चुप्पी के सवाल

ऋचा सिंह

जेठ की तपती दुपहरिया में पसीने से तरबतर लोगों को मानसून के पहले झोंके ने राहत और सुकून दिया है। प्रदेश में हुयी इस पहली बारिश ने गेहूं के फसल की बर्बादी झेल रहे किसानों में अगली फसल के लिए फिर एक उम्मीद जगायी है। ढेरों लोगों में उम्मीद जगाने वाले, इस मानसून ने शारदा और घाघरा जैसी कटान करने वाली नदियों के किनारे रहने वाले गांववासियों के माथे पर शिकन की गहरी लकीरें भी डाल दी हैं। कितने घर कटे, कितनी जमीन कटी जैसी खबरे अखबार में आने लगी हैं। मौका-मुआयना करते अधिकारियों की फोटो भी छपने लगी हैं।

फिर वही …… । हर साल वही सब़……. बार-बार वही सब़ ….।

सीतापुर में शारदा और घाघरा नदी के किनारे बसे लोगों के लिए मानसून आने का मतलब गरमी से राहत या फसल की बुआई नहीं बल्कि कुछ और होता है। मानसून यानी बारिश यानी नेपाल द्वारा छोड़े जाने वाले अथाह पानी से शारदा और घाघरा नदियों द्वारा होने वाली कटान और बाढ़। नदियों के किनारे बसे किसी भी क्षेत्र में जाये, यह आवाज साफ सुनायी देती है कि बाढ़ तो झेल लेते हैं लेकिन यह कटान? यह तो हमारा अस्तित्व ही खत्म कर देती है। बेघर होकर, सड़कों के किनारे पॉलीथीन तानकर जीवन कितना डरावना? कितना खौफनाक होता है? इसका अहसास ही लोगों को कंपकंपा देता है।

जुलाई 2014 को मैं सीतापुर में शारदा नदी के किनारे बसे एक गांव काशीपुर में थी। सीतापुर के ब्लॉक रेउसा में अगल-बगल बसे काशीपुर और मल्लापुर दोनों ही ग्राम पंचायतों के गांवों में शारदा नदी से कटने और बसने का पुराना इतिहास है। मल्लापुर गांव कभी स्टेट हुआ करता था। पहली बार 1952 में राजा की कोठी कटी थी। तब जमीन की कमी नहीं थी। लोग नदी से दूर आकर फिर बस गये। जिन्दगी चलती रही। सन् 2000 के बाद से नदी रौद्र रूप धारण किये हुए है। एक या दो बार नहीं बल्कि आठ या दस बार कटे क्षेत्र के लोग क्षेत्र में बड़ी संख्या में मिल जायेंगे। ढेरों लोग पलायन कर गये हैं। लोग कहते हैं कि देश का कोई शहर नहीं होगा जहां यहां के लोग मजदूरी करते नहीं मिल जायेंगे। लेकिन अभी भी बड़ी संख्या में लोग गांवों में हैं। रोजी-रोटी कमाने की मजबूरी, नदी के उस पार भी लोगों को बसाये हुए है। जब नेपाल से पानी छूटता है तो लोग अपनी टूटी-फूटी गृहस्थी उठाकर नदी के इस पार सड़कों पर आ जाते हैं। कई बार जिला प्रशासन पानी छूटने की सूचना देता है तो कई बार नहीं देता है।

silence questions

एक दिन सुबह गांव के लोग जब नदी किनारे अपनी दिनचर्या के अनुसार पहुंचे तो नदी में पानी बढ़ता हुआ दिखाई दिया। पानी बढ़ रहा है, का शोर उठा। कुछ बढ़ते पानी को देखने नदी की ओर दौड़े तो कुछ कटान और बाढ को देखकर अपना-अपना सामान सुरक्षित ठिकानों पर पहुंचाने की ओर चल दिये। दोपहर होते-होते शारदा की उफनती धारा में हिचकोले लेते नावों में बैठे लोग सुरक्षित स्थान की तलाश में इस पार आने लगे। अंधेरा होने से पहले काशीपुर में बाजार की सड़क के दोनों ओर पल्लियां तन गयीं। यह कोई नयी बात नहीं है। सीतापुर में शारदा और घाघरा नदी के इस पार और उस पार किनारे बसे लोगों की जिन्दगियों में ऐसे मौके आश्चर्यचकित करने वाली घटनाएं नई नहीं हैं। सीतापुर के ब्लॉक रेउसा, लहरपुर, रामपुर मथुरा में ऐसे ढेरो गांव हैं, जहां हर साल बाढ़ आती है, नदियां किनारों को काटती हैं। हर साल न जाने कितने लोग बेघर होकर सड़क किनारे जिन्दगी जीने को मजबूर हो जाते हैं। नदी सिर्फ जमीन और खेतों को नहीं काटती है, बूढे़ बाबा परमेश्वर कहते हैं कि इस कटान में हमारी जमीनें नहीं बल्कि हमारी जिन्दगियां कट जाती हैं। हर साल यह सब होता है, हर साल सड़क के किनारे पॉलीथिन की बनी झोपड़ियों की संख्या बढ़ जाती है।

क्या यह अन्दाजा लगाया जा सकता है कि कटे हुए लोगों की सड़क किनारे बनी झोपड़ियों में बरस दर बरस महिलाओं की जिन्दगी किस तरह चल रही है? जब बाढ़ आती है तो वह शौच के लिए कहाँ जातीं होंगी? पेशाब के लिए कहाँ जातीं होगी? वह कहाँ स्नान करतीं होंगी? पति के साथ उनके रिश्ते कैसे चल रहे होंगे? नयी बहू अपने नवजात शिशु को कहाँ बैठकर दूध पिलाती होंगी? सब कुछ सड़क पर है या घासफूस से बनी नाममात्र की छतों और पुरानी धोती या पॉलीथिन से बने परदों के पीछे। सब कुछ सार्वजनिक, कुछ भी व्यक्तिगत नहीं और इन सबका उनके दिल-दिमाग पर क्या असर होता होगा?

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इन्हीं में से लगभग 20-22 साल की एक बहू थी। वह गर्भवती थी। पता चला आठवां महीना चल रहा है। अब कहाँ जाओगी? पूछने पर, उसकी सास बोली- क्या करें मजबूरी है, कल इसको इसके मायके पहुँचा देंगे। मैंने बहू से पूछा- कुछ खाया है? वह बोली- हाँ, अभी पूड़ी का पैकेट मिला? रात के लगभग 8 बज रहे थे। मेरे मुंह से निकल पड़ा- और सुबह से क्या खाया था? वह चुप रही? क्या इस चुप्पी का कोई जवाब है?

इसी दौर में ऐसी ही एक झोपड़ी में, मैं दो महिलाओं से मिली। दोनो देवरानी-जेठानी थी और दोनो ही उस समय गर्भवती थीं। उनसे बातचीत में पता चला था कि नवां महीना चल रहा है, किसी दिन भी डिलीवरी हो सकती है। लगभग 15 दिन बाद मैंने गांव के एक साथी से पूछा कि उन दोनों महिलाओं के क्या हाल है? पता चला बच्चा जनते समय दोनों की मौत हो गयी। सवाल यह है कि यह दो महिलाएं या ऐसी ही अन्य क्या सिर्फ सुरक्षित प्रसव या चन्द आयरन की गोलियों से बच पायेंगी? नहीं, अगर हम इन महिलाओं को बचाना चाहते हैं तो समाज के अन्य कठिन मुद्दों को सुलझाये बिना यह कहाँ सम्भव है? और इन कठिन परीस्थितियों में रहने वाली तमाम बहनों को भी यह सोचना और समझना होगा कि तार-तार होती अपनी जिन्दगी से उपजे सवालों को वह कब तक अपने अन्दर जज्ब करती रहेंगी। क्योंकि यह चुप्पी हमें कुछ नहीं देगी। अपनी व्यक्तिगत जिन्दगी को नंगा होने से बचाने के लिए अपने कठिन सवालों को सार्वजनिक करना ही होगा, तभी हमारे पैसों के बलबूते बेहतरीन सार्वजनिक जीवन जीने वाले हमारे नीति-नियन्ताओं की नजरों में हमारी जिन्दगियों का मान बढ़ेगा।

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