात्म के रास्ते पर चल रहे थे। लंबी-लंबी दाढ़ियाँ, ऊँचे-ऊँचे पाजामेवाले। चार-भाई, चार बहन। समीरा एक बहन व एक भाई से बड़ी थी। उससे बड़े भाई-बहनों की शादियाँ हो चुकी थी। बल्कि छोटा सिराज कुछ महीने पूर्व इस्तिमा में गया तो वहीं से किसी लड़की से प्रेम विवाह करके ले आया था। अम्मी ने उस वक्त काफी मुखालफत की थी। अगर भाइयों में रहने दिया तब बाप की क्या मजाल। वास्तव में वो लड़की गैर-बिरादरी थी। मगर सिराज ने इस्तेमाई बुद्धि का लाभ उठाते हुए कहा-‘हमारे पैगंबर ने जाँत-पाँत, ऊँच-नीच सब पैरों के नीचे रौंद दिया था।’
(Story By Husn Tabasum Nihan)

सही भी है। लोगों ने मान लिया। समीरा दुर्भाग्य से थोड़ी कमजोर शक्लो-सूरत वाली 32-33 वर्षीय युवती। कुछ-कुछ ओवरवेट भी। चेहरे पर अजब किस्म के खुरदुरे से नन्हे-नन्हे पिंपल्स। जो खत्म कम होते, उभरते ज्यादा। इस कारण भी उसमें आत्महीनता और कुंठा घर कर गई थी। नितान्त अंतर्मुखी। घर में कोई भी आए-जाए, समीरा से नहीं मतलब। वह चूल्हे में घुसी रहती। बहनें लाव-लश्कर के साथ आती तो वह मशीन बन जाती। ब्याही होने के कारण उनमें चार चाँद लग गए थे। बच्चों व पतियों के साथ पलंग पर बैठी-बैठी हुक्म चलाती रहतीं। और वह हलीमा बाई के साथ लगी उनके हुक्म की तामील करती जाती। रात को सभी अपने-अपने दड़बों में। हलीमा बाई दुमंजिले पर की अपनी मड़ैया में सो रहतीं। बरामदे में वह और छोटी बहन रेशमा सोतीं। सोतीं क्या, रेशमा तख्त के दूसरे कोने पर लेटती और चादर में मुँह लपेटकर भीतर-भीतर मोबाइल पे अपने मंगेतर से खुसर-पुसर शुरू कर देती। कभी-कभी समीरा कुढ़ती और उकताती। कभी झुँझलाकर दूसरे ओसारे में चली जाती। उस ओसारे से लगे हुए पाँच कमरे थे। पाँचों के दरवाजे-खिड़की-बरामदे में ही खुलते थे। हालांकि रात के वक्त भीतर से लॉक रहते। मगर भीतर की खसर-पसर दरीचों से रंग आती जो उसके होश उड़ा देती। एक विषैली और अलग ही किस्म की अहसासें कमतरी या फेंक दिए जाने की लिजलिजी भावना उसमें घुलने लगती। वह छत पर जाती। दुमंजिले पर जाती। जी होता यहीं से छलांग लगा दे और मुक्त हो जाए इस शापित जीवन से। वह समझ नहीं पाती, क्या देह के कीम-खाब ही आदमी की जगह तय करते हैं। क्या कमजोर सूरत इंसान अपनी कामनाओं में भी कमजोर होता है। क्या उसे बसंत भर जी लेने का हक नहीं। एक दिन रन्नो किसी फिल्म की कहानी सुना रही थी। वह आलू के चिप्स काटती सुनती जा रही थी रन्नो ने कहा-

‘और बस, धर्मेन्द्र को तनूजा से प्यार हो गया…।’
इतना कहा था कि उसके हाथ थम गए,
‘धर्मेन्द्र की छोड़, रन्नो ये बता तुझे किसी से मुहब्बत है…?’
रन्नो के चेहरे पर कासनी रंग घुल गया,
‘हैं…हैं…क्यू नहीं…क्यूँ?’
‘उससे शादी करोगी…?’
‘हालात और किस्मत ने साथ दिया तो बिल्कुल करूँगी…’
‘और नहीं दिया तो…?’
(Story By Husn Tabasum Nihan)

‘ये मैंने कभी सोचा ही नहीं। वैसे जिन्दगी में किसी का होना बहुत बड़ी बात होती है। मैं तो कहती हूँ हर किसी को जिन्दगी में एक बार मुहब्बत जरूर करनी चाहिए। बाद में जिन्दगी के लस्त-पस्त दौर में यही मीठी यादें जीने का खूबसूरत सहारा बनती हैं…’ वैसे, तुम क्या जानो ये सब…तुम्हारा तो दुनिया से रबिता ही नहीं। ना कभी कहीं जाना, ना आना…पता नहीं कैसे बारहवीं तक पढ़ ही गई हो… अपना कोई शक नहीं, कोई ख्वाहिश नहीं, नफ्स नहीं। सबको मार के बैठी हो… सबको मुर्दा कर लिया तुमने। हद हो गई’ हुँ…ह…ऊँचा खानदाऩ…. ऊँचा घराना़…. ऊँची दीवारें… ऊँची मीनारें… ऊँची रिवायतें…और ऊँचे-ऊँचे…दर्द…

तो क्या करूँ… मेरी सूरत और मेरा ढलता वक्त देखो़….।

कैसी सूरत़….. कैसा ढलता वक्त, तेरा वक्त मेरे वक्त का हमजोली है। फिर तेरे वक्त ने कौन-सा गुनाह कर डाला। तू बस अपनी नफ्स मार रहा है और कुछ नही। … क्या मुझे नहीं पता, भूरे का छोटा बेटा हसन्नू तुझसे कितनी मुहब्बत करता था, तू भी करती थी। मगर तेरी ऊँची दीवारों ने उसे घर में घुसने की इजाजत नहीं दी। और तूने उन्हीं दीवारों की ऊँचाई को अपना नसीब मान लिया और अपना कत्ल कर लिया़…. कसूरवार कौन। जैसे ये चिप्स काट रही है वैसे ही तूने खुद को परत-दर-परत कुतर डाला है।

उसके बाद देर तक चुप्पी रही। रन्नो की दो-टूक सुनाने पर वह हैरान थी। पता नहीं कब रन्नो उठकर चली गई थी। वह मन ही मन बिसूरती किसी कमरे में घुस गई। हालाँकि़…. अब कमरों में वह कम ही जाती है।
कमरों से नफरत-सी है। खासकर बैठक से। जाने कितनी बार इस बैठक में वह नाश्ते की सीनियाँ लिए दाखिल हुई है। लेकिन हर बार मँुह की खानी पड़ी। फिर उसने तौबा कर ली। और कितनी उपेक्षाएँ और कितना तिरस्कार और कत्लेआम अँधेरे कमरे में पड़े दीवान पर गुड़-गुड़ पड़ी बुखार और अपमान की ज्वाला में तप रही थी। कौन ले खबर। उस फकीर ने क्या कहा था- ‘तेरा सूरज सातवें आसमान पर है।’ – अब ये कौन-सा आसमान है़….?

हलीमा बाई के हिलाने-डुलाने पर वह होश में लौटी। काम का वक्त हो गया था। सीधी किचन मे जाकर खटपट करने लगी। किंतु निहायत संजीदगी और खामोशी से उड़ी-उड़ी तबीयत लिए। खुमारी के बीच डूबी कब सब काम निबटाया, खबर ही नहीं। खा-पी के सब सोने चले गए। वह उठी, जाने क्या सूझा, रेशमा के सिरहाने रखे तकिए के नीचे से अमश की तस्वीर निकाल लाई और किचन में, पीढ़े पर बैठ सम्मोहित-सी तस्वीर देखने लगी। देखती रही, देखती ही रही़….। जैसे उसे पूरी तरह अपने अंतस में उतार लेना चाहती हो। रेशमा लेटी तो हस्ब-ए-मामूल दीदार-ए-यार करना चाहा। मगर तस्वीर गायब। हड़बड़ा के उठ बैठी। तव्वा गई। कुछ नहीं। ये आपा का ही काम है। फिर भी यहाँ-वहाँ ढूँढ़ा। नहीं मिली तो समीरा की तलाश शुरू की। सब जगह तलाश आई फिर भड़ से किचन में घुसी तो सकपका गई। मगर दूसरे ही पल़…. लपक के फोटो समीरा के हाथ से छीन लिया और तड़की-

‘आपा, तुम्हें शर्म नहीं आती़….?’
‘तुम्हें आती है?’
‘हाँ… मुझे नहीं आती है़…. तो़….’
‘तो मुझे भी नहीं आती।’
‘तो तुम्हें मेरा मंगेतर ही मिला था। जाके पहले आईने में अपनी शक्ल देख आओ तब अमश की तरफ देखना़….  हुँ…..ह़…. ना सूरत ना शक्ल कुत्ते की नकल़….।’
-समीरा विद्युत गति से उठी, सचमुच जा के आईना निहारा और तड़ाक से जमीन पर आईना दे मारा़….।
चटाख की आवाज से घर के लोग चौंक पड़े, मगर हुआ कुछ नहीं। ‘कुछ हुआ होगा।’ सोच कर सो रहे। कोई सोच भी नहीं सकता यहाँ शीशे की आवाज में क्या-क्या टूटा है। दिल टूटा है, ख्वाब टूटा है और ख्वाब देखनेवाली आँखें भी। वह सायास हँसने लगी। ठहाके लगा-लगा के। हँसती रही और हँसती ही रही़…. रेशमा अचंभित-सी देखती रह गई। फिर बोली-
‘अब हँसना बंद भी करो़…. हो गया़….!’
(Story By Husn Tabasum Nihan)

‘क्यूँ मेरा हँसना रोना भी अब तू तय करेगी़….’ और फिर ठहाके लगाने लगी। रेशमा एक अनजाने भय से काँप उठी। तकिया, चादर समेटे हलीमा बाई के पास जा पहुँची। खैर, उसके बाद समीरा को कभी अपना होश ना रहा। सारी रम्मो-रिवायतों को ताक पे रख ड्योढ़ी लाँघ गई। बुर्का अलगनी में पड़ा अपने नसीब पर रोता रहता। और वह मोहल्ले में चौकड़ी भरती। कोठी की दीवारें, मीनारें, उसके कद के आगे छोटे पड़ गए। भावजों से वह अजब-अजब किस्म के मजाक करती रहती। जिसे सुन कर भावजें भी शर्म से गड़-गड़ जातीं। रेशमा के मंगेतर अमश का फोटो वह गाहे-बगाहे गायब कर देती। पूरा दिन घर में सजती-सँवरती। मोहल्ले में सबसे ज्यादा डिसूजा आंटी के वहाँ जाती, वहीं बनी रहती। अब्बू को घर की गिरती दीवारों से कोई सरोकार नहीं। ना वह घर में टिकते ना उनके सामने बातें आतीं। अम्मी अलबत्ता पीर-फकीरों के आस्ताने पे ले-ले जा कर हाजिरी लगा आतीं। सिवा इसके भी कोई पंडित, ओझा, मुल्ला बाकी ना बचा था। गले से पाँव तक समीरा की देह गंडों और ताबीजों से लिसी पड़ी थी। कभी-कभी कुछ जहीन, तरीन लोग राय देते- ‘मुल्ला-मौलवियों का ये मसला नहीं। किसी डाक्टर को दिखाओ।’ वह दिखातीं। डाक्टर कुछ एक दवाएँ देते, कुछ नुस्खे तजवीजते और कहते, इसकी जल्द आज जल्द शादी कर दो। एक दफा ऐसा ही हुआ। वह हत्थे से उखड़ गई-

‘व़…. ह़…. वा़…. कौन-सी डिग्री खरीद के लाए हो डाक्टर? उसे दिमागी खलल है और आप कहते हैं… अरे शादी अपनी जगह है, बीमारी अपनी जगह़…. आजकल के मुए डॉक्टरों का कोई भरोसा नहीं…।’
अम्मी तमतमाती हुई उसका हाथ पकड़ बाहर खींच ले गई। जब गाड़ी पर बैठी तो समीरा ने अम्मी से धीरे से कहा-
‘अम्मी कित्ता खूबसूरत है डाक्टर, ऐसा ही दूल्हा ढूँढ़ना मेरे लिए….’
‘चुपकर बेहया़.. जभी तो लोग इस तरह की बात बनाते हैं… तेरी इन्हीं करतूतों की वजह से़….?’
नौ-दस रोज से मिसेज डिसूजा का घर सूना पड़ा था। वह एक ही बात सोचे जा रही थीं कि लड़कियाँ गईं कहाँ…? रजत पूछता रहता, समीरा आपा नहीं आतीं। शिप्रा दीदी कहाँ चली गई। मिस्टर डिसूजा भी गाहे-बगाहे पूछ ही लेते।
‘तुम्हारी लड़कियाँ… नहीं दिखतीं भई़….।’
एक दिन जी ना माना तो रजत इधर-उधर टहल भी आया। पता चला समीरा बाहर ले जाई गई है। शिप्रा की माँ ने भी यह कह कर उसे टरका दिया कि ‘उसके पिता उसे कही ले गए हैं…’

दो-चार रोज और बीते तो उन्हें कुछ संदेह हुआ। एक दिन वह शाम को झुटपुटे में निकल पड़ीं। आखिर दोनों को हुआ क्या? कहाँ आलोप हो गई। ना खुद आई। ना कोई खबर। समीरा के घर पहुँची तो हलीमा बाई ने ले जाकर बड़े अदब के साथ बैठक में बैठा दिया। ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। समीरा की अम्मी दाखिल हुई।

‘अरे बेगम साहिबा, जहे नसीब, आज आप हमारे गरीबखाने पर तशरीफ लाई़….’
‘जी़…. ऐसी भी क्या बात है़…. बस यूँ ही़….।’
‘अरे है ना़…. हलीमा बाई चाय-वाय ले कर आओ जरा़….’

‘नहीं, इसकी कोई जरूरत नहीं, असल में समीरा काफी रोज से घर नहीं गई तो पूछने चली आई, मन लगा था, तबियत ठीक है ना…?’

‘वही तो़…. बेगम साहिबा वह यहाँ है ही कहाँ। असल में पिछले हफ्ते मैं उसे लेकर गई कलियर शरीफ। हाजिरी लगवाने। वहीं एक फकीर मोहतरम से दुआ सलाम हुई़…. समीरा को देखा, देखते ही ताड़ गए। बोले तुम्हारी बेटी दूसरी असमानी रूहों के फेर में है। मैंने रो-रोके सब बता दिया उन्होंने फौरन फाल खोला। और जानती हो़…. अल्लाह तौबा़…. पाँच परियों और सात जिन्नों का साया जाहिर हुआ। मैं सिहर गई बेगम साहिबा। जभी तो हमारी बच्ची अपने आप मैं नहीं थी। बहरहाल अब ठीक हो जाएगी। उनकी दुआओं में सुनती हूँ शिफा है।’

‘चलिए अच्छा हो जाए बेचारी, है कहाँ, जरा मिल लूँ उससे…।’
‘यहाँ कहाँ, बेगम साहिबा। वह तो वहीं है। फकीर बाबा के पास छोड़ आई हूँ। वह वहाँ रहेगी तो, तभी उस पर अमल करेंगे। चालीस दिन का चिल्ला खींचा है मौलवी साहब ने।’
‘वहाँ और कोई है उसके साथ मतलब घर का कोई…।’
(Story By Husn Tabasum Nihan)

हलीमा बाई चाय-नाश्ता रख गई। अम्मी चाय की प्याली उन्हें थमाती हुई बोली- ‘अब बेगम साहिबा, किसी के होने से क्या होता है, यहाँ से जाता है कौन, किसे इतनी फुरसत। मुझे भी कहाँ मोहलत? उन्हीं के सुपुर्द कर आई हूँ…’
‘हे ईश्वर, ये क्या हो रहा है। इन्हें अक्ल दे़…. ‘ वह मन ही मन बुदबुदायी। भारी मन से चाय खत्म की और उठ खड़ी हुई। जाते-जाते कह गई, ‘आपने ये अच्छा नहीं किया। कैसी भी है वह बेटी है आपकी़….’
जाने क्या था उस लहजे मै, अम्मी को हठात् एक धक्का-सा लगा। वह बुत बनी बैठी रह गई। मिसेज डिसूजा बाहर निकल गई।

‘शिप्रा की भी टोह ले लूँ…. ‘सोचती हुई उधर निकल गयी। पहुँची घर में प्रवेश किया तो स्तब्ध रह गई। घर में अजब-सी फीकी शांति फैली पड़ी थी। दो-चार बच्चे आँगन के कोने में बैठे कंचे ढुलका रहे थे। ओसारे में बैठी थी शिप्रा की माँ जिनकी निगाहें खूब सजग और चौकन्ना प्रतीत हो रही थीं। उनके पहुँचने से हड़बड़ा गई और अकबकाती हुई बोली-

‘आ़…. आ़…. ई ए़…. बहन जी, कैसे भूल पड़ीं…।’
‘बस, ऐसे ही, इधर से गुजरी थी, सोचा शिप्रा का हाल पूछ लूँ  …. बहुत दिनों से आई भी नहीं पगली़….’
‘हम लोग थे ही कहाँ बहन जी, चले गए थे दुर्गापुर। देवी दीन बाबा की कुटिया में। बड़े पहुँचे हुए संत हैं। सिर्फ हवा में हाथ लहरा दें और वस्तु हाजिर। जरा इधर कान लाइए़….।’
मिसेज डिसूजा आगे खिसक आई, थोड़ा उनकी तरफ झुकी-
‘बहन जी, इस पर देवी आती है़….’
‘देवी आती है़….?’ वह सीधी बैठ गई।
‘हाँ, कामाख्या देवी़….।’

‘हे ईश्वर बचा इन लड़कियों को़….।’ धीमे से बड़बड़ाई।

‘जानती हो, संत जी ने क्या कहा, कामाख्या देवी तृप्ति चाहती है। समझ रही हो ना़…. संत जी ने कहा, बिना इनकी क्षुधा शांत किए इनका प्रकोप समाप्त नहीं होगा। इसलिए ये शांति कर्म आवश्यक है। वह बोले तीन दिन बीच छोड़ कर चौथे दिन एक हजार राशि की दक्षिणा के साथ बेटी को लाकर यहाँ छोड़ देना। मैं ये कार्य किसी चेले से करवा लूँगा़…. उस समय तो मैं कुछ नहीं बोली, मगर भीतर से मन राजी ना हुआ। परपुरुष आखिर पर-पुरुष। जाने कहाँ-कहाँ बाँटते फिरेंगे़…. मैंने इनके बापू से कहा- ‘ये काम तुम्हीं कर डालो।’

‘क्या़….!’

‘हाँ नहीं तो, वह थोड़ा संकोच खाए तो मैंने समझाया कि तुम उसे बेटी समझो ही क्यूँ। समझो, सामने देवी है। उन्हीं को प्रसाद चढ़ा रहे हो। बेटी का शरीर तो मात्र माध्यम है। तृप्ति तो देवी को ही होगी। फिर उनसे मुक्ति मिलते ही शिप्रा को ब्याह देंगे़….। हमारे हजार रुपए भी बच जाएँगे़….।’

‘तुम लोगों की बुद्धि चौपट हो गई है। देवियों को भला मनुष्यों की क्या जरूरत पड़ने लगी़….।’
‘क्यूँ नहीं बहन जी़…. यदि ऐसा ना होता तो उर्वशी और मेनका सरीखी अप्सराएँ धरती पे पुरुषों का स्वाद चखने आतीं?’
‘उफ, तुम लोगों से बहस करना ही मूर्खता है।’
‘ये आप कैसी बात कर रही हो़….।’
‘कुछ नहीं, बाई द वे शिप्रा है कहाँ…’
‘वह तो बता रही थी आप सुनो तब ना़…. वह ऊपर तीसरी मंजिल पर है।
इसके बापू देवी को प्रसन्न कर रहे हैं। वही है़….।’
‘क्या़….?’ उन्हें करंट लगा। आवेश में काँपने लगीं। फिर एकाएक तीव्र गति से उठी और ऊपर जा रही सीढ़ियों की ओर भागी। पीछे-पीछे शिप्रा की अम्मा।
‘बहन जी, सुनिए तो़…. देखिए हमारे मसले में मत पड़िए। ये हमारे घर का मसला है, आपको इससे क्या़…. बेटी हमारी है़…. किंतु उन्होंने सुना ही कब? हाँफती, दौड़ती ऊपर पहुँची। दरवाजे से कान लगा कर आहट ली।
झक्का-झोर चल रही थी।

‘छोड़ो बाबू़….’
‘चुप कऱ…. आज कामाख्या देवी को भी मालूम हो जाएगा कि पुरुष क्या होता है़….’
मिसेज डिसूजा ने जोर-जोर से दरवाजा भड़भड़ाना शुरू किया। शिप्रा की अम्मा आग उगल रही थीं। मगर मिसेज डिसूजा जुनूनी मुद्रा में दरवाजा पीटे जा रही थीं। शिप्रा के बाबू सहम गए। शिप्रा को अवसर मिला। दौड़ कर दरवाजे की साँकल हटाई और बाहर छलाँग लगाई। मिसेज डिसूजा से टकराती, गिरते-गिरते बची। सामने मिसेज डिसूजा को देख चकित रह गई। फिर उनसे लिपट गई और चीख मार कर रो पड़ी। शिप्रा के पिता गड़े जा रहे थे। मिसेज डिसूजा गरजीं –
(Story By Husn Tabasum Nihan)

‘भाई साहब़.. जी करता है पुलिस को फोन करके तुम्हारी सारी मर्दानगी निकलवा दूँ। मगर जाहिल़.. जानवऱ…. तुम सब मर चुके हो। मर्यादाएँ… वजर्नाएँ सब घोल कर पी गए हो। इससे अच्छा तो इसे जहर दे देते …’
फिर शिप्रा का हाथ थामा ‘चल मेरे साथ़….।’
और वह शिप्रा को घर ले आई। काफी देर तक दोनों बैठक में खामोश बैठे रहीं। शिप्रा आँखें बंद किए सोफे पर निढाल-सी पड़ी थी। मिसेज डिसूजा ने ध्यान से उसे देखा सोचा-
‘शायद इसे शॉक लगा है़….’ वह उठीं, किचन में गई। दो कप चाय ले के आई और उसके बाजू में बैठ गई-
‘शिप्रा़…. ठीक हो ना़….’
‘मैं ठीक हूँ आंटी़….’
क्या तुम सचमुच ठीक हो गई़…. क्या वास्तव में तुम पर किसी देवी का प्रकोप था़….?’
‘नहीं आंटी, ना मुझ पर देवी का प्रकोप था ना कोई और। ऑल इज राइट़…. मुझे कभी कुछ हुआ ही नहीं था़….’
‘तो वो पागलपऩ….’
‘वो सब ढोंग था आंटी। वास्तव में मुझे अपनी ही उपेक्षाओं और तिरस्कार ने तोड़ दिया। आंटी, लड़कियों के माँ-बाप नहीं होते, उनका सिर्फ भाग्य होता है़…. नसीब है तो माँ-बाप भी साथ देते है, परिवार भी अच्छा ही मिलता है़….। ‘वरना सब़….’ कहते-कहते उसका गला रुँध गया। मिसेज डिसूजा ने आद्र्रभाव से उसे बाँहों में समेट लिया़….।
‘सँभालो अपने आपको।’

‘आंटी़…. वो़…. वो माँ नहीं शत्रु है मेरी। भोर से रात तक घर के कार्यों में बैल की तरह जुती रहती हूँ। भाभियों को तो अम्मा काम के पास फटकने तक नहीं देतीं और मुझे जोते रहतीं। तिस पर काँटेदार बातें बोलती रहतीं जो सीधे जा कर तीर-सी दिल पे लगतीं। कहती है ‘तुझे तो कोई पूछता ही नहीं, खूँटा गाड़े बैठी है़…. तेरी उम्र की लड़कियाँ चार-चार बच्चों की माँ बन गई है और तू़…. भाभियों को अपने हाथ से सजाती है और मैं अगर ढंग से चोटी भी कर लूँ तो कहती है, ‘किसके लिए सज रही है़….  क्या लौंडे बटोरेगी? आप ही बताइए क्या कँुवारी लड़कियों का मन मुर्दा होता है। उन्हें किसी चीज का शौक नहीं होता। अच्छे दिखने की इच्छा नहीं होती़….? क्या सजने-सँवरने के लिए ब्याहता होना अनिवार्य है। क्या वंचित रहना ही कुँवारी लड़कियों का भाग्य है? केवल ब्याह न होने के कारण हमारी सारी खुशियाँ और हमारे जीने के हक छीन लिए जाने चाहिए़….? मैं अम्मा जी की कँटीली छुरियों से हलाल होते हुए घर के अनंत दायित्व निबाहती रही हूँ। अब टूट चुकी हूँ। एक रोज समीरा का हाल-चाल लेने चली गई। देखा, उसके विक्षिप्तपन ने कुछ ना सही उसे आजादी तो दी है। अपने ढंग से जीने की आजादी। विक्षिप्त होने के बाद तो उसकी दुनिया ही बदल गई। कितनी सज-धज के, कितनी उन्मुक्त हो के रहती है। बगैर रोक-टोक सब जगह घूम आती। चाहे जो पहनती-ओढ़ती। बैठे-बैठे मैं बहुत देर तक सोचती रही कि मुझसे अच्छी ये पगली समीरा। कम से कम अपने हिस्से का बसंत तो जी रही है। वहीं बैठी-बैठी मैंने समीरा की जिंदगी जीने का फैसला कर लिया। और वहाँ से आते-आते वैसा ही रूप साध लिया।’

‘ओह, तभी तेरी अम्मा कहती थी कि समीरा के यहाँ से आने के बाद तुझ पर प्रेत सवार हो गया।’
‘हाँ, वह अभी तक यही जानती है कि समीरा का ही प्रेत मेरे पीछे लगा है़….।’

‘च़…. च़…. बहुत तकलीफ होती है़…. शिप्रा एक पराजित इंसान को खुद को जिलाए रखने के लिए किस-किस तरह के जोड़-तोड़ करने पड़ते हैं, बेहद अफसोस है़…. खासकर तुम लोगों के घरवालों को लेकर मैं चकित हूँ। तुम्हारे भाभी-भैया कहाँ है सब?’

‘वो अब यहाँ क्यूँ रहेंगे। जब से मैंने हाथ समेट लिए सबके छक्के छूट गए। सारे दायित्व और घर-गृहस्थी उन पर आ पड़ी ना, नौकरानी रह नहीं गई। सब भाग खड़ी हुईं। अलग घर लेकर रह रहे हैं। वे थोड़े ही अम्मा को करके खिलाएँगी़….’

‘बहुत खूब़.. जितना बेटी सह लेगी बहू थोड़े ही सहेगी़…. बाकी छोड़ो अब ये ढंग-वंग। ये समस्या का निदान नहीं, क्षणिक समाधान हो सकता है। किसी भी व्यक्ति को जब हद से ज्यादा एवोइड किया जाता है और उसकी इच्छा का तिरस्कार किया जाता है तो वह व्यक्ति अवसाद में चला जाता है। ये एवाइडनेस भी एक तरह का प्रहार है, एक हत्या है।’ शुक्र है मैं समय पर पहुँच गई वर्ना़…. देखो, बेचारी समीरा कहाँ भुगत रही होगी। सुनो़…. मैं एक प्राइवेट स्कूल में तुम्हारे लिए बात करती हूँ। तुम जा के वहाँ पढ़ाओ। थोड़ा दिमाग भी बँटेगा़…. और खुलेगा। तुम्हारे घर के लोग अब कुछ नहीं बोलेंगे। ये तो दुनिया है। जिसमें सुख है, वही र्विजत है। उस र्विजत सुख को भोगना भी एक कला है। इसे तुम्हें खुद सीखना पड़ेगा। उसे ऐसे ही सीखोगी। अपने रास्ते अपने आप ही तय करने पड़ते हैं बेटा। … अब जाओ। कल सुबह नौ बजे आ जाना और अपने घर पर नार्मल रहना। वैसा ढोंग फिर मत करना। वर्ना तेरी अम्मा फिर किसी ओझा के यहाँ छोड़ आएगी़….’
वह कुछ देर बैठी रही फिर उठ कर बाहर चली गई।
(Story By Husn Tabasum Nihan)

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