कहानी : अंधकार के उत्स से

 जया मित्रा

”नाम?”
”शान्तबाला कुईला।”
”पति का नाम?”
शान्तबाला चुप रही। सामने वाला व्यक्ति भी छोड़ने वाला नहीं था। उसने फिर पूछा, ”बोल, बोल, चुप रहने से काम नहीं चलेगा। यह सरकारी काम है, कानून के मुताबिक चलना पड़ता है। क्या नाम है पति का?”
”हरिधन कुईला।”
”साफ-साफ, जरा जोर से कह।”
इस बार शान्तबाला ने सिर उठाकर उस आदमी की आँखों में देखा, फिर बोली, ”हरिधन कुईला।”

”साकिन?” अब इस तरह के शब्दों का अर्थ शान्तबाला जान गयी है। पहले-पहल तो उसकी समझ में कुछ भी नहीं आता था। इतने सारे बाहरी लोगों के बीच, उनकी बातें, उनके सवाल, वह बौखला जाती थी। बस उसकी आँखों में आँसू आ जाते। इसके अलावा वह अब तक रोने के अलावा करती ही क्या रही है? पिता जब उसकी शादी तय कर आये, माँ बोली थी, ”मेरी सन्तानों में सबसे आखिरी इतनी छोटी-सी लड़की के लिए तुम उसकी बाप की उम्र के दुहाजू लड़के से उसका रिश्ता तय कर आये?”

पिता ने कंधे पर रखे अंगोछे से अपने भीगे हाथ-पैर पोंछते हुए कहा था, ”मुट्ठीभर रुपये भी तो दे रहा है। इसके अलावा लड़की के हाथ और गले के लिए सोने के जेवर भी। क्या मेरी क्षमता किसन भगवान जैसे दूल्हे के दहेज की माँग पूरी करने की है?”

दीवार के उस पार बैठकर पान लगाती हुई जड़ होने से पहले ही उसे माँ का गला सुनाई पड़ा, ”इतनी दूर शादी तय कर आये हो, अब किसी दिन उसे शायद देख नहीं पाऊंगी। रेलगाड़ी से देख आने की बात तो सम्भव ही नहीं है। मेरी गुड़िया जैसी बेटी उसके हाथों में कैसी रहेगी, यह पता ही नहीं चलेगा।”

इस बार पिता खीझकर बोले, ”तब फिर जाओ, अपनी दुलारी बिटिया को गोद में लेकर बैठी रहो। बेटी जब बैठी-बैठी पेड़ समान हो जाएगी तब कोई राजपुत्र घोड़े पर चढ़कर तुम्हारी बेटी को ले जायेगा।”

”नहीं, नहीं, मैंने ऐसा तो नहीं कहा। इतनी कम उम्र है उसकी- इसलिए थोड़ी चिन्ता होती है। मेरी बिटिया इतनी शान्त और सीधी है, कितना ही मारो-पीटो, ‘आह’तक नहीं करती। इसलिए चिन्ता होती है कि इतनी ज्यादा उम्र के जवान आदमी के साथ इतनी कच्ची उम्र की बेटी घरबार कर पाएगी? खैर, उसकी तकदीर में जो होना है, होगा।”

”हमारे-तुम्हारे चिन्ता करने से क्या फायदा!” इस बार पिता का स्वर भी भर आया था, समझाने के अन्दाज में बोले, ”ये सारी बातें क्या मैंने नहीं सोची थीं? लेकिन करेगी क्या, लड़की की जात, मोह बढ़ाना ठीक नहीं। बिटिया को गोद में लेकर मेरी माँ, वह एक बात कहती थी न कि लड़की की जात को तू यमराज को दे या दामाद को, वह हाथ से तो निकल ही जाएगी।”

उस समय डर से छिपकर रोने के अलावा शान्त के हाथ में था भी क्या! शादी के बाद जब उसने उस यम या माता-पिता के पसन्द किए दामाद को देखा, तभी से उसका बायाँ हाथ आँसू पोंछने के लिए अधिकतर समय साड़ी के आँचल में ही छिपा रहता था। वह बड़ी तकलीफ से अपने दिन बिताती थी। इस तरह एक-दो साल नहीं, पूरे तेरह साल बीते थे। नौ बच्चे भी हुए थे। पाँच बच्चे मरने के बाद भी चार जीवित थे। शादी के बाद पहली बार अपने बिस्तर पर उतने बड़े आदमी को देखकर वह तो डर से अधमरी हो गयी थी। फिर वह तकलीफ भी कैसी, बिस्तर की चादर खून से लाल हो गयी थी। उस वक्त भी वह आँसू बहाते हुए बार-बार विनती कर रही थी, ”मुझे छोड़ दो जी, तुम्हारे पैरों में पड़ती हूँ, मुझे छोड़ दो।”

हरिधन कुईला ने उसे छोड़ दिया था? उसके दोनों गालों पर कसकर थप्पड़ नहीं मारे थे? उसका बाँया हाथ पीठ की ओर मरोड़ नहीं दिया था? सोने की चूड़ियाँ पहनाकर जिस हाथ का मालिकाना उसने हासिल किया था। तेरह साल की उम्र में जब उसका पहला बच्चा हुआ तो उसे लगा जैसे वह उसके शरीर को फाड़कर बाहर निकला हो। उसे जरा भी प्यार नहीं था उससे। डर और शर्म से उसकी अपने बच्चे को देखने की इच्छा नहीं करती थी। अपने ही माँ-बाप ने पता नहीं क्यों जान-बूझकर उसे  इतने कष्ट में ढकेल दिया। एक ऐसे घर में जहाँ उसकी रक्षा करने वाला कोई नहीं था, न सास न अन्य कोई ननद या फिर देवर। अगल-बगल के पड़ोसियों से उसे पता चला हरिधन की पहले वाली औरत दो बार घर से भाग चुकी थी, आखिरकार उसने अपनी जान ही दे दी। पानी भरकर लाते वक्त शान्तबाला को तरह-तरह की बोली बातें सुनने को मिलतीं।
(Story Andhkar Ke Uts Se)

”इस चाण्डाल की इच्छा पूरी कर पाएगी यह छोटी-सी लड़की?”  
”इसकी माँ भी कैसी है कि उसने इसे शेर की माँद में डाल दिया।”

उससे कभी किसी ने सीधे-सीधे कुछ नहीं कहा। पहला बेटा चार माह का होने के बाद मर गया, उसके दो महीने बाद ही शान्त समझ गयी कि वह फिर माँ बनने वाली थी। उसकी कितनी ही बार इच्छा होती कि वह कुएँ में छलाँग लगा ले। कितनी ही बार मन करता कि गाय के बाड़े की धरन से वह फाँसी लगाकर लटक जाए। उस बाड़े में तो उसने कितनी बार रात बितायी थी। अपने बच्चे को लेकर सौरी में रहने के दौरान उसने किसी दूसरी औरत को पति के कमरे में घुसते देखा था। कचि जब गोद में थी, जब वह पूरी तरह चंगी नहीं हुई थी, उस दौरान भी वह औरत आती थी। अंधेरा होने पर वह लोगों की नजरें बचाती हुई आती और झट से, कमरे में घुसकर दरवाजा बन्द कर देती, फिर अंधेरे में ही निकलकर फटाफट गायब हो जाती। उसका पति रातों में उसे धक्के मारकर कमरे से बाहर निकाल देता। पहले कई बार अपने बच्चे को कथरी में लपेटकर, फिर बाद में अकेली ही वह ग्वाल घर के एक कोने में शरण लेती, कम से कम वहाँ कुछ साँस लेने वाले प्राणी तो होते। उनकी हरकतें होती रहतीं। कभी-कभी उसे लगता कि ऐसे मर्द के पास जाने से बेहतर होता कि कोई गाय-बैल अंधेरे में उसके सीने या पेट पर लात मारकर उसे खत्म ही कर दे।

शुरू के दो-तीन सालों में उसे ऐसा ही महसूस होता रहा, बाद में उसने सोचना बन्द कर दिया था। शान्त समझ गयी थी कि अब उसका जीवन ऐसे ही चलेगा। उसने अपने जीवन के बारे में कुछ भी सोचना बन्द कर दिया था। साल-दर-साल रात के आतंक ने उसके दिनों को भी अजीब अन्धेरेपन से भर दिया था। इसलिए उसे अब अलग से किसी किस्म का डर नहीं लगता था, चाहे वह लात मारकर भात की हाँडी उलटने का हो या आँगन की खूँटी से बाँधकर गाय बाँधने वाली मोटी रस्सी से पीटने का ही हो। उसने एक के बाद एक गर्भधारण किया था, एक के बाद एक शिशु जन्म की घड़ियों को पार किया था, उनकी मौतों को सहा था। शान्तबाला को अच्छी तरह याद है कि उसने कितने वर्षों तक सीने में नहीं बल्कि पेट में एक के बाद एक बच्चों का भार सहन किया था। या कि कहा जाए जीवनभर वह ऐसा ही करती रही। धान उबालते समय, महिन्दर को भात की थाली परोसते समय, गोशाले में शाम की दिया-बाती करते समय वह अपने गर्भ के बोझ को लेकर काम करती। कमर और जाँघें दर्द से बोझिल रहती थीं। जाने कितने युग पार करने के बाद वह पचीस की हुई थी। तब तक वह पड़ोसिनों से दो-चार बातें कहने की स्थिति में आ चुकी थी, मगर तब उसे वक्त ही नहीं मिलता था। अब वह पानी लाने नहीं जाती थी। यह काम उसकी बड़ी बेटी यामिनी करती थी। शायद कभी-कभार ही उसके घर में आकर कोई उससे बात करता था। वे सब दिन कब के बीत चुके थे, जब रोहिणी अँधेरे में छिपकर आती और शान्त के पति के साथ कमरे का दरवाजा बन्द कर लेती। फिर एक पहर बाद तेजी से निकलकर अँधेरे में गायब हो जाती। अब हरिधन कुईला की गैरमौजूदगी में भी वह आती थी। दिन के ही वक्त आती। शान्त के पास बैठकर दुख-सुख की बातें करती। रोहिणी के न बाल-बच्चे थे न घरबार। उसकी शादी कब हुई थी उसे अब ठीक से याद भी नहीं। वह पन्द्रह साल की उम्र में विधवा हो गयी थी। उसका जवान मर्द साँप के काटे का शिकार हो गया था। रोना-पीटना खत्म होने के बाद भी वह अपनी ससुराल में ही पड़ी रही। दिनभर के कामकाज के बाद थककर रात में रोहिणी गहरी नींद में सो जाती। सोलह साल की उम्र में रात में पानी के लिए बाहर जाने पर एक दिन उसके जेठ ने उसे आँगन के कोने में चाँप लिया था। वह अपने छोटे भाई की पत्नी के रूप का प्यासा हो गया था। उसने धमकी दी कि मुँह खोलने पर उसे घर से निकाल दिया जायेगा। रोहिणी बेहद डर गयी थी मगर उसे बुरा नहीं लगा था, यह भी सच है। इसी तरह से गाड़ी चल रही थी। सास को गहरी नींद में पाकर वह किवाड़ खोलकर कमरे से बाहर आँगन में आ जाती। इसके बावजूद उसमें गर्भ के लक्षण दिखते ही उसे घर से निकाल दिया गया। कहीं दूर जाने की न कोई जगह थी न उसे साहस ही था। उसने जेठ और सास के पैर भी पकड़े। जेठ लात मारकर अपना पैर छुड़ाते हुए बोला, ”भ्रष्ट औरत कहीं की। अब गंज के बाजार में जाकर कहीं कमरा लेकर रह।” अपनी घर-गृहस्थी और खानदान की बदनामी के गुस्से में अधीर होकर वह आँगन में निकल आया था। इसके बावजूद सास ने ही उसे रहने दिया, मगर अपने घर में नहीं, अपनी जमीन के किनारे एक अलग कमरा बना दिया। वह जमीन सास के पिता ने उसे दी थी। रोहिणी नाऊन के पास से दवा लेकर खलास हो गयी। उनकी सास ने ही बड़ी नातिनी से दो दिनों तक उसके पीने के लिए कलसा भर पानी भेज दिया। स्वस्थ हो जाने के बाद घर के बाहर का कामकाज रोहिणी निपटाने लगी। पहाड़ समान कुट्टी काटना, गोशाला लीपना, बाल्टी-बाल्टी पानी खींचना, क्षार की सफाई आदि काम। मगर उतनी मेहनत के बाद भी वह उस कमरे से भी वंचित हो गयी। जेठ ने इतने दिनों तक ब्याह नहीं किया था, इधर-उधर कीर्तन वगैरह गाने के सिलसिले में घूमता रहता था। माँ की मृत्यु से पहले जिद करके रो-धोकर उसने शादी कर ली। लेकिन उसके पहले उसने अपने मकान की सीमा से रोहिणी को बाहर खदेड़ दिया।

रोहिणी लोगों के घरों में जाकर उनका बाहरी काम करके अपना पेट पालती थी। उसका सबसे बड़ा गुण था कि वह गर्भिणी या हाल ही में बच्चा जनने वाली औरतों की मालिश में बेहद निपुण थी। उसे बुलाना नहीं पड़ता था, पता चलने पर वह खुद ही हाजिर हो जाती थी। सेंक करके, मालिश करके- माँ और शिशु दोनों को ही तेल में मलकर उन्हें ताकतवर बनाकर चली जाती थी। मगर रात-बिरात में वह दूसरे काम से भी जाती थी, अभी भी आती है। दो-चार कुछ खास लोगों के बुलाने पर। आखिर यह उसकी भी भूख थी। उसमें आक्रोश भी था। अगर समाज ने उसके घर-बार, जीवन के बारे में नहीं सोचा तो उसे किसी से डरने की क्या जरूरत थी?

मगर हरिधन कुईला की औरत से उसे न जाने क्यों मोह हो गया था। उसकी सन्तान जीवित होती तो इतनी ही बड़ी होती। शायद ऐसा न होता। फिर भी शान्तबाला का चेहरा, उसका ऊँचा जूड़ा, गालों की थोड़ी उभरी हड्डियाँ और गाय की आँखों जैसी काली बड़ी-बड़ी आँखें देखकर रोहिणी को मन ही मन एक विचित्र किस्म की तकलीफ होती। यह लड़की उस जैसे राक्षस का कितना अत्याचार सह रही थी। इसी को समाज के लोग पति सेवा कहते हैं, जो औरतों का पवित्र धर्म है। ऐसे धर्म के मुँह पर झाड़ू मारो।
(Story Andhkar Ke Uts Se)

मगर शान्त अब ये सब बातें सोचती ही नहीं। उसे सिर्फ अपनी दोनों लड़कियों की चिन्ता रहती थी। अपने बेटों के बारे में उतनी चिन्तित नहीं रहती थी। वे जैसे भी हों अपने लिए कुछ उपार्जन कर ही लेंगे। उनके बाप का भी इतना सामर्थ्य था। लेकिन यामिनी-कामिनी? उनकी तो शादियाँ होंगी। जाने कहाँ, कितनी दूर हो! उसके जैसे इतनी दूर? जहाँ से चौबीस सालों में वह सिर्फ एक बार अपने मायके जा सकी थी, अपने पिता की मौत पर, सिर्फ दो दिनों के लिए। वह तो लड़की की जात थी, चतुर्थी में श्राद्ध करके अशौच खत्म न करने पर उसकी ससुराल में खाना कौन पकाएगा? पति सेवा कौन करेगी? एक बात उसने मन ही मन ठान रखी थी कि जैसे भी हो अपनी बेटियों को लिखना-पढ़ना जरूर सिखाएगी। जितना सीखने पर कम से कम माँ को एक चिट्ठी लिख सके। उसने इतने सालों तक थोड़ा-थोड़ा करके लक्ष्मी की पिटारी में थोड़े रुपये जमा कर रखे थे। अब तो गाँव में ही प्राइमरी स्कूल खुल चुका था। शहर से बस से एक अध्यापिका पढ़ाने आती थीं। मगर यह काम बेटियों के पिता से छिपाकर करना पड़ेगा। कम से कम प्रारम्भ में। उसके बाद पता चल भी जाए तो क्या वह उन्हें स्कूल से छुड़ा लेगा। लेकिन अपनी कल्पना को फलते देखने का समय ही कहाँ मिला शान्त को? उसके पहले ही यामिनी का पिता शान्त से भी बड़ी उम्र के एक गुण्डे किस्म के आदमी को एक दिन घर ले आया। चबूतरे पर आसन बिछाकर उसकी खातिरदारी की। शान्त को बुलाकर उसे नाश्ता देने के लिए कहा। इसके बाद उस आदमी के चले जाने के बाद चबूतरे पर बैठकर परम सन्तोष से हँसते हुए बोला, ”यामिनी की शादी मैंने तय कर दी है।”

”क्या कहा?” क्षण भर में शान्त के सामने जैसी पूरी दुनिया घूम उठी और उसकी आँखों में आक्रोश छा गया। यामिनी ने अभी ग्यारह साल भी पूरे नहीं किए थे।

”काफी जमीन-जायजाद वाला है। घर में एक बूढ़ी माँ के अलावा और कोई नहीं है। शादी-ब्याह करने की उसकी इच्छा नहीं थी, पर अकेले जमीन-जायदाद सम्भालने में दिक्कत आ रही है। तब मैंने ही उससे कहा कि घर में एक औरत ले आओ। बाल-बच्चे न हों तो इतनी जमीन, इतनी सम्पत्ति का क्या होगा? बुढ़ापे में देखना पाँच भूत सब लूटपाट कर खा जाएंगे। तुझे देखकर उसने लड़की के चेहरे-मोहरे का थोड़ा अन्दाज लगा लिया।”

इतनी छोटी यामिनी से शादी करके बाल-बच्चे पैदा करने की चर्चा पहले ही हो चुकी थी। इसके बाद उसकी कोई भी बात शान्त के कानों में नहीं गयी।
”यह शादी नहीं हो सकती।”
हरिधन ने चौंककर उसे देखा। शान्त के गले से ऐसा स्वर, उसने आज तक कभी नहीं सुना था।
”क्यों, जरा सुनूँ? इसमें बुरा क्या देखा?”

”इतनी छोटी बच्ची की शादी मैं अभी नहीं करूंगी। यामिनी-कामिनी को मैं स्कूल में पढ़ाऊंगी। उन्हें इन्सान बनाऊंगी।” शान्त को भी पता नहीं था कि वह इतनी सारी बातें बिल्कुल स्पष्ट रूप से जोर गले से कह सकती है। हरिधन कुछ देर तक चकित होकर शान्त को देखता रह गया। इसके बाद उठकर गाय के बाड़े की ओर चला गया। फिर शान्त के कमरे में घुसने के साथ ही साथ हरिधन ने वहाँ घुसकर पीछे से उसकी चोटी कसकर पकड़कर कहा, ”हरामजादी तेरी ये मजाल, लड़की को स्कूल भेजने की बात को लेकर मेरे मुँह पर जवाब देती है। ले भेज अपनी बेटियों को स्कूल।” गाय को बाँधने वाली रस्सी जमीन पर पड़ी शान्त के शरीर पर साँय-साँय बरसने लगी। काफी देर बाद खुद ही थककर उस रस्सी को आँगन में फेंककर बाहर निकलने से पहले हरिधन ने जमीन  पर पड़ी शान्त के सामने आकर कहा, ”अपने दोनों कान खोलकर अच्छी तरह सुन ले, यामिनी के साथ ही मैं कामिनी के भी महीने भर के अन्दर हाथ पीले कर दूंगा। हरामजादी औरत, इन्हें स्कूल में भेजने का तेरा षड्यंत्र मैं खत्म कर दूंगा।”

ठीक किस क्षण शान्त ने यह बात सोची थी उसे याद नहीं आयी लेकिन उसका सिर दर्द से फटा जा रहा था। वर्षों से आँख के सामने पड़ी लकड़ी चीरने वाली कुल्हाड़ी से रात में सोते हुए हरिधन के सिर पर पूरी ताकत से प्रहार करके ही उसका मन शान्त हुआ। तालाब में जाकर नहाने के बाद उसने कपड़े बदलकर यामिनी-कामिनी को जगाया। अपने हाथों की चूड़ियाँ और गले की चेन उसने चकित यामिनी की मुट्ठी में रखकर कहा, ”मैं एक जगह जा रही हूँ। अपने भाइयों को जगाकर झटपट रोहिणी मौसी के घर चली जा। इन्हें उसे देकर कहना कि तुम सभी को वह स्कूल में भर्ती कर दे। आज से वहीं रहना। मेरे वापस न आने तक मौसी जैसा कहें वैसा ही करना।” इसके बाद कुल्हाड़ी को अपने आँचल में छिपाकर करीब सात मील पैदल चलकर वह दोपहर को थाने पर पहुँची।
(Story Andhkar Ke Uts Se)

”मैं अपने मर्द को काट आयी हूँ। अब मेरा जो करना हो कर लें।” उस कुल्हाड़ी को वह अफसर के सामने की बड़ी मेज पर रखकर भारमुक्त हो गयी।
”साकिन?”
शान्तबाला ने उस आदमी की ओर देखा। उसने बगल के कमरे में बैठे जेलर की ओर इशारा किया।
”घोड़ापाड़ा मेदिनीपुर।”
कोर्ट में एक दिन रोहिणी आयी थी। रो-रोकर बेहाल होते हुए बोली, ”तू वहाँ से निकलते ही मेरे यहाँ क्यों न चली आयी? दोनों मिलकर उसे जमीन के नीचे गाड़ देतीं।”
वह बड़े शान्त, धीर स्वर में बोली ”मैं ऐसा कैसे करती? भगवान के जीव, एक आदमी को मारने का पाप तो लगेगा ही। उसकी सजा तो मिलनी ही चाहिए।”
इसके बाद घूँट निगलकर बोली, ”दीदी, मेरे बच्चे।” सिपाही के हाथों में रोहिणी जिस पाँच रुपये की भेंट चढ़ा आयी थी, उसकी मियाद खत्म हो चुकी थी।
”अब यहाँ से चलो, कहीं साहब की नजर न पड़ जाय,” कहकर उन लोगों ने जल्दी मचायी थी।
रोहिणी जाते-जाते बोली थी, ”तू चिन्ता मत कर, वे सब ठीक हैं।”

पूरा केस टिकट मिला लेने के बाद कमरे में मेज के सामने बैठे जेलर ने कहा, ”शान्तबाला कुईला, अपने पति के खून के अपराध में तुम्हें बीस साल की सजा हुई है। अगर तुम हाईकोर्ट में अपील करना चाहो तो सरकार अपने खर्च पर तुम्हारे लिए वकील का इंतजाम कर देगी।”

बगल में खड़ी सफेद कपड़ों वाली मेट्रन बोली, ”चलो।”
शान्तबाला के पीछे बहरमपुर जेल के फीमेल वार्ड का दरवाजा बन्द हो गया।
अमरवेल तथा अन्य कहानियाँ से साभार
(Story Andhkar Ke Uts Se)
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