थारु जनजाति का सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन एवं महिलाएँ

रवि भूषण सिंह राणा

मान्यत: यह माना जाता है कि जनजातीय समुदायों में महिलाओं की स्थिति पुरुषों के समान होती है तथा मातृसत्तात्मक जनजातीय समुदायों में तो महिलाओं की स्थिति अधिक श्रेष्ठ मानी जाती है। उत्तराखण्ड राज्य के पर्वतीय एवं मैदानी क्षेत्रों में पाँच जनजातियाँ मुख्यत: पायी जाती हैं, जिनमें शौका व वनराजी जनजाति पिथौरागढ़ जनपद में, जौनसारी देहरादून में तथा थारू व बुक्सा उधमसिंह नगर जनपद में निवास करती हैं।

थारू जनजाति उधमसिंह नगर जनपद के दो विकासखण्डों खटीमा व सितारगंज में निवास करती है। उत्तराखण्ड के अतिरिक्त यह जनजाति नेपाल के तराई क्षेत्र, उत्तर प्रदेश के लखीमपुर-खीरी, गोरखपुर, गौंडा तथा बिहार के दरभंगा जिले में निवास करती है। 2011 की जनगणना के अनुसार थारू जनजाति की जनसंख्या 90,233 है, जो खटीमा विकासखण्ड में 53,241 तथा सितारगंज विकासखण्ड में 36,992 है। खटीमा में 26,388 पुरुष तथा 26,853 महिलाएँ व सितारगंज में 18,618 पुरुष तथा 18,374 महिलाएँ हैं। उक्त आँकड़ों से स्पष्ट होता है कि राष्ट्रीय व प्रदेश स्तर पर इस जनजाति में लैंगिक अनुपात अपेक्षाकृत उच्च है तथा खटीमा विकासखण्ड में तो यह महिलाओं के पक्ष में भी है।

भारतवर्ष में स्त्री शिक्षा पुरुषों से पिछड़ी अवस्था में हैं। भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार महिला शैक्षिक दर 65.46 प्रतिशत है जबकि पुरुष शैक्षिक दर 82.14 प्रतिशत है। उत्तराखण्ड में महिला साक्षरता 70 प्रतिशत है जबकि थारू जनजातीय जनसंख्या बहुल खटीमा व सितारगंज विकासखण्डों में महिला साक्षरता क्रमश: 56.82 प्रतिशत है जो कि राज्य की साक्षरता दर से बहुत पीछे है।

थारू लोग कद के छोटे, पीतवर्ण, चौड़ी मुखाकृति तथा समतल नासिका वाले होते हैं। कुछ सामाजिक विचारक इन्हें राजपूतों का वंशज मानते हैं, कुछ विचारक इनका उद्गम मध्य एशिया के मूल निवासी मंगोलों से बताते हैं तथा कुछ इन्हें भारत-नेपाल के आदिम निवासी सिद्ध करते हैं। एक किवदंती के अनुसार जब चित्तौड़ पर मुगलों का अधिकार हो गया था तब कुछ राजपूत स्त्रियों ने अपनी इज्ज्त तथा प्राणों की रक्षा के लिए अपने वफादार सेवकों के साथ अपने आप को छुपाते हुए इस तराई क्षेत्र की शरण ली। कालान्तर में उनकी सन्तान ही थारू कहलायी। इस कारण थारू जनजाति में स्त्रियों की स्थिति पुरुषों से ऊँची मानी जाती है।

महिलाओं की स्थिति के संदर्भ में देखा जाय तो स्पष्ट होता है कि थारू समुदाय में महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त हैं। घर से बाहर आने-जाने पर इन पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता तथा वे बाजार तथा मेलों में स्वतंत्र रूप से घूमती हैं। वे पंचायत के समक्ष अपनी बात रख सकती हैं। थारू महिलाओं को परिवार की चल सम्पत्ति में तो अधिकार प्राप्त हैं परन्तु उन्हें अचल सम्पत्ति में कोई हिस्सा प्राप्त नहीं होता है।

थारू महिलाएँ घर की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखती हैं। वे अपने घर व आँगन को हमेशा साफ रखती हैं तथा वे अपनी रसोई को प्रतिदिन गीली मिट्टी से लीपती हैं, जिसे स्थानीय भाषा में ‘चौका’ लगाना कहा जाता है। रसोईघर में चप्पल और जूते पहनकर आने की मनाही होती है। साधारणत: भोजन पकाते समय रसोई के अन्दर भोजन पकाने वाली महिला के अलावा किसी अन्य व्यक्ति के आने का निषेध होता है। इस प्रकार इस समुदाय में रसोई की शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता है तथा इस कार्य में महिलाओं की विशेष भूमिका होती है।
(Socio-Cultural Life and Women of Tharu Tribe)

संगन प्रथा

थारू समुदाय में अच्छी महिला मित्र (Best Friend) को संगन कहा जाता है। संगन (मित्रता) को किसी अवसर पर पक्का किया जाता है। इस दिन एक महिला मित्र दूसरी महिला मित्र के निवास स्थान पर जाती है और अपने साथ अपनी संगन के लिए कुछ कपड़े व मिठाई ले जाती है। इसके पश्चात इनकी मित्रता को पक्का माना जाता है। इसे स्थानीय भाषा में ‘संगन जोड़ना’ कहा जाता है। किसी अवसर पर संगन जोड़ना इसलिए किया जाता है कि सब लोगों को ज्ञात हो जाए कि अब ये दोनों संगन हैं। संगन कोई जनजातीय या गैर-जनजातीय महिला भी हो सकती है। संगन को सगे सम्बन्धियों की तरह माना जाता है। संगन प्रथा पर थारू समाज में एक कहावत है कि ‘सम्धयानो छुटे पर मित्रानों ना छुटे’।

विवाह

थारू विवाह में सर्वप्रथम ‘शगुन के चूल्हे बैठाने’ का कार्य किया जाता है। यह कार्य विवाह से दो दिन पूर्व वर व वधू के कुटुंब की महिलाओं के द्वारा ही किया जाता है। चूल्हें बैठाने का तात्पर्य उस स्थान पर मिट्टी के चूल्हे रखना है, जहाँ पर विवाह के लिए भोजन का निर्माण होगा। थारू विवाह में वर-वधू का विवाह कराने का उत्तरदायित्व वर के बहनोई व वधू की भाभी का होता है। वधू को हल्दी उसकी सभी भाभियाँ लगाती हैं तथा उसको तैयार करने का उत्तरदायित्व भी उसकी भाभियों का ही होता है। विवाह की रस्म पूरी होने के बाद बारात के साथ वधू के कुछ नातेदार वर के घर जाते हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘धाय’ (महिला) तथा ‘निनहरिया’ (पुरुष) कहा जाता है। इस अवसर में इनका विशेष ध्यान रखा जाता है। अगर उन्हें लगता है कि उनका ध्यान नहीं रखा गया है तो वह दण्ड देने की अधिकारी होती हैं। दण्ड आर्थिक जुर्माने के रूप में हो सकता है। परन्तु अब यह प्रथा बहुत कम देखने को मिलती है।

विवाहविच्छेद

थारू जनजाति में महिलाओं को भी विवाह-विच्छेद का अधिकार है। अगर तलाक पुरुष पक्ष द्वारा दिया जाता है तो उसे विवाह के समय दहेज में ली गयी सारी वस्तुएँ तथा पंचायत द्वारा निर्धारित हर्जाना देना पड़ता है। अगर तलाक का प्रस्ताव महिला पक्ष की ओर से होता है तो उसे हर्जाने के रूप में अपने विवाह के समय का दहेज का सभी सामान छोड़ना पड़ता है।

पुनर्विवाह

थारू जनजाति में विधवा तथा तलाकशुदा महिलाओं को पुनर्विवाह का अधिकार है, परन्तु पुनर्विवाह की रस्म सामान्य विवाह से अलग होती है। पुनर्विवाह में न तो वधू को हल्दी लगाई जाती है और न ही उसे अग्नि के समक्ष फेरे लगवाये जाते हैं। वधू को कुश घास की चूड़ियाँ पहना दी जाती हैं। वर अपने साथ चूड़ियाँ लाता है और घास की बनी चूड़ी उतारकर अपने साथ लायी गयी चूड़ियाँ वधू को पहना देता है। इसके पश्चात् वर-वधू को बेर की झाड़ी के फेरे लगवाये जाते हैं और अंत में मंगलसूत्र पहना दिया जाता है। इस प्रकार स्त्री के पुनर्विवाह की प्रक्रिया सम्पन्न होती है। परन्तु पुरुषों का पुनर्विवाह सामान्य वैवाहिक रीति-रिवाजों के अनुसार ही होता है।

पुनर्विवाह के बाद महिलाओं पर कुछ निषेध लग जाता है। वह महिला न तो किसी विवाह में वर व वधू को हल्दी लगा सकती है और न ही वह शगुन के चूल्हे में बैठाने का कार्य कर सकती है। विवाह के लिए मिट्टी के चूल्हों के निर्माण के कार्य से भी उन्हें वंचित किया गया है। थारू समुदाय में यद्यपि वर व वधू को हल्दी लगाने का अधिकार क्रमश: उनकी बहनों व भाभियों का माना जाता है, परन्तु ऐसी महिलाएँ जिनका पुनर्विवाह हुआ हो, इस प्रकार के वैवाहिक कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति शून्य हो जाती है।
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परिवार

थारू जनजाति में संयुक्त परिवार प्रथा का प्रचलन है। परिवार के महत्वपूर्ण निर्णयों में महिलाओं से भी अनिवार्यत: परामर्श लिया जाता है। घर की देखभाल करने का कार्य घर की बुजुर्गतम महिला का होता है। परिवार की दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों, जैसे भोजन बनाने आदि के संदर्भ में बुजुर्गतम महिला ही निर्णय करती है तथा परिवार की संयुक्त सम्पत्ति की देखरेख का दायित्व भी बुजुर्ग महिलाओं का ही होता है।

प्रारम्भ में थारू महिलाएँ केवल घर के कार्य व अपने खेतों में कृषि कार्य करती थीं जिसमें महिलाओं द्वारा फसलों की कटाई, गुड़ाई व निराई का कार्य किया जाता है। वर्तमान समय में भूमिहीनता व निर्धनता के बढ़ने से महिलाएँ कृषि मजदूरी व गैर-कृषि कार्यों में भी मजदूरी करने लगी हैं। शिक्षित महिलाएँ सरकारी व निजी संस्थाओं में नौकरी करने लगी हैं।

हस्तकला एवं शिल्प

थारू महिलाएँ अपने भोज्य पदार्थों को रखने के लिए विभिन्न प्रकार की रंग-बिरंगी काँस घास की डलियों का निर्माण करती हैं। स्थानीय भाषा में इन डलियों को ‘डलवा’ कहा जाता है। ढक्कनदार डलवा को मुख्यत: रोटियाँ रखने के लिए प्रयोग किया जाता है। वे अनाज रखने के लिए मिट्टी की कुठिया बनाती हैं, जो अनाज को नमी और उष्णता से बचाती हैं। इन कुठिया में कुछ चित्रकारी भी की जाती है। थारू महिलाओं द्वारा भोजन पकाने के लिए मिट्टी के चूल्हे तथा तन्दूर का निर्माण किया जाता है। तराई क्षेत्र होने के कारण इस भाग में गर्मी अधिक पड़ती है। गर्मी से बचने के लिए इस समुदाय की महिलाएँ हस्त पंखे का निर्माण करती हैं जो एक लोहे की तार के फ्रेम में ऊन और कपड़े की सहायता से बनाया जाता है। इसे स्थानीय भाषा में बेना कहा जाता है।

लोकनृत्य

थारू जनजाति में सामूहिक रूप से अनेक प्रकार के लोकनृत्य किये जाते हैं। नाच व हन्ना लोकनृत्य केवल पुरुषों द्वारा तथा झिंझी लोकनृत्य स्त्रियों द्वारा किया जाता है। इस जनजाति में होली भी लोकनृत्य का एक प्रकार है जिसे स्त्री-पुरुष दोनों के द्वारा सम्मिलित रूप से किया जाता है। महिलाओं की सहभागिता वाले दो नृत्य हैं।
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झिंझी नृत्य

पहले यह नृत्य रात्रि में किया जाता था। इसमें स्त्रियाँ एक छिद्रयुक्त घड़ा अपने सिर में रखती हैं, जिसमें एक दीपक जलाकर रख दिया जाता है। प्रारम्भ में यह नृत्य ग्राम के प्रत्येक घर पर जाकर किया जाता था। नृत्य के पश्चात् गृह-स्वामी द्वारा दानस्वरूप कुछ धन व अनाज दिया जाता था। अंतिम दिन इसी धन और अनाज से महिलाओं के द्वारा उत्सव मनाया जाता था। वर्तमान में यह नृत्य विशेष अवसरों पर ही किया जाता है।

होली

होली का पर्व थारू जनजाति का प्रमुख पर्व है। इनमें विवाहित महिलाओं द्वारा होली का पर्व अपने मायके में मनाने की प्रथा है। होली से कुछ दिन पूर्व नवविवाहित स्त्रियाँ अपने मायके चली जाती हैं। होली लोकनृत्य थारू समुदाय में प्रत्येक ग्राम के प्रत्येक घर जाकर ढोल की थाप पर किया जाता है, जिसमें स्त्री तथा पुरुष दोनों प्रतिभाग लेते हैं। स्त्रियाँ और पुरुष मिलकर होली के गीत गाते हैं। थारू जनजाति में होली दो प्रकार की होती है ‘जिन्दी और मरी’। फाल्गुन मास की पूर्णिमा से पहले खेली जाने वाली होली को जिन्दी व पूर्णिमा के बाद खेली जाने वाली होली को मरी होली कहा जाता है। इस प्रकार यहाँ होली पर्व लगभग एक मास तक चलता है। इस सम्बन्ध में इस समुदाय में एक अनोखी प्रथा है कि जब तक होली की विदाई का गीत नहीं गाया जाता है तब तक होली चलती रहेगी।

विदाई गीत-
होली आज यहाँ से
चली रे बलम प्रदेश।।
अच्छे-अच्छे झुमका ले अइये सुनरा से
पैधइये सैया सांझ रे
और भजइये आधी रात।।
होली आज यहाँ से…..
धर्म एवं पंथ
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थारू जनजाति मुख्यत: अपने ग्राम्य देवता की आराधना करती थी, परन्तु अब बाह्य समाज के सम्पर्क में आकर वे हिन्दू देवी-देवताओं की भी पूजा करने लगे हैं। ये लोग अब शिव, विष्णु, राम, कृष्ण, गणेश व लक्ष्मी की पूजा करने लगे हैं। इस समुदाय में आषाढ़ तथा सावन मास में मुख्य रूप से गृह देवी-देवताओं की पूजा होती है, जिसे क्रमश: आषाढ़ी तथा सवैया कहा जाता है। थारू ग्रीष्मकाल में अपने निवास स्थान पर सत्यनारायण की कथा व विशेष अवसर पर अखण्ड रामायण का पाठ भी कराते हैं। रामायण का पाठ स्त्री-पुरुष दोनों ही कर सकते हैं। थारू लोग राधा-स्वामी, साकार विश्वहरी, निरंकारी आदि सम्प्रदाय को मानने लगे हैं। कुछ थारूओं ने ईसाई धर्म को भी स्वीकार कर लिया है। थारू महिला पुरुषों के समान विभिन्न स्थान पर जाकर भजन-कीर्तन करने लगी हैं। थारू महिलाएँ ही ग्राम देवता भूमसेन की साफ-सफाई करती हैं। महिलाएँ ही अपने गृह-देवता की प्रतिदिन साफ-सफाई व पूजा करती हैं। विभिन्न उत्सवों पर महिलाओं के द्वारा ही देवताओं के लिए विभिन्न पूजा-सामग्री का निर्माण किया जाता है और वे ही प्रमुख रूप से पूजा में भाग लेती हैं। किसी भी पूजा के अवसर पर कन्यापूजन अवश्य किया जाता है।

थारू जनजाति में एक ओर परम्परागत रूप से महिलाओं की स्थिति को पुरुषों से उच्च माना गया है। उन्हें आवागमन, अभिव्यक्ति तथा विवाह-विच्छेद व पुनर्विवाह का अधिकार प्राप्त है, परन्तु साथ में कुछ निषेधों का भी उन्हें सामना करना पड़ता है। विशेष रूप से ऐसी महिलाएँ जिन्होंने पुर्निववाह किया है, को अनेक प्रतिबन्धों का सामना करना पड़ता है। थारू महिलाओं को परिवार की चल सम्पत्ति जैसे सोने, चाँदी के गहने, विवाह के समय में दिए जाने वाले दहेज के सामान में पूर्ण अधिकार होता है, जिस पर पुरुष वर्ग का कोई हस्तक्षेप नहीं होता है। परन्तु वहीं महिलाओं को परिवार की अचल सम्पत्ति जैसे भूमि और मकान आदि पर अधिकार नहीं होता है। थारू स्त्रियाँ हस्तकला में निपुण होती हैं। वे सिलाई, कढ़ाई करना जानती हैं। जंगली काँस घास की विभिन्न प्रकार की टोकरियाँ बनाती हैं। प्रारम्भ में ये टोकरियाँ घरेलू उपयोग के लिए होती थीं परन्तु अब कुछ महिलाएँ इन टोकरियों को बनाकर बाजार में बेचने लगी हैं, जिससे उन्हें अच्छी आय प्राप्त हो रही है। थारू जनजाति  के व्यक्ति अपनी संस्कृति के संरक्षण के प्रति अधिक जागरूक हो रहे हैं तथा इसके लिए विभिन्न संगठन बना रहे हैं जिनमें महिलाएँ पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। वे विभिन्न स्थानों पर जाकर अपनी जनजातीय संस्कृति को लोक नृत्य के माध्यम से प्रर्दिशत करती हैं जिसमें वे परम्परागत वस्त्र व आभूषण पहनती हैं। थारू महिलाओं में शिक्षा और आत्मनिर्भरता बढ़ने से उनके अधिकारों और सशक्तीकरण में वृद्धि होगी।
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