देखवकी : कहानी

अनु सिंह चौधरी

सुशीला चाची का मन एकदम गदगद था। बात ही कुछ ऐसी थी। मन की मुराद पूरी हो जाने पर मन की हालत तो समझते ही होंगे आप!

अब बेटी के लिए अच्छा लड़का मिल जाना कोई आसान बात तो है नहीं। वो भी ऐसा लड़का, जो दिल्ली में रहता हो! बड़े भाग से मिला था ये रिश्ता। वर्ना सुशीला चाची को तो लगने लगा था कि उनकी ही तरह उनकी बेटी की पूरी जिन्दगी भी गाँव में ही कट जाएगी, आँगन लीपते हुए। मिट्टी के चूल्हे पर जलावन फूँक-फूँक कर रोटियाँ सेंकते हुए। हर साल गर्मी की छुट्टी में आने वाले शहर में बसे रिश्तेदारों को देख-देखकर दिल जलाते हुए…।

लेकिन इसकी नौबत नहीं आई। विनोद चाचा से लड़-झगड़कर इकलौती बार ही सही, सुशीला चाची ने अपनी जिद मनवा ली थी। उनका फोन आया था मेरे पास।

‘‘आएँगे रउरा लगे। देखवकी उहे होगा, दिल्ली में। कौनो परेशानी तऽ न होगी आपको आउर मेहमान को?’’

‘‘न चाची। ये तो हमारा सौभाग्य है। इसी बहाने आप हमारे पास आएँगी, दो-चार दिन रह लेंगी। बताइए ना कब आना है?’’ मैंने अपने कमरे के दरवाजे पर लगे पर्दे के नीचे झाँकने वाली उघड़न पर सरसरी नजर डालते हुए कहा था।

़िफक्र ये भी थी कि इस दो कमरे के घर में कैसे इंतजाम कर पाऊँगी देखवकी का। लड़की देखने-दिखाने की रस्म भी तो कोस-भर लंबी होती है हमारे यहाँ। किसी समारोह से कम कहाँ होती है! जो बात बन गई तो ठीक, जो बात न बने तो इस सदमे से उबरने की मातमपुरसी में महीने दो महीने लगते हैं। ये मुझसे बेहतर कौन जानता होगा?

शाम को ये दफ्तर से लौटे तो डरते-डरते चाची के फोन के बारे में मैंने बताया इन्हें। शुक्र था कि मूड चंगा था। ये भी उत्साहित होकर बोले, ‘‘आने दो न सबको। किसी की बेटी की शादी-ब्याह में मदद करना बड़े पुण्य का काम होता है। हम उनके किसी काम आ सके, ये तो हमारी खुशकिस्मती होगी। फिर गाँव-जवार के अपने लोगों की मदद हम ना करेंगे तो किसकी करेंगे?’’

दरअसल सुशीला चाची मेरी अपनी चाची न थीं। हमारे गाँव के घर में चार पुश्तों का परिवार एक ही आँगन में रहा था। अब ठीक-ठीक समझाऊँ तो सुशीला चाची के अजिया ससुर और हमारे परबाबा चचेरे भाई थे। उनका बँटवारा तो कई साल पहले हो गया था लेकिन उसके बाद की पीढ़ियों में अभी बँटवारा नहीं हुआ था। हमारे बाबा चार भाई थे, चारों शहरों में बस गए थे लेकिन ज़मीन से जुड़े रहे। दूसरे आँगन वाले बाबा एक ही भाई थे और उन्हें बेटा भी एक, विनोद चाचा। इसलिए इस आँगन से तो सब एक-एक कर आस-पास के शहरों में जा बसे, लेकिन खेती-बाड़ी, गाय-गोरू और घर-दुआर की देखभाल करने के लिए विनोद चाचा गाँव में ही रह गए।

हम सबका गर्मी की छुट्टियों में गाँव आना-जाना लगा रहा। दोनों ओर के परिवारों के चूल्हे तो बँट गए थे लेकिन आँगन और दरवाजा एक ही था। इसलिए अलग-अलग होते हुए भी हम पट्टीदार कम, परिवार ज्यादा थे।

मेरी सुशीला चाची से खूब गहरी छनती थी। जब सारे बच्चे फुलवारी और बगीचे में पूरी-पूरी दुपहर अमलतास के फूल और अंबियाँ चुन रहे होते, मैं उनके कमरे में बैठकर कोई-न-कोई गीत सुन रही होती। क्या मीठा गला था चाची का! जब साड़ी पर कढ़ाई करती चाची अपनी मीठी आवाज में बेटी के ब्याह के गीत गाती तो उनकी आवाज में जाने क्या जादू होता कि मैं नाक सुड़क-सुड़ककर सुबक रही होती।

निमिया तले डोली रख दे कहरवा
आईल बिदाई के बेला रे
अम्मा कहे बेटी नित दिन अईहऽ
बाबा कहे छव मास रे
भईया कहे बहिनी काजे परोजन
भाभी कहे कौन काम रे
अम्मा के रोवे से नदिया उमड़ गईल
बाबा के रोवे पटोर रे
भईया के रोवे से भींगे चुनरिया
भाभी के मन में आनंद रे।

तभी से मेरे मन में ये बात गहरी पैठ गई कि लड़कियों की सबसे बड़ी दुश्मन तो दरअसल भाभियाँ ही होती हैं। शुक्र है कि मेरा कोई भाई नहीं था।

लेकिन मैं सुशीला चाची के बेटे रोहित के लिए हर साल राखी भेजती थी। श्वेता को तो मैंने गोद में खिलाया था। उसकी चुटिया में लाल रिबन लगाए थे। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में काजल पारने का काम मेरा ही होता था, पूरी गर्मी। दोनों बच्चे बड़े होने लगे तो उनको अक्षर ज्ञान से लेकर हिसाब पढ़ाने का काम मैंने ही किया हर गर्मी-छ्ट्टी। बदले में मुझे चाची से कई तोहफे मिलते, इमली डालकर लाल मिर्च का आचार चाची खास मेरे लिए बनाकर रखतीं। पटना वापस आने लगते हम तो चुपके से बराबर का अचार, आम की खट्टमीठी, चने का सत्तू, तीसी और असली खोए का पेड़ा, ये सब चाची मेरे लिए एक बैग में बंदकर रात में हमारे कमरे में पहुँचा आया करतीं। दिक्कत ये थी कि उनके इस अगाध स्नेह के बारे में मैं परिवार में किसी के सामने शेखी भी नहीं बघार सकती थी। बाकी दादियों, चाचियों और बहनों की जलन का कोई इलाज न मेरे पास था, न सुशीला चाची के पास।

इलाज तब भी नहीं था, अब भी नहीं है। दिल्ली में मेरे तीन चाचा रहते हैं और कई भाई-बहन शहर के कोने-कोने में बिखरे पड़े हैं। तब भी चाची ने मेरे यहाँ आकर ही अपनी दुलरवी बेटी की देखवकी करना तय किया है।

दरअसल, अपने-अपने छोटे शहरों से हमारी पीढ़ी के सभी बच्चे दिल्ली ही आए थे पढ़ाई करने। सबके सब एक ही ख्वाब लेकर आए थे दिल्ली- आईएएस बनने का ख्वाब। दिल्ली विश्वविद्यालय के बी और सी ग्रेड कॉलेजों में किसी तरह पढ़ने-लिखने के बाद हम सबको अपनी हकीकत का अहसास हो गया था। मैंने भी कॉलेज के बाद एक कॉल सेंटर में मार्केटिंग असिस्टेंट की नौकरी कर ली।

तीन साल की लगातार कोशिश के बाद पापा मेरी शादी कराने में किसी तरह कामयाब हो गए थे। लड़के का परिवार पास के ही गाँव से था, पारिवारिक पृष्ठभूमि बिल्कुल हमारे जैसी। मेरे भावी ससुर भी मेरे पिता की तरह ही एक सरकारी दफ्तर में मुलाजिम थे। लड़के के पिता की सरकारी नौकरी की वजह से कानपुर में दो कमरों का एक सरकारी फ्लैट था जहाँ बाकी परिवार रहता था। साल में एक बार ये लोग भी अपने गाँव आते कभी होली पर, कभी छठ पर। पापा की तरह ही मेरे भावी ससुर ने भी एक ही कभी न पूरी होने वाली महत्वाकांक्षा पाल रखी थी, रिटायरमेंट के बाद गाँव में बस जाने की। फिर भी पापा और मेरे भावी ससुर, दोनों ने अपने-अपने शहरों में चार-चार कट्ठा जमीन लेकर चहारदीवारी डलवा दी थी।

मेरी तरह ही मेरे होने वाले पति न गाँव के थे, न किसी छोटे शहर के हो सके और न दिल्ली को ही अपना घर बना पाने में कामयाब रहे। हम जड़ों से उजड़े हुए लोग कहीं बसे होने का ढोंग ही कर सकते हैं बस! और जो अपनी जड़ों का नहीं हो पाता, वो कहीं का नहीं हो पाता।

मेरे पति दिल्ली की एक प्राइवेट कम्पनी में असिस्टेंट सेल्स मैनेजर थे। चार लाख नकद में इससे बेहतर दामाद क्या खोज पाते पापा? फिर मेरे पीछे मेरी दो बहनें भी तो थीं। सो, जब कुल तीन बार देखवकी और रिजेक्शन के बाद मुझे दिल्ली में इनसे मिलने के लिए कहा गया तो मैं बिना किसी उम्मीद के चली गई थी वसंत विहार के प्रिया कॉम्पलैक्स में मिलने। जब इन्होंने कहा कि मैं वसंत कुंज में रहता हूँ तो मैं समझ गई कि इनके लिए भी वसंत कुंज की चौहद्दी दरअसल किशनगढ़ तक बढ़ जाती है, वैसे ही जैसे मेरे लिए निलौठी गाँव में रहना पश्चिम विहार के पॉश मीरा बाग में रहने से कम नहीं।

मेरी शादी गाँव से ही हुई। सुशीला चाची ने मम्मी का सारा काम सम्भाल लिया था। मेरे लिए चादरें और साड़ियाँ कढ़ाई करके रखी थीं उन्होंने। दादी जब पराती गाने के लिए पौ फटने से पहले उठतीं तब तक सुशीला चाची अपनी ओर के चौके का काम निपटाकर हमारे आँगन के चौके में दूध उबालने और चाय बनाने के लिए आ डटतीं। शाम को घर की औरतें गीत गाने बैठतीं तो चाची पहला तान छोड़तीं।
(Story by Anu Singh)

पीपल पात झलामल बाबा बहेऽला सीतल बतास
तहि तर बेटी के बाप पलंग बिछवनी
आ गईल सुख के रे नींद
राती राती जागे बेटी के माई
काहे बाबा सुतेनी निस्चिंत रे
जेकर घर बाबा धियरे कुमारी
से कैसे सुते र्निंस्चत रे
मैं और श्वेता अंदर बातें करते।

‘‘सुने न दीदी गीत? बेटी के बाप को चैन से निश्चिंत सोने का अधिकार थोड़े है? आप तो इतनी पढ़ी-लिखी, शहर में रहीं, इतनी सुन्दर। जब आपकी शादी में इतनी अड़चन आई तो जाने मेरी शादी कैसे होगी।’’

मैं उसे हँसकर चिढ़ाती, ‘‘तुम तो सुशीला चाची की बोली बोलने लगी हो श्वेता।’’

‘‘हाँ दीदी, क्या करें। पूरा-पूरा दिन यही सुनना पड़ता है। भोरे से माँ का टेप रिकार्डर चालू हो जाता है। ‘आपन बेटी का बियाह तऽ हम शहर में रहे वाला लईका से करब। इहाँ रहकर चिपरी थोड़े पाथेगी बेटी?’ ये कैसी जिद है दीदी? इतना आसान थोड़े है? बाबूजी पटना वाले चाचा की तरह चार लाख कहाँ से ला पाएँगे?’’

‘‘सब हो जाएगा श्वेता। जिसकी किस्मत जैसी, वो वहाँ पहुँच ही जाता है। सुना नहीं अभी बाहर मम्मी लोग क्या गा रही थीं? जाईं बाका जाईं अबध नगरिया/जहाँ बसे दसरथ राज/पान सुपारी बाबा तिलक दीहें/तुलसी के पात दहेज/कर जोरी बिनती करेब मोरे बाबा/मानी जायब श्रीराम हे।’’

‘‘ये सब बोल गीतों में ही अच्छे लगते हैं दीदी। श्रीराम को भी सीता से ब्याह रचाने के लिए शिवजी का धनुष तोड़ना पड़ा था।’’

गाँव में ही पली-बढ़ी श्वेता वैसे भी मुझसे ज्यादा व्यावहारिक बातें करती थी।

फिर श्वेता के लिए धनुष तोड़ने को कौन राजी हो गया था? दिल्ली में नौकरी करने वाले लड़के के लिए दहेज कहाँ से जुटा पाएँगे विनोद चाचा?

इन सभी सवालों पर विचार करना मैंने चाची के दिल्ली पहुँचने तक छोड़ दिया। वैसे भी चाची के शहर के प्रति सम्मोहन से मैं वाकि़फ तो थी ही। उनकी जिन्दगी के दो ही मकसद थे- श्वेता की किसी शहर में बसे परिवार में शादी और रोहित की शहर में नौकरी। वो शहर दिल्ली हो तो और भी अच्छा।

मैं जितनी बार गाँव जाती, चाची खोद-खोदकर शहर के बारे में पूछतीं, ‘‘बबुनी, घर कईसन बा? उहाँ के घर में आँगन तो नाहिए होता होगा? चलो, लीपने से छुटकारा। रसोई गैस मिल तो जाता है वहाँ? ऐं! अइसन बड़ा बाजार लगता है वहाँ? मेट्रो कवन चीज है बबुनी? चापाकल थोड़े चलाना पड़ता होगा हर काम के लिए। नल खोलो तो हर-हर पानी….’’

शहर के प्रति उनका ये मोह समझना मुश्किल नहीं था। हम बचपन से गाँव आते रंग-बिरंगे रेडिमेट कपड़ों में और चाची रोहित-श्वेता के लिए चैनपुर बाजार से कपड़े मँगवाती। देहाती कपड़ों के अलावा यहाँ मिलेगा भी क्या, बाद में तो श्वेता भी कहने लगी थी।

हमारी बोली-चाली, रवैया, रहन-सहन सब शहरी हो चला था। माँ भी अक्सर हिन्दी में ही बात किया करतीं। माँ की शिफॉन-सी दिखने वाली सिथेंटिक साड़ियों और पापा की चक-चक पैंट-शर्ट पर भी फिदा थीं चाची।

‘‘भाई साहब केतना सुन्दर शर्ट पहिनेनी। एकदम बड़े आदमी के माफिक। आउर चाचा आपके पूरा दिन उघारे देह एक ठो धोती लपेटे कभी गाय को सानी-पानी दे रहे होते हैं, कभी खेत में ट्रैक्टर चलाते हैं। हमको तो उनका देह भी भूसा जइसा महकता है।’’  चाची कहती तो मैं खी-खी करके हँस देती। अक्सर मैंने अपने ऊटपटाँग सपनों में चाची को भूसे की ढेरी पर पैर फेंककर सोते देखा था!

पता नहीं चाची को चाचा के देह से भूसे की महक आनी बंद हुई या नहीं, लेकिन चाची का शहर-प्रेम आ़िखर उन्हें दिल्ली जरूर खींच लाया।

चाची और श्वेता के साथ पूरा-का-पूरा पकवलिया गाँव उतरा था दिल्ली स्टेशन पर! पकवलिया गाँव में सुशीला चाची का मायका है और ये गाँव अपनी उजड्डता के लिए मशहूर है। जाने उस गाँव की बेटी होकर चाची की बोली और आचरण में इतना माधुर्य कहाँ से आया था!
(Story by Anu Singh)

मेरे होश तो स्टेशन पर उतरी उस छोटी-मोटी बारात को देखकर ही उड़ गए। इन लोगों को अपने दो कमरों और एक टॉयलेट-बाथरूम के घर में कहाँ रख पाऊँगी?

श्वेता मेरी गर्दन से आकर लग गई और मैंने उसी से पूछा, ‘‘ये सब तेरे साथ आए हैं क्या? लड़के को अगवा करने का इरादा है? हथपकड़ा शादी करनी है?’’

‘‘अरे नहीं बबुनी। हमारे बड़का भैया ही का तो लगाया हुआ रिस्ता है। सो, उनका आना जरूरी था। बाकी एक मेरा भतीजा है, एक भगीना, एक सुमित्रा फुआ का बीच वाला बेटा और वो किनारे….’’ चाची बिना थमे सबका परिचय देने में लग गईं।

‘‘वो तो ठीक है चाची, लेकिन ये सब लोग रहेंगे कहाँ?’’

‘‘काहे? आपके घर में जगह नहीं है? ’’ चाची का ये प्रश्न मुझे दंश की तरह चुभा।

तभी श्वेता के मामा ने बात संभाल ली। ‘‘काहे परेशान हो बबुनी? हम दिल्ली पहिली बार थोड़े आए हैं? हमरा एक ठो साला रहता है यहाँ, उसके यहाँ चले जाएँगे।’’

यही तो खास बात है दिल्ली की। हर बिहारी परिवार के हर वयस्क सदस्य का कोई-न-कोई रिश्तेदार दिल्ली में जरूर रहता है।

मैं चाची और श्वेता को लेकर बस स्टैण्ड की ओर बढ़ गई। चाचा नहीं आए थे।

‘‘कटनी-दौनी के टैम पर कइसे निकलते?’’ पूछने पर चाची ने मायूस होकर कहा था।

हम तीनों ने 604 नंबर की बस ले ली थी। नई दिल्ली से वसंत कुंज तक की। चाची खिड़की के पास बैठी थीं और बैशाख की धूप में बाहर दौड़ते-भागते शहर को देखकर बच्चे की तरह आह्लादित हो रही थीं। उन्हें जैसे मुँहमाँगा वरदान मिल गया था। श्वेता चुप-सी थी, बस में ठुँसी चली आ रही भीड़ को देखकर परेशान।

हम वसंतकुज के डी-3 ब्लाक के स्टैण्ड पर उतर गये थे। हम तीनों ने थोड़ा-थोड़ा सामान ले लिया था और किशनगढ़ की धूल भरी गलियों को पीछे छोड़ते हुए एक तीन मंजिले मकान के पहले तल्ले में आकर थमे थे।

श्वेता बाहर वाले कमरे में लगे दीवान पर धप्प से बैठ गई थी। चाची घूम-घूमकर मेरे दो कमरे के घर का मुआयना कर रही थीं।

‘‘खड़ा होकर खाना बनाती हैं, नहीं बबुनी? ठीक है। हम तो मिट्टी का चूल्हा पर चुका-मुका बईठकर खाना बनाते-बनाते घुटने के दर्द के मरीज हो गए। छोटा-सा घर है, साफ सफाई में सुबिस्ता। ओतना बड़का आँगन में झाड़ू बुहारते-बुहारते हमारे डाड़ में दरद उबट जाता है।’’ श्वेता कुछ नहीं बोली, सिर्फ इधर-उधर देखती रही।

शनिवार का दिन था, इसलिए मेरी छुट्टी थी। मैं मशीन में कपड़े डालकर गई थी, वो श्वेता के साथ लेकर छत पर पसारने चले गए हम दोनों।

छत पर से जब किशनगढ़ का नजारा देखा श्वेता ने तो और परेशान हो गई। ‘‘बाप रे! इतनी भीड़ दीदी। कैसे माचिस के डब्बों जैसे घर हैं दीदी!’’

‘‘यहाँ तो कुछ नहीं है श्वेता। गुड़गाँव चल गुड़गाँव। वहाँ जाकर तो आकाश छूती इमारतें देखकर तेरा सिर घूमने लगेगा, सच्ची में। वैसे ये गुड़गाँव वाला लड़का मिल कैसे गया चाची को?’’

‘‘बड़े मामाजी के बचपन के दोस्त हैं लड़के के पिता। बीस-पच्चीस साल पहले पकवलिया से यहीं, दिल्ली आ गए थे ये लोग। मामाजी ने ही बात की थी लड़के वालों से। दीदी, फोटो खिंचवाने के लिए भी कितना तमाशा हुआ घर में! माँ जिद करती रही कि फोटो दिल्ली के किसी प्रेम स्टूडियो में ही खिचवाएँगे। आपका भी फोटो तो वर्ही खिंचवाया था न दीदी?’’

मैं हँस दी। अपनी शादी वाली तस्वीर खिंचवाने का अनुभव याद आ गया और ये भी याद आया कि कैसे गाँव में माँ सबको मेरी फोटो दिखा-दिखाकर बता रही थी, ‘‘वैसे तो हमारी ऋचा रिजेक्ट करने लायक थोडे़ है लेकिन फोटो भी हम लोग प्रेम स्टूडियो में जाकर खिंचवावाए। दू-तीन सौ रुपैया ज्यादा लिया तो क्या, लड़के वालों को देखते ही पसंद आ गई फोटो।’’ माँ ने बातों बातों में बड़ी सफाई से फोटो पसंद आने के बाद से लेकर लड़की और पैसे की बात पसंद आ जाने के बीच की कवायद गोल कर दी थी।

‘‘तो खिची गई या नहीं कोई फोटो?’’ फ्लैशबैक से उस लम्हे में लौटते हुए मैंने हँसते हुए श्वेता से पूछा। ‘‘और पैसा-वैसा? उसकी बात हुई कि नहीं?’’
(Story by Anu Singh)

‘‘अभी तो हुई नहीं दीदी। लड़के वाले कह रहे हैं कि जो आपके पास है, उसी में से आशीर्वाद समझकर कुछ दे दीजिएगा। मेरा तो जी बड़ा घबराता है दीदी। माँ का शहर में मेरी शादी करने का विचार महँगा न पड़ जाए।’’

‘‘तू क्या चाहती है बन्नी?’’ मैंने श्वेता की आँखों में देखकर उससे पूछा।

‘‘सच कहें तो हमको कोई फर्क नहीं पड़ता कि शहर है कि गाँव। हम यही चाहते हैं बस कि माँ-पापा की परेशानी का कारण न बन जाए हमारी शादी।’’

सारी बेटियाँ कैसे एक ही तरह से सोचती हैं! सारी बेटियाँ शादी के नाम पर समझौता करने के कारण भी ढूँढ लेती हैं!

प्रेम स्टूडियो में श्वेता की फोटो खिंचवाने की नौबत नहीं आई। लड़के वालों को चैनपुर वाली फोटो की श्वेता ही पसंद आ गई और बुधवार की शाम का दिन देखवकी के लिए मुक़र्रर कर दिया गया।

गुड़गाँव के किसी मॉल में इकट्ठा होना था सबको। मैंने आधे दिन की छुट्टी ले ली और इन्होंने पूरे दिन की। टैक्सी वगैरह बुक हो गई। चाची देखवकी की तैयारी में जुट गईं। रविवार का दिन पार्लर ढूँढने और साड़ी तय करने में गुजरा। चाची कोई कोताही नहीं बरतना चाहती थी।

सोमवार को ये सुबह-सुबह दफ़्तर के लिए निकल गए और मैं ग्यारह बजे। मैंने रसोई की सारी जानकारी चाची और श्वेता को दे दी और सभी जरूरी फोन नंबर भी सौंप दिये। देर रात जब हम दोनों घर पहुँचे तो न अपना घर पहचान में आ रहा था न श्वेता और चाची!

चाची ने दो कमरों का रूप तो जो बदला सो बदला, पार्लर जाकर अपना भी कायाकल्प कर आईं। सजे-सँवरे कमरे में बिस्तर पर बिछी कढ़ाई वाली चादर पर सलवार-सूट पहनी चाची को मुस्कुराते देखकर हम दोनों को लगा कि हम किसी दूसरे घर में घुस आए हैं। सामने से अपने बाल कुतरवाकर आई श्वेता भी कोने में खड़ी होकर फिक्क-फिक्क हँसती रही।

मैं हँसती हुई चाची के गले लग गई, ‘‘श्वेता की जगह चाचीजी आपको भेज दें तो भी लड़के वाले मना नहीं करेंगे।’’ इन्होंने भी मुस्कुराते हुए कहा। लगा जैसे चाची की गुलाबी ओढ़नी का रंग किसी ने उन्हीं के चेहरे पर मल दिया हो।

चाची बेहद खुश थीं। हमारे लिए खाना तैयार था। श्वेता खाना लगाने में लग गई और चाची गर्म-गर्म रोटियाँ उतारने में। बेलने के साथ चकले पर गोल-गोल घूमती उनकी कलाइयों के साथ ताल बिठाते हुए चाची ने राम-जानकी विवाह का गीत छेड़ दिया, ‘‘जब श्रीरामचन्द्र चलते बियाह करे, ताही बीचे चिरिया कलस लेले धावे कि ताही बीचे ना…’’ फिर खुद से ही बातें करती हुईं चाची ने अपना माथा ठोक लिया, ‘‘ई हम का गा रहे हैं? कोई अपसकुन गीत नहीं गाएँगे।’’

चाची आगे गाने लगीं, ‘‘रामचन्द्र चलल बिवाह करे बाजन बाजे हे/आहे ऋषि मुनि आरती उतारे कउन बर सुन्दर हे/रामचन्द्र देखने में सावर, ओढ़ले पीतांबर हे/ आहे उबे बर के आरती उतारब, उहे बर सुन्दर हे।’’

देखवकी की सुबह से जैसे चाची के पैरों में चक्कर लग गए थे। सुबह आठ बजे से ही चाची तीन बार पास के किराने की दुकान में जा चुकी थीं, कभी रोली, कभी अक्षत, कभी सिन्दूर, कभी गुड़ लेने। पूजावाला कोना तो सुबह पाँच बजे से ही हथिया रखा था उन्होंने। पता नहीं कितनी मनौतियाँ माँगी थीं।

‘‘ऋचा बबुनी, बियाह हो जाएगा न तो मोरार बाबा तर पूजा करेंगे, अपने से जाकर। पाकड़ पेड़ वाला मंदिर पर सवा किलो लड्डू का भोग लगाएँगे, मेहदार जाएँगे खाली पैर, बाबा महेंन्द्रनाथ का पूजा करने के लिए। एक बार इ रिस्ता पक्का हो जाए।’’

बेचारी श्वेता डरी-सहमी सी उनकी बातें सुनती रहती। इससे बड़ा इम्तिहान जिन्दगी में उसे दुबारा न देना था। पास हो गई तो ठीक, न पास हुई तो बार-बार बैठने का डर!

मैंने श्वेता को अपनी साड़ी पहनाई, जॉर्जेट की पीली साड़ी में वो और खिल उठी थी।

‘‘रिजेक्ट होने वाली नहीं है हमारी साली।’’ इन्होंने कहा तो चाची का चेहरा और खिल गया। टैक्सी पर सवार होकर हम सब गुड़गाँव के लिए रवाना हो गए।

चाची के बाकी नाते-रिश्तेदार सीधे वहीं पहुँच गए थे। मॉल की छटा देखकर चाची का मुँह खुला का खुला रह गया। शहर का ये रंग इन्होंने कभी नहीं देखा था। बड़े-बड़े शोरूम। आदमकद शीशों में सेल के बहाने आपको लूटने के लिए लगाए गए रंग-बिरंगे परिधान, जूते, घड़ियाँ!

हमारे साथ मॉल में घुसी बारात किसी बैंड पार्टी से कम नहीं लग रही थी। रंग-बिरंग कुर्तों और कलफवाली धोतियों में हमारे मामा-चाचा-भैया अलग से नजर आ रहे थे। एक श्वेता की देखवकी के लिए कुल बारह लोग आए थे।

रेस्टोरेंट में टेबल एक साथ करवाकर हम बैठ गए और लड़केवालों का इंतजार करने लगे। थोड़ी देर में लड़का अपने माता-पिता के साथ आया और टेबल के दूसरे कोने पर बैठ गया। मामाजी और लड़के के पिता आपस में बातें करने लगे और लड़के की माँ उठकर मेरे और चाची की बगल में आकर बैठ गई।

प्रणाम-पाती के बाद लड़के से बातचीत का सिलसिला इन्होंने ही शुरू किया। लड़का पिता के साथ अपना बिजनेस करता था, कई टैक्सियाँ चलती थीं उनकी। शादी के बाद यहीं गुड़गाँव से आगे मानेसर में टी-शर्ट और शर्ट बनाने की फैक्ट्री लगाना चाहता था।

बातचीत दरअसल, असली मुद्दे पर आकर रुक गई। तमाम कोशिशों के बाद श्वेता के मामाजी ने ही जिक्र छेड़ा, ‘‘लड़की पसंद हो तो बात आगे बढ़ाएँ।’’

लड़के के पिता ने हँसकर उनका हाथ पकड़ लिया,‘‘लड़की पसंद है और बात आगे बढ़ाते हैं। हम जानते हैं कि आप क्या पूछना चाहते हैं। हमको और कुछ नहीं चाहिए लड़की के अलावा। हम ठहरे बिजनेस वाले लोग। यहाँ भी अपने और आपके फायदे की ही बात करेंगे।’’

मामाजी टुकुर-टुकुर अपने दोस्त का चेहरा निहारते रहे। लड़की के बियाह में लड़की वालों के फायदे की भी भला कोई बात होती है क्या?
(Story by Anu Singh)

‘‘बात ये है कि ये तो तुम्हें मालूम ही होगा कि पकवलिया में हमारा कोई नहीं। लेकिन उस गाँव में हमारी कुछ जमीन है, जानते हो ना रामखिलावन?’’ मामाजी ने सिर हिलाया।

‘‘तो हम बस ये चाहते हैं कि तुम लोग हमारी जमीन को खरीद लो। तुमको जमीन मिल जाएगी और हमको पैसा। अब पैसा हमको माँगना होता तो सीधे माँगते। लेकिन हम तो तुम्हारा नफा भी नऽ देख रहे हैं। तुम हमारे दोस्त ठहरे।’’

मामाजी चाची की ओर देखने लगे। चाची को तो इस सौदे की उम्मीद भी नहीं थी! कोई रुपया-पैसा, दान-दहेज माँगता तो उसपर बातचीत हो सकती थी, मोल-तोल हो सकता था। लेकिन इस पर क्या बातचीत होती? साठ बीघा जमीन वाले परिवार के बारे में सोच-सोचकर जिस चाची का दिल बल्लियाँ उछलता था, वही दिल आज बैठा जा रहा था। अपनी औकात देखकर शादी-ब्याह की बात करनी चाहिए, मुझे पापा का ब्रह्मवाक्य याद आ गया।

बिना किसी बातचीत के देखवकी वहीं खत्म हो गई। बाहर निकलते हुए मामाजी ने चाची के कंधे पर हाथ रखकर कहा, ‘‘मन बा तऽ बात आगे बढ़ी सुशीला। वैसे हमार मन नईखे जमत।’’ चाची ने कहा कुछ नहीं, सिर्फ गाड़ी में आकर बैठ गईं।

घर तक का आधे घंटे का रास्ता आधी सदी जितना भारी था। श्वेता और चाची चुपचाप थे, मैं और ये दोनों समझ नहीं पा रहे थे कि उन्हें सांत्वना कैसे दें। मेरे दिमाग में गाँव के आँगन में और फिर फोन पर विभिन्न शहरों तक बीबीसी की माफिक पहुँचने वाले संदेश गूँज रहे थे, ‘‘बड़ा गई थी दिल्ली देखवकी कराने। कूद-कूद कर बेटी शहर में दिखा आने को किसने कहा था?’’

मुझे पूरा यकीन था, चाची भी यही सोच रही थीं।

घर पहुँचकर भी मायूसी कम नहीं हुई लेकिन चाय का घूँट गले के नीचे जाते-जाते चाची का मूड एकदम बरसात की धूप की तरह खिल उठा था।

‘‘इसमें कौन बड़ी बात हो गई मेहमान जी? देखवकी में ई सब होईबे करता है, नहीं ऋचा बबुनी? इसी बहाने हम आपके साथ दू-चार दिन रहियो लिए। नहीं तो कहाँ से ये सौभाग्य मिलता? है ना बन्नी? ऐ श्वेता, हम ठीक बोले कि गलत?’’ गुमसुम बैठी श्वेता चाची की घुड़की घुली सांत्वना सुनकर सहमी हुई-सी मुस्कुरा दी।

मेरा फोन लेकर चाची ने चाचा को गाँव में फोन कर दिया था, ‘‘भक्क! एकदम ठीक नहीं था लड़का जी। कईसन दो एगो जीन्स पैंट पहिन कर आया था। गर्दन पर जुल्फी लटकाए था। एगो ईहाँ हमारे मेहमान जी को देखिए आ एगो ओकरा के देखिए, बड़का शहर वाला बनता है। सुनते हैं जी, ऊ कुसुमवारी वाला पंडितजी को फोन कर दीजिएगा। हाँ, कह दीजिएगा हमको रिश्ता पसंद है। अरे हाई स्कूल में टीचर है लईका, अपना खेती-पाती है, कौन बात का दुख है। और एतना बड़का-बड़का आँगन-दुआर में रहने वाली हमारी बेटी शहर के छोटका कबूतरखाने में थोड़े खुश रह पाएगी। फिर अईसा तो नौबत नहीं आएगा न कि शहर में बसने के लिए खेत बेचना पड़े। आउर सुनिए, कह दीजिएगा कुसुमवारी वाला लोग से कि बियाह का बात होगा सीधे, देखवकी-उखवकी नहीं। सुन रहे हैं न?’’

नीला स्कार्फ़  कहानी संग्रह से साभार
(Story by Anu Singh)

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