नारीवादी नजरिया विकास को भी विकल्प देता है- मेधा पाटकर

मंच पर बैठी हुई तमाम महिला कार्यकर्ती और अध्यक्ष पद पर बैठी राधा बहिन जी, उत्तराखण्ड के कोने-कोने से आये हुए विविध संगठनों और संस्थाओं के साथीगण, मेरी जुझारू बहिनो, हमारे समर्थक भाई पत्रकार मित्र, एक बहुत सुन्दर अनुभव के साथ जो संवाद हो रहा है, उमा बहन ने जिस प्रकार से उद्देश्य रखकर यह सम्मेलन आयोजित किया है, वह निश्चित रूप से सफल होने वाला है। और आप सब लोग मेरे सामने बैठे हुए हमारे प्रेरणा के स्रोत। जैसे ऋचा बहन ने कहा, यहाँ बिखराव नहीं, विविधता नजर आई है। वह न केवल रंगों की है, सुरों की है, वह अपने-अपने अनुभवों की भी है। कबूतरी जी से लेकर युवा साथियों तक, विविध पीढ़ियों के प्रतीक बनकर, प्रतिनिधि बनकर जो महिलाएँ यहाँ पधारी हैं, उन सबको मैं जिन्दाबाद कहती हूँ, सलाम करती हूँ। हम जिन्दा हैं, आबाद हैं, आज भी, यह भी क्या कम है और इस जिन्दादिली का अहसास देने वाली महिलाशक्ति, जो मानो ऐसा लगता है कि घर-घर में बिखरी है, गाँव-गाँव में बिखरी है, देश के कोने-कोने में है, लेकिन हम लोग जब गहराई में उतर कर देखते हैं कि देश में किसका क्या योगदान है तो हम देवी नहीं, हम दासी नहीं, हम साथी हैं, ये कहनेवाली महिलाएँ हर क्षेत्र में, जिस प्रकार के सपने बुनती हैं और जो जीवित रहती हैं, उनके योगदान और सहभाग के बिना हर बदलाव अधूरा है, ये हमें मालूम होता है।

आज संघर्ष के कार्य देखिये कि निर्माण के कार्य देखिये। वहाँ महिला है, नेतृत्व के नाम पर कहीं खड़ी हो न हो, धरातल से जुड़ी हुई है। आप के उत्तराखण्ड के लिए संघर्ष, दमन और अत्याचार के बीच कमला बहन जैसे कई सारे साथियों के साथ चलाये गये आन्दोलन को और 1994 के दमन, अत्याचार को कौन भूल सकता है जो आपके साथ हुआ। उस समय की कई संगोष्ठियाँ याद आ रही हैं कि उत्तराखण्ड हो तो कैसा हो, ये सपने आप महिलाओं ने हमको दिये। उन तमाम सपनों को एक जगह लाकर जो आप बुनाहट रखना चाहती हैं, वह इस सम्मेलन तक सीमित न रखते हुए, पूरे देश भर में नया सन्देश, जोश, ऊर्जा जो हमारे तमाम साथियों ने यहाँ अपने छोटे-छोटे भाषणों से रखे, वे दिये बिना नहीं रहेंगे, इस निश्चय के साथ मैं आई हूँ।

साथियो, समय बहुत कठिन है, यह कहना तो आसान है लेकिन समय के साथ जूझना और कठिन है, जैसे कविता जूझ रही है, कल्याणी जूझ रही है, ऋचा जूझ रही है, सुशीला जी जूझ रही  हैं, शशि बहन जूझ रही हैं, हर किसी का योगदान, अपना मार्ग और अपनी मंजिलें हैं। उन तक पहुँचने की जीवटता वह किसमें हो सकती है, इस पुरुष प्र्रधान व्यवस्था में महिलाओं के सिवाय जीवटता का नामोनिशान नहीं रह सकता है। यह हम सब का अनुभव है कि नहीं। वह जीवटता जो महिला किसानों को आत्महत्या करने से भी रोकती है, क्योंकि आँखों के सामने अपने बच्चों का चेहरा होता है, उनका भविष्य होता है और मैं नहीं रहूँ तो क्या होगा, इस चिन्ता से वह मरते-मरते भी जीती हैं। वह जीवटता जो आज तमाम संघर्षों में जिन्होंने ललकारा है, न केवल हमारी भूमि को बल्कि आसमान को भी, केवल हमारी महिलाओं में दिखाई देती है। क्योंकि उस धरती से, उस नदी से, उस पहाड़ से, उस प्रकृति से उसका सम्बन्ध है, अगर कहीं जीवित दिखाई देता है तो महिला-प्रकृति के रिश्तों में है, पर इन रिश्तों को कायम रखने के लिए जिसके बिना न जीवन रहेगा, न जिन्दगी, न आजीविका रहेगी, न अधिकार, उन्हें जीवित रखने में जो योगदान सबसे अधिक देती है, वह है महिला। वालिया बाँध की लड़ाई से लेकर नर्मदा बाँध तक की लड़ाई, सिंगूर से लेकर नन्दीग्राम तक की लड़ाई, शहर की गन्दी बस्तियों की लड़ाई, और आपके उत्तराखण्ड के ही निर्माण की लड़ाई, महिलाओं की अगुवाई बहुत बड़ी ताकत होती है।
(Speech by Medha Patekar in Uttarakhand Mahila Sammelan)

आज महिला किसान हो, महिला मजदूर हो, दलित महिला, आदिवासी महिला, हर तबके की महिला, उच्चवर्गीय तक भी जब भी घुटन महसूस करती है दबाव, दमन, अत्याचार के चलते तो कहीं न कहीं बन्धनों को तोड़-तोड़ कर बहनें आती हैं। खड़ी रहती हैं और चुनौती दिये बिना नहीं रहतीं। यह बात आज नहीं होगी तो कल होगी। ये जो विश्वास हमारे तमाम वक्ताओं ने जगाया है, वह विश्वास भी बहुत महत्वपूर्ण है। आज आप देखिये कि देश में जो भी संघर्ष चल रहे हैं, उन संघर्षों की अवधारणाओं और अवकाश तक हर कुछ का निर्माण करनेवाली महिलाएँ कहीं न कहीं होती हैं। वे भले ही नेतृत्व में मंच पर हर बार न दिखें, जैसे यहाँ आज दिखाई दे रही हैं लेकिन वे बुनियाद होती हैं मंच की जो उठाकर फेंकती है अन्याय, अत्याचार को, जो बनाती भी है छत को। ये महिलाओं का योगदान ही हर आन्दोलन में, हर आजादी के आन्दोलन में, मैं कहूंगी कि एक बहुत बड़ा योगदान है। श्रम में देखिये, सब जानते हैं कि पूरी दुनियाँ में दो-तिहाई श्रम महिलाओं के होते हैं और इसीलिए हर असंगठित कही जाने वाली मजदूर चाहे वह घर की नौकरानी बन कर काम करनेवाली महिला हो, चाहे वह निर्माण मजदूर हो, चाहे खेत मजदूर हो, चाहे छोटे-छोटे फेरीवालों के रूप में फैली हुई। महिलाओं की संख्या असंगठित नहीं, असुरक्षित रखे गये श्रमिकों के बीच सबसे ज्यादा है। क्योंकि हर प्रकार से महिलाओं को असुरक्षित करने का जिम्मा पुरुष प्रधान व्यवस्था ने लिया हुआ है। इसके बावजूद अपना योगदान देती हुई महिलाएँ ही कह सकती हैं कि हम सबको, देश दुनिया को कि आखिर समाज हो तो कैसा हो। जिसका निर्माण माता को करना चाहिए, ये बात अभी देवकी जी ने कही। वह निर्माण केवल घर-परिवार तक सीमित नहीं, अपने गाँव और पंचायतों तक सीमित नहीं, हर सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक निर्माण को। नये निर्माण के विकल्पों की बुनाहट करने की बात जब महिलाएं करती हैं तो उसके रंग ही अलग होते हैं- प्राकृतिक और सांस्कृतिक। लेकिन उन संस्कृतियों में जो कि केवल मन्दिरों, मस्जिदों में नहीं बसी हैं, उस संस्कृति में जो इंसानियत को पूजती है। इसीलिए अहिंसा और सत्याग्रही पद्घति से समाज को उस दिशा में ले जाना जो समतावादी हो, जो न्यायपूर्ण हो और प्रकृति और संस्कृति के इस चित्र से जुड़कर चरित्रवान भी हो। इसे महिलाएँ निश्चित रूप से हासिल करके रह सकती हैं और रहती भी हैं। अगर कहीं खामियाँ हों जिसका जिक्र भी यहाँ खुले रूप से किया गया, महिलाएँ डरती नहीं हैं विश्लेषणों से। लेकिन उन कमियों के बावजूद आज भी जो ताकत है उत्तराखण्ड से उमा बहन, आप सब आई हैं यहाँ और यही आपकी शक्ति है। वह एकत्रित की है, जुटाई है, तो निश्चित रूप से उत्तराखण्ड का सही सपना आपकी इस देवभूमि के इंसान को भी भगवान या अल्लाह का रूप देकर रहेगा।

हम देख रहे हैं कि क्या हो रहा है देश में जब ये उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़, झारखण्ड जैसे नये नाम देकर बने हुए राज्यों को देखते हैं तो दिल भर आता है क्योंकि इतनी सुन्दर प्रकृति देखिये, ये छोटा-सा दायरा भी कैसे ऐसा हरापन, ऐसे पहाड़ी खड़ी ताकत, ऐसी बहती हुई नदियाँ जो उस समय से उत्तराखण्ड की त्रासदी तक अपने अलग-अलग रंग-रूप लेकर चेतावनी भी दे रही हैं, चुनौती भी दे रही हैं। आज तक वह सब समृद्घि आज भी जितनी बची हुई है, वह आप जैसे राज्यों में सबसे अधिक है। लेकिन हो क्या रहा है खिलवाड़ और किस प्रकार से, कौन पहाड़ों को खोदता है, कौन नदियों को नोच रहा है, कौन बाँध रहा है देवभूमि के नाम पर बहती हुई नदियों को, कौन त्रासदी भुगत रहा है। इन सवालों का जवाब देना मुश्किल नहीं है। आप सब लोग जानते हैं। लेकिन जब त्रासदी आई थी, मैं भी चुपचाप आई थी। कोई बैनर लगाकर नहीं आई थी। राहत के रूप में प्लास्टिक के छोटे-छोटे पाउचों में पानी बांटने के लिए नहीं आई थी। समझने के लिए, देखने के लिए, संवाद करने के लिए। तब भी देखा चार-आठ दिनों में कि क्या हो रहा है। राष्ट्रीय समन्वयक जनान्दोलनों के साथी माटू के विमल भाई और आप सब संगठन उत्तराखण्ड में अलग-अलग जगह पर कार्य करने वाले जब भी उन पर सवाल करते हैं और भरत झुनझुनवाला जैसे को झुकना पड़ता है। जो कभी नर्मदा बाँध के खिलाफ बहुत लिख चुके हैं। लेकिन जैसे वे अपनी माँ अलकनन्दा के किनारे आये, लन्दन स्कूल ऑव इकॉनोमिक्स से, तो उनका भी दिल दुखा और बहा भी। उन नदियों के साथ फिर वे खड़े हो गये और आज वे लिखते हैं, अमेरिका में तोड़े जा रहे बड़े बाँधों की बात। यह बदलाव भी नदियाँ तो लाती हैं। प्रकृति भी कहीं न कहीं मनुष्य को झुकाती है।
(Speech by Medha Patekar in Uttarakhand Mahila Sammelan)

हम सब लोग उन सवालों से जुड़े हैं, उन सवालों से घिरे भी हैं और जब लड़ाई शुरू होती है तो आपके साथ भी हैं। पंचेश्वर जैसा बाँध, टिहरी के बाद, अब क्या करने जा रहे हैं सरकार में बैठे वे शासनकर्ता कि वे बाँधेंगे नदियों को, वे बनायेंगे बिजली, वे खोदेंगे पहाड़ों को, वे नहीं रहने देंगे उनको और वे ले जायेंगे उत्तराखण्ड की उस प्राकृतिक समृद्घि को, वे उजाड़ देंगे हमारे मेहनतकश समाजों को, तबकों को और पुनर्वास के नाम पर वे कुछ बख्शेंगे भी, लेकिन उनके अपने पाँवों के नीचे की मातृभूमि उनको कभी नहीं दे पायेंगे। आप समझ लीजिये इसीलिए 311 मीटर ऊँचा कहा गया वह बाँध 133 गाँव उजाड़ने के लिए तैयार बैठी है सरकार, जो नेपाल के हों या भारत के। नदी-घाटियों में पीढ़ियों से बसे हुए समाज, इन सबके सामने सवाल खड़े हैं कि आखिर हमारे जल का, हमारी जमीन का, हमारे पहाड़ों का, हमारे पत्थरों का, हमारे भूजल का, नियोजन हो तो कैसा हो और कैसा नहीं हो। मेरे ख्याल से उत्तराखण्ड जैसे राज्य के कोने-कोने में कहीं भी किसी भी मुद्दे पर काम करने वाली महिला इस सवाल का जवाब दिये बिना नहीं रह सकती है और उत्तराखण्ड भी जीवित नहीं रह सकता है। क्योंकि आज कम्पनी सरकार जो जगह-जगह हर राज्य में बनती गई है, वह छूना नहीं, छीनना चाहती है, हमारे संसाधनों को। उन संसाधनों को अधिग्रहीत ही नहीं, हस्तान्तरित करने की एक बहुत बड़ी साजिश है।

विकास के नाम पर खेती जाती है और उस विकास के नाम पर वोट लिए जाते हैं, नोट भी इकट्ठे होते हैं, भले ही सरकार की तिजोरी खाली ही क्यों न रहे, वे पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरते रहते हैं। तो यह सब जो इर्द-गिर्द में हो रहा है, उसे देखिये और समझिये ही नहीं, उसे चुनौती दिये बिना हम कैसे रह सकते हैं चुप। आप जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला हो 27 फरवरी 2017 का  और पर्यावरण सुरक्षा कानून हो, उसके तहत कोई भी रेत या कोई भी गौण खनिज, जिसके तहत पत्थर भी आते हैं, उसको अगर लेना है अपने उपयोग के लिए तो राज्य से लेकर केन्द्र तक बहुत सारी कानूनी प्रक्रिया की जरूरत है। लेकिन यह जो अवैधता बनी हुई है पूरे विकास में जिसके कारण ही आज गुजरात की धरती से आवाज उठी कि यह विकास पागल हो गया है। विकास पागल नहीं हो रहा है। विकास वही है जो सबकी जरूरतें पूरी करता है, जो प्रकृति को अगली पीढ़ी तक बचा कर रखता है, जिसके नियोजन और आयोजन में एक सन्तुलन होता है और जिसमें सब सहभागी होते हैं। सब का साथ सब का विकास- यह मनमानी बात कहने वाले बहुत हैं लेकिन वे बहुत होशियार बनकर उत्तराखण्ड की हर चीज छीनने तक यहाँ से नहीं जायेंगे। और इसीलिए इस विकास की झूठी शोषणवादी, विनाशकारी अवधारणा को हम कैसे चुनौती देंगे, यह सवाल इस सम्मेलन में निश्चय ही उठेगा।
(Speech by Medha Patekar in Uttarakhand Mahila Sammelan)

केवल पंचेश्वर ही नहीं, अभी राधा बहिन कह रही थीं कि पहाड़ों में चल रहे बड़े-बड़े रास्तों का निर्माण जो पहाड़ों का विनाश कर सकता है, हमारे पहाड़ों पर चलती जा रही पीठ पर कंधों पर बड़ा वजन लेकर चलती जा रही महिलाओं को नीचे उतारकर पहाड़ को भी धँसा सकता है। और यह जब हो रहा है टनलों से, तथाकथित इन्फ्रास्ट्रक्चर से, तो कहाँ हो रहा है उसका कितना लम्बा, कितना चौड़ा और कितना नहीं, इसका जवाब भी क्या सुप्रीम कोर्ट देगा। वहाँ से वह देखेगा कि उत्तराखण्ड में कहाँ दब रहे हैं पहाड़, कहाँ हो रहे हैं भू स्खलन, वह तो स्थानिक आदमी ही देखेगा और जो महिलाएँ उन पहाड़ों को अपनी पीठ लगाकर जीती आई हैं, वही पहाड़ी ताकत वाली महिला शक्ति देखेगी, तो ही कुछ बचेगा। नहीं तो कुछ नहीं बच सकता। साथियो, बहुत जरूरी है इर्द-गिर्द में हो रही हर चीज को समझें। विकास का नाम तो आर्थिकता से ही जुड़ा रहता है। वह कोई सामाजिक विकास की अवधारणा से नहीं रहता है। और इस आर्थिक विकास के नाम पर, रोजगार के नाम पर जो लोग आगे बढ़ रहे हैं, वे कर क्या रहे हैं आखिर? वे विमुद्रीकरण की बात करते हैं, हमारे नोट छीनते हैं। रवीश कुमार जी ने जैसे कहा था, महिलाओं की छोटी-छोटी पूँजी भी छीनी जा रही है। जो महिलाओं से उनके पुरुष पति भी नहीं छीन सके थे। लेकिन ये राष्ट्र के पिता, पति सब कुछ कहलाने वाले कर क्या रहे हैं। डिमॉनेटाइजेशन नहीं कर रहे हैं। वे उस नगदीकरण को आगे बढ़ा रहे हैं, उसके ऊपर हम सबका लक्ष्य केन्द्रित कर रहे हैं। हर चीज में पैसा, पैसा, पैसा।

पंचेश्वर के एक छोटे से गाँव को पुनर्वास चाहिए तो पैसा। टिहरी का पुनर्वास नहीं कर पाये, पीने के पानी को लेकर हर सुविधा व जगह नहीं दे पाये, अपने घर पट्टे के अधिकार के लिए मजबूर कर रहे हैं तो क्या करेंगे ये पुनर्वास? पैसा करेगा पुनर्वास? ये कहते हैं पैसा, पैसा, पैसा। तो ये नकदीकरण हर चीज का हो रहा है तो वही तो उपभोगवाद की बुनियाद है, महिलाओं पर अत्याचार की नींव है। वहाँ भी चेतना में छाई हुई है नकदीकरण की बात, उपयोग की बात जिसमें महिला का चित्र हुए बिना मानो वस्तु बेची नहीं जा सकती। तो महिलाओं को भी खड़ा कर दिया है बाजार में। इसीलिए एक निर्भया आन्दोलन नहीं केवल हम सब जब तक निर्भया बनकर खड़ी होती नहीं दिखेंगी, हमारे बाजू की जो भया बना दी गई है, उसके साथ चाहे वह हमारी बहू ही क्यों न हो, किसी की बेटी हो या हमारी पड़ोसी हो, दूसरी जाति, पन्थ, प्रान्त, वर्ग, किसी की भी हो, धर्म की तो क्या बात कहें, हमारा स्त्री धर्म क्या कहता है, हमारी महिलाएँ क्या कहती हैं, हमारी इन्सानियत क्या कहती है, वह समझकर अगर हम महिलाओं का महिलाओं के साथ, महिलाओं के लिए संघर्ष खड़ा करेंगे, तो होगा नारीवाद जीवित। वह नारीवादी नजरिया जो विकास को भी विकल्प देता है, कहता है कि माँ के दिल में करुणा केवल अपने ही बच्चे के लिए नहीं, हर जिन्दा चीज के लिए होनी चाहिए।

इंसान जो आजकल जानवरी का खेल दिखाता है, कहीं-कहीं, तो शर्मिंदा हो जाता है उनके भी सामने। तो महिलाओं के ही हाथ में यह शक्ति है आज और चुनौती भी है। सेवा की भावना होगी लेकिन कर्तव्य भावना भी पुरजोर होने की जरूरत है। और यह इसलिए अधिक है कि हमने जिनको प्रतिनिधि बनाकर बिठाया है, वही आज बराबर उल्टी दिशा में सोच रहे हैं। वह महिलाओं की मातृशक्ति के रूप में पूजा करते हुए तो बहुत दिखाई देते हैं लेकिन अन्दर से महिला को दासी बनाकर ही रखना चाहते हैं। उन्हें शरद बाबू की कलाकारी की नायिका नहीं दिखती है आज, आज दिखती है कि कहीं कम्प्यूटर पर बैठी है, कहीं बैंकों में काम कर रही है, कहीं अपने बच्चे को पढ़ने के लिए ले जा रही है, बच्ची को भी, फिर भी स्त्री-स्त्री है। महिला-महिला है। यह आवाज भी कहीं कहीं से गूँज रही है। और वह राजनीतिक हो, सामाजिक हो, जहाँ भी इस प्रकार का एक दोयम से दोयम लिंग मानकर लिंगभेद का एक प्रकार से अहसास दिलाने वाली बात चित्र कुछ भी हमें दिखता है, उसका विरोध करना, उसके सामने अपनी शक्ति का अहसास दिलाना, चित्र खड़ा करना, यह हमारी चुनौती है। साथियो, कैसे कर सकते हैं यह चित्र खड़ा। एक-एक मुद्दे पर जो संघर्ष चल रहे हैं, एक-एक मुद्दे पर जो कार्य चल रहे हैं, वही अपने आप में समन्वय बना सकते हैं, यही इस सम्मेलन का उद्देश्य और लक्ष्य है। आप अगर नशामुक्ति का कार्य कर रहे हैं जो बहुत महत्व का कार्य है। नशा तो पैसे का भी है, सत्ता का भी है, जाति का भी है, पुरुष प्रधान व्यवस्था में लिंग का भी है। हर प्रकार के नशे को खत्म करते हुए शुद्ध बुद्धि से ही इंसानियत बनती है और वहीं रहती है। और इसीलिए वह नशा जो कि उन्हें वोट और नोट दिलाते हैं, जो सरकार की तिजोरियाँ हजारों, करोड़ों रुपयों से हर साल भरते हैं, उत्तराखण्ड की कमाई कितनी है, महाराष्ट्र की अठारह हजार करोड़ है, किसी राज्य में 56 हजार करोड़ है, और पाप की कमाई से मानिये तो शिक्षा भी चलती है और गर्व से कहा जाता है कि भई, इसके बिना तो राज्य चला पाना सम्भव नहीं है, आप क्या कह रहे हैं।
(Speech by Medha Patekar in Uttarakhand Mahila Sammelan)

गाँधी जी ने कहा था कि अगर मुझे एक घण्टे का हुकुमशाह बनाया जाय, तो मैं पहला काम यह करूंगा कि शराब की सभी दुकानें बन्द कर दूंगा और किसी को एक पैसा मुआवजा भी नहीं दूंगा। कोई नुकसान की भरपाई नहीं होगी। बाबा साहब ने कहा था, आज जबकि यह नशा दलित श्रमिक महिलाओं की लूट अत्याचार अधिक कर रहा है। किसी को इसकी परवाह नहीं है क्योंकि वे तो चाहते हैं कि हम सब किसी न किसी नशे में रहें, धर्म के या शराब के और महिलाएँ ही समझती हैं कि आज उसके कारण कितनी हिंसा बढ़ रही है। संविधान के अनुच्छेद 47 का किस प्रकार से उल्लंघन हो रहा है जिसके तहत राज्य की कुछ जिम्मेदारी कहीं कुछ है तो समाज बनाना, अच्छा खाना खिलाना, न कि शराब पिलाना। शराबबन्दी राज्य की जिम्मेदारी होते हुए भी जगह-जगह शराब की दुकानें खुल रही हैं। शिवराज सिंह चौहान आते हैं नर्मदा घाटी में दो हजार करोड़ रुपये खर्च करके नर्मदा शोभा यात्रा निकालते हैं। कहते हैं मैं नर्मदा किनारे की 1500 दुकानें पाँच किमी. दूर कर दूंगा। लेकिन एक भी दुकान बन्द नहीं कर पाते। तो जो बात देवकी जी ने कही, बिल्कुल सच है। अगर समाज प्रेरणा लेता है, नशामुक्ति का सपना देखता है, जूझता है, तो आपने कितनी सारी दुकानें बन्द की होंगी। हमारे भी गाँव-गाँव में जहाँ महिलाएं उठीं, वहीं शराबबन्दी लागू हो पाई। अन्यथा किसी भी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री में यह ताकत नहीं है, यह हिम्मत नहीं है, यह इच्छाशक्ति नहीं है कि वे महिलाओं को इसके अत्याचार से बचा सकें। तो साथियो, एक-एक मुद्दा भी कितना व्यापक रूप लेकर आता है। नशा और हिंसा जुड़ी हुई है। और आज देश में जो सबसे अहम मुद्दा है, वह हिंसा का ही है। चाहे वह विकास के नाम पर हिंसा हो, चाहे जाति के नाम पर हिंसा हो, कभी दलितों के खिलाफ सीमा पर रखने के बावजूद भीड़ से उठकर जो हल्ला करने जाते हैं, चाहे वे धर्म के नाम पर, मजहब के नाम पर चलने वाली हिंसा के तहत गुण्डागर्दी हो, पूना के मोहसिन खान से लेकर हरियाणा के जुम्मे तक, राजस्थान के रिंगर तक, जिसकी बात कविता से अधिक ताकत के साथ कौन रखेगा जो आज हमारे सामने खड़ी हैं, वह भी बहुत बड़ी चुनौती है।

इंसान को पशु बनाने में लगे हुए हैं मूलतत्ववादी। इसलिए माँ अपने बच्चे का पालन करे, निर्माण करे, यह बिल्कुल ठीक है लेकिन परिवेश भी बहुत चीजें तय करता है। हम कहते हैं हेरिडिटी और इन्वायरनमेन्ट, अपने माता-पिता से जो पाते हैं और इर्द-गिर्द से जो पाते हैं वह। सभी गुण-दुर्गुणों से ही इंसान बनता है। इसीलिए हम अपना निर्माण करना बिल्कुल जारी रखें लेकिन साथ-साथ बाहर अगर हिंसा का माहौल है, भय का माहौल है तो उसके सामने हम कैसे खड़े रह सकते हैं, यह भी तो रणनीति हमको ढूँढनी पड़ेगी। इसके सिवाय दूसरा रास्ता नहीं है। क्योंकि आज सब व्हट्सएप देखते हैं लेकिन केवल व्हट्सअप, तो वट्सडाउन- नीचे क्या है हमारे पैरों के नीचे, यह कौन देखेगा साथियो, यह आज बेहद जरूरी है, इसलिए धरातल से जुड़कर एक-एक मुद्दे को व्यापक सोच से जोड़कर आप जो करने जा रही हैं, वह सलाम करने लायक नहीं तो और क्या है। मैं देखती हूँ नर्मदा के आन्दोलन में, कि महिला शक्ति जनतंत्र के हर स्तम्भ को चुनौती दे सकती है। कैसे दे सकती है, जनतंत्र का हर स्तम्भ चाहे वह राजनीति हो, नौकरशाही हो, चाहे वह न्यायपालिका हो, चाहे वह माध्यम (मीडिया) हो। तो यह बात बिल्कुल है कि हर स्तम्भ को घुई लगी हुई दिखाई देती है। अपवाद हैं, हर जगह अपवाद हैं, तभी तो यह देश चल रहा है, बच रहा है। हम भी खुले आम यहाँ बोल रहे हैं। लेकिन फिर भी वह जनतंत्र पर हमला जो कोई अवकाश नहीं रखता, इन स्तम्भों के बीच में जो घुई लगी हुई है, उसको उजागर करके खुलेआम बोलने का अवकाश पाना आज बेहद जरूरी है। हर कोई जो विरोध करेगा, वह अगर जेल जायेगा, झूठे अपराधी प्रकरण भुगतेगा तो फिर बोलेगा कौन? वे नहीं चाहते कि कोई भी बोले। पर महिला बोल सकती है। महिलाओं की भाषा, महिलाओं के लफ्ज, महिलाओं के गीत, नाच, हमारे अपने माध्यम जो बहुत अनोखे और रंगीले और सुरीले हैं, उनको हम कैसे आगे बढ़ायें, यह भी इस सम्मेलन का एक विषय होना चाहिए। अगर आप जल, जंगल, जमीन के मुद्दे पर बात कर रहे हों, आप नशामुक्ति के मुद्दे पर लड़ रहे हों या स्त्रियों के साथ होने वाले, हमारे खिलाफ होने वाले अत्याचार या हिंसा के साथ या भेदभाव के साथ लड़ रहे हों, हरेक में किस प्रकार से हम लोग अपने माध्यम खड़े करें, यह भी बहुत महत्व का मुद्दा है।
(Speech by Medha Patekar in Uttarakhand Mahila Sammelan)

न्यायपालिका के सामने हम खड़े रहेंगे तो न्यायपालिका में आज जो घुसपैठ है, जो गरीबों को वकीलों के शोषण के बावजूद अगर खड़ा रहने का मौका वह ले लें और खुद बोलें जैसे हम नर्मदा आन्दोलन के केसों को चलाते आये हैं, साथ में कुछ ऐसे वकील, जिनका नाम आज गूँज रहा है, जैसे प्रशान्त भूषण जी हों या संजय पारीख जी हों, फली नरीमन जी हों, ऐसे खड़े होते हैं, हमारे लिए बात रखते हैं तो भी न्यायपालिका बख्शती नहीं है। हमने देखा कि लंच टाइम पर न्यायपालिका के न्यायाधीश जो बोलते हैं, वह न्याय की बात होती है। लंच टाइम में पता नहीं कहाँ से फोन आता है कि क्या होता है वे तो बदल जाते हैं, परदे के पीछे और जब बाहर आते हैं तो उनका रुख पूरा बदल जाता है। और वे कहते हैं हम फुल एण्ड फाइनल सैटिलमेन्ट करेंगे नर्मदा के मुद्दे पर, जबकि एक घण्टा पहले बोले होते हैं, हम पूरी जाँच करेंगे। और कहते हैं कि बस हम साठ लाख देंगे, हम 15 लाख देंगे पर उसमें भी महिला खातेदारों को छोड़ने की बात यह व्यवस्था कर रही है। महिला दिवस पर तमाम अधिकार जो हमने पाये हैं लड-लड़ कर 32 सालों से और उसके साथ-साथ जो अभी पाना बाकी है, उसके ही मुद्दे पर लड़ना शुरू करना पड़ता है। लेकिन आपको मैं बताऊँ कि पिछले पाँच महीने से मोदी जी की सरकार ने जो किया है अन्याय-अत्याचार, नर्मदा की पूजा करने का एक ढकोसला रचते  हुए, उसको चुनौती देने का काम और न्यायपालिका के इस बँटवारे के साथ-साथ दिये हुए आदेश को दरकिनार करने का काम कि 31 जुलाई को गाँव खाली हो जांय।

अरे वाह, आप 31 जुलाई को गाँव खाली करना इतना आसान काम मानते हैं क्या? जबकि आपके ही पूर्व के फैसलों का पालन इतनी जल्दी नहीं हो सका। हमारी महिलाओं ने कहा, हम नहीं खाली करेंगे। 31 जुलाई साथियो, चली गयी। हर साल आयेगी 31 जुलाई। ये हम कल कलेक्टर के सामने थे तो उनसे साफ कह आये हैं। 31 जुलाई की बरसी तो हर बारिस से पहले हर डूब से पहले हम मनाते रहेंगे हर साल। साथियो, यह होती है महिलाओं की ताकत। हम जाते हैं कोर्ट में पेशी लगाते हैं, याचिका दाखिल करते हैं तो हमारे ही खिलाफ 307, 302 की धाराएँ जो भी हैं अपराधी प्रकरण अपहरण आदि की, दाखिल करते हैं। जब महिला शक्ति उभरकर आती है तो जैसे दारू की दुकान नहीं चल सकती उनकी, अन्याय की दुकान भी नहीं चल सकती है। इसीलिए हर स्तम्भ को चुनौती देना महिलाओं के वश की बात है और इसको ही हमें आगे बढ़ाना चाहिए। मैं इतना ही कहूंगी तोड़-तोड़ के बंधनों को हम यहाँ आये हैं पर हमको हमारे पार पहुँचना जरूरी है तो जो नहीं माने हैं हमारे मुद्दों को जो कन्वर्टेड और कन्विंस नहीं है उन तक हम कैसे पहुँचेंगे, यह हमारे सामने एक चुनौती है। हमारी रणनीति कहो या नीति कहो, हमारे माध्यम कहो, हमारी सभाएँ और हर प्रकार के संगठन के कार्यक्रम कहो, इसमें ऐसे लोग आयें जो धर्म के नाम पर दूसरे धर्मियों की कद्र करना चाहते हैं, जो नारी की शक्ति को मानना चाहते हैं, ऐसे पुरुष ऐसे लोग आये। जो चाहते हैं कि दलितों और आदिवासियों का खात्मा हो और मुस्लिमों की जनसंख्या कम हो, हम उनके साथ भी संवाद करेंगे।
(Speech by Medha Patekar in Uttarakhand Mahila Sammelan)

हम एक ऐसा दर्शन देंगे, जो उनके अन्दर छुपी हुई इंसानियत को छुएगा। इसलिए महिलाओं को इस तरह का संवाद जो राजनीति में नहीं है, जो अर्थनीति में नहीं है, वही बुनना पड़ेगा। कैसे बुनेंगे हम इस संवाद को जो इस देश में बढ़ती जा रही संवादहीनता और धु्रवीकरण को खत्म करने की दिशा में कुछ बड़ा योगदान देगा, यह हमारे सामने सवाल है। इतना ही मैं कहूंगी। और दो शब्द गीतों में कहूंगी कि ये संघर्ष निर्माण का कार्य करने वाले लोग एक समाख्या, कल्याणी जी ने जैसा कहा, उन्होंने अगर आक्रमण और अतिक्रमण के साथ खत्म किया लेकिन आज भी इस देश में गाँधी जिन्दा हैं, बाबा साहब जिन्दा हैं, लोहिया, जयप्रकाश जिन्दा हैं, आज भी इस देश में हर वह धर्मगुरु जिन्दा है जिन्होंने केवल इंसानियत की प्रेरणा दी है। और इसीलिए एक विकल्प की तरह ऐसे इंसानों की दुनिया अगर हम बनाते हैं तो हमारा समाज समाख्या नहीं तो और क्या है। सरकारी समाख्या खत्म हो गया, अच्छा ही हुआ। मैं कहती हूँ अब हमारी ग्राम सभा में समाख्या है, हमारा हर संगठन समाख्या है। हमारे अन्दर भी बहुत सारी कमियाँ हैं। हमको और कड़ा समन्वय बनना है। हमारी ग्राम सभा को लोकसभा से ऊँची बनाना है जैसा हम नारा देते हैं- लोक सभा से ऊँची ग्राम सभा। तो फिर क्या कमी है। हमारे इर्द-गिर्द में- जनसंख्या की कमी तो हमारे देश में है ही नहीं, तो हम जनशक्ति खड़ी करें। एक जनसैलाब लेकर चलें। सन्नाटा कहीं है तो उसको भी तोड़ें। आपने गाने में कहा- रात नहीं अब सुबह चाहिए तो सूरज को झकझोरें। पर हमारे धरातल को भी उस पर खड़े रहकर बचाने की बात करें, न केवल कहकर। और इसके लिए यह सम्मेलन एक बहुत बड़ी आशा और दुर्दम्य विश्वास लेकर आया है। हम सब लोग कितनी दूर से आये, इसकी परवाह नहीं है। हम और आप कितने नजदीक इस सम्मेलन के बाद आये हैं, उसकी बात सोचकर भी मैं बहुत खुश होती हूँ। और प्रेरणा लेकर ही यहाँ से जाने का सोचती हूँ। मैं दो-चार लाइनें उस गीत की सुनाउंगी जो आज के समय में मेरा बहुत प्यारा गीत है। यह दो दुनियाओं के बीच की लड़ाई है। किसके तीस साल हुए, किसके बत्तीस साल हुए, यह उत्तराखण्ड का संघर्ष क्या हुआ, यह केवल पीछे मुड़कर देखने की बात है। वह जरूर हमको अवकाश देती है, प्रेरणा देती है, समझ देती है, विश्लेषण देती है, कमियाँ दिखाती है पर साथ-साथ आगे हम कौन सी दुनियाँ को मानते हैं, यह तय करने का समय आया है, अब महिलाएँ तय करें तो पुरुष कहाँ जायेंगे महिलाओं के सिवाय।
(Speech by Medha Patekar in Uttarakhand Mahila Sammelan)

27 दिसम्बर 2017 को उत्तराखण्ड  महिला सम्मेलन, हलद्वानी में मेधा पाटकर द्वारा मुख्य अतिथि के  रूप में दिया गया भाषण
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