सोशल मीडिया : ठ्यल

नीमा पाठक की फेसबुक वॉल से

ठ्यल (ठेला) किसी सामान ले जाने वाले वाहन का नाम न होकर गांव की उस महिला को कहा जाता था, जो एक ठेले की तरह ढेर सारा सामान ले कर चलती थी, मानो पूरा पहाड़ अपने सिर पर उठाकर चल रही हो। वह रहती तो अपने घर पर ही थी पर उसका पूरा कारोबार हमारे घर के ऊपर बाखई (मुहल्ला) में ही रहता था। उस घर के लोग पलायन कर गए थे और इसे रखवाली का काम दे गए थे।

वह हमारी भी सहायिका थी। खेती-बाड़ी में हाथ बंटाती थी। उसका बेटा हमारे खेतों में हल जोतने का काम करता था। जहां तक मुझे याद है यह आठवें-नवें के दशक की बात है। सुबह ही वह अपने दल-बल के साथ ऊपर आ जाती थी। उसके साथ आगे-आगे दो कुत्ते, एक ब्याई बकरी, (जिसे वह रात में अपने साथ रखती थी) सिर पर ढेर सारे सौंव (टहनियां) जो पांय, बेडू, खड़ीक या भेकुआ के होते थे जो उसके सिर से लेकर पैरों तक लटके रहते थे। उनके ऊपर गाय के लिए सूखी घास, घास के ऊपर बिल्ली! घाघरे की गुनी के अंदर रोटियां या मेरे लिए एकाध फटा दाड़िम या दो अखरोट। जब वह चलती तो उसके दो पैरों के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखाई देता था पर उसे सब दिखता था।

और हां, गोद में बकरी का बच्चा भी रहता था। इसी विलक्षण पात्र को कोई भी उसके नाम से न जानकर ठ्यल नाम से जानते थे और उसे भी यह नाम स्वीकार्य था। वह ऊपर से लेकर नीचे तक चांदी के गहनों से लदी रहती थी। कान में ऊपर और नीचे भी, गले में चेन और सिक्के की तरह का हार, हसिया, कमरबंद, हाथ में धागुले, पैरों में भी कुछ शायद धागुले ही कहा जाता है। शरीर उसका एकदम सुडौल व बलिष्ठ था और सुंदर दतांवली थी।

उसको किसी ने भी आराम करते या खाते नहीं देखा था। पता नही उसकी शक्ति का क्या स्रोत था? वह सही मायने में कर्मवीर थी। उसमें सारे गुण व अवगुण भरे थे। अवगुण ऐसे कि दिन में दो बार गाली देना उसका नियम था। आवाज इतनी बुलंद कि दो मील की दूरी तक भी उसकी गूंज सुनाई देती थी। गाली वह अपने नुकसान के लिए नहीं बकती थी किसी का भी खेत हो या किसी का भी जानवर उज्याड़ खा रहे हों, वह बकना शुरू कर देती पूरे नि:स्वार्थ व निर्विकार भाव से। गाली का कार्यक्रम पूरे दो घंटे तक चलता था। गांव के लोग भी अभ्यस्त हो गए थे। हां, गाली से उसकी लोकेशन पता चल जाती थी। जब वह अपना यह नित्यकर्म पूरा कर लेती थी तो एकदम शांत व प्रसन्न हो जाती थी। उसका गाली देना ही शायद उसकी ऊर्जा का स्रोत था। जब मैं उससे शिकायत करती कि हमारे खेत में जानवरों ने उज्याड़ खाकर नुकसान कर दिया तो वह पुचकार कर कहती, ‘गुस्याणी चिंता मत करो जब समय मिलेगा तब खूब गाली दे दूंगी’, फिर खूब हंस लेती।

गांव में घुसते ही वह दहाड़ती शेरनी एकदम विनम्र हो जाती थी। सभी से सम्मान से बात करती और मदद भी करती। कुल मिलाकर वह एक जिंदादिल व लोकप्रिय महिला थी। हमारे घर में दबे पैर आती थी और इशारे में मुझसे माचिस मांगती थी, बीड़ी पीने के लिए। कभी भी कोई मेहमान आते या घर के सदस्य परदेश से आते तो वह मुलाकात का समय जरूर निकाल लेती। जाते समय उन्हें सड़क तक छोड़ने भी जाती थी। गजब की व्यवहार कुशलता थी उसके स्वभाव में। उसने कभी घड़ी नहीं देखी पर फिर भी समय की पाबंद!

मेरे प्रति वह मातृत्व प्रेम रखती थी। कुछ न कुछ मेरे लिए भी उसके पास रहता था। कभी मैं खेत में जाती तो वह दो पुले घास या पराल के खड़े कर छाया कर देती थी। पशुपक्षियों की देखभाल के साथ ही वह अपने घर पर खूब सब्जियां बोती थी। बेलवाली सब्जियों के लिए ठंगरे लगा देती। खुद कम खाती, बांटती अधिक थी।

शादी के बाद जब भी मैं घर जाती, रोज मिलने आती। वापस आते वक्त स्टेशन तक सामान पहुंचाती। उसके सजल नेत्रों से दी गई विदाई मुझे हमेशा याद रहती है। एक बार जब मैं घर गई तो पता चला, अब वह बिस्तर पर पड़ी है, चल फिर नहीं सकती तो मैं उसके घर उससे मिलने चली गई और साथ में कुछ जरूरी सामान भी उसके लिये ले गई। मैं जितनी देर तक उसके पास बैठी, वह रोती रही और मुझे जी भर कर दुआएं देती रही। इस तरह के विपरीत हालातों में एक अनपढ़ महिला अपने दम पर अपना इतना वर्चस्व बना लेती है कि पूरे गांव के सवर्णां की वह एक आवश्यकता बन जाती है। किसी की भी हिम्मत नहीं होती थी उससे दुव्र्यवहार करने की। इतनी इज्जत उसने अपने व्यवहार से कमाई थी। अंत में भी वह परिवार व गांव के लोगों का भरपूर प्यार व सम्मान प्राप्त कर विदा हुई।
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