कहीं गोली चलेगी कहीं भड़केगी आग

बृजेश जोशी

प्रगतिशील, तर्कवादी, कन्नड़ साहित्य एवं भाषा के विद्वान और कर्नाटक के हम्पी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रोफेसर एम.एम. कलबुर्गी की 30 अगस्त 2015 को धारवाड़ (कर्नाटक) में हत्या कर दी गयी। इस सख्श ने एक अपराध किया कि पूरी जिन्दगी तर्कवाद व कन्नड़ भाषा, साहित्य की साधना में गुजार दी। इसलिए उनको गोली मार दी गई। क्योंकि इनके बोलने से उस धर्म को खतरा बताया गया जिस धर्म के कर्मकाण्डों से इनका नामकरण संस्कार हुआ और फिर हत्या के बाद उनकी चिता के साथ दाह संस्कार भी। इनके मारे जाने के बाद धर्म कितना समृद्ध होगा ये पता नहीं।

प्रोफेसर कलबुर्गी का जन्म लिंगायत समाज (कर्नाटक) में 28 नवम्बर को तत्कालीन ब्रिटिश भारत के बॉम्बे प्रेसीडेन्सी के यारागल गाँव में एक कृषक परिवार में हुआ था। इन्होंने स्कूली शिक्षा बीजापुर के सरकारी स्कूल में प्राप्त की तथा स्नातक व परास्नातक 1962 में स्वर्ण पदक के साथ कर्नाटक विश्वविद्यालय से किया। इसके बाद 1966 में कलबुर्गी प्रवक्ता के तौर पर कर्नाटक विश्वविद्यालय में कन्नड़ भाषा एवं साहित्य पढ़ाने लगे। ये कन्नड़ वाचन साहित्य परम्परा के प्रसिद्ध विद्वान थे। इन्होंने इस साहित्य का संपादन भी किया (जो मूलत: कविताओं पर आधारित था) तथा बाद में 22 भाषाओं में इसका अनुवाद भी हुआ।

प्रोफेसर कलबुर्गी 103 पुस्तकों एवं 400 शोध लेखों के लेखक रहे। अपने शोध लेखों के लिए 2006 में (मालेशाम्पा मादीवलाप्पा कलबुर्गी) को राष्ट्रीय साहित्य अकादमी से पुरस्कृत भी किया गया। वे अपनी मार्ग श्रृंखला की पुस्तकों के लिए प्रसिद्ध हुए और इसी के कारण उन्हें विवादों एवं विरोधों का भी सामना करना पड़ा। कलबुर्गी सर्वप्रथम 1980 में लिंगायत समाज के निशाने पर आये थे क्योंकि उन्होंने इस समाज के संस्थापक बंसर्वश्वना के खिलाफ लिखा एवं मूर्तिपूजा का विरोध किया तो लिंगायत समाज की भावनाएँ आहत हुईं। फिर 1988 में उन्होंने 12वीं सदी के कर्नाटक के समाज सुधारक बसवन्ना के विचारों को आगे बढ़ाने की वकालत की तो उन्हें कट्टरपंथी हिन्दुओं से धमकियाँ मिलने लगीं क्योंकि उन्होंने जातिप्रथा, कुप्रथा एवं मूर्तिपूजा के प्रति लोगों के सम्मोहन की आलोचना की। समाज की बन्द दिमागी व अतार्किकता के प्रति बोले, पुत्र प्राप्ति के लिए किए जाने वाले यज्ञ का विरोध किया। यह सब उन्होंने अपनी पुस्तक (मार्ग-1) में भी लिखा था। 2014 में एक सभा में उन्होंने खुलकर मूर्तिपूजा के विरुद्ध बोला। जिस कारण उन पर पथराव भी हुआ। मूर्तिपूजा समेत कई अर्तािकक मसलों पर अपनी बेबाक टिप्पणियों के चलते अक्सर वे विवादों से घिरे रहते थे। 77 वर्षीय कलबुर्गी की उनके घर में घुसकर हत्या कर दी गयी। दो बाइक सवार आये और मारकर चले गये। हत्या का ऐसा ही तरीका 20 अगस्त 2013 को पुणे में नरेन्द्र दाभोलकर (जो अंधश्रद्धा के लिए लड़े थे) के लिए व 16 फरवरी 2015 में कामरेड गोविन्द पानेसर (जिन्होंने शिवाजी की हिन्दुत्ववादी तस्वीर से अलग सेकुलर रूप में व्याख्या की) के लिए भी अपनाया गया था। इन तीनों की हत्या में हिन्दूवादी शक्तियों का नाम ही सामने आया है। ऐसे मुद्दों पर सड़कों पर प्रदर्शन क्यों नहीं किये जाते? क्या यह प्रजातंत्र अंधों व बहरों को समर्पित हो चुका है? या किसी डर से हब सब खामोश रहते हैं। और हों भी कयों न, क्योंकि हो सकता है कि अगली बार हममें से ही कोई इन धर्म के रक्षकों का ही शिकार न हो जाय। जब कलबुर्गी की हत्या हुई तो कांग्रेस चुप्पी साधे बैठी है। क्योंकि सरकार कर्नाटक में उनकी ही है। दाभोलकर की मृत्यु के समय भी महाराष्ट्र में कांग्रेस व एन.सी.पी. की ही सरकार थी। राजनीतिक सक्रियता इन घटनाओं पर प्राय: शून्य ही रहती है। प्रधानमंत्री मोदी लाल किले की प्राचीर से अपने 87 मिनट के रिकार्डतोड़ भाषण में साम्प्रदायिकता को जहर बता चुके हैं लेकिन तर्कवादियों को मारने वाले लोग जो (राम सेना, बजरंग दल और भी कोई भगवान बचाओ सेना हो सकती है) के हैं। भाजपा के प्रमुख घटक भी तो हैं। इन पर नाम आते ही भाजपा चुप्पी साध लेती है। क्या ऐसी घटनाओं को केवल सामान्य तौर पर ही लिया जाय? हो सकता है कल आपके, हमारे खाने-पीने, घूमने और कपड़े पहनने के तरीकों पर भी पाबंदी लग जाए। आज लिखने और बोलने की आजादी कितने बड़े खतरे से घिरी है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। इस मुद्दे पर कुछ न्यूज चैनलों को छोड़ दें तो अन्य सिर्फ राधे माँ के आइटम डांस व शीना मर्डर केस की कवरेज में ही व्यस्त रहे। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताओं पर ताला लगाने की कोशिश कलबुर्गी की हत्या से कुछ दिन पहले बांग्लादेश में भी की गयी जहाँ ढाका में मिलोय चक्रवर्ती नामक ब्लॉगर के घर में घुसकर इस्लामिक आतंकवादियों ने हत्या कर दी। ए.आर. रहमान के खिलाफ रजा अकादमी ने फतवा जारी किया क्योंकि उन्होंने प्रगतिशील फिल्मकार माजिद मजीदी की फिल्म मुहम्मद का संगीत दिया। इससे इस्लाम पर खतरे का तर्क दिया गया। राजनीकांत को बीजेपी ने टीपू सुल्तान की फिल्म में काम करने से मना किया है। क्योंकि रजनीकांत हिन्दू हैं। ये जहरीली संस्थाएँ (बजरंगदल, राम सेना, रजा अकादमी तथा इस्लामिक स्टेट) तर्कवादियों, प्रगतिशील लोगों को अपना निशाना बनाने पर आमदा हैं। प्रोफेसर कलबुर्गी से लेकर गोविन्द पानेसर, दाभोलकर और भी न जाने कितने चिंतनशील लोग जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण और व्यावहारिकता का तर्क देते हैं, ऐसे ही मौत के घाट उतार दिये जाते हैं। शायद कबीर, तुलसी, नानक आज होते तो उनको सुनने वाला कोई नहीं होता। इस नये धर्मवाद में वे भी प्रासंगिक नहीं रह गये क्या?

संस्कारों की अनीतिगत राजनीति भी इन साम्प्रदायिक जड़ों को पसारने में सहयोग कर रही है। इन तमाम विद्वानों की हत्या एक विचार की हत्या है। जो सम्पूर्ण समाज के लिए हानिकारक है। अब समय आ गया है कि-

अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब
इससे पहले कि कोई देखते हुए,
सपनों को ही मार जाए
क्योंकि, सबसे खतरनाक होता है, हमारे सपनों का मर जाना।
(Somewhere the bullet will shoot, somewhere the fire will flare up)
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