भावना टी-कार्नर

Story Bhawana Tea Corner
-एम. जोशी

भोर का पाँच बजा है। नीचे घाटी में बने नानतिन महाराज आश्रम से घंटियों की मधुर ध्वनि पूरे श्यामखेत को दिव्य बना दे रही है साथ में पाश्र्व में बजते ढोल, नगाड़ों, मंजीरों के साथ ओम नम: शिवाय के स्वर चारों तरफ पहाड़ियों से टकरा रहे हैं। मैं नीचे उतरकर आश्रम तक तो नहीं जा पाती हूँ परंतु अपने बिस्तर में बैठकर एक घंटे तक चलने वाले रोजाना के इस अलौकिक कार्यक्रम में मानसिक रूप से भागीदार अवश्य बन जाती हूँ।
(Story Bhawana Tea Corner)

भवाली के पास नये-नये बसे इस श्यामखेत में दो कमरे का चालीस लाख का फ्लैट लेते समय मेरे परिवार का कोई सदस्य मेरे अकेले के इस निर्णय पर खुश न था। बेटा बोला था-‘‘माँ आप बिल्कुल भी पै्रक्टिकल नहीं है। माना कि आपने अपनी कमाई से यह फ्लैट खरीदा है लेकिन इससे आपको क्या रिटर्न मिल रहा है? एक कौड़ी नहीं ऊपर से पच्चीस हजार सालाना उसको मेंटीनेंस के अलग से देने पड़ रहे है। यही पैसा लगाकर आपने दिल्ली-नोएडा या किसी भी बड़े शहर में फ्लैट लिया होता तो उसका हर महीने पन्द्रह हजार से कम किराया न मिलता और यदि आप इसे सीधे बैंक में किसी स्कीम में डाल देती तो महीने का बीस हजार तो ब्याज ही खातीं…’’

बेटा मुझे जीवन का गणित समझा रहा था।

‘‘दिव्य बेटा मुझे यहाँ आकर जो मिल रहा है उसका उत्तर गणित के किसी भी फॉर्मूले से नहीं मिल सकता है। जीवन में कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन पर कोई फॉर्मूला लागू नहीं होता है। बेटा मैं जो रोज घोड़ाखाल गोलूदेव के मंदिर तक चीड़ के पेड़ों के बीच से बलखाती सड़क पर चढ़ती-उतरती पांच किमी. का सफर तय करती हूँ और मेरे फेफड़ों में चौबीसों घंटे जो साफ हवा भरती है क्या उसका कोई मोल नहीं है? मुझे मालूम है हमेशा यहाँ रहने से यदि खुदा न खास्ता कोई एक्सीडेंट आदि न हुआ तो मुझे और तेरे पापा को डायबिटीज, टी.बी., दिल की बीमारी और आज के दौर की सबसे बड़ी बीमारी मोटापा छू भी नहीं सकता है। तुम हमारी चिन्ता छोड़कर अपनी नौकरी पर जाओ बेटा। कुछ साल धन कमाने के बाद एक दिन तुमको भी यही सब आना पड़ेगा। तब यही मकान तुमको वह सब देगा, जो जिन्दगी भर कमाया तुम्हारा पैसा तुमको नहीं दे पायेगा़…’’

दिव्य मेरा लम्बा, चौड़ा भाषण सुनने का आदी है, वह दूसरे दिन ही नोएडा अपने जॉब के लिए चला जाता है।

मैं जानती हूँ कि प्रकृति से प्रेम के अपने जुनून के कारण जिन्द्गी के पचास वर्ष दिल्ली की गलियों में गुजारने के बाद इस ढलती उम्र में मेरा श्यामखेत में बसने का निर्णय किसी को हजम नहीं हो रहा था। सभी की राय थी कि पहाड़ कुछ दिनों के सैर-सपाटे के लिए तो अच्छे होते हैं परन्तु वहां की कठिन जिन्द्गी हमेशा बसने के लायक नहीं होती है। मेरी पड़ोसी गुप्ता साहब की पत्नी रजनी रो पड़ी थी- ‘‘कमला बहन हमारा साथ छोड़कर क्यों जा रही हो? जवानी हमारी साथ कटी है तो बुढ़ापा भी साथ कटता तो कितना अच्छा होता़…’’

मैं जानती हूँ इस पहाड़ी कस्बे में मेरे लिए अकेले रहना इतना आसान भी न होगा। रिटायरमेंट के बाद मेरे पति पूरी तरह विपश्यना साधना और विपश्यना केन्द्रों के लिए समर्पित हो गये हैं। वे भी पूरे समय मेरे साथ नहीं रह पायेंगे। मेरे पति ने मुझे भी बहुत जोर दिया था कि मैं भी विपश्यना को समर्पित हो जाऊँ लेकिन मौन रहकर अपने शरीर की एक-एक संवेदना के प्रति जागरूक रहने से ज्यादा आनंद मुझे प्रकृति का सामीप्य देता है। जीवन का लक्ष्य यदि शांति, सुकून और आनंद पाना है तो क्यों न मैं अपने ढंग से उस लक्ष्य तक पहुँचूं?
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चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात वाला हाल हर पहाड़ी शहरों और कस्बों की तरह श्यामखेत का भी हो गया था। अप्रैल से जून तक पर्यटकों की भीड़-भाड़ शोरगुल बरसात शुरू होते ही जंगलों को काट-काट कर जो बहुमंजिला इमारतें वहाँ खड़ी कर दी गई थी। सूनी हो गई थी। उनके मालिक अपने-अपने फ्लैटों में ताला डालकर मैदानों को खिसक लिये थे। यूँ भी श्यामखेत में कोई परमानेंट रहेगा तो खायेगा क्या? यहां तो कुछ स्थानीय लोगों के अलावा मेरे जैसे इक्का-दुक्का कुछ रिटायर्ड लोग ही रह गये थे।

मैं आश्रम में बने मंदिर से आती दिव्य स्वर लहरियों में तरंगित थी कि कोई भड़-भड़ भड़-भड़ दरवाजा खड़खड़ाने लगता है।

‘‘कौन होगा इतनी सुबह़…’’

मैं कुछ डरी कुछ सहमी सी दरवाजे की तरफ बढती हूँ- सामने भग्गू खड़ी है।

‘‘अरे भग्गू! इतनी सुबह कैसे़…?

सब ठीक तो है न?’’

आंटी मुझे ये भग्गू भग्गू कहना बंद करो। कितनी बार कहा है मेरा नाम भावना है, ये स्साले गांव वालों ने मेरा नाम बिगाड़ कर रख दिया है़…’’

भावना का मूड मेरे संबोधन से बुरी तरह उखड़ गया था।

‘‘सॉरी भावना! आइन्दा ध्यान रखूंगी बता क्या बात है?…

‘‘अरे आंटी! कल मैंने तुमको अपने खेत का जो अदरक और लहसुन दिया था न उसे लेकर मेरे बाप ने रात भर से बवाल कर रखा है। मैं बोल कर आई हूँ कि आंटी से अभी वापस लेकर तेरे सर पर पटकती हूँ…’’
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भावना गुस्से में हांफ रही थी और मैं बेहद परेशान- ‘‘भावना! मैं तो वो सब दिव्य को दे चुकी हूँ जो रात को ही नोएडा के लिए निकल चुका है। दिव्य बिल्कुल मना कर रहा था मैंने ही जबर्दस्ती उसके बैग में रखे कि पहाड़ के लहसुन और अदरक का स्वाद बेजोड़ होता है़…

‘‘अरे यार आंटी! तुमने ये क्या कर दिया? मेरा बाप अब तो मुझे घर से निकाल ही देगा़…’’ सबसे यार करके बात करना भग्गू की आदत थी। मैं कई बार उसको टोक चुकी थी कि सबसे यार करके बात मत किया करो। धूर्त लोग उसका गलत अर्थ निकालेंगे। हांलाकि उसका मुझे ‘‘यार आंटी’’ कहना अंदर तक गुद्गुदा जाता था। ‘‘भावना बेटे तुम परेशान न हो। बता उसका कितना पैसा बनता है? मैं दे देती हूँ तू अपने पिता को दे देना कि मैंने आंटी को फ्री में नहीं दिया था बेचा था। रुपया देखकर तेरा पिता खुश हो जायेगा़…’’

‘‘नहीं आंटी! मेरे पिता को पैसा नहीं वही लहसुन, वही अदरक चाहिए। वह जब घर से निकलता है तो अपने उगाई सारी सब्जियां तौल कर जाता है। सुबह की तौली जब शाम को किलो-किलो भर कम निकलीं तभी उसको शक हुआ कि उसकी दानवीर औलाद भावना ने उसकी कमाई लुटा दी है़…’’

मैं हैरान परेशान थी कि कहाँ से लाऊँ  अब वही अदरक और लहसुन की गाँठें ?

अचानक मुझे सूझता है- ‘‘भावना! ग्यारह बजे तक का इंतजार कर ले जब दुकानें खुलेंगी तो मैं जितना तुमने दिया था उतना ही तौलकर खरीदकर तुमको लौटा दूंगी फिर तो तुम्हारा पिता संतुष्ट हो जाएगा न?…

‘‘नहीं आंटी! वह अपने खेत की अदरक, लहसुन, आलू, प्याज सबकी खुश्बू-स्वाद सब पहचानता है। खरीद कर दोगी तो उसे वह किसी नाले में फेंक देगा़…’’

मैं अपना सिर थामकर बैठ जाती हूँ और पछताने लगती हूँ नाहक ही मैंने भावना के उस तोहफे को लिया था। मैं रोज की तरह शाम को टी-गार्डन की तरफ घूमने जा रही थी तो भग्गू जबरदस्ती अपने झोपड़े की तरफ मुझे खींचकर ले गयी थी-‘‘आंटी मेरे खेतों का थोड़ा लहसुन, अदरक लेते जाओ, हम गरीब आप को और क्या दे सकते हैं।’’ मैं भग्गू के प्यार और भावना पर नतमस्तक हो गई थी और खुशी-खुशी पोटली में बंधा लहसुन, अदरक लेकर घर आ गई थी। वाकई लाजवाब स्वाद और खुशबू थी दोनों चीजों की। ऑर्गनिक चीजें शहरों में कहाँ मिल पाती हैं।

इस छोटे से कस्बे में भग्गू मेरी बहुत प्यारी साथी बन गई थी। उम्र में भले ही वह मुझसे पच्चीस-छब्बीस साल छोटी थी परंतु इस छोटी सी अवधि में बन गई हमारी मित्रता में उम्र का फासला दिवार नहीं बना था। मैं रोज शाम को वहाँ की अलग-अलग पहाड़ियों पर वाक के लिए जाती तो भग्गू अपना सारा काम-धाम छोड़कर मेरे साथ चल देती थी और वहाँ का सारा इतिहास भूगोल मुझे बताती थी। वहाँ के भूतों, भूत जैसे इंसानों की कई रोचक कहानियाँ बताकर वह मेरा मनोरंजन करती थी। मैं जानती थी कि भग्गू का असली नाम भागीरथी है, जो उसे बहुत पुराना लगता है और नापसंद है। वह रोते हुये मुझे अपनी जिंदगी का वह दर्दनाक किस्सा हमारी मित्रता के शुरूआत में ही बता गई थी कि कैसे उसे जीवन में पहली बार एक टैक्सी ड्राइवर से बेइंतहा प्यार हो गया था और उसके प्रेम के चर्चों का हो-हल्ला इस छोटे से कस्बे में चारों तरफ फैल गया था। वह पिता के डर से घर से भागकर अपने प्रेमी से मिलने हल्द्वानी चली गई थी। उस फरेबी ने वहाँ उसे पहचानने से ही इंकार कर दिया था।

उसके पीछे-पीछे दौड़े आये उसके पिता, चाचा और बिरादरी के लोग उसका झोंटा पकड़कर उसे वापस ले आये थे। तब से भागीरथी लोगों के लिए भग्गू बन गई थी यानी भागी हुई।
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‘‘मै। इस उम्र में भी भग्गू के साथ हुए उस धोखे की कहानी सुनकर रो पड़ी थी। मैंने भग्गू को अपने सीने से लगा लिया था।

‘‘भावना! तुम एक बहादुर लड़की हो ऐसे लोगों का जवाब तुम्हें कुछ बनकर देना चाहिए़..’’

मैं जानती थी भग्गू एक बिंदास लड़की है। वह निडर थी। उस छोटी सी जगह में भी वह हमेशा पतलून और टाप-शर्ट पहनकर रहती थी।

‘‘आंटी! कहाँ से कुछ बनकर दिखाऊँ? कौन नौकरी देगा मुझे। यहाँ से बाहर निकल गई तो ये बुड्ढा-बुड्ढी की देखभाल कौन करेगा?…’’ वह अपने माँ-बाप की तरफ इशारा करती है़..

‘‘सुन बसंती सुन ले अपनी बेटी की बातें। कितनी फिक्र है उसे तुम लोगों की और तुम हो कि अपनी ही बेटी को पागल भगोड़ी और क्या क्या कहती हो़…’’

मैं भग्गू की माँ बसंती को उलाहना देती हूँ। गरीबी और बेचारगी शायद माँ-बेटी के मधुर रिश्ते का प्रेम खत्म कर देती है।

मैं साफ-साफ महसूस करती थी कि भग्गू तीस पैंतीस की उम्र तक भी जिस तरह पगलाई सी घूमती रहती थी। उसके लिए बसंती भी काफी हद तक जिम्मेदार थी। वह हरेक से कहती-‘‘भग्गू को दौरे पड़ते हैं। बहुत इलाज कराया है हमने इसका। इससे कौन शादी करेगा अब़…’’

तुम जब मां होकर अपनी बेटी के सिर पर हाथ रखने, उसे प्यार देने के बजाय उसे खुद बदनाम कर रही हो तो और लोग उसको कहां से इज्जत देंगे़…’’

मां-बेटी के बीच होने वाले भयंकर वाकयुद्ध जो कभी-कभी हाथापाई तक पहुंच जाते थे। उसकी मैं अनेकों बार की गवाह थी। भग्गू के घर से भाग जाने वाला किस्सा, मां-बेटी की लड़ाईयां, उसके पिता रूद्रदत्त की सनक के किस्से हर किसी की जबान पर चटखारे बनकर टपकते थे।

मुझे भग्गू पर बहुत तरस भी आता था और उससे इतना स्नेह हो गया था कि उसकी फिक्र भी होती थी।

खैर उस समय भग्गू टल गई थी उसे विश्वास हो गया था कि लहसुन, अदरक वापस करने की स्थिति में मैं वाकई नहीं हूँ। वह चुपचाप वापस चली गई थी। सारे घटनाक्रम से मेरा मूड भी बहुत खराब हो गया था। दोपहर में हमारी सोसाइटी का केयर टेकर मुझे बताने आता है कि-‘‘मैडम आप यहां के लोकल लोगों को इतना मुंह न लगाया करिये। आपको पता है? सुबह भग्गू सोसाइटी की लोहे की बाड़ फांदकर अंदर घुस आई थी। ऐसे तो कोई भी अंदर घुस सकता है। मैं तो मेन गेट सुबह आठ से पहले खोलता ही नहीं हूँ।’’
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मैं भौचक थी कि भग्गू रात भर कितनी परेशान रही होगी कि उसे पौ फटते ही इतनी ऊँची बाड़ फांदनी पड़ी।

रही सही कसर आलम ने शाम को दोबारा आकर बता दी थी- ‘‘मैडम भग्गू को आज उसके बाप ने लाठियों से पीटा है कि तू बाड़ फांदकर किससे मिलने गई थी़…’’

आलम भाई! तुम मेरे साथ चलो, मैं उसके बाप को सारी बात बताकर आती हूँ। इस तरह तो वह जालिम लड़की को पागल बना देगा़…’’

आलम साफ मना कर देता है-‘‘नहीं मैं इन पचड़ों में नहीं पड़ता। एक बार यदि उसने मुझे पहचान लिया तो वह रोज रात को दारू पीकर गेट के बाहर गाली गलौज करेगा। मै पहले से ही तीन चार नशेड़ियों की ऐसी हरकतों का शिकार हो चुका हूँ…’’

मुझे याद आता है दर रात तक कुछ लोगों की गाली-गलौज व हंगामा करने की आवाजें कभी-कभी ऊपर तक सुनाई पड़ती हैं।

मुझे उस समय अपने फेफड़ों में जहरीली हवा घुसती सी महसूस होती है। इस साफ सुथरी हवा के क्या फायदे यदि इंसानों का दिमाग साफ सुथरा न हो।

लगभग आधे घंटे के भीतर मैं भग्गू के झोपड़े के बाहर खड़ी थी।

‘‘भग्गू का बाप गायब था। बसंती भग्गू का सेक कर रही थी।
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‘‘भावना! तेरे अंदर हिम्मत नाम की कोई चीज नहीं है क्या? तेरा पिता है तो क्या इसीलिए तुझे लाठियों से पीटने का अधिकार मिल गया उसको? डरपोक! उसकी लाठी छीन कर दो डंडे उसी को नहीं लगा सकती थी तू?..’’

मैं भग्गू की हालत देखकर तैश में आ गई थी। बसंती मेरी तरफ हाथ जोड़ रही थी-‘‘मेम साब! आप चली जाओ यहां से। इसके बाप का आने का टाइम हो रहा है। मैं नहीं चाहती कि वो आपको भी अंट-शंट बके।’’

मुझे उसका कोई डर नहीं है। मैने बहुत देखे हैं ऐसे शराबी, जिनके अंदर हिम्मत नहीं होती वह दारू पीकर दुनिया को डराने की कोशिश करते हैं…’’

मैं पता कर चुकी थी कि भग्गू की झोपड़ी से कुछ दूरी पर जो लम्बी चौड़ी बंजर जमीन पड़ी थी वह भग्गू के बाप की पुश्तैनी जमीन थी, जिस पर उनके खानदान के कई लोगों ने अपनी हिस्सेदारी का दावा कर रखा था। वर्षों से कब्जे को लेकर मामला कोर्ट में चल रहा था। जमीन होते हुए भी खानदानी झगड़े के कारण रूद्रदत्त कंगाली का जीवन जी रहा था। वह न खुद कोई काम करता था और न बेटी और बीबी को कोई काम करने देता था। इस आस में उसने अपनी जिंदगी लुटा दी थी कि किसी दिन इस सारी-जमीन पर उसका कब्जा होगा और वह प्लाट बेचकर रातो रात करोड़पति बन जायेगा।

अब हर रात रूद्रदत्त दारू के नशे में मेरी सोसाइटी के बाहर आकर गालियां देता है कि दिल्ली वाली औरत ने मेरी बीबी और बेटी को बहका दिया है। अब उन्होंने मुझसे डरना बंद कर दिया है। वे दोनो हर बात में मुझे जवाब देती हैं, मारने जाता हूँ तो मेरा हाथ पकड़कर मुझे धक्का दे देती हैं…’’

अब सचमुच मुझे अपनी सांसों में ताजी साफ-सुथरी हवा आती जाती महसूस हो रही है। मैंने बसंती को हिम्मत देकर टी-गार्डन में चायपत्ती तोड़ने के काम में लगा दिया है जिसके उसे महीने में सात हजार मिलने लगे हैं। भग्गू के लिए मैंने टी-गार्डन के पास एक चाय की दुकान खोल दी है। आर्गनिक-टी की कड़क, खुश्बूदार चाय। दूर-दूर से सैलानी टी गार्डन से आर्गनिक चायपत्ती खरीदते थे परंतु उसके स्वाद की परख उनको घर जाने पर ही हो पाती थी। अब गार्डन घूमने आने वाले सैलानी ‘‘भावना टी कार्नर’’ पर गरमागरम आर्गनिक खुशबूदार स्वादिष्ट चाय का लुत्फ उठाते हैं। पतलून, शर्ट, शूज पहने चमचमाते कांच के गिलासों में तेजी से चाय छानती वह भग्गू से फिर भावना बन गई आत्मविश्वास से भर गई। इस लड़की को देखकर ताजी हवा का झोका अपने अंदर जाते महसूस करती हूँ।
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एम0 जोशी हिमानी
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प्रकाशित कृतियां-

उपन्यास-‘‘हंसा आयेगी जरूर’’
कहानी संग्रह-‘‘पिनड्राप साइलेंस’’
कविता संग्रह-‘‘कसक’’
प्रकाशनाधीन
कहानी संग्रह-‘‘ट्यूलिप के फूल’’

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