शाहीनबाग: महिलाओं के लिए आंदोलन, आजादी, चेतना और भरोसे की नई जमीन

Shaheen Bagh Article by Naveen Joshi
फोटो: आज तक से साभार

-नवीन जोशी

मार्च 2020 के पहले सप्ताह में इन पंक्तियों को लिखे जाते वक्त साम्प्रदायिक दंगों से दहली दिल्ली ऊपरी तौर पर सामान्य होने लगी है। ऊपरी तौर पर इसलिए क्योंकि बहुलतावादी भारतीय समाज और शांति प्रिय जनता, विशेष रूप से मुसलमानों के तन-मन को जो घाव इन दंगों ने दिए हैं, उन्हें शायद ही भरा जा सके। जैसे 1984 के कत्ले आम के घाव नहीं भरे जा सके हैं, जैसे 1992-93 के मुम्बई और 2002 के गुजरात नरसंहार के घाव नहीं भरे जा सकेंगे, वैसे ही 2020 की भयानक मार-काट आने वाली कई पीढ़ियों के मन में टीसती रहेगी। जो व्यक्ति मारे गए उनके परिवारी जनों, जो सैकड़ों घायल हुए, जो वहशी भीड़ से किसी तरह बच गए, जिनके घर और दुकानें जला दिए गए, उन्हें यह एक भयावह दु:स्वप्न की तरह हर-हमेशा सताता रहेगा।
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क्यों हुआ यह दंगा? प्रकट रूप में सीएए (नागरिकता संशोधन कानून) विरोधियों और समर्थकों के बीच टकराव हिंसा में बदल गया। फिर दिल्ली के कई इलाकों में हिंसा फैलती चली गई। अप्रकट रूप में इसके पीछे की भयानक साजिश को देखना-समझना मुश्किल नहीं है। इसकी शुरूआत सीएए-एनआरसी के व्यापक होते विरोध के साथ ही हो चुकी थी, जिसका देशव्यापी अभिनव प्रतीक ‘शाहीनबाग’ बना हुआ है। असहमति और शान्तिपूर्ण लोकतांत्रिक विरोध-प्रदर्शन को भी बर्दाश्त नहीं करने वाली मोदी सरकार की पुलिस ने पहले 15 दिसम्बर 2019 को जामिया विश्वविद्यालय के प्रदर्शनकारी छात्र-छात्राओं को ‘सबक’ सिखाया। उसके पुस्तकालय तक घुस कर पुलिस ने युवाओं की पिटाई और तोड़फोड़ की़ फिर जेएनयू में बर्बर दमन हुआ। छात्र-छात्राओं और प्रोफेसरों तक को पीटा गया। इस बार पुलिस संरक्षण में लाठी और लोहे की रौड से लैस गुण्डों की भीड़ भी थी जो ‘जयश्री राम’ और ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को’ जैसे नारे लगा रही थी।

सीएएविरोधियों का विरोध और दंगों की साजिश

सीएए-एनआरसी का विरोध देशव्यापी होता जा रहा था। सरकारी दमन उसे चुप कराने की बजाय और तीव्र बना रहा था। 19 दिसम्बर को सीएए और सरकारी दमन के विरोध में देशव्यापी प्रदर्शन हुए। उस दिन भाजपा शासित राज्यों, खासकर उत्तर प्रदेश में बहुत हिंसा और आगजनी हुई। लखनऊ समेत कई शहरों-नगरों के मुस्लिम-बहुल इलाकों में पुलिस और गुण्डों ने मिलकर निरीह जनता को पीटा, घरों में घुसकर तोड़फोड़ की और लोगों को फर्जी मुकदमों (ज्यादातर मुकदमे बाद में अदालत से खारिज हो गए क्योंकि पुलिस के पास सबूत थे ही नहीं) में जेल में डाल दिया़ उत्तर प्रदेश में उस दिन बीस लोग मारे गए थे। यह सीधे-सीधे उन तमाम लोगों को डराने के लिए किया गया जो सीएए-एनआरसी का विरोध कर रहे थे। लेकिन लोग डरे नहीं, बल्कि सीएए-एनआरसी के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन बढ़ते गए।

एक तरफ भाजपा सरकार इन प्रदर्शनकारियों का दमन कर रही थी, दूसरी तरफ इन प्रदर्शनों को मुसलमानों द्वारा आयोजित विरोध प्रचारित करके हिंदू-ध्रुवीकरण में लगी थी क्योंकि आठ फरवरी को दिल्ली विधान सभा के लिए मतदान होना था। अनुराग ठाकुर, कपिल मिश्रा और परवेश वर्मा जैसे भाजपा के मंत्री और नेता शाहीनबाग के प्रदर्शनकारियों के बारे में अमर्यादित और अनर्गल प्रचार कर रहे थे। अनुराग ठाकुर ने अपनी चुनाव सभा में स्वयं ‘देश के गद्दारों को़.़’ कहकर ‘गोली मारों सालों को’ नारे लगवाए तो परवेश वर्मा ने दिल्ली के हिंदुओं को लक्ष्य करके यह तक कहा कि ‘शाहीनबाग में बैठे लोग आपके घरों में घुसेंगे, आपकी बहनों-बेटियों से बलात्कार करेंगे और उन्हें मार डालेंगे, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी दिल्ली की चुनावी सभा में घोषणा कर आए कि ‘ये लोग बोली से नहीं तो गोली से मानेंगे।’ प्रधानमंत्री मोदी भी पीछे नहीं रहे। उन्होंने शाहीनबाग को ‘तिरंगे और संविधान की आड़ लेकर देश को तोड़ने का प्रयोग’ बता डाला। कुल मिलाकर भाजपा शाहीनबाग को ‘देशद्रोही मुसलमानों’ एवं ‘अर्बन नक्सलियों’ से जोड़कर और इससे हिंदुओं को उकसाकर दिल्ली का चुनाव जीतना चाहती थी़ उनकी मंशा पूरी नहीं हुई। दिल्ली में ‘आप’ भारी बहुमत से जीत गई।

जबर्दस्त ताकत झोंकने और हिंदू-ध्रुवीकरण की सभी कोशिशों के बावजूद चुनाव में बुरी तरह हारने से भाजपा का खिसियाना स्वाभाविक था। शाहीनबाग अब उनकी आंखों में और भी खटकने लगा था। और, शाहीनबाग अकेला नहीं था। वह देश भर में फैल चुका था। दिल्ली में ही जाफराबाद और चांदबाग में भी नियमित धरना-प्रदर्शन शुरू हो गए थे। कपिल मिश्रा ने खुलेआम पुलिस को चेतावनी दे दी थी कि ‘प्रदर्शनकारियों को तीन दिन में खदेड़ों वर्ना हम खुद सड़कों पर उतरेंगे। ट्रम्प के दौरे तक (अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प 24-25 फरवरी को भारत में थे) तो हम चुप हैं। उनके जाने के बाद हमें कोई रोक नहीं पाएगा।’

लेकिन उपद्रवियों ने ट्रम्प के वापस जाने का भी इंतजार नहीं किया। कपिल मिश्रा की धमकी अमल में ला दी गई। सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के विरोध के बहाने मुसलमानों पर हमले शुरू हो गए। फिर मामला एकतरफा नहीं रहा। दूसरी तरफ से भी जवाबी हमले हुए। ऐसा लगता था कि दोनों पक्ष मार-काट के लिए तैयार थे। बाद में पता चला कि मार-काट करने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आए थे। यह साजिश का स्पष्ट संकेत है। स्थानीय जनता इस मारकाट में शामिल नहीं थी। बल्कि, भयानक मार-काट और आगजनी के बीच स्थानीय जनता ने एक-दूसरे की बहुत मदद की और अपनी जान पर खेलकर पड़ोसियों को बचाया।

फिलहाल दिल्ली शांत हो गई है। सामान्य जन-जीवन पटरी पर लौट आया है। दिल्ली समेत देश भर में बन गए कई-कई शाहीनबागों के शांतिपूर्ण प्रदर्शन अपनी जगह कायम हैं।
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एकएक कर बने सैकड़ों शाहीनबाग

वह 14 दिसम्बर 2019 की दोपहर थी। दिल्ली के शाहीनबाग इलाके के पास कालिंदी कुंज हाई-वे की एक सड़क पर कोई 10-15 महिलाएं आ बैठीं। उनके हाथों में सीएए-एनआरसी विरोधी नारे लिखी तख्तियां थीं। कुछ के हाथों में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा था तो कुछ ने संविधान की प्रस्तावना की प्रतियां पकड़ रखी थीं। वे बिल्कुल चुपचाप आईं और सड़क पर बैठ गईं। कोई नारे नहीं, कोई हंगामा नहीं। उनके बैठने से यातायात थोड़ा प्रभावित हुआ लेकिन चूंकि छह लेन की चौड़ी सड़क थी, इसलिए ट्रैफिक चलता रहा। शाम तक और महिलाएं आ गईं। खबर फैलने के साथ महिलाओं की संख्या बढ़ने लगी। यह धरना मीडिया की र्सुिखयां बना तो और महिलाओं के जत्थे पर जत्थे आ गए। देखने वालों का मजमा भी जुटने लगा।

अगले दिन जामिया में सीएए-एनआरसी का विरोध कर रहे छात्र-छात्राओं पर पुलिस के बर्बर दमन से उपजी प्रतिक्रिया में शाहीनबाग में महिलाओं का शांतिपूर्ण प्रदर्शन दो-तीन गुणा बड़ा हो गया। पूरी सड़क बंद हो गई। पुलिस के समझाने-डराने का उन पर कोई असर नहीं पड़ा। पुलिस ने उन्हें खदेड़ने की कोशिश की तो वे खड़े होकर राष्ट्रगान गाने लगीं। संविधान की प्रस्तावना का जोर-जोर से पाठ करने लगीं़ पुलिस देखती रह गई। महिलाओं ने कहा कि हमारा धरना अनिश्चितकालीन है। जब तक सरकार सीएए वापस नहीं लेती और एनआरसी लागू नहीं करने की सार्वजनिक घोषणा नहीं करती तब तक हम यहीं बैठे रहेंगे। सचमुच, कड़ाके की सर्दी में वे रात भर बैठी रहीं। उन रातों को दिल्ली का तापमान दो-तीन डिग्री सेण्टीग्रेट तक नीचे जा रहा था। यह रिकर्ड सर्दी उनके हौसले नहीं डिगा सकी।

प्रदर्शनकारियों के समर्थक और मददगार भी जुटने लगे। वे खाने-पीने की चीजें लाने लगे़ दवाइयां और ओढ़ने-बिछाने का सामान भी। ‘सिर्फ जरूरत का सामान लाइए, प्लीज। और कुछ नहीं’- उन्होंने कहा, पुरुषों को उन्होंने अपने घेरे में शामिल नहीं होने दिया। रस्सियों से अपने लिए एक बाड़ा बना लिया। पुरुष उस बाड़े के बाहर जमा हो सकते हैं। उस बाड़े में कोई अराजक तत्व न घुस आए, कोई राजनैतिक पार्टी या मुल्ला-मौलवी अपनी राजनैतिक गोटियां न बिछाने लगे, इसके लिए चौकसी शुरू कर दी। कई  युवतियां इस ड्यूटी में लग गईं। धरने को सुनियोजित और शांतिपूर्ण ढंग से चलाने, खान-पान और दूसरे व्यवस्थाएं करने को कमेटियां बन गईं़ देखते-देखते शाहीनबाग में महिलाओं का धरना सीएए-एनसीआर के प्रतिरोध का अनोखा मॉडल बन गया।

हां, यह बिल्कुल नया और अनोखा प्रतिरोध है। यह महिलाओं का अभिनव सत्याग्रह है। ये घर-गृहस्थी, चूल्हे-चौके, बच्चों की परवरिश और मर्दों की खिदमत में लगी रहने वाली आम महिलाएं हैं। दफ्तरों में काम करने या स्कूल में पढ़ाने वाली महिलाएं, छात्राएं, घर-घर काम-काज कर रोजी-रोटी कमाने वाली स्त्रियां। 75 साल की इशरत जहां, 80 साल की रब्बो से लेकर प्रौढ़ाएं, युवतियां, किशोरियां़ बच्चे भी हैं मांओं के साथ, गोद में और नीचे खेलते हुए भी। उनमें एक्टिविस्ट महिलाएं भी हैं लेकिन उनसे अधिक उत्साही आंदोलनकारी वे बनी हुई हैं जिन्होंने कभी नारा नहीं लगाया। वे बुर्के में हैं और बिना बुर्के के भी। वे दुपट्टे में हैं और बिना दुपट्टे के भी़ मजाज की शायराना ललकार को उन्होंने सच कर दिया है- ‘तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खूब है लेकिन, तू इस आंचल को परचम बना लेती तो अच्छा था।’

ये सिर्फ मुस्लिम महिलाएं नहीं हैं। हर वर्ग की महिलाएं हैं, जो भी सीएए और एनआरसी को इस देश के संविधान के साथ खिलवाड़ मानती हैं। ‘मैं एक हिंदू हूँ और सीएए का विरोध करती हूं’- ऐसे नारे लिखी तख्तियां हाथों में लिए लड़कियां भी वहां बहुत हैं। मुस्लिम महिलाओं की संख्या स्वाभाविक रूप से अधिक है जो समझ रही हैं कि मुस्लिम पहचान के साथ इस देश में सम्मान के साथ रहना मुश्किल बनाया जा रहा है। उन्हें पूरा भारतीय होने का सम्मान चाहिए, दोयम दर्जा नहीं।
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शाहीनबाग का अभिनव प्रतिरोध बहुत शीघ्र देश-दुनिया के मीडिया की सुर्खियां बन गया। उससे प्रेरित होकर देश के विभिन्न राज्यों के कई-कई शहरों में महिलाओं के ऐसे अनिश्चितकालीन धरने शुरू हो गए जिनका नेतृत्व पूरी तरह महिलाओं के हाथ में है। मुम्बई, कोलकाता, बंगलूरु, अहमदाबाद, बिहारशरीफ, लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, आदि-आदि़ शहर-दर-शहर नए-नए शाहीनबाग बन गए। बनते चले गए़ प्रतीकात्मक एक दिनी धरने और प्रदर्शन तो बहुतेरे हुए। दिल्ली के शाहीनबाग में हुई महिलाओं की स्वत:स्फूर्त जुटान ने देश के अनेक शहरों-कस्बों में महिलाओं को संकोच और भय से मुक्त होकर सीएए-एनआरसी के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने का साहस दिया। एक लौ से दूसरी लौ के जलने की तरह। फरवरी 2020 में एक वेबसाइट ने करीब साढ़े चार सौ छोटे-बड़े शाहीनबाग गिने थे।

कई जगह पुलिस ने धरने जबरन खत्म कराए, कभी प्रदर्शनकारियों पर पानी की बैछार करके तो कभी लाठियां भांज कर। बनारस, इटावा, रायबरेली और इलाहाबद में महिलाओं पर लाठी चला दी तो बहराइच में उस मैदान में पानी भर दिया जहां वे बैठी थीं। कानपुर में उनका शामियाना उखाड़ दिया। ऐसा कई नगरों-कस्बों में किया गया लेकिन कई जगह महिलाएं डटीं तो डटीं रहीं। लखनऊ के ऐतिहासिक घण्टाघर में 17 जनवरी से शुरू हुआ अनिश्चितकालीन धरना आज भी जारी है। उसे खत्म करने के लिए पुलिस ने हर साजिश की। पूस की ठण्डी रातों में उनके कम्बल पुलिस छीन ले गई, तापने के लिए जलाई आग पर पानी डाल दिया और घंटाघर के महिला शौचालय पर ताला लगा दिया। सौ से ज्यादा महिलाओं के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है। कुछ को गिरफ्तार भी किया है। मगर प्रदर्शनकारियों की संख्या बढ़ती ही गई़ बल्कि, घंटाघर के अलावा गोमती नगर के गंज शहीदा कब्रिस्तान के पास दरगाह में भी बेमियादी धरना शुरू हो गया़ वह  भी आज तक दिन-रात चल रहा है।      

कोई नेता नहीं, पार्टी नहीं, लालहरे झण्डे नहीं

सबसे खास बात यह कि इन शाहीनबागों का कोई नेता, कोई पार्टी और कोई झण्डा नहीं है। जो भी नेतृत्व है या कह लीजिए व्यवस्था है, वह महिलाओं के हाथ में है़ वे यत्नपूर्वक यह सुनिश्चित कर रही हैं कि कोई राजनैतिक दल या नेता या संगठन नेतृत्व हथियाने या उसमें अपना एजेण्डा शामिल करने न पाए़ समर्थन देने आए पुरुषों ही नहीं, अनजान महिलाओं को भी शंका से देखा जा रहा है। कुछ शाहीनबागों में संदिग्ध महिलाएं पकड़ी भी गईं। इसी तरह हिंसा या गड़बड़ करने की नीयत से आने वालों पर भी नजर रखी जा रही है। इसी सतर्कता का परिणाम है कि दिल्ली के शाहीनबाग और लखनऊ में पिस्टल लेकर आए और गोली चलाने वाले को पकड़ा गया।
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चूंकि सीएए और एनआरसी की मार सबसे ज्यादा मुसलमानों पर पड़नी है या कहें कि सीएए मुसलमानों के साथ अन्याय करता है, इसलिए स्वाभाविक है कि इन प्रदर्शनों में मुस्लिम महिलाओं की संख्या बहुतायत में है लेकिन उन्होंने मुस्लिम संगठनों और राजनैतिक दलों को इससे दूर ही रखा है़ अगर वहां हरे झण्डे होते या मुल्ला-मौलवियों या ओवैसियों की चलती तो भाजपा और संघ परिवार उन्हें बहुत आसानी से पाकिस्तानी, देशद्रोही और आतंकवादी बता देता़ लेकिन महिलाओं ने ऐसी कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी है। इसके बावजूद भाजपा और संघ परिवार के नेता उन्हें पाकिस्तान परस्त, देशद्रोहियों की मुफ्त बिरयानी खाने वाली और पांच-पांच सौ रु में धरने पर बैठने वाली बताते रहे हैं।

तमाम उत्तेजना और भड़काऊ बयानों के बावजूद शाहीनबाग की महिलाओं ने संविधान और तिरंगे को सर्वोपरि रखा है। वहां हरे-नीले-लाल झण्डे नहीं हैं वहां सिर्फ तिरंगा लहरा रहा है। राष्ट्रगान गूंज रहा है पुलिस आगे बढ़ती है तो महिलाएं ‘जन-गण-मन’ गाने लगती हैं। पुलिस वालों को फूल देने लगती हैं। वे संविधान की प्रस्तावना का पाठ करते हुए संविधान बचाने की गुहार लगा रही हैं। ‘इंकलाब जिंदाबाद’ भी कह रही हैं और ऐलान कर रही हैं कि ‘हम पेपर नहीं दिखाएंगे।’

यह देखना अत्यंत सुखद है कि इन प्रदर्शनों में जनता, विशेष रूप से युवा पीढ़ी अपने संविधान की दुहाई दे रही है, उसकी प्रस्तावना का पाठ कर रही है। उनके हाथों में संविधान बचाने की अपील करते पोस्टर हैं। याद नहीं पड़ता कि इससे पहले कभी अपने संविधान और उसकी मूल भावना को आंदोलनकारियों ने इस तरह अपनी ताकत बनाया हो।

महिलाओं के लिए खुली बड़ी खिड़की

एक और खूबसूरत बात यह हुई है कि घर-परिवार और पुरुषों की खिदमत में लगी महिलाओं को एक नई आजादी और आत्मविश्वास इन शाहीनबागों ने दिए हैं। जैसा कि दिल्ली की फिरदौस शफीक नाम की युवती ने बीबीसी सम्वाददाता को बताया, वह घर के पास वाले बाजार तक भी कभी किसी पुरुष को साथ लिए बिना नहीं गई थी। अब वह अकेली घर से निकल कर शाहीनबाग के धरने में बैठती है और रात भर भी वहां तैनात रहती है। उसे घर से अकेले निकलने और हिजाब हटाकर अपनी बात कहने का भरोसा मिला है।

ऐसा अकेले फिरदौस के साथ नहीं हुआ है। लखनऊ की कौसर जहां हो या कानपुर की निगार सुल्ताना, या उन जैसी कई और सैकड़ों-हजारों महिलाएं, उन्हें चूल्हे-चौके की फिक्र किए बिना सीएए विरोधी प्रदर्शनों में शामिल होने की स्वतंत्रता मिली है। परिवार के पुरुषों ने उन्हें न केवल धरने पर जाने दिया है, बल्कि घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी पहली बार अपने कंधों पर लेना मंजूर किया है। कई परिवारों में पुरुष बच्चों की देखभाल कर रहे हैं और खाना पकाकर धरनास्थल तक पहुंचा रहे हैं। कई महिलाएं छोटे-छोटे बच्चों को लेकर दिन-रात धरने पर बैठ रही हैं। समाज के विभिन्न तबकों और स्वैच्छिक संगठनों ने अपने समर्थन के तौर पर धरना स्थलों पर ही बच्चों को पढ़ाने, खेल कराने और दूसरे रचनात्मक कार्यों में व्यस्त रखने की व्यवस्था की है। लखनऊ के घण्टाघर में एक अस्थाई बाल-पुस्तकालय खुल गया है। वहां नुक्कड़ नाटक खेलना और रंगोलियां बनाना भी सिखाया जा रहा है।

दिल्ली के शाहीनबाग में ठण्ड लग जाने से चार मास के एक बच्चे की मौत पर और उसके पहले भी प्रदर्शनकारियों की निंदा में यह तर्क दिया जाता रहा है कि प्रदर्शन में बच्चों तक का इस्तेमाल किया जा रहा है। यह कुतर्क करने वाले यह नहीं सोचते कि आखिर कोई आंदोलनकारी महिला अपने छोटे बच्चों को कहां छोड़कर आए? मां के साथ छोटे बच्चों का धरने पर आना वैसा ही सहज है जैसा कि एक मजदूर मां का अपने बच्चों को लेकर ईट-गारा ढोना। यह क्रूर है तो इसकी जिम्मेदार मां नहीं, यह व्यवस्था है।
(Shaheen Bagh Article by Naveen Joshi)

बहरहाल, बात शाहीनबाग के बहाने महिलाओं को मिली नई आजादी की हो रही थी। इन अनिश्चितकालीन धरना-प्रदर्शनों ने महिलाओं को, विशेष रूप से पर्दे और बंदिशों में कैद मुस्लिम महिलाओं को नए आत्मविश्वास और स्वतंत्रता का अहसास कराया है। पहली बार उन्हें राजनैतिक मुद्दों पर अपनी आवाज खुलकर उठाने का अवसर मिला है। सीएए-एनआरसी के बारे में उनमें से कई को पता नहीं रहा होगा लेकिन अब इसके अलावा अन्य मुद्दों पर भी उनकी राजनैतिक समझ बनी है। तीन तलाक को खत्म करने का कानून बनाकर मुस्लिम महिलाओं की हितैषी बनने का दावा करने वाली मोदी सरकार का असली चेहरा भी अब वे देख पा रही हैं। कई महिलाओं की नेतृत्व क्षमता इसी बहाने सामने आई है। पुरुषों ने उनकी हिम्मत की दाद दी है़ सीएए का क्या होता है, यह भविष्य बताएगा लेकिन बहुत सारी महिलाओं के जीवन में राजनैतिक समझ, आजादी और भरोसे की एक नई खिड़की खुल गई है।

मोदी सरकार के लिए बड़ी चुनौती               

सीएए-एनआरसी के विरुद्घ सतत आंदोलन की यह नई शांतिपूर्ण, संवैधानिक और लोकतांत्रिक रणनीति मोदी सरकार के लिए बड़ी चुनौती बनी हुई है। विपक्ष की निरन्तर कमजोर होती आवाज के लिए भी यह बड़ा सम्बल बना है। भाजपा सरकार के कतिपय समर्थक दलों और एनडीए के कुछ घटक दल भी पैंतरा बदलने को मजबूर हुए हैं। महिलाओं के इस अभिनव सत्याग्रह ने आश्वस्त किया है कि असहमति और लोकतांत्रिक प्रतिरोध को कुचलने के मोदी सरकार के प्रयासों और समाज के साम्प्रदायिक विभाजन के उसके कुचक्रों के खिलाफ समाज अपनी पूरी क्षमता से लड़ता रहेगा।
(Shaheen Bagh Article by Naveen Joshi)

एक उल्लेखनीय बात यह भी है कि ये प्रदर्शन पिछले कुछ समय से अलग-थलग पड़ते मुस्लिम समुदाय के साथ देश की मुख्य धारा के खड़े होने का अच्छा अवसर लेकर आए हैं। इसकी बहुत जरूरत थी़ मोदी सरकार के साढ़े पांच साल के कार्यकाल में मुसलमान अपने को उपेक्षित और लगातार हाशिए की तरफ धकेला जाता महसूस करते आए हैं़ उसकी देशभक्ति पर बार-बार सवाल उठाए गए हैं। उसे बहुत आसानी से पाकिस्तान परस्त और आतंकवादी करार दिया जाता है।

सरकार के किसी भी फैसले के विरोध में उसकी आवाज राष्ट्रद्रोह बता दी जाती है। शाहीनबागों के प्रदर्शनों ने उसे संविधान और देश के बहुलतावाद के पक्ष में खुलकर सामने आने का मौका दिया है। उनका भय खत्म हुआ है। उसे ताकत और व्यापक समर्थन हासिल हुए हैं। फिलहाल दिल्ली के दुर्भाग्यपूर्ण दंगों और 45 लोगों की मौत के बावजूद सीएए-एनआरसी के विरुद्घ महिलाओं का मनोबल मजबूत है, उनका सत्याग्रह ससंकल्प जारी है।
(Shaheen Bagh Article by Naveen Joshi)

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