अनिम : कहानी

रघुवीर चंद

पूर्वी भूटान की गामरेचू घाटी में ब्रोक्पा याक काफिले पहुँचने का सिलसिला शुरू हो चुका है। अग्रिम पंक्ति में चल रहे याकों के झुण्ड रादी गाँव के अभी-अभी खाली हुए धान के खेतों में खड़े हैं। शरद की गुनगुनी धूप, बौद्ध मठों की चमकती सुनहली पीली छतों पर आ बैठा नीला आसमान और ब्रोगजौंगला चोटी से उतरती पूर्वी हवाएँ हरियाली में डूबी सार छोप धरती को सहला रही हैं। गामरेचू के बांये तट पर स्थित महिला भिक्षु मठ देखने की मेरी लालसा ने मुझे गत दो वर्षों से बेचैन किया हुआ है। त्राशीगोंग जोंग  के बौद्ध भिक्षु अपने दैनिक उत्तरदायित्वों को पूरा करने के बाद अक्सर सड़क पर टहलते मिल जाते थे। छोटी-छोटी उम्र में अपने घर संसार छोड़कर मठों में रह रहे इन बालमनों की उदासी उनके चेहरों पर झलकती मैंने देखी थी। महिला मठों में रह रही बौद्ध भिक्षुणियों को देखने का अवसर आज हाथ लगा था। मैं एक गेलोंग से मित्रता कर उसके साथ कांगलुग से निकल आया था। भूटान में प्रत्येक गाँव में पूजा-अर्चना के धार्मिक कार्यों को निभाने की जिम्मेदारियाँ इन गेलोंग पर होती हैं जो वैवाहिक जीवन के साथ गाँव में ही रहते हैं। गाँव छोड़कर पूरी जिन्दगी मठों में बिताने वाले भिक्षु जीवन की भीतरी परतें बहुत नम होती हैं। इनकी वैयक्तिक भावनाओं को कुरेदने का साहस जुटाकर मैं कई बार मठों में गया हूँ। मठों के धार्मिक परिवेश में डूबी इनकी गतिविधियों के बीच पूरी तसल्ली से किसी के साथ बातें नहीं हो सकती थीं। रांगजुंग मठ के पास बनी घुमावदार सड़क के साथ चोंगदी नदी पार करते हुए एक बार यहीं रुक जाने का मन हो आया था। यह बड़े अवतारी लामा का मठ है। प्रतिष्ठित एवं स्थापित लामाओं से मैं जब भी मिला, बौद्ध दिव्यता की आलोक छाया के भीतर गुजरने वाली दिनचर्या से बाहर अधिक नहीं जान सका। मैं किसी एकान्त में बने ऐसे मठ की तलाश में था जहाँ केवल मठ हो और भिक्षु। मैं रादी गियोग के समतल ढाल के इर्द-गिर्द बसे गाँवों के सौन्दर्य में उस मठ की तलाश करते फोंगमे की तरफ जाती सड़क पर आगे बढ़ गया। यह भूटान का उत्तर पूर्वी सीमान्त है। तिब्बत व तवांग की धरती का स्पर्श पाते हुए अचानक मेरी नजर कुछ प्रौढ़ महिलाओं पर टिक जाती है।

‘कुजु जाम्पो ला आमा’ कहते हुए मैंने लगभग 50 वर्षीया एक महिला डेचेन को रोक लिया है। भूटान में कुजुजाम्पो आदर सूचक सम्बोधन है। वह जितेनशेन पढ़कर लौट रही है। हाथ में कुछ किताबें हैं। जितेनशेन का अर्थ है प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम। अपनी पाठ्य पुस्तकें दिखाते हुए वह कहती है कि वह जौंखा पढ़ना सीख रही है। अपने हस्ताक्षरों से भरे पृष्ठ मुझे दिखाने लगती है। उसने जानवरों और घरों के चित्र भी बनाये हैं। इसी बीच कर्मा आ पहुँचती है वह कहती है हम 31 महिलाएँ पढ़ना सीख रही हैं। समय की कमी बताते हुए गेलोंग रिनचिन मुझे आगे बढ़ने का इशारा करता है। मेरे मन में बसी बौद्ध मठों में रह रहे बाल भिक्षुओं की उदासी टूटती है और मैं डेचेन के हस्ताक्षरों की ऊष्मा पाकर आगे बढ़ जाता हूँ। नीले चीड़ के गहरे जंगल चीरते हुए हम आगे बढ़े। कहीं-कहीं बांस की छतों वाले घर और उनके नजदीक एक खूंटे पर लम्बी रस्सी बाँधकर चराने छोड़ दी गयी गायें हैं। एक लम्बे मोड़ को पार करते ही हमारी नजर के ठीक सामने महिला मठ की चमकती पीली छत है। गेलोंग रिनचिन ने मुझे बताया कि हम इसी मठ में जायेंगे। यह गामरेचू के बाँये तट पर एक बड़े परिसर में बसाया गया साफ-सुथरा मठ है। मठ की पृष्ठभूमि में एक समतल ऊँचा सपाट पहाड़ है जिसका सिर काटकर तिब्बत ले जाने की कहानियाँ जनमानस में प्रचलित हैं। यह पूरा क्षेत्र ऐसे ही रहस्य रोमांच व मिथकों से भरा है। सड़क से मठ में जाने के लिए प्रवेश द्वार और साफ-सुथरी सीढ़ियाँ हैं। मठ के आंगन में बिछाये गये पटाल, आंगन के एक छोर पर धूप जलाने के निमित्त बना चबूतरा, आंगन के बीच में लहराता पूजा ध्वज और चोर्टन की लम्बी शुभ्र सफेद कतारों के बीच हमने प्रवेश किया। मठ के द्वार खिड़कियों व छतों की भूटानी नक्काशी देखते बनती थी। मठ में गहरी शान्ति थी। गेलोंग रिनचिन मुझे यहीं रुकने का इशारा कर भीतर गया और कुछ ही देर में मठ के बड़े लामा के साथ बाहर आया। लामा मेरी तरफ देखकर रिनचिन से कुछ प्रश्न पूछते हैं। मेरे कैमरे ने उन्हें असहज कर दिया था। और मेरे हाथ में डायरी उन्हें अधिक संशय में डाल गयी। ‘कुजुजाम्पो ला’ आदर भाव से झुकते हुए मैंने उनके समीप जाकर कहा ‘लोपेन ला कांगलुंग ला’ कांगलुंग का शिक्षक हूँ। ईं ईं…. कहते हुए लामा ने लम्बी साँस ली। जोंखा में मेरा पूरा मन्तव्य रिनचिन उन्हें समझा चुका था।  मठ के दूसरे छोर पर बनी रसोई से धुँआ निकल रहा था, वहाँ कुछ भिक्षुणियाँ भोजन बना रही थीं। रसोई की दूसरी तरफ दो भिक्षुणियाँ हरी सब्जी बीनने में व्यस्त थीं। उनको बुलाने का आग्रह कर लामा ने हमारे बैठने की व्यवस्था की। मैं भिक्षुणियों के साथ आँगन में बैठकर लम्बी बातें करना चाहता था और लामा की अनुमति पाकर मैंने रिनचिन को दोभाषिये की जिम्मेदारी दी। काफी समय तक रिनचिन उन्हें समझाता रहा और उसकी उदास आँखों से मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि यह पीड़ा कुरेदकर मैंने शायद अच्छा नहीं किया।
(Story Anim by Raghubir Chand)

इन दोनों भिक्षुणियों की उम्र 15-से 20 के भीतर थी। दोनों के हृदय संसार में मच रही हलचल उन्हें बहुत देरी से तैयार कर सकी।  माई नेम इज बागमो सर! छोटी उम्र वाली भिक्षुणी अचानक मुखातिब हुई। मैं चौंका, वह साफ अंग्रेजी बोल रही थी। सामान्यत: बौद्ध मठों में जौंखा  पढ़ाई जाती है और अंग्रेजी में बोलने वाले भिक्षु या तो विदेशों में स्थित मठों में पढ़कर लौटे होते हैं या फिर थिम्फू, पारो के नजदीक किसी मठ से। आई हैव स्टेडीज अप टू क्लास टेन सर! फ्रॉम सैम्द्रुप जौंखर हाईस्कूल, उसने कहना शुरू किया। मैं उससे सीधे अंग्रेजी में बात करता रहा। यद्यपि कुछ प्रश्नों के उत्तर देने से पूर्व वह रिनचिन से कुछ पूछकर उत्तर देती। सैम्द्रुप जोंखर पूर्वी भूटान का प्रवेश द्वार है उसकी अरुणांचल सीमा पर लगे सिंखर लौरी क्षेत्र के सुदूरवर्ती एक गाँव में इसका जन्म हुआ। पिता की सरकारी नौकरी लगते ही परिवार सैम्द्रुप जौंखर आकर रहने लगा था और परिवार सुख-पूर्वक जीवन यापन करने लगा। वांगमो पाँच-भाई बहनों में सबसे बड़ी थी और प्रतिभाशाली भी। वह अव्वल दर्जे में पास होती रही और साथ में अपने छोटे भाई-बहनों की देखरेख भी करती रही। उसके पिता भूटान के कस्टम विभाग में इन्सपेक्टर पद पर रहते सदैव व्यस्त रहते। वह स्कूल से घर आकर माँ के काम में हाथ बँटाती और खेती के दिनों माँ के साथ अक्सर गाँव जाती थी। पाँच परिवारों का छोटा-सा गाँव वांगमो की प्रतीक्षा करता। उसके पड़ोस में रहने वाले सभी बच्चे वांगमो को घेर लेते और उसके स्कूल की हर बात उससे पूछते। वह सबको खूब पढ़ने की सलाह देती परन्तु गाँव से प्रायमरी स्कूल भी 15 मील की दूरी पर था। वांगमो जब तक गाँव में रहती, बच्चे उसे घेरे रहते और उससे कहानियाँ सुनते। वांगमो सभी बच्चों के साथ खेलती। उसका सबसे छोटा भाई  किनले सदैव वांगमो की पीठ पर होता। अपने परिवार में भी सभी भाई-बहनों की जिम्मेदारी सम्भालते हुए वांगमो सदैव अपनी उम्र से आगे रही। खेल-कूद की तरफ वांगमो की रुचि देखकर उसके पिता ने उसे प्रेरित किया। क्षेत्रीय खेलकूद प्रतियोगिताओं में उसे पुरस्कार मिलते। हाईस्कूल की परीक्षा की तैयारियों के दिन नजदीक आने लगे और वांगमो अपने अतीत के इस दुखद पृष्ठ पर पहुँचकर गम्भीर हो गई। मठ की छत पर बैठे कबूतरों का एक बड़ा झुण्ड जो अभी तक गुटरगूँ की लय में मग्न था अचानक किसी अनजान खतरे की भनक पाकर उड़ने लगा और गामरेचू पार करते हुए कहीं किसी वीरान चट्टानी खोह में जा बैठा। इधर वांगमो की जिन्दगी में भी मानो किसी अनजान खतरे ने दस्तक दी। वह सिरदर्द से परेशान होनी लगी। शुरूआती दिनों में स्वयं उसे यह बोर्ड परीक्षा का दबाव लगता। कुछ देर तक तीव्र दर्द से छटपटाने के बाद वह सामान्य हो जाती। अब वह हॉस्टल में रहती थी। भूटान में सभी स्कूलों में आवासीय व्यवस्था है। घर के पास हाईस्कूल होते हुए भी हॉस्टल में रहना अनिवार्य था। छात्रावास की व्यवस्था के बीच वरिष्ठ छात्र-छात्राओं को जिम्मेदारियाँ मिलतीं। वांगमो के पास सदैव प्रार्थना सभा आयोजित करने, सांस्कृतिक कार्यक्रमों की तैयारियां करवाने के साथ-साथ खेलकूदों में भाग लेने का दबाव तो था ही। उसे याद है अपने साथ बैठी दूसरी भिक्षुणी को मुखातिब होकर वह कहने लगी कि लोकनृत्यों के अभ्यास के बीच एक दिन वह बेहोश होकर गिर पड़ी थी। छात्राओं ने उसे सम्भाल लिया था। पूरी रात वह सिर दर्द से छटपटाती रही। पसीने से तर उसे बेहोशी के झोंके आते रहे। अगली सुबह से वह यथावत दैनिक कार्यक्रमों के साथ कक्षाओं में जाती रही।

परीक्षा नजदीक थी, इस बीच अपनी पढ़ाई में व्यस्त रहने के कारण सिरदर्द होता भी तो इसे गम्भीरता से लेने की उसे फुर्सत नहीं मिली। किसी तरह परीक्षा पूर्ण हुई। कई रातें सिरदर्द से छटपटाते बीती थीं। वांग्मो ने न अपने अध्यापकों को और न घर पर ही अपनी बीमारी के बारे में बताया। परीक्षा पूर्ण कर वह घर लौटी। सिर दर्द बढ़ता गया। वांग्मो की माँ उसे अस्पताल दिखाने ले गयी परन्तु डाक्टरों ने कुछ हल्की-फुल्की दवाएँ देकर इसे सामान्य सिरदर्द करार दिया। इन दवाओं से कुछ दिन राहत मिली, किन्तु दोबारा सिर दर्द होने पर उन्हीं दवाओं के सेवन से फिर तात्कालिक राहत मिल जाती थी। इसी ऊहापोह में छुट्टियाँ बीत गयीं। परीक्षाफल आया और वांगमो उत्तीर्ण हुई परन्तु अच्छे अंक न आने का मलाल बना रहा। तथापि पूर्वी भूटान के खालिंग इण्टरमीडिएट कालेज में उसे ग्यारहवीं में प्रवेश मिल ही गया। भूटान में दसवीं उत्तीर्ण होने के बाद सभी छात्रों को अगली कक्षाओं में प्रवेश नहीं मिल पाता है परन्तु सरकार उन्हें सरकारी नौकरी में ले लेती है।
(Story Anim by Raghubir Chand)

वांगमो के लिए नया स्कूल, नये साथी और नया संसार, वह असीम उत्साह के साथ अपने भविष्य की कल्पनाओं में खो जाती थी। उसके भीतर एक डाक्टर बनने की चाहत पनपने लगी थी। जब भी सिरदर्द होता वह दबाते रहती। पढ़ाई का बोझ भी बढ़ गया था और अन्य गतिविधियाँ भी हाईस्कूल की तुलना में अधिक थीं। उसके पास न दवा थी, न स्कूल के नजदीक अस्पताल। किसी तरह महीने भर का समय बिना अतिरिक्त परेशानी के निकल गया था। वह गहरी काली रात उसे याद है जब वह भोजन कर लौटते हुए गिर पड़ी थी और बेहोशी की स्थिति में पूरी रात पड़ी रही। सुबह होते ही उसे ताशीगोंग अस्पताल ले जाया गया। अस्पताल में उसे होश आया परन्तु डाक्टरों की सलाह पर उसे थिम्पू भेजने की व्यवस्था होने लगी। उसके घर सूचना दी गयी और उसकी आमा और अप्पा उसे थिम्पू ले गये। महीने भर तक थिम्पू के अस्पताल में वह भर्ती रही। अन्तत: उसे दिल्ली भेजने की व्यवस्था भूटान सरकार ने की। दिल्ली के किसी बड़े अस्पताल में हर प्रकार के परीक्षण किये गये परन्तु डाक्टरों की पकड़ से बीमारी बाहर रही। एक महीने बाद वह घर लौटी। घर आते ही उसको अन्य तकलीफें घेरने लगीं, जैसे भोजन के प्रति अनिच्छा, उदासी एवं एकान्त में बैठे रहने की प्रवृत्तियों से उसके परिजन अधिक सशंकित रहने लगे थे।

अब लामा गुरुओं को दिखाने का मन बनना स्वाभाविक था। भूटान के दूर पूर्वी छोर पर एक पहाड़ की ऊँचाई पर बने गोनपा में बड़े सिद्ध लामा रहते हैं। पड़ोस में रहने वाले एक बुजुर्ग ने वांग्मो को उस लामा को दिखाने का सुझाव दिया। बसासतों से दूर इस पर्वत शिखर पर कई गोनपा बने थे जहाँ वृद्धावस्था में ध्यान लगाने वृद्धजन बाँस की झोपड़ियाँ बनाकर रहने लगते हैं। एक बड़े लामा के कई वर्षों से यहाँ रहने के कारण इस स्थल का धार्मिक महत्व भी स्थापित हो चुका था। वाग्मो अपने परिवार के साथ उस लामा के गोनपा पहुँची। लामा पूजा में लीन थे। पूजा पूर्ण कर लामा के सम्मुख वांग्मो को प्रस्तुत किया गया। वांग्मो को देखते ही लामा बोल पड़े इसे धर्म की शरण में भेज दो। इसके सारे दुख स्वयं दूर हो जायेंगे। इसे किसी दुरात्मा की छाया ने आ घेरा है। इसका निवारण तभी होगा जब यह नित्य प्रार्थना करते हुए पूरा दिन ध्यान में व्यतीत करे। लामा के आदेशों का पालन किस रूप में हो यह सब विस्तार में जाने बगैर वाग्मो का परिवार घर लौट आया।

अब वांग्मो को लेकर परिवारजनों के मन अनिश्चित, अस्थिर एवं संशय से भरने लगे थे। स्वयं वांग्मो के मन से स्कूल का आकर्षण अभी विद्यमान था। दुरात्मा की छाया निकालने के लोक जीवन में प्रचलित सभी प्रयास पूरे किये गये। वांग्मो की तबियत दिन-प्रतिदिन गिरने लगी थी। इस बीच वह एकान्तमुखी होने लगी थी। उसको गुमसुम बैठा देख वांग्मो की माँ दिन-रात रोती रहती। इधर वांग्मो की साथी भिक्षुणी की आँखों में अश्रुधारा थी। यह सब देखना स्वयं मेरे लिए भी किसी अपराध बोध से कम नहीं था। किसी घाव का खुला दर्द सहलाने से घाव भरता नहीं। वांग्मो मानो दर्द पीना सीख चुकी थी। उसने आगे बताना शुरू किया। कई बार उसे लगता कि घर में बैठे दर्द बढ़ता जायेगा। शायद स्कूल वापस लौटकर कुछ राहत मिले। वाग्मो की जिद पर उसे स्कूल भेजने की तैयारियाँ होने लगी परन्तु तीन माह की अनुपस्थिति के बाद स्कूल ने अगले वर्ष आने की सलाह दे डाली थी।
(Story Anim by Raghubir Chand)

नमो: नारायण! एक हिन्दू माई ने आकर एक दिन दरवाजे पर दस्तक दी। दारंगा बाजार के भीतरी गाँव में एक हिन्दू परिसर में रह रही हिन्दू भिक्षुणियों का एक दल घर के आँगन में आ बिराजा था। वांगमो की माँ ने उन्हें भिक्षा दी। उसकी उदास आँखें छलक आयी थीं। माई मेरी बेटी बीमार है, बहुत इलाज किया कोई असर नहीं हुआ। माई ने वांग्मो को देखकर सलाह दी। इसे लेकर हमारे मन्दिर में आओ। हमारी बड़ी माई इसे ठीक कर देंगी। अगले ही दिन सुबह वांग्मो अपनी माँ के साथ हिन्दू मन्दिर पहुँच गयी। बड़ी माई ने वांग्मो की आँखों में झाँकते हुए कहना शुरू किया, पिछले जन्म में तुझसे पाप हुआ है। तुमने अपने धर्म का अपमान किया है, उसी की सजा मिल रही है। घर स्कूल एवं अपने पास पड़ोस की चहेती वांग्मो को यह सर्वथा अस्वीकार था। उसका साफ हृदय इस जन्म के लिए पूरी गवाही देता था परन्तु पिछले जन्म की बातों पर वह कोई टिप्पणी करने में असमर्थ थी। वांग्मो की माँ पुनर्जन्म की संस्कृति में पली-बढ़ी बौद्ध महिला थी। उसने कबूलते हुए लाचारी की अवस्था में पूछ ही डाला, तो माई हम क्या करेगा? कोई रास्ता तो होगा। माई ने बिना समय लिये कह डाला इसे अनिम बनना होगा। अनिम का जौंखा में अर्थ है बौद्ध भिक्षुणी। वांग्मो अवाक थी और माँ बेजान। अपने को सम्भालकर वांग्मो की माँ ने फिर पूछा क्या कोई दूसरा रास्ता नहीं? नहीं, यही एक रास्ता बचा है। तो क्या अनिम होकर यह ठीक हो जायेगी? हाँ, एकदम ठीक। नहीं तो इसे भारी कष्ट उठाने पड़ेगे। अधिक पूछने के लिए नहीं बचा जानकर माँ वांग्मो की तरफ देखने लगी। वांग्मो की कोई प्रतिक्रिया नहीं थी। वापसी की राह में घर पहुँचने तक दोनों चुप एवं अनिश्चित मन रहे। दोनों के लिए यह बड़ा आघात था। किसी समाधान तक पहुँचने की दिशा में जीवन की राह इतनी बदल जायेगी यह उम्मीद दोनों को नहीं थी। घर आकर बड़ी हिम्मत से वांग्मो के पिता के सम्मुख यह सब रखते हुए पूरा परिवार रो पड़ा था। छोटे भाई-बहनों को भी यह सर्वथा अस्वीकार था। परन्तु पिछले जन्म के पापों से छुटकारा यदि इसी तरह मिलना तय है तो धीरे-धीरे परिवार ने मन बाँध ही लिया। अब मैं यहाँ हूँ (Now I am here Sir) कहते हुए वांग्मो उठने लगी। मैंने साहस कर पूछ ही लिया तो क्या दर्द अब ठीक है? नहीं दर्द बना रहता है। जब तक प्रायश्चित पूरा नहीं होगा दर्द बना रहेगा कहते हुए वांग्मो उठने लगी। शाम ढलने को थी। सूरज की किरणें पेड़ों की शिखाओं में जा पहुँची थीर्। चिंका (भूटानी छोटे कौवे) मठ की छत पर वापस लौटने लगे थे। मठ की शेष भिक्षुणी सायंकालीन पूजा की तैयारी में व्यस्त होने लगी थीं। वांग्मो की पूरी कहानी सुनकर मन बोझिल हो चला था। मेरे साथी गेलोंग रिनचिन के लिए यह सामान्य घटना थी। वांग्मो को जौंखा में समझाते हुए उसने शायद ढाढस ही बँधाया होगा, मैं निरुत्तर था। विगत का दंश परछाई बना अनिम वांग्मो के साथ कब तक चलता रहेगा यह न मठ न मंदिर अभी तक समझा सका था।
(Story Anim by Raghubir Chand)

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